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[ साधारण धर्म परहितहानि लाभ जिन्हें केरे । उजरे हर्ष विषा, बसेरे ॥ हरिहर जस राकेस राहुसे । पर अकाज भट सहसवाहुसे।। जे परदोष लखेहि सहसोखो पिरहित घृत जिनके मनमाखी॥ तेज कृसानु रोपं महिपेसीं । अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥ उदयकेतुं समाहितं सेव हों के कुम्भकरन सम सोवत नीके ।। • पर अकाज लगि तनु परिहरहीं।जिमि हिम उपल कृषि दल गरहीं। गबंदउँ खल जैस सेष सरोषा' । सहस बदनं वरनइ परदोषा ॥
' 'अर्थ:-दूसरोंके हितकी हानि ही. जिचके लिये -लाभ है, दूसरोंके उजड़नेमे जिनको हर्ष और वसनेमे खेद है। विष्णु व शिवके यशरूपी पूर्णमासीके चन्द्रमाको पास करनेके लिये जी राहुके तुल्य हैं और दूसरोंका अकाज करने के लिये जो सहस्रवाह के समान बलवान् योधा है.। जो अपना दोष न देख-दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे,देखते हैं और दूसरों के हितरूप निर्मल घृतको अपवित्र करनेके लिये जिनके मन मक्खीके तुल्य हैं जोकि आप नष्ट होकर भी घृतको मलिन कर देती है। जिनका तेज अग्नि तुल्य हैं जोकि सबको भस्म कर देती है, क्रोध जिनका महिषासुरके तुल्य है तथा पाप व अवगुणरूपी धनके जो कुंवरके, समान भण्डोरी हैं। जो सबके हितको नष्ट करने के लिये उदयकेतु. तारके समान हैं, उनका तो कुम्भकरणके समान सोना ही मला.. है। जो दूसरोंका अकार्ज करने के लिये अपना शरीर भी त्यागकर... देते हैं, जिस प्रकार बर्फे व ओला औप गलकर भी कृषिको गला , देते हैं । अन्तमे श्रीगोस्वामीजी कहते हैं कि मैं तो सरोप, शेषजी ... के समान इनकों वन्दना ही करता हूं, क्योंकि जैसे शेतजी इजार ., जिहास भगवानकी गुणगान करते हैं, वैसेही यह भी हजार जिल्हा : से पराये दोषोंका वर्णन करते हैं, हजार जिह्वाकी समानताके
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