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सर्वत्याला प्रकार अधिकारीको वृद्धि करके उन्त अधिक मात्रा
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[पुण्य-पापकी व्याख्या जिस प्रकार रोगीके लिये उचित मात्रामें दिया हुआ संखिया रोग-निवृत्तिमें सहायक है और अमृत है,परन्तु अधिक मात्रामें देने पर वही संखिया उसके रोगकी वृद्धि करके उल्टा उसको दुर्वल कर देगा, इसी प्रकार अधिकारानुसार स्वार्थत्यागकी पलि देते हुए सर्वत्याग सिद्ध करना, इसीमे प्रकृतिकी अनुकूलता है और इसीप्रकार प्रकृतिके अनुकूल चलकर प्रकृतिके वधनसे छूटना हो सकता है, यही सर्व धर्मोंका रहस्य है। इसीलिये भगवान् ने गीताके अन्तमे ऊर्ध्वबाहु होकर स्पष्ट कह दिया है :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठिताद । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्मिपम् ।। सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वांरम्मा हि दोपेण धूमेनाग्निरियावृताः ॥ यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्येष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोच्यति ।। स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।।
(गी. अ. १८ श्लो, ४७,४४,५९,६०) अर्थ:-अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरोके धर्मसे अपना गुणरहित धर्म भी श्रेष्ट है, क्योंकि स्वभावसे नियत किये हुए कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता । इसलिये हे कौन्तेय ! दोपयुक्त भी स्वाभाविक कर्म नहीं त्यागना चाहिये, क्योकि प्रारम्भमे धूम्रसे अग्निके सहश्य सभी कर्म विमान किसी दोपसे आवृत होते ही है । हे अर्जुन ! जो अहंकारकं