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(साधारण धर्म कि उसके साथ यागरूपी चटनी हो..त्यागका किसी अंशमै मम्बन्धं जुड़नेके बिना धर्म कसे उपार्जन किया जा सकता है ? जितने अंशम त्यांगको अधिकता होगी, उतने ही अंशम धर्मको पृद्धि होगी। धर्मरूपी नादियको चलाने के लिये आवश्यक है कि वैराग्यमूर्ति, व्यलिभूषण, भस्मविलेपन और गरलपान करनेहारे शिव-शम्मुको उसपर बारूद किया जाय, तभी, जया है। इसी त्यागरूपी महेशके मस्तकपर शांतिरूपी द्वितीयाका चन्द्रमा शोभायमान है, जिसकी कला- नित्य वृद्धिको प्राप्त होनेवाली हैं, यही शङ्कर-महादेव दुःखरूपी विषपान करनेवाला है।
त्यांगको तीन भागोंमें विभक्त कर सकते हैं ।।१) श्रीथिंकत्याग, (२) सारीरिकत्याग और (३) मानसिकस्यायः ! धन, भूमि, गी आदि अपनेसे भिन्न यावत पदार्थों का त्याग आर्थिकत्याग है। शरीर व वाणीद्वारी अपना स्वार्थी खोकर किसीको लाभ पहुंचांना शारीरिक त्याग काम-क्रोधादि मनोवृत्तियों का त्याग 'मानसिक-त्याग है । पहिले त्यागसे दूसरा और दूसरे मे तीसरा अधिक महत्त्ववाला है। जैसे बफैले जल तथा जल से भापमें अधिकतवला होता है, इसी प्रकार यह तीनों त्याग भी मापेक्ष महत्त्वशाली हैं। ईश्वरीय नीतिमें त्यागका कुछ ऐसा महत्त्व रक्खा गया है कि जब हम पदार्थोंमें मुंह मोड़ेंगे, वे आप हाजिर हो जाएंगे और जिव उिनपरनअधिकार जिमाया जायगा तो उनको खोया जायगा । किसी पदार्थको पाने के लिये उसका "पहले त्याग बहुत जरूरी है। जिस प्रकार बीज जमीनमें बोया हुआ पन्जव तक अिपने आपको भूमिमे नष्ट करके सिद्दीमे न सिला ले, ड्रगने वा फल देनेके योग्य नहीं बनाया जा सकता। मिटा दे अपनी हस्तीको, अगर कुछ मरतबा बाहै। के दाना खाकमें मिलकर, गुले गुलजार होता है. ॥ ,