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आत्मविलास]
[२८ प्रलपन्धिसृजन्गृह्णन्नन्मिपन्निमिपन्नति इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् (गी० भ०५ श्लो०८) यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्थस्य न लिप्यते । हवापि स इमल्लिोकान हन्ति न निबध्यते(गी० २०१८ श्लो०१७)
अर्थ.-तत्वका जाननेवाला योगी देखता हुआ, सुनता हुमा, छूता, सूंघता, ग्याता, चलता, गोता, श्वास लेता, बोलता, त्यागता, ग्रहण करता तथा ऑबोको खोलता व मीचता हुआ भी में कुछ नहीं कर रहा हूँ, इन्द्रियाँ अपने अर्थोमे बरत रही है ऐसा मानता है। जिसमे अहंक त्वभाव नहीं है और जित्तकी बुद्धि कर्मोमे लिपागमान नहीं होती है वह सब लोको को मारकर भी नहीं मारता और नहीं बॅवता । इम्न प्रकार मनुष्ययोनिमे भी इन तीनो अवस्थाओक कर्म फल देने योग्य नहीं रहत। __ अब हम इम परिणाम पर पहुंचते हैं कि जीवभावके विकास मनुप्पतर योनिगाम | का प्रारम्भ पापाण व उद्धिन्नयोनि से पुण्य पापका असम्भव | होने पर भी पुण्य-पापका भार मनुष्ययोनि और मनुष्ययोनि में में ही इनपर लादा जाता है, वह भी जीवा पपकर्तृत्व-अहकारके पूर्ण विकास पर । अहंकारकी वह अवस्था ही जीवके वन्धन व मुक्तिका कारण है। अर्थात् श्राहकारकी इस जामत्-अवस्थाको प्राप्त होकर मनुष्य चाहे अपने-आपको नानका अधिकारी बनाकर और अपने प्रात्मस्वरूपको प्राप्त करके आवागमनके वन्धनसे छुडा लेवे, श्रथवा पाशविकणवृत्तिमें फंसकर फिर जड़ योनियोंको प्राप्त होजाय, यह इसकी इच्छा पर निर्भर है। क्योंकि अब वह अपने
मौका जुन्मेवार बन गया है इसलिये उनके लिये निकृष्ट कोके फलमें जड़ योनियोकी प्रानि भी जानकाय है। प्रकृतिका ऐसा