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[ पुण्य-पापणे व्याख्या क्रप-नसे बडी शोवतासे बढ़ती रहती है, वहाँ इसके प्रवाह की गति रोकी नहीं जा सकती। परन्तु जाग्रत अवस्थारूप मनुष्ययोनिमें आकर पचकारी व तीनों अवस्थाओके विकास के कारण जीव स्वतन्त्र होजाता है और यहाँ उसकी गति मन्द होजाती है। अब यदि इस प्रवाहको आत्मविकासद्वारा आगे बढानेसे रोका जायगा तो अवश्य इसको टक्कर खाकर पीछे जड़ योनियोमें लौटना पड़ेगा, अथवा शास्त्रमर्यादारूपी किनारो को तोडकर सांसारिक विपयरूपी गड्ढोंमे गिरना पड़ेगा। जिन प्रकार जल गड्ढोके अन्दर गिरकर सड़ॉद पैदा करता हुआ सूर्यक तापसे जल्दी हो सुख जाता है, इसी प्रकार शास्त्रमर्यादा का त्याग करनेके कारण जीवप्रवाह के लिये प्रकृतिरूपी सूर्यके अध्यात्म, अधिदैव व अधिभूतरूपी त्रितापोंसे तप कर दुःखरूपी सॉद पैदा करते हुए नष्ट-भ्रष्ट होजाना जरूरी है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाहसि ।।
(गी० म, १६ श्लो. २४१५ अर्थः-इसलिये कार्य-अकार्यको व्यवस्थामै शास्त्र हो तेरे लिये प्रमाण हैं, शास्त्रोक्त विधानको जानकर तू कर्म करने के योग्य हैं। ___ यद्यपि जीवकी उपाधि अविद्या मलिन-सत्त्वप्रधान होनेके कारण तमोगुणी है, इसलिये मनुष्ययोनिमें जड़ताका प्रकट होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु इस जड़ताका स्थिर रहना
पाप है। मनुष्ययोनिमे.आकर जीवका पुरुषार्थ यही है कि इस 1. अहंभावरूपी जड़ताको, जोकि साढ़े तीन हाथके टापुमें घरकर } बैठा है, शनैः शनैः सोपानक्रमसे विस्तृत करके प्रवृत्तिसे निवृत्तिम
ओर हदसे बेहदमें समान कर दिया जाय । यदि वह इस