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नयम
आत्मविलास ]
प्रकृतिरूपी चौकोदार हर समय जीवके सिरपर बडा हुआ प्रकृतिका अन्य 1ऊँचे स्वरसे पुकार-पुकार कर कह रहा
है,"आगे बढ़ो, पीछे हटो अर्थात् जव तक तुम अपने उहिष्ट स्थानपर न पहुंच लो, मार्ग में किसी भी Point ('बाइट, स्थान) पर खड़े रहनेकी तुमको इजाजत नहीं हो सकती। यदि तुम आगे बढ़नेसे इन्कार करते हो तो तुमको पीछे हटना ही पडेगा। आशय यह कि जबतक तुम अपने अन्तिम धेयको प्राप्त न करलो, तब तक बीचके किसी पड़ाव को ही उद्दिष्ट स्थान न मान बैठो और वहीं डेरे डाल देनेकी भूल न करो, क्योकि सरायको हो घर बना बैठोगे तो वहीं तुमको कोई टिकने न देगा, इमलिये आगे अपने घरकी ओर बढ़ो तो अच्छा, नहीं तो डडे मारकर पीछेको ओर फैंक दिये जाओगे। इससे उत्तम यही है कि कुछ काल यहाँ विश्राम करके
आगे चलन का ध्यान रक्खो, जिससे पीछे तो न धकेले जाओ। इस प्रकार यद्यपि इन बीचकी सरायोंमें से गुजरना तो जरूरी है, परन्तु डेरे डाल देना भयदायक है। जिस प्रकार नदीका प्रवाह पहाड़की जड भूमिसे निकलकर पहाड़ी मार्गमे शीघ्रता से गदगद करता हुआ समुद्रमे मिलने के लिये मैदानमे आता है । मैदान में आकर इसकी गति मन्द व टिकी हुई होती है, यहाँ यदि इस प्रवाहको पाल लगाकर आगे बढनेसे रोक दिया जाय तो यह प्रवाह उसी स्थान पर खड़ा नहीं रह सकता, इसको पीछे टक्कर मारकर हटना पडेगा अथवा किनारे तोड़कर इधर-उधर गहों में पानी फैलकर सूख जाना होगा। ठीक इसी भॉति जीवरूपी नदी का प्रवाह अघिद्याकी गाढ़ सुपुप्तिअवस्था पापाण-वृक्षादि जड योनियोंसे निकलकर ब्रह्मरूपी समुद्रमें मिलनेके लिये चला है। पहाडी मार्गमे प्रवाह जिस प्रकार तीव्र गतिसे चलता है और वहाँ यह रोका नहीं जानकता, इसी प्रकार स्वेदज, अंडज, जरायुज योनियों में जीव-विकासको गति प्रकृतिके अधीन होनेसे