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[ साधारण धर्म देव कहते हैं कि और कितने ही अनन्त हैं जो तुझको ही गा रहे हैं, जिनकी संख्या में नहीं कर सकता। .
कुमरियाँ आशिक है तेरी, सरख बन्दा है तेरा ।
बुलबुले तुझ पर फिदा हैं, गुल तेरा दीवाना है ।। जिस वस्तुक लिये इतनी अथक चेष्टा हो रही है, मानो किसी स्थानमें प्रचण्ड अग्नि लगी हो और उसके बुझाने के लिये चारों ओरसे मनुष्योंके मुण्डके झुण्ड दौड़े चले जा रहे हों; उसी प्रकार जिस सुखकी प्यास बुझानेके लिये प्राणियों की तीव्र वेगसे ऐसी चेष्टा हो रही है, उस सुखका उद्गमस्थान हमको जानना चाहिये।
इस विषयमै श्रुति-भगवती हमको क्तलाती है, सुखका उद्गम स्थान (१) "सत्यमेव जयते नानृतम्"
और धर्मशा स्वरूप (२) "यतो धर्मस्ततो जय" अर्थ यह कि (१) सत्य (धर्म) की जय होती है, झूठ (अधर्म) की नहीं (२) जहाँ धर्म है वहीं जय है। ___ 'जय' शब्दका अनर्थ न कर दना, 'जय' शब्दका यह अर्थ नहीं कि अपने किसी शत्रुको कुचलकर उस पर अपना स्वामित्व जमाया जाय और इस प्रकार अपने व्यक्तिगत अहंकार को पुष्ट करके सर्पको दूध पिलाया जाय | यह तो जय नहीं पराजय है। यह तो सत्य नहीं अनृत है। यह तो धर्म नहीं अधर्म है, उल्टी गङ्गा वहाना है, और रोगको बढ़ाना है । 'जय' शब्दका यहाँ अर्थ है, 'सुख' 'शान्ति' । आशय यह है, जहाँ
५. पक्षी विशेषका नाम । २. वृक्षका नाम जो सीधी रेखामें जाता है।