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श्रामविलास ] मे मोहित किया हुआ था। परन्तु जब पुरुपने प्रकृतिकी वास्तविकताको जाना तो पता भी न चला कि वह कहाँ गई । जिम प्रकार नटनी, जब तक उसको अमलियत नहीं जानी जाती, तत्र तक भाँति-भौतिके वॉग बनाके भ्रमित करती रहती है, परन्तु जव उसकी श्रमलियत जान ली जाती है तो ऐसी छुपती है कि मुँह भी नहीं दिखाती। दिखाया प्रकृतिने नाच पूग,
सिलेमें उड़ गई अहह ! सितम है। गलत गुफ्तम शिकायतकी नहीं जा,
मिलो श्रा पुरुषमें अदलो करम है । अर्थात् प्रकृतिने अपना पूरा नाच दिखाया और अपने नृत्यके पुरस्कारमें वह स्वयं उड गई, यह बड़ा शोक है। कवि फिर सॅमल कर कहता है कि मैंने भूल की, शिकायतका कोई अवसर नहीं, क्योंकि प्रकृति अपने नत्यके पुरकारमें स्वयं पुरुषसे अभेद पा गयो । यही तो उसका पुरस्कार था और यही न्याय, कि जिससे उपजी थी उसीमे लय होगई। यही पुरुपकी कृपा है कि उसने अपनेमें प्रकृतिको एक कर लिया।
साराश, सांसारिक पुण्य पापसे मिश्रित है, सासारिक सुख उपसंहार दुःखस प्रसा हुआ है, सांसारिक राग कैपसे
" सना हुआ है। कोई कर्म पुण्यरूप नहीं हो सकता, जिसके साथ स्वार्थत्यागका लगाव किसी भी अंशम मौजूद न हो। अर्थात् किसी कर्मको पुण्यरूप बनानेके लिये स्वार्थत्याग होना जरूरी है। स्वार्थत्यागकी मात्रा जितनी अधिक होगी, उतना ही पुण्य अधिक होगा। जितना स्वार्थाश अधिक दृढ़ किया जायगा, उतनी हा पापकी वृद्धि होगी।