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श्रात्मविलास ]
[ ३२ लोहे करके लोहा काटा जाग्नकता है, उसी प्रकार अहंकारके द्वारा अहकार और बुद्धिके द्वारा बुद्धि काटी जासकती है, अर्थात् मत्त्वगुणी अहकार व बुद्धिके द्वारा ही राजमिक व तामसिक अहंकारादि काटे जासकते है, परन्तु यह सब कार्य बुद्धिकी पूर्णताको पाकरही होसकता है। अब कुछ मामान्य रूपसे यह दर्शाया जाता है कि किस रूपसे मनुष्य नीचसे नीच योनियों को और किस रूपसे ऊँचस ऊंच योनियोंको प्राप्त करनेमें समर्थ है । यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार बच्चा अपनी माताको सेवा पाकर' ही यौवन अवस्थाको प्राप्त होता है । जव उसको मल-मूत्रादि की कोई सुधि नहीं थी, तव माताने उसके लिये नीचसे नीच कार्य भी किया है, चाडाल तकका धधा भी उसके लिये प्रेम से धारण किया है, रातो जागती हुई उसके कष्टको न सहकर
आप उसके मूत्रमे शयन किया है और उसको सूखेमे सुलाया है । जय पश्चा नन्हा-मा होंट निकालकर रोने लगा तो माताको हृदय भी उसके दुःखको न सहकर द्रवीभूत हो पाया है। इसके प्रतिकारमे युवावस्था पाकर अब उसका यह कर्तव्य है कि वह अपनी माताके अनुकूल चलकर उसके परिश्रमको सार्थक करें, इसीमे उसके लिये भलाई है । यदि वह माताके अनुकूल नवरत कर उसके विपरीत चलेगा तो अवश्य उसको पमयातना महनी पडेगी, इसमे सन्देह नहीं है । इसी प्रकार प्रकृतिमाताने अपने जीवरूपी वालकको पापाण-वृक्षादिकी जड़ावस्था में उठाकर, जब कि वह सर्वथा दीन-हीन दशाको प्राप्त था और इसको किमी प्रकारसे कोई ज्ञान ही नहीं था, क्रम-क्रमसे निर्विघ्नतापूर्वक अपनी गोद में लालन-पालन करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त कराके और सर्व प्रकारकी योग्यता प्रदान कर चवावस्थाको प्राप्त करदिया है। श्रय इस अवस्थामें जीवके लिये एकमात्र कर्तव्य यही है कि वह प्रकृति-माताकी आज्ञामे