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आत्मविलास ]
[३८ वशीभूत हुआ तू ऐमा मानता है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' यह तेरा मिथ्या ही हठ है, क्यों के प्रकृति तेरेको बलात्कारसे युद्धर्म जोड देगी। स्वभावसे अपने स्वकर्मोसे वॅधा हुआ हे कुन्तीपुत्र ! जो तू अपने स्वकर्मको न करनेकी इच्छा करता है तो भी यो तेरेको वलात्कारसे करना ही पडेगा।
अर्थात् जिस प्रकार धूम्रकी निवृति करके अग्नि निर्धम्र हो सकती है, इसी प्रकार प्राकृतिक मटोप कर्म करने-करते भी मनुष्य निर्दोप हो सकता है । आशय यह है कि तमोगुण व रजोगुण का भी अपने अपने समय पर मनुष्यमे विकास होना आवश्यक है और कर्मके द्वारा ही उस गुणका वेग त्याग किया जा सकता है। अर्थात् उस गुणके वेगको कर्मद्वारा ही निवृत्त करके सत्त्वगुण मे आरूढ हो सकते हैं, अन्य कोई उपाय गुणत्यागका नहीं हैं। दृष्टान्तरूप से देखा जाता है कि निद्रारूप तमोगुणको शयनके द्वारा ही दूर किया जा सकता है, यदि हम आग्रह करे कि शर्यन के बिना ही तमोगुण दूर हो तो असम्भव है। इसी प्रकार भगवानका कथन है कि यद्यपि सव ही फर्म आरम्भमे धूम्रसे अग्निके समान दोपसे आवृत्त हैं, तथापि स्वाभाविक कर्मका त्याग न करे, क्योकि उपयुक्त रीतिसे कर्मके द्वारा ही गुणका वेग दूर करके निष्कर्मताको प्राप्त किया जा सकता है । प्रकृतिके राज्यमे कर्म तो अपने स्वरूपसे दोपयुक्त है ही, एक कर्म एक के लिये एक अंशमें गुणरूप होगा तो किसी दूसरेके लिये अथवा किसी दूसरे अंशमै उसका दोपयुक्त भी होना जरूरी है, जैसा आगे आत्मविकासको पाँच श्रेणियोंके प्रसंगमें निरूपण किया जायगा । यद्यपि ऐसा है फिर भी अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा ही तमोगुणादिके वेगका त्याग करके मनुष्य सत्त्वगुणमें आरूढ हो सकता है और तब ज्ञानद्वारा गुण-कर्मके बन्धनसे