________________
आत्मविलास ]
प्रक्षालनादि पवस्य दूरावस्पर्शन वरम् ।
अर्थात् कीचड लपेटकर धोनसे कीचडसे दूर रहना ही श्रेष्ठ है। गीता अध्याय २ के अन्तमे उनीलिये भगवान्ने हाथ उठाकर कह दिया हैआपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वकामा य प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामो। विहाय कामान्यः सर्वान्पुमश्चति निःस्पृहः । (गी० ० २ निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ सो० ७०, ०१.) __अर्थ:-जैसे सब ओरसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में नाना नदियोंके जल प्रवेश करके उसको क्षोभित नहीं करते, उसी प्रकार जिस गम्भीर हृदयमे कामनाएं किसी प्रकार विकार उत्पन्न किये बिना समा जाती है, वहो शान्तिको प्राम होता है न कि कामकामी-पुरुप । जो सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर इच्छारहित, ममतारहित व अहकाररहित विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है।
चाह चमारी चूहड़ी चाह नीचन की नीच । तू तो पूर्ण ब्रह्म था जो चाह न होती बीच ।। इससे सिद्ध हुआ कि सुख केवल इच्छाकी निवृत्तिमे है। जिस प्रकार वायुद्वारा हिलते हुए दर्पण या पानीमें हमारे मुख का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता और वायुके निःस्पन्द कालमें ठहरे हुए दर्पण वा जलमें हमारे मुखका प्रतिविम्ब स्पष्ट भासता है। इसी प्रकार इच्छारूपी वायुके वेग करके हिलते हुए श्रन्त.. करणमें हमारे वास्तविक सुखस्वरूप प्रात्माका अाभास नहीं पड सकता और इच्छाशून्य अन्तःकरणमें उसका भलीभाँति