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आत्मविलास] अन्तमे सकल बन्धनोंसे छुटकारा दिलानेके लिये ही जुम्मेवार वन रही हैं। परन्तु तुम तो वीचमे ही छुटकारा पानेके लिये उतावले हो रहे हो । अच्छा, किनारे तोड़कर नदी के जल के समान संसाररूपी गड्ढों में न गिरो और सड़मड़कर न सूवो तो कहना ! स्मरण रहे कि धर्म तुमको किसी भी विषयसे वञ्चित रखना नहीं चाहता,बल्कि समय-समय पर सभी विपय योग्य मात्रामें योग्यतानुसार भुगताकर और यहाँसे तृप्त कराके, जहाँसे यह सब सुख निकलते हैं उन सुखोंके घर सब आनन्दोंके उद्गम-स्थानकी ओर उठा ले जानेका भार इसने अपने ऊपर लिया हुआ है । परन्तु एक तुम हो कि इन्द्रकी भॉति सूकररूप धारण करके विष्टापर ऐसे गिरते हो कि मुँह ही नहीं उठाते । कॉसीके सिक्केकी महाराणीकी छापपर इतने लट्टू होगये हो कि मोहरकी याद ही नहीं आती । उस पवित्र धर्मकी यहॉतक तुम्हारे लिये भारी उदारता है कि संसारमें निन्दितसे निन्दित कार्य पशु-धर्मरूप व्यभिचार भी विवाहसंस्कारके द्वारा ऐसी पवित्र व उत्तम रीतिसे धर्मरूपसे रचा गया कि धर्मानुकूल मर्यादामें वर्तकर आप इसके द्वारा ईश्वरके प्रेमपात्र हो सकते हैं और भोग व मोक्ष दोनोंके अधिकारी धन सकते हैं।
१. एक पार इन्दने स्वामें सूकरका शरीर धारण किया और विष्ठा साने लगा यह देख देवताभोंको लाज आई और उन्होंने उसे जगाया इसी प्रकार यह इन्दपी जीव अज्ञान-निद्रामें मोगरूपी विष्ठापर गिर रहा है।
२. जिस प्रकार कोसीकी धातुपर महाराणी विक्टोरियानी छाप हो तो मूर्ख लोग मिथ्या धातुको उस डापके कारण सत्य जानकर ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार यह संसारिक भोग स्वयं काँसीके समान मिथ्या होते हुए भी उस अधिष्ठान सत्तारूपी महाराणीके सानिधान, के कारण मशानियोंद्वाग सत्यरूप ग्रहण किये जा रहे हैं।