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आत्मविलाम]
[३० है और इसको स्वतन्त्र करके स्वतन्त्रताका प्रमाण-पत्र दे दिया है, इसलिये अब इसको इच्छा है कि चाहे यह प्रकृति-माताके परिश्रमको मफल करता हुआ, प्रकृति-माताकी मंया करना हमा तथा इसके अनुकूल वर्नता हुआ स्मार्थत्यागराग रागी ममता को सम्पादन करके 'वसुबंध कुटुम्बकम' भावं आर्जन करत हुआ निरन्तर मुग्वको प्राप्त होकर आवागमनके फन्दस अपने
आपको छुडाले, क्योंकि प्रकृतिकी सम्पूर्ण चेष्टा इमी निमित्त थी। अथवा प्रकृति-माताका अनादर करके और उसके प्रतिकूल चलकर अनियमित प्रवृत्ति और अनर्गल भोगवामनाकी धधकती हुई अग्निकी सामग्री उपार्जन करके दीपकमै पनग के समान अपने-आपको भस्म करले और इस प्रकार प्रामुरी सम्पत्तिका अधिकारी वनकर अपने लिये चौरामी लाग्नका चयर तयार करले । ऐसे श्रासुरी सम्पदावानकी क्या गति होगी ? मो स्वयं भगवान् गीता अ० १६ में यूं वर्णन करते हैं ।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृत्त ।। प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञेस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् । अहङ्कारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः । ममात्मपरदेहेषु प्रद्विपन्तोऽभ्यसूयकाः ।। तानहं द्विषतः करान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजसमशुभानासुरोवेव योनिषु ।। १. अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ब है।