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[ माधारण धर्म भान होता है। इस रीतिसे मुखकी प्राप्ति तो होती है केवल सुखस्वरूप आत्माका निश्चल अन्तःकरणमें आभास ग्रहण करने से ही, परन्तु चूंकि पदार्थको प्रामि तथा निश्चल अन्त:फरणमे आत्म-प्राभास, एक ही कालमें होता है, इसलिये बुद्धि को यह भ्रम हो जाता है कि विपयसम्बन्धसे ही सुख मिला । यदि विषयहम्बन्धस ही सुखकी प्राप्ति मानी जाय, तो सुग्वरूप विपयकी प्राप्तिके पश्चात् हमको दु.ख कदापि नहीं होना चाहिये तथा मुग्नकी इच्छा निवृत्त हो जानी चाहिये, परन्तु ऐमा तो नहीं होता । इमने यह स्पष्ट है कि सुखरूप विपय नहीं, सुखरूप केवल आत्मा ही है और सुखप्रतीति कालमे विषयसम्बन्धसे सुख नहीं था, किन्तु इच्छानिवृत्तिद्वारा सुखस्वरूप आत्माके श्राभाससे ही सुख था । क्योकि सुखका निमिनभूत कोई तीसरी वस्तु तो हो नहीं सकती, या तो इच्छितवस्तुकी उपलब्धि ही निमित्त हो सकती है, या निश्चल अन्तःकरणमे आत्म-अामास । इमसे स्पष्ट है कि मुख वास्तवमे कहीं बाहर नहीं है, बल्कि मुख केवल हमारे अन्तरात्मासे हो निकलता है। कैसे आश्चर्य की बात है कि हम आप ही इच्छा खड़ो करके अपनी दृष्टियोसे उन भोग्यपदार्थोको मनोहरता प्रदान करते हैं और फिर आप ही उनके पीछे भाग पड़ते हैं। ___ यदि विचारको कुछ और आगे बढ़ाया जाय तो स्पष्ट होगर मुखका साक्षाव | कि सुख वास्तवमै इच्छाकी निवृत्तिमें प्राप्ति केवल अहकार भी नहीं। इच्छाकी निवृत्ति सुखकी प्रानि से पल्ला छुड़ानेमे है। में सहायक है जर, परन्तु साक्षात् सुख को प्राप्त करनेवाली नहीं, बल्कि परम्परा करके सुखको देने वाली है। सुखकी साक्षात् प्राप्ति है अहंकारके निवृत्त होने में । अहंकारके उत्पन्न होते ही इच्छाकी उत्पत्ति होती है, इच्छा उत्पन्न होकर अहकारको बढ़ करती है और उसी समय दुःख