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[ पुण्य-कापकी व्याख्या बूट-सूट, मोडा-सीगार, हिसकी-ब्रॉडी आदि अनेक भोग्य विषय ही जिनके सुग्बके केन्द्र बने हुए हैं। इस प्रकारकी सोसाइटीके मित्रोंसे मिलकर बैठना और उनकी प्रसन्नताके लिये अपने द्रव्यको लुटा देना, इसीमें वे अपने-आपको कृतकृत्य माने हुए हैं और यही उनके लिये महायज्ञ है। स्त्रो-बचोंको 'पेटभर रोटी भी मिलता है या नहीं, इसका उनको ध्यान नहीं । रोकी
ओरसे प्रार्थना की जाती है, "आज घरमे धान नहीं रहा, मेरे मर पर दुपट्टा (ओढ़ना) फट गया है, लल्लूका कुड़ता नहीं रहा, जाड़े मारता है" इत्यादि । इस प्रकारके शब्द उनके लिये ऐसे हैं, मानो एक पके फोडे पर अगार रग्ब दिया हो। इसके उत्तरमें खूर अपशहीसे उस प्रवलाका स्वागत किया जाता है और किसी-किसी समा तो हाथ-पॉवसे भी उसकी पूजा किये विना उनका सन्ताय नहीं होता, मानो वह अनाथ उनके किसी परमार्थमे विघ्नकारक हो गई है । गति व देशकी क्या दशा है, इस सम्बन्धमे तो उनका ध्यान ही क्या हो सकता है ? हॉ, अपनी सोमाइटीम उन जातिप्रिय व देशप्रिय सज्जनो पर खुले कटाक्ष किये जाने हैं, मानों इनको दृष्टिम ऐसे सजन ससार में उत्पन्न होकर केवल भारवाही ही हो रहे हैं, इनकी अपनी दृष्टि से तो उन्होंने मंसारका तनिक भी सुख नहीं उठाया और मंसारके सुख उठानेके ठेकेदार एकमात्र यही हुए है। ऐसे पुरुष केवल पेटपाल हैं, उनको गतिको लहकी गतिसे तुलना दी जा सकता है । जिस प्रकार घुमाया हुआ लट्टे चक्कर तो बड़ी शीघ्रतासं काटता है, परन्तु अपने ही इर्द-गिदे, इसी प्रकार यद्यपि उनके. जीवनमें गति व चेष्टाएँ तो अनन्त होती हैं, परन्तु अपने ही शरीरके केन्द्रमें, शरीरके बाहर उनके द्वारा कोई गति प्रकट नहीं होती। इसीलिये ऐसे पुरुषोको मनुष्य योनि पाकर भी 'उद्विान मनुष्य' को उपमा दे सकते हैं। जिस प्रकार