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आत्मविज्ञास]
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः (गो० अ० ६. २६)
भावार्थ-योगयुक्त समदर्शीपुरुष मर्वत्र ही मव भूतमि स्थित अपने आत्माको साक्षी रूपये और प्रात्मामें स्थित मब भूतोंको विवर्त रूपसे देखता है। अर्थान जिम प्रकार रम्मीमें सर्प, दण्ड व माला अदि प्रतीतिमात्र हैं, परन्तु रस्मोको उनका कोई स्पर्श नहीं, रस्सी अपने आश्रय केवल उनकी प्रतीति करा रही है और आप ज्यू को त्य हैइसी प्रकार प्रात्मा अपने आश्रय सव भूतोंकी प्रतीति कराता हुआ आप निर्विकार रूपमे न्यूँ का त्यूँ स्थित है। अत्र उमका परिच्छिन्न-अहकार तत्त्वविचारद्वारा ज्ञानाग्निसे जल कर भुने बीजके ममान रह गया है जो कि फलके योग्य नहीं रहा । अथवा जली रस्सीके समान होगया है, जो कि यद्यपि आकारको धारण किये हुए है परन्तु बन्धनकी सामध्ये नहीं रखता। अव सब श्रेणियामे वही अपना खेल खेल रहा है, किन्तु वास्तवमें सव श्रेणियासे अतीत है। मंसारमें अव उसका न कोई व्यक्तिगत स्वार्थ है, न कुटुम्बगत, न जातिगत ही कोई स्वार्थ है और न देशगत । वह तो अव 'स्वार्थ' शब्द व अर्थसे परे परमार्थ रूपसे स्थित है। सब स्वार्थ उसीसे सिद्ध होते हैं परन्तु वास्तवमें वह सब स्वार्थों से दूर खड़ा हुआ है।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।(गी.अ.३ श्लो.१८) अर्थ:- इस संसारमें उस पुरुषके लिये कुछ किये जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और न किये जानेसे भी कोई प्रयोजन नहीं है, तथा उसका सम्पूर्ण भूतोंमें कुछ भी स्वार्थ