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श्रामविलाम]
[८० मिर झुकाकर सलाम कर लेता है-'हुजरके वोलवाले रहे, खादिमको कैसे याद फरमाया गया ? खादिम हर तरह खिदमतके लिये हाजिर है। जब इच्छा निवृत्त होती है, तव इच्छा निवृत्ति कालम अहकार भी लय हो जाता है, जैसे वायुके निस्पंदकालमे सौम्यजलमे तरङ्ग लय हो जाता है और तय माथ ही दु.ग्य भी पीठ दिग्याता होता है। जैसे हमको हमारे घ्राणका तभी पता लगता है जब कोई गन्ध हमारे सम्मुख होती है, अथवा रसनाका तभी ध्यान होता है जब किसी रसका उससे सम्बन्ध होता है; इमी प्रकार अहंकारकी प्रतीति तभी होती है जब कोई इच्छा सम्मुख ग्बडी होती है। क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि मनोवृत्तियाँ तो इच्छाके परिणाममें ही उत्पन्न होती हैं, इच्छा ही इन सवका मूल है । जैसे वायुकं निःस्पन्द होनेपर जलमे तरङ्ग लय हो जाती है और तरङ्गके लय हुए मौम्य जल अपने आपमें प्रकाशता है, इसी प्रकार इच्छारूप वायुके निःस्पन्द हुए अहंकाररूपी तरह भी लय हो जाती है और अहंकाररूपी तरङ्गके लय हुए ही सुखस्वरूप प्रात्मा अपने-आपमें प्रकाशता है । अथोत् इच्छा अपनी निवृत्तिद्वारा अहकारको निवृत्त करके ही सुखसाधनरूप होती है, अन्य रूपसे नहीं।
इससे सिद्ध हुआ कि इच्छानिवृत्ति कालमें जव अहकार भी खोया हुआ रहता है, तभी हम सुखका मुंह देखते हैं, अन्यथा नहीं। विपयभोग भी हमको केवल उसी समय सुख देते हैं, जब कि हम उनके भोक्ता नहीं रहते । हम भोगगेका संख भी भोगें और उनके भोक्ता भी बने रहें, यह दोनों बातें
साथ नहीं निभ सकतीं। मोग केवल उसी. कालमें हमें
नन्दित करेंगे, जब कि हमारा भोक्तृभाव उनपर वलिदान चपका होगा। अर्थात भोक्तापनसे छूटकर भोग्यम्प धन