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आत्मविलास ]
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वह आपको भोगे बिना न रहेगा। मिथ्या भासमान पदार्थोंमें मन फॅसा बैठनेके कारण, 'अरे । मेरा कलेजा फट गया,' 'हाय ! मैं मारा गया, ' इस प्रकार रुलाये बिना वह विप पीछा न छोडेंगा । आखिर ईश्वरसम्बन्धी सत्यता तुमने इन मिथ्या पदार्थम आरोपण क्यों की? इस रीति विपत्ति को बुलाने के बजाय अभ्तमं दुःखको ही निमंत्रित करती है । अपने आचरण में आया हुआ तथा धोया-पीया हुआ 'धर्म' ही एकमात्र ऐसा अमृत है, जो शनैः-शनै अधिकारानुसार इच्छारूपी कूकरी से पल्ला छुड़ाकर इस दुखरूप प्रकारकी मूलको निकाल फेंकता है और नित्य-निरन्तर अक्षयसुखका भागी बनाता है । इस धर्मरूप, कल्याणस्वरूप शिवको मेरा हार्दिक नमस्कार है । है देव । तू धन्य है । कि तूने मेरी अपनी छातीसे छाती, हाथसे हाथ और अपने स्वरसे स्वर मिलाया, जिससे मैं तेरे अपने गीत गाने समर्थ हुआ ।
अब प्रश्न होता है कि वह कौनसी चेष्टाएँ है, जिनको धर्मस्वधर्म क्या है ? रूपसे धारण किया जाय, जिनके द्वारा इस दु.स्वस्वरूप अकारकी मूलको निकाल फेंका जा सके ? इस विषय में भगवान् ने गीता अर्जुनके प्रति उपदेश किया है:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (अ० २ ० २१)
अर्थ:--- पराये धर्मको भली भाँति श्राचरणमे लानेसे अपना थोड़ा गुणरहित धर्मका वर्ताव भी श्रेष्ठ है, अपने स्वधर्म को वर्तते वर्तते मरजाना श्रेष्ठ है परन्तु पराया धर्म ( अधिकारभिन्न धर्म) भयदायक है ।