________________
[ साधारण धर्म इमन न छोड़ा। देवर्षि नारदको भो बन्दरको प्राकृति प्रदानकर वपाये बिना यह न रहा और इसके फलस्वरूपमे अपरिच्छिन्न 'विष्णुको भो परिच्छिन्न रूपसे माताके गर्भमै सुलाये बिना न माना । वेदव्यासजीको रुलाके ही छोडा और प्रताप दुर्वामाऋषिको भी मुदर्शन चक्रको मारसे भगाये बिना न रहा। महर्पिवशिष्टकं शत पुत्रोको पूर्णाहुति लिये बिना इसकी तृप्ति न हुई
और विश्वामित्रकी सम्पूर्ण सेनाको हड़प किये बिना इमसे न रहा गया । इन्द्र के शरीरको छलनो बना के ही इसने दम लिया और जयन्तको अॉख निकलचा कर ही इग्मको स्न्तोष हुआ । वर्तमान त्रिटिश गवर्नमेण्टकी तो चर्चा हा क्या करनी है, काल आप ही अपनी मोहर लगायेगा। इसके विपरीत पाँच वर्षके वालक ध्रुव को निर्जन वनके क्लेश भुगाकर भी अटल पच्ची दिये बिना यह न रहा । प्रह्राटको कुमार अवस्थामे हो पत्थरोकी वो, पहाड़मे गिराना, अग्निमें जलाना इत्यादि प्रचड कष्ट भुगाकर मी अपनेमें तल्लीन करके ही हमनं दम लिया । हरिश्चन्द्र के परिवारके बीच बाजार दमड़े करके भी उत्तम लाकोंको प्राप्त करके ही छोडा । मोरध्वजके द्वारा अपने पुत्रके वीचमेसे ठीक दो टुकडं कराके भो उसको सद्गनि ढिय विना न माना। और अब भारतसपनोंको जेलमै दूंस-ठूम तथा गोलीका निशाना बना-बनाकर भी स्वराज्य [ यद्यपि यह वास्तविक स्वराज्य नहीं कहला मकता, वास्तविक स्वराज्य किसीके अधीन नहीं, किन्तु अपने ही परम पुरुषार्थके अधीन है ] प्रदान किये बिना यह क्य रहने लगा है ? माराश, कहाँतक निरूपण किया जाय, यह बडा हठीला है। इसको बालक, वृद्ध, ज्ञानी, अज्ञानी किमीपर भी व्या नहीं आती। लोहेके चने चबाये विना यह किमीको नहीं छोडता । सुखके प्रोमियोको इसके आगे नतमस्तक होना हो पड़गा, इसके नियमको सिरपर धारना ही होगा, इसके बिना ,