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[साधारण धर्म जिस प्रकार रोगीके लिये उनके दोपोंके अधिकारके अनुसार यदि एक दमडीकी भी औपध दी गई तो वही उसकी रोगनिवृत्ति में सहायक हो सकती है, बहुमूल्य औपधसे कुछ न बनेगा। ठीक, इमी प्रकार जिम अधिकारपर वर्तमान कालमें चित्त है, उसके अनुसार की जानेवाली चेष्टा ही उसको ऊँचा उठाकर शनैःशनैः जीवसे शिवरूपको प्राप्त करा सकती है। जैसे चीजको पृथ्वी में दबाने के उपरान्न फलकी प्राप्निपर्यन्त उसको दिन-दिन सैंकड़ों अवस्थाऑमसे गुजरना पड़ता है । वीजको पृथ्वीमे दवानेके उपरान्त वह फूलता है और अपनी कोमल जड़ पृथ्वीमें फैलाने लगता है। इधर बीज फूलकर बीचमेंमे ठीक हो दाल बनकर फूठ जाता है, वह दाल झडकर म्वादका काम देती है और उसके अन्दरसे एक नयी ही वस्तु, जिमका देखनेमे बीजसे कोई सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता, निकल आती है जिसमे दो कोमल पत्तियाँ होती हैं । वहीं ज्यूं-ज्यूँ अपनी जड़ नीचे फैलाती है, त्। -त्यू ऊपर को पत्ते, टहनी व तनेके रूपमे फैलती-फैलती हड़ होकर और असंख्य अवस्थाओंमेंसे गुजरकर फूलको निकाल देती है तथा फूलमेसे ही फल निकल पड़ता है। यदि इस बीजको वीचकी किसी भी अवस्थामै गुजरनेसे रोक दिया जाय तो वह कदापि फलके सम्मुख नहीं हो सकेगा, जबतक उस अवस्थाकी पूर्ति न करले। ठीक, इसी प्रकार हृदयक्षेत्रम अधिकारानुसार धर्मरूपी वील भारोपण करनेकी आवश्यकता है, उसमें वारम्बार अभ्यासरूपी जल सींचनेकी जरूरत है तथा बहिर्मुखी कुसङ्गरूपी डंगरोंसे उसकी रक्षा उपयोगी है। यह हो गया तो फिर इसके निमित्त विशेष कर्तव्यकी जरूरत नहीं, ज्यूँ-ज्यूँ इसकी जड़े त्यागरूपी शिवमें अन्दरकी तरफ फैलेंगी, त्यू -— यह बाहर विस्तार पाता जायगा और सांसारिक सुख (अभ्युदय) रूपी नाना अवस्थाओंमेंसे गुजरता हुआ निश्रेयसरूप मोतफल पा