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[ पुण्य-पाप की व्याख्या
चक्कर काटके जाती है उसके अनुसार ही उसको चलना पड़ता है, सीधी रेखा में इसका चलना असम्भव है । ऐसे ही इन महापुरुषों की गति भी आत्मोन्नतिको सड़क पर बडी तीव्र गति मे तो हो रही है, परन्तु जिधर उनको देशस्वार्थ खींचता है उधर ही चक्कर लगा कर उनको चलना पड़ता है। उनकी चेष्टा अधिक उदारता तथा अधिक रागका विकास होने से उन्हें सत्त्वगुणी कहा जा सकता है। इस प्रकार उनकी चष्टाएँ अधिक पुण्यरूप तो है, परन्तु केवल पुण्यरूप ध्रुव भी नहीं । अन्य देशोंके स्वार्थसे द्वपवती होने करके वे पापरूप भी हैं। ऐसे महापुरुषोंमें ग्वार्थत्याग व उदार भावकी अधिकता के कारण केवल उनको ही 'मनुष्य- शब्दवाच्य मनुष्य' कह सकते हैं।
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पिछली तीनों श्रेणियों में क्रम-क्रम से स्वार्थत्यागरूप आत्मविकासका प्रकट होना तो उत्तम है, परन्तु इनमें से किसीमें भो टिक कर मनुष्यको गतिका रुक जाना प्रकृतिको मान्य नहीं है । यदि प्राकृतिक नियमके विरुद्ध इन मध्यवर्ती किसी श्रेणीमें ही अपनी गति निरुद्ध कर दी जायगी और आगे बढ़ने से संकोच किया जायगा तो अवश्य ही उस मनुष्यका अव पतन होगा, वह वहीं खड़ा न रह सकेगा । दृष्टान्तस्थल पर देख सकते हैं कि जातीय-भक्त-पुरुप यदि किसी एक जातिमें परिच्छिन्न रहकर अपनी गतिको रोक देता है, उसीमें घर कर बैठता है और अपने जीवन के उद्देश्यकी वहीं पूर्ति मान बैठता है तो उसके द्वारा अनेक प्रकारके जातीयविप्लव प्रकट होने लगते हैं। जैसा आये दिन सनातनधर्म, आर्यसमाज व जैनधर्म आदिके परस्पर वैमनस्य देखने में आते हैं। हिन्दू, मुस्लिम और सिख आदि जातियोंमें परस्पर सैंकडों जानोंका रक्त इसी नियम के अधीन बहाया जाता है कि वे इन मध्यवर्ती सरायोको ही