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[ पुण्य-पापकी व्याख्या जिहान्यायसे रचा है। वास्तवमें श्रुतिमाताका श्राशय निवृत्तिरूपी कटु अोपधि पिलाकर उसका रोग शान्त करनेमे ही है, न कि प्रवृत्तिरूपी कीचड़में फंसाये रखनेमे । यह नियम है कि जहाँ-जहाँ जिननी-जितनी प्रवृत्ती है वहाँ-वहाँ उतनी-उतनो ही संकीर्णता व कृपणता है और जहाँ-जहाँ जितनी-जितनी निवृत्ति है वहाँ-वहाँ उतनी उतनी ही उदारता है । तथा जितनी-जितनी कृपणता व संकीर्णता है उतनी-उतनी ही अहंभावकी जड़ता है और जितनी-जितनी उदारता है उतनी-उतनी ही अहमावको द्रवता व विस्तरिता है। इसीलिये जितनी-जितनी प्रवृत्ति है उतनाउतना ही पाप व दुःख और जितनी-जितनी निवृत्ति है उतनाउतना ही पुण्य व सुख है। प्रवृत्तिमें भी जहाँ कहीं किसी अंश 'में पुण्य मिलता है तो केवल निवृत्तिके संयोगसे ही, केवल प्रवृत्ति अपने स्वरूपसे कदापि पुण्यरूप नहीं हो सकती।
इस प्रकार प्रकृतिका जीव पर मनुष्ययोनि प्रान्तिके पश्चात प्रवृत्ति व निवृत्तिभेद | तकाजा है कि वह जिस अधिकार पर स्थित तथा प्रवृत्तिमार्गी है उमसे आगे चलकर आत्मविकासकी पाँच श्राणयाँ ओर अग्रसर होता हुआ, 'वसुधैव कुटुम्बकम रूपी पूर्ण समताको प्राप्त कर ले। इस सम्बन्धमें जितने भी साधन हो सकते हैं उनको दो भागोंमे विभक्त किया जासकता है (१) प्रवृत्तिमुख (२) निवृत्तिमुख । निवृत्तिमुख साधन वे हो सकते हैं जिनके द्वारा मल-विक्षेपादि ढोषोंको दूर करके अन्तःकरणकी निर्मलता उपार्जन की जाय और इस प्रकार राग के विषय जो संसारसम्बन्धो पदार्थ हैं, जिन्होंने हृदयगत राग को सीमावद्ध करके उसके विस्तारका निरोध किया हुआ है, उस परिच्छिन्न रागको विवेक-वैराग्यद्वारा तोड़कर रागकी समता सम्पादन की जाय । जैसा इसी लेखमें राग-द्वेषके प्रसंग से पीछे पृ. ७ से १८ पर वर्णन किया जा चुका है, यह मार्ग