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[ पुण्यपापकी व्याख्या यद्यपि दिनभरमें उसके द्वारा अनेक मीलोका चक्कर तो काटा जाता है, परन्तु सायकालको कोल्हूसे वहीं गजमरके फासले पर ही रहता है। इसी प्रकार उसकी गति अपने ही शरीरके स्वार्थ पर निर्भर न रहकर अव वह कुटुम्बके स्वार्थके इर्द-गिर्द चक्कर तो काटने लगा, परन्तु अन्य कुटुम्ब, जाति और देशमे जहाँ कही भी उसके कुटुम्बसम्बन्धो स्वार्थको धक्का लगनेकी सम्भावना होने लगती है वह वहाँ अन्य कुटुम्ब, आति
और देशके स्वार्थ पर ध्यान न देकर उनके साथ विरोध भी ठानता है । कुटुम्बके रागके कारण उसकी चेष्टाएँ केवल तमोगुणी न रहकर अब तम-रजमिश्रित होने लगीं। इस प्रकार
आत्माका किञ्चित विकाम होनेके कारण वे चेष्टा यद्यपि किञ्चित् पुण्यरूप तो हैं, परन्तु अन्य कुटुम्ब, जाति और देशके स्वार्थसे द्वेपवती होनेस चे अधिक पापरूप भी हैं। जिस प्रकार कीटयोनिमें जीवको गति एक स्थानसं दूसरे स्थानमें भी देखनेमें आती है, परन्तु वह फिसलकर पेटके बल ही चल सकता है । इसी प्रकार यद्यपि इसकी गति भी एक स्थानमें हो सकी न रहकर स्थानान्तरमें तो प्रकट हुई, परन्तु कुटुम्बके स्वार्थमे बद्ध रहनेके कारण वह फिसलकर चलने के समान ही है । इसलिये ऐसे. पुरुषोंको मनुष्ययोनि पाकर भी 'कीट-मनुष्य' कहा जा सकता है।
प्राकातेक नियमके अनुसार जैस-जैस इसके कुटुम्बका विस्तार होता है, वैसे-वैसे ही कुटुम्बके विस्तारके साथ-साथ उस विस्तृत कुटुम्बके प्रति आत्मत्वभावका विकास करना अब इसका कर्तव्य है। यदि वह कुटुम्बके विस्तारके साथ-साथ भ्राता आदिके कुटुम्बके प्रति आत्मत्वभाव प्रकट करनेसे इन्कार करता है तो जैसा पीछे सिद्धान्त किया जा चुका है, इस विकास के प्रवाहको रोकनेके कारणं इमको टक्कर खाकर अवश्य पीछे