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और मान-सम है, मरदी गरमी व सुख-दुःख में सम है, सर्व आसक्तियोंसे छूटा हुआ है, जो निन्दा स्तुतिमें समान, मननशील एवं जिस तिस तरह भी संतुष्ट है और स्थानादिकी ममता से रहित स्थिर बुद्धिवाला है, ऐसा भक्तिमान पुरुष मुक्कों, प्यारा है ।
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परन्तु यहाँ तो इसके विपरीत जोकके समान अपने स्वार्थ के लिये दूसरोंका रक्त चूसना है, अपने स्वार्थके' लिये दूसरों को पाँव तले कुचलना है और दूसरोंको पीछे धकेलकर श्रागे चढ़ना है ।
'मी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये '
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अर्थात् वे ये राक्षम मनुष्य है जो अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके हितको नाश करते हैं । 'परन्तु स्मरण रहे प्रकृतिका यह अटल नियम है कि क्रियाकी प्रतिक्रियां तो फलं दिये बिना, कभी नष्ट हो ही नहीं सकती। जैसे भित्तिपर फेंककर मारा हुआ गैंद उलटकर मारनेवाले की ओर ही' आता है, ठीक इसी प्रकार रक्त घूसना तो रक्त चुसाये बिना, कुचलना तो कुचले जाने विना, धक्का देना तो धक्का खाये बिना पीछा कब 'छोड़ता है ? इन्द्रपुत्र जयन्तने भगवान् रामचन्द्रके प्रभावकी परीक्षाके लिये वनवास के समय सीताके 'चरणोंमे कांकरूप धारणकर चोंच मारी, जिससे कोमलाङ्गी - सीता के चरणोंसे रुधिरका प्रवाह चल पड़ा। भगवान् रामचन्द्रने उसके पीछे एक तृणका त्राण छोड़ा | चासे भयभीत होकर जयन्त दौड़ा, भगवान्के द्वारा फैंका हुआ वाएँ भी उसके पीछे चला । जयन्त "क्या श्रीकाश, क्या प्राताल, चौदह भुवनमे व्याकुल होकर घूम श्राया परन्तु उस बाणसे किसीने उसको अपनी शरणमें न लिया, पिता भी शरणमे न ले सका । अन्ततः वह लौटकर स्वयं भगवान्
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[ साधारण धर्म
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