________________
आत्मविलास
[४६ उद्भिन्नवर्गमे गति तो है, परन्तु अपन ही केन्द्रमे मीधी रखा में उनकी गति प्रकट होती है, स्थानान्तरमें उनकी गतिका अभाव है, इसी प्रकार इन पुस्पाम भी अपनेमे बाहर कोई गति प्रकट नहीं की जाती । पचकोशांका विकास होने पर मा ऐसे पुरुप केवल तमोगुणप्रधान हैं और उनकी चंदा जड़ीभूत केवल स्वार्थपरायण होनेसे केवल पापरूप और दु.न्यपरिणामी हैं।
- 'अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति'
अर्थ''हे अर्जुन से इन्द्रियों के मुग्यको भोगनवाला पाप-आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। चूंकि अधियाका इम जीवके साथ चिरकालीन सम्बन्ध है, इसलिये यद्यपि इम अवस्थाका प्रकट होना तो स्वाभाविक है, परन्तु इसका स्थिर रहना दोषयुक्त है।
आत्मविकास अब द्वितीय श्रेणीने विकसित हुआ और नाही . कालप्रभावसे जैसे बीज अपनी जड
अवस्थासे कोपलके रूपमे विकसित मनुष्य अर्थात् कुटुम्ब.
85 हो पाता है, इसी प्रकार यह शरीर के पाल
स्वार्थ में ही टिका न रहकर अब इसन कुटुम्बके स्वार्थमें अपना डेरा डाल दिया। अब यह कुटुम्बक सुखसे सुखी और कुटुम्बके दुःखसे दुःखी होने लगा तथा कुटुम्बकी हानिको अपनी हानि और कुटुम्बके लाभको अपना लाम जानने लगा। इस प्रकार अब पेटपालू ही न रह कर कुटुम्ब-पालु बन गया और कुटुम्बमें मान-सत्कार पाने लगा। अब इसकी गति लड़के समान केवल अपने ही केन्द्र में घिरी नहीं रह गई, वल्कि अब उसे कोल्हूके वेलकी शतिसे तुलना दी जा सकती है। जिस प्रकार कोल्हूका बैल' अपने ही केन्द्रमें न घूमकर कोल्हूके इर्द-गिर्द घूमता रहता है,