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परम पूजा अन्चितप्रज्ञाशक्ति धारक आचार्य श्री. सुविधिसागर मी महाराज
पुगप्रमुख चारित्रशिरोमाण मन्मार्ग विवाका परमपूज्य प्राचार्य रान १०८ श्री विमलसागरजी महाराज हीरक जपम्ती के अवसरपर मोक्षित
पम्प मंगपा
भी परमपूज्य विश्र्वच महर्षि':. श्रीमदाचार्यवर्य नरेंद्रवंथ श्रीयुसागरविरचित शान्तिसुधासिन्धु
- - हिन्दी अनुवादक - श्री. धर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्री
- सम्पादक - स्व. पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापूर
(विचारस्पति, प्यायकाव्यतीर्थ )
-प्रकाशक - भारतवर्षीय अनेकान्त वित् परिषर सोनागिर, दतिया ( मध्य प्रदेश)
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ॐ
ननः श्रीवीतरागाव ||
श्रीमदाचार्यवर्य नरेंद्रवंद्य श्री कुंदसागरविरचित
शान्ति सुधासिन्धु ।
ar
श्री धर्मरत्न " पं. लालारामजी शास्त्री कृत
हिन्दी भाषाटीकासहित
वृषभादिमहावीरात् धर्मतीर्थप्रवर्तकान् । स्वर्मोक्षदायकान् प्रतान् पूर्वाचार्याशिजाश्रितान् ॥ १ ॥ शान्तिसिन्धुं तथा नत्वा सुधर्म सुखदं मया । शान्तिसिंधुवं ग्रंथो लिख्यते विश्वशान्तये ॥ २॥
बंदों में जिनवीरको सबविधि मंगलकार | "शान्ति-सिंधु" टीका लिखूं भवि-जीवन सुखकार 11
अर्थ - भगवान वृषभदेवसे लेकर श्री महावीर स्वामी पर्यंत चौवीस तीर्थंकर धर्मरूपी तीर्थकी प्रवृत्ति करनेवाले है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाले हैं और अत्यंत पवित्र हैं। ऐसे चौबीसों तीर्थंकरोंकों में नमस्कार करता हूं तथा अपने आत्माके आश्रित रहनेवाले श्री कुंदकुंद आदि समस्त आचार्योको नमस्कार करता हूं, अपने दीक्षा गुरु आचार्यवर्य श्री शान्तिसागरको नमस्कार करता हूं और सुख देनेवाले विद्यागुरु आचार्य सुधर्म - सागरको नमस्कार करता हूं । इस प्रकार में अपने इट देवको नमस्कार कर समस्त संसारमे शान्ति स्थापन करनेके लिये मं " शान्तिसुधासिंधु नामका ग्रंथ लिखता हूँ ।
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
प्रश्नः - स्वात्मस्वरूपं कथय प्रभो में प्राप्नोति जीवो विधिना हि केन ।
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अर्थ- हे प्रभो ! अब मेरे लिये अपने आत्माका स्वरूप कहिये तथा वह अपने आत्माका स्वरूप किस प्रकार प्राप्त हो सकता है गां भी बतलाइये ?
उत्तर:- यः कोपि भव्यो विषयं कषायं,
प्रसादं विषमां कुबुद्धिम् । अन्येषार्थं यतते यथार्थ, स्वात्मस्वरूपं परभावभिन्नम् ॥ ३ ॥
स एव भव्यः सुखदं यथार्थ, प्राप्नोति चानन्दपदं पवित्रम् |
गच्छन् सुमार्गेण यथा स्वदेशं,
A
प्रयाति धीमान् न खलः प्रमादी ॥ ४ ॥
अर्थ- जिस प्रकार कोई बुद्धिमान् पुरुष अपने देशको जाने के लिए श्रेष्ठ मार्ग चलता है तो पहुंच जाता है और जो दुष्ट पुरुष प्रमाद करता रहता है वह कभी नहीं पहुंच पाता । उसी प्रकार जो कोई भव्य पुरुष अपने विपय कषायों का त्याग कर देता है तथा प्रमादको छोड़कर तथा आत्माको घात करनेवाली कुबुद्धीको छोडकर पर - भावों से सर्वथा fra ऐसे अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको अन्वेषण करनेके लिए वा प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता है वही भव्य पुरुष चिदानंद पदस्वरूप, अत्यंत पवित्र और अनंत सुख देनेवाले आत्माके यथार्थ स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ - आत्माका स्वरूप अत्यंत पवित्र है, चिदानंदमय है अर्थात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप और अनंत सुख स्वरूप है तथा कोधाधिक कषायों और अन्य समस्त पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न है एवं अनंतसुख देनेवाला है । इस प्रकारके आत्माके स्वरूपको वहीं प्राप्त हो सकता है जो विषय पायोंका सर्वथा त्याग कर देता है, विपके समान आत्मा का घात
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( शान्तिसुधासिन्धु )
करनेवाली कुवृद्धिका त्याग कर देता है । प्रमादका त्याग कर ध्यान तपश्चरणके द्वारा उसको प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। ऐसा यह आत्मा अपने उसी आत्मामें लीन होता हुआ शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । प्रश्न:- मिथ्याल्बमूदः कथन प्रभो मे, मुखी भवेलकापि न वा त्रिलोके ।
अर्थ:- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मिथ्यान्व कर्मके उदयसे अत्यंत अज्ञानी हुआ यह जीव तीनों लोकोंमें कहीं भी सुखी होता है या नहीं होता? उत्तर:- मिथ्यात्वमूढो ह्यमतिश्च भुंक्ते,
मोऽपि नियनकाय दुःखन् । सन्तोषहीनश्च नरो बराको, दुःखी धनाढयोऽपि विचित्रवार्ता ॥ ५ ॥ [सम्यक्त्वशाली नरकेऽपि नित्यं, धीरो नरः स्वर्गसुखं च भुंक्ते । सन्तोषसम्पन्न नरो यर्थव, दारिद्रयुक्तोऽपि सदा सुखीह ॥ ६ ॥
अर्थ:- जो नीच मनुष्य मिथ्यादृष्टि होता है तथा उम मिथ्यात्वके कारण आत्मज्ञानसे सर्वथा रहित अज्ञानी होता है और इसीलिए जो बुद्धिहीन कहलाता है ऐसा मनुष्य सदा असंतोषी होता है तथा एमा मनुष्य स्वर्ग में जाकर भी नरकोंके दुःख भोगता है और धनाढ्य होकर भी सदाकाल दुःखी बना रहता है । संसारमें यह एक विचित्र बात है। इसी प्रकार जो पुरुष सम्यग्दृष्टी होता है वह धीर वीर होता है और वह नरक में भी स्वर्गके सुखोंका अनुभव करता रहता है । तथा जिम प्रकार संतोषी पुरुष सदा सुखी रहता है उसी प्रकार वह सम्यग्दृष्टी पुरुष भी दरिद्री होनेपर भी सदा काल मुखी रहता है ।।
भावार्थ:- स्वर्गमें नरकके दुःख भोगना और धनी होकर भी दुःखी रहना एक प्रकारसे विचित्र बात है । परन्तु विचारपूर्वक देखा
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( शान्तिसुधासिन्धु )
जाय तो बहुतसे धनी पुरुष भी महादुःखी दिखाई पड़ते है । किसीके पुत्र नहीं है इसलिए दुःखी होता है, किसी की स्त्री अच्छी नहीं है वा कलह करनेवाली है अथवा कोई धनी सदा बीमार रहता है उसके धनका उपयोग दूसरे लोग करते रहते है परन्तु उसको सिवाय मूंगकी दालके और कुछ खानेको मिलता ही नहीं है । इस प्रकार धन रहते हुए भी वे लोग मिथ्यात्वकर्मके उदय से मदा दुःखी बने रहते हैं। इसी प्रकार स्वर्ग में भी किल्बिष आदि नीच देव होने हैं वे इन्द्र की सभामें प्रवेश भी नहीं कर सकते तथा इसमें वे महादुःन्त्री बने रहते हैं । वे देव अन्य सम्माली देदोंगी विभतियों को देखकर महादुःखी हुआ करते हैं । इस प्रकार मिथ्यात्वकर्मके उदयसे ये मंसारी जीव सदाकाल दुःख भोगते रहते हैं । हे आत्मन् ! यदि तू इन दुःखोंसे बचना चाहता है तो सम्यग्दर्शन धारण कर । सम्यग्दृष्टी पुरुष नरक में पहुंचने पर आत्मजन्य सुखका अनुभव करता हुआ सदा सुखी बना रहता है । देखो जो पुरुष अत्यन्त सन्तोषी होता है वह पुरुष दरिद्री होनेपर भी उमीमें सुख मानता रहता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टी पुरुष सदा सुखी बना रहता है । प्रश्न:- सप्तम नरकं याति यो मोक्ष याति किं न सः ।
__ अर्थ:- हे भगवन् ! जो पुरुष सातवें नरकम जा सकता है वह पुरुष क्या मोक्ष में नहीं जा सकता ? उत्तरः- गाढप्रमोहाद्विषयाभिलाषा
यः सप्तमं श्वभ्रमपि प्रयाति । स एव कि मोक्षगृहं न याति, ध्यानाग्निना कर्मचयं च दग्ध्वा ॥ ७ ॥ मोक्षाभिलाषी सुखदं सुपुण्यं, बीजं भवाग्नेस्त्यजतीति मत्वा । दुःखप्रदं पापतमः स किन, लोकेऽस्ति भध्यस्थ कृतियगाधा ॥ ८ ॥
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ - जो पुरुष अपने गाढ मोहनीय कर्मके उदयसे तथा तीव्र विषयोंकी अभिलाषासे सातवें नरक में पहुंचता है वही पुरुष अपने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा कर्मों के समूहको जलाकर क्या मोक्ष महल में नहीं पहुंच सकता ? अर्थात् अवश्य पहुंच सकता है । मोक्षकी इच्छा करनेवाला जो भव्य पुरुष सुख देनेवाले श्रेष्ठ पुण्यको भी जन्म मरणरूप संसारकी अग्निका कारण वा बीज समझता है और इसीलिये वह पुरुष उस पुण्यका भी त्याग कर देता है। वह महापुरुष क्या महा दुःख देनेवाले पापरूपी अंधकारका त्याग नहीं कर सकता ? अवश्य कर देता है । इस संसारमें भव्य पुरुषकी कृति बहुत ही गहरी वा अगाध है ।
भावार्थ - जिसमें जितनी शक्ति होती है वह उतना ही काम कर सकता है । यह जीव स्त्रीपर्यायसे सातवें नरकमें नहीं जा सकता, इसलिये वह स्त्रीपर्यायसे मोक्ष में भी नहीं जा सकता। जो पुरुष सातवे नरक में जा सकता है वह पुरुष मोक्ष भी जा सकता है। केवल साधन बदलने की आवश्यकता है । नरकको प्राप्ति अत्यंत तीव्र मोहसे और अत्यत तीव्र विषय भोगोंकी इच्छासे होती है। और मोक्षकी प्राप्ति ध्यान और तपश्चरण से होती है । जब ध्यानके द्वारा यह जीव समस्त कर्मोंका नाश कर लेता है और अत्यंत शुद्ध अवस्थाको धारण कर सिद्ध अवस्था में जा विराजमान होता है तब वही जीव मुक्त कहलाता है । जो पुरुष नरककी कारणभूत ऐसी विषयोंकी अभिलाषाका त्याग कर देता है वह पुरुष चक्रवर्तीके महासुखोंको भी हेय समझकर उनका त्याग कर देता है फिर भला उसके लिये महा दुःख देनेवाले पापोंकी तो बात ही क्या है उनका त्याग तो वह कर ही देता है। इसलिये आचार्य कहते हैं कि भव्य पुरुषोंके समस्त कार्य अगाध वा अत्यंत गंभीर होते हैं, उनका पार कोई नहीं पा सकता । इसलिये है आत्मन् ! तू भी विषयोंका त्याग कर और मोक्षकी इच्छा करता हुआ ध्यान तपश्चरणके द्वारा मोक्ष प्राप्त कर |
प्रश्न
भो गुरो हेतुना केन दुःखं प्राप्नोति मानवः ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपा कर यह बतलाइये कि यह मनुष्य किन किन कारणोंसे दुःख भोगता है ?
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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर- अज्ञानतो मूढजनश्च भीमे,
श्वभ्रे सदा भेदनछेदनोत्थम् । तिर्भागसौ वा याच प्रमोद मानानलोत्थं च नृजन्मनीह ॥ ९ ॥ स्वर्ग तथा लोभकषायजातं, ह्यागन्तुकं वा सहजादिकं च । प्राप्नोति दुःखं विषवव्यथावं, नाहो खलो वेधि करोति किं किम् ॥ १० ॥
अर्थ - इस संसार में अज्ञानी पुरुष अपने अज्ञानके कारण भयानक नरक में छेदन भेदन मारण ताडन आदिके महा दुःख भोगता रहता है, तिर्यच गतीमें वध बंधन आदिके महादुःख भोगता है, मनुष्यगतीमें अभिमानरूपी अग्निसे उत्पन्न हुए महा दुःख भोगता रहता है और स्वर्गमें लोभकषायसे उत्पन्न हुए महादुःखोंको भोगता रहता है। इन चारों गतियोमें स्वभावसे होनेवाले महादुःख तथा अकस्मात् आनेवाले महादूःख वा अन्य अनेक प्रकारके महादुःख वा विषके समान महादुःख देनेवाले महादुःख भोगने पडते हैं । आचार्य कहते हैं कि दुष्ट पुरुष क्या क्या करते हैं और कैसे कसे दुःस्त्र भोगते हैं यह हम भी नहीं जान सकते।
भावार्थ - चारों गतियोंमें जो दुःख भोगने पड़ते हैं उनका वर्णन भी कोई नहीं कर सकता। नरकतिमें नारकी लोग परस्पर एक दूसरेको दुःख दिया करते हैं, कोई किमीको मारता है, कोई किसीको सिंह बनकर खा लेता है, कोई वैतरणीमें पटक देता है और कोई शरीरके टुकडे टुकड़े कर देता है । उनका शरीर पारेके समान टुकड़े टुकडे होकर भी फिर ज्योंका त्यों मिलकर एक हो जाता है। वहां पर कुछ नरकोंमें गर्मी है और इतनी गर्मी है कि मेरु पर्वतके समान लोहेका गोला भी जाते जाते गल जाय तथा जिन नरकोंमें ठंडक है वहां इतनी ठंडी है कि इतना ही बड़ा लोहेका गोला ठंडकसे क्षार क्षार हो जाय । वहांके पत्ते तलवारकी धारके समान पैने होते हैं जो शरीरपर पडते ही टुकडे टुकडे कर देते हैं । कहां तक कहा जाय वहांके दुःखोंको सर्वज्ञ ही जानते हैं,
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अन्य कोई नहीं कह सकता । तिर्यंचगतिमें छोटे छोटे जीव यों ही चाहे जब मारे जाते हैं तथा पशुओंपर भारी बोझा लादा जाता है, भूखे। प्यासे बंधे रहते हैं, गर्मी सर्दी के महा दुःख भोगते रहते हैं, और सदा पारधीन रहते हैं । मनुष्यगतिम दरिद्रताका दुःख है, रोगोंका दुःख है। विषयोंकी तृष्णाका दुःख है, संतान न होने का दुःख है, मान अपमानका दुःख है और जीविकाका दुःख है । देवगतिमें नीचता ऊंचताका दुःख है। छोटे देव बड़े देवोंकी संपत्ति देखकर जला करते हैं तथा उनको अधिकतर मानसिक दुःख है । इसप्रकार चारों गतियों में महा दुःख हैं इसलिए हे आत्मन् ! यदि तू इन दुःखोंसे बचना चाहता है तो कषायोंका त्याग कर और अपनं आत्माको शुद्ध बनाकर उसमें लीन हो ।
प्रश्न – बद मे कीदृशो माग भाति समुसारिका
अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि कैसा जीव स्वर्गादिकोके सुत्रोंको प्राप्त होता है। उतर- सम्यक्त्वशाली गुणदोषवेत्ता,
दानादिकारी शुभयोगधारी । श्रेष्ठं च सौख्यं वरभोगभूम्याः, सर्वार्थसिद्धर्वचसाप्यवाच्यम् ।। ११ ॥ पुनश्च साम्राज्यपदं पवित्रं, भुक्त्येति धीरश्च गतान्तरायम् । प्रयाति मोक्षं क्रमतोऽप्यहो सः,
शुभक्रियाया महिमा ह्याधिन्त्यः ॥ १२ ॥ अर्थ - जो पुरुष शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण करता है. जो गुण और दोषोंका पूर्ण विचार करनेवाला होता है, जिन-पूजन और पात्र-दान शुभ क्रियाओंको करता रहता है और जो सदाकाल शुभ योगोंको धारण करता रहता है, ऐसा पुरुष उत्तम भोगभूमिके श्रेष्ठ सुखोंको प्राप्त होता है तथा जो वचनोंसे कहे भी नहीं जा सकें ऐसे सर्वार्थसिद्धिके उत्तम सुखोंको प्राप्त होता है । तंदनंतर वह धीर वीर पुरुष बिना किसी अन्तरायके चक्रवर्ती आदिके पवित्र साम्राज्य पदका
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अनुभव करता है और फिर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसमें किसी प्रकारका मंदेह नहीं है क्यों कि शुभ क्रियाओंकी महिमा अचिननीय है।
भावार्थ - समस्त क्रियाओंमें सर्वोत्तम शुभक्रिया सम्यक्त्व क्रिया कहलाती है । इस मंसारमें सम्यग्दर्शनकी महिमा अद्भुत है उसका कोई चितवन भी नहीं कर सकता । सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे यह जीव स्वर्गाके सुख भोगता है, सम्यक्त्वके ही प्रभावसे चक्रवर्तीकी विभूती प्राप्त करता है सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे अनेक ऋद्धियां प्राप्त करता है और सम्यग्दर्शन के ही प्रभावसे तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न – कथं स्वात्मसुखं भुक्ते स्वामिन् कथय मानवः ।
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि यह मनुष्य आत्मसुखका अनुभव किस प्रकार करता है ? उत्तर - शुभाशुभं दुःखमयं स्पाति.
त्यक्त्वाऽक्षसौख्यं च कषायकाण्डम् । यः स्वात्मना स्वात्मनि स्वात्मनेवात्मानं सदा पश्यति वेत्ति लोके ॥ १३ ॥ स एव चानन्दरसं पि.द्धि, भुंजीत साम्राज्यसुखं निजे छ । शुद्धोपयोगस्य बलेन स स्यात्,
समस्तसंकल्पविकल्पमुक्तः ॥ १४ ॥ अर्थ – जो पुरुष अपने समस्त शुभाशुभ परिणामोंका त्याग कर देता है, अनंत दुःख देनेवाली समस्त इच्छाओंका त्याग कर देता है, समस्त इन्द्रियोंके सुखोंका त्याग कर देता है और समस्त कषायोंके समूहका त्याग कर देता है। इन सबका त्याग कर जो अपने आत्मामें अपने ही आत्माके लिये अपने ही आत्माके द्वारा अपने ही आत्माको सदाकाल देखता वा जानता रहता है वही पुरुष इस संसारमें अपने शुद्धोपयोगके बलसे आत्मजन्य अनंत आनंद-रसका पान करता रहता है तथा शुद्ध आत्माके साम्राज्यसुखका अनुभव करता रहता है और
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(शान्तिसुधासिन्धु )
'अंस में बह समस्त संकल्प विकल्पोंसे रहित होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ -- आत्मरमके पान करनेका अभिप्राय आत्माके शुद्ध स्वरूपका अभनुव करना है तथा अनुभव आत्माके सुद्धोपयोगसे होता है । यद्यपि आत्माके शुद्धस्वरूपका अनुभव करना और शुद्धोपयोगका होना दोनों ही आत्माके स्वाभाविक धर्म हैं तथापि कर्मोंने उस स्वभावको ढक रक्खा है। वे कर्म आत्माके शुभ अशुभ भावोंसे आते हैं, महादुःख देनेवाली विषयभोगोंको नष्णासे आते हैं, इन्द्रियजन्य सुस्वोंसे आते हैं और कषायोंसे आते हैं। इसलिये जब यह आत्मा शुभाशुभ भाव विषयभोगोंकी तृष्णा, कषाय और इन्द्रियोंके सुखोंका त्याग कर देता है तब अनुक्रममे पहलेके कर्म नष्ट होकर शुद्धोपयोग प्राप्त हो जाता है
और फिर उस शुद्धोपयोगसे यह आत्मा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभव करने लगता है । . प्रश्न - सुखदं दुःखदं वस्तु मन्यने च कथं जनः ?
अर्थ - हे प्रभो ! यह मनुष्य इस संसारक पदार्थोको सुख देनेवाले वा दुःख देनेवाले किस प्रकार मान लेता है ? उत्तर न विद्यते को परमार्थदृष्टया,
सुदुःखदं वा सुखदं च वस्तु । तथाप्ययं मन्यत एव मूढस्तथाविधं मोहवशाद्वराकः ॥ १५ ॥ ततो ह्यनिष्टेष्टभवं च दुःख, भंजन्नपीहात्महितेऽतिमन्दः सुख्यस्म्यवोधादिति मन्यते सः,
ह्यहो प्रमूढस्य गतिविचित्रा ।। १६ ॥
अर्थ-(इस संसारमें यदि यथार्थ रीतिसे देखा जाय तो कोई भी पदार्थ न तो मुख देनेवाला है और न दुःख देनेवाला है तथापि यह नीच अज्ञानी मनुष्य अपने मोह के कारण उन पदार्थोंको सुख देनेवाला या
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( शान्तिसुधासिन्धु )
दुःख देनेवाला मान लेता है ) जब यह अज्ञानी मनुष्य उनको सुख दुःख देनेवाला मान लेता तब वह फिर उनमें इष्ट और अनिष्टकी कल्पना करता है। तदनंतर अपने आत्माक हित करने में अत्यत प्रमाद करनेवाले वह पुरुष जरा इाट और अनिष्ट कल्पनाके कारण उन पदार्थीमें ही अपनी अज्ञानतासे सुख मान लेता है और अपने ही अजानसे दुःखों को भोगता हुआ दुःखी मान लेता है । आचार्य कहते हैं ऐसे अज्ञानी पुरषकी गति भी अत्यन्त विचित्र है।
भावार्थ- इस संसारमें समस्त पदार्थ अपने अपने स्वरूपको लिए हुए रहते है । इन में से कोई भी पदार्थ किसीको भी सुस्त्र बा दुःख देने वाला नहीं है। अपने मोहसे जिसको यह जीव इष्ट समझ लेता है उसको सुखका कारण मान लेता है और जिसको अनिष्ट समझ लेता है उसको दुःख का कारण मान लेता है । इस प्रकार उन पदार्थोंको मुख देनेवाला वा दुःख देनेवाला मान लेता है। परन्तु यह सब उसकी कल्पना है । जो पदार्थ किमी मनुष्यको इष्ट होता है वही पदार्थ दूसरेको अनिष्ट होता है। किमीको दुध अच्छा लगता है, किसीको दूधसे बहुत ही अभत्रि होती है । दुध ज्योंका त्यों है । उसके पीनेमें कोई दुःख मान लेता है और कोई सुख मान लेता है । यह केवल अपनी-अपनी कल्पना है। तथा यह कल्पना अपने मोह बा अज्ञानके कारण हुई है । इसलिये सबसे पहले इस जीवको मोह और अज्ञानका त्याग कर देना चाहिए । मोह और अज्ञानका त्याग कर देनेसे ही यह जीव समस्त पदार्थों में इष्ट अनिष्ट कल्पनाका त्याग कर समता धारण कर सकता है और समतासे शुद्धोपयोगको प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न - सति प्रिये पदार्थेपि दुःखी भवति कि जनः ?
अर्थ - हे भगवान् ! प्रिय वा इष्ट पदार्थोके रहते हुए भी यह मनुष्य दुःखी क्यों होता है ? उत्तर:- सर्वः पदार्थः प्रियबांधयोपि,
प्रातः प्रियस्तोषकरो यथेष्टम् । नीरोगजन्तो भवतीह योग्यः, सरोगिनो देव स एव हेयः ॥ १७ ॥
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
तथाऽप्रियः शत्रसमो ध्यथाबोलोक्यश्च सन्ध्या समयेऽपरान्हे । लीला विचित्रास्ति, सरागजन्तो मालिन्यमूलं मनसो भवेद्वा ।। १८ ।।
अर्थ- जब यह मनुष्य किसी प्रातः कालके समय अत्यन्त नौरोग होता है तब प्रिय बन्धु आदि समस्त पदार्थ प्रिय जान पड़ते हैं, सन्तोष देनेवाले जान पड़ते हैं तथा इष्ट और सब तरहसे योग्य मालूम होते हैं | परन्तु दोपहर के बाद जब कोई तीव्र रोग हो जाता है वा तीव्र ज्वर चढ आता है तत्र दोपहर के समय वे ही सब पदार्थ शत्रुके समान दुःख देनेवाले और सर्वाने रोग जान करते हैं यहां तक कि फिर उनको देखना भी बुरा लगता है । इससे यह सिद्ध होता हैं कि सरागी जीवोंकी लीला बडी ही विचित्र होती है अथवा यह सब कल्पना मनको मलिनतासे होती है ।
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भावार्थ - इस संसार में जो-जो सुखके साधन हैं जो-जो स्वादिष्ट भोजन स्त्री पुत्रादिक इष्ट पदार्थ हैं ये सब किसी भी रोगके होनेपर अनिष्ट वा दुःखके साधन हो जाते हैं। यद्यपि वे पदार्थ ज्योंके त्यों हैं । उनमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है तथापि ज्वरादिक रोग में वे सब दुःखदायी जान पड़ते हैं । जाडेके दिनों में जो रुईका कोट सुख देनेवाला समझा जाता है बहि रुईका कोट गर्मी के दिनोंमें दुःखदायी समझा जाता है । यह सब रागद्वेषकी कल्पना है अथवा मनकी मलिनता है । जिन tath हृदयसे रागद्वेष निकल जाता है अथवा मनकी मलिनता निकल जाती है वे जीव अपने आत्माके सिवाय अन्य शरीरादि समस्त पदार्थोंको हेय समझते हैं और इसीलिये वे किसीमें भी राग वा द्वेष नहीं करते । क्योंकि राग वा द्वेषकि कल्पना ही सुख वा दुःखका कारण है। इस प्रकार जो जीव राग द्वेषका सर्वथा त्यागकर देते हैं वे पुरुष समता धारणकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
प्रश्न- रोचते रागिणे वस्तु कीदृशं मो गुरो वद ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अब यह बतलाइये कि इस संसार में सरागी जीवोंको कैसे पदार्थ अच्छे लगते हैं ?
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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर- मनः प्रियं वस्तु यदेव सुष्ठु
सरागिणे स्याद्धि तदेव योग्यम् । सुरोचते प्राणत एव मान्यं, प्रियं भवेन्मोक्षपदार्थतश्च ॥ १९ ॥ तद्वस्त्वयोग्यं भवदे व्यथावं, कि स्थान नहीं रहनामानि । तत्संचयार्थ यतेत ततश्च,
तेभ्यश्व देहीह विभो सुबोधम् ॥ २० ॥ - अर्थ-- रागी पुरुषको जो पदार्थ मनको अच्छा लगता है उसी पदार्थको वह प्रोग्य समझता है, उसीको अच्छा समझता है उसीको प्राणोंसे अधिक समझता है और उसीको मोक्ष पदार्थसे भी प्रिय समझता है। वह पदार्थ चाहे अयोग्य ही क्यों न हो, जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाला ही क्यों न हो और महा दुःख देनेवाला ही क्यों न हो तथापि अज्ञानी पुरुष उसके संचयके लिए प्रयल करता रहता है । हे भगवन् ! • आप उनको सम्यग्ज्ञान प्रदान कीजिये ।
भावार्थ-- जिस प्रकार मद्य पीनेबाला व अफीम खानेवाला पुरुष उस मद्य पीनेमें वा अफीम खानेमें अनेक प्रकारकी हानियां समझता है । उनको खा पीकर दुःखी भी होता है. तथापि उसको छोडता नहीं। इसी प्रकार रागी पुरुष उसीको अच्छा समझता है जो उसके मनको अच्छा लगता है । वह पदार्थ चाहे अयोग्य ही क्यों न हो उससे चाहे जितना दुःख क्यों न मिले तथापि बह उसे प्राणोंसे अधिक मानता है और उसीको संचयके लिये प्रयत्न करता है । यदि यथार्थ ज्ञान हो और यदि वह पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको समझने लगे तो फिर वह दुःख देनेवाले पदार्थों में कभी भी अनुराग न करे । अपने गाढ अज्ञानके ही कारण बह दुःख देनेवाले पदार्थोंको प्रिय और अच्छा मानता है । इसलिए हे भगवन् ! ऐसे अज्ञानी पुरुषोंका अज्ञान दूर कीजिये और उनको आत्मज्ञान दीजिये, जिससे कि वे पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप समझने लगें।
प्रश्न- सत्यार्थबस्तु प्रविहाय मूढो, गृहाति किं वा विपरीतवस्तु?
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृष्णकर यह बतलाइये कि अन्नाती पुरुप यथार्थ वस्तुको भी छोडकर विपरीत पदाथोंको क्यों ग्रहण करता है ? उत्तर - अत्यंत दुष्टेन भवप्रदेन,
मोहेन मत्तो हतधर्मकर्मा। यथार्थवस्तु प्रविहाय मूखों, गृण्हात्यबोधाद्विपरीतवस्तु ॥ २१ ॥ सुरादिपानेन तात्मबुद्धि-, नरो यथा को भगिनीमपोह । सुमन्यते मातरमेव मूढो, भार्या वरां मन्यत एव देवीम् ॥ २२ ॥
अर्थ- इस संसारमें जो पुरुष मद्यपान करता है उसकी बुद्धि मारी जाती है- नष्ट हो जाती है । और फिर वह अत्यन्त मूर्ख पुरुष अपनी बहिनको भी स्त्री समझ लेता है और माताको भी स्त्री समझ लेता है अथवा अन्य किसी देवीको भी स्त्री समझ लेता है । उसी प्रकार जन्म मरणरुप संसारको देनेवाले और अत्यन्त दुष्ट ऐसे मोहले उन्मत्त हुआ यह जीव धर्म कर्मसे सर्वथा रहित हो जाता है । और वह मूर्ख अपने अजानके कारण यथार्य वस्तुओंका तो त्यागकर देता है और विपरीत वा अयथार्थ वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है।)
भावार्थ- तीन मोहके कारण ही यह मनुष्य पदार्थोके यथार्थ स्वरुपको भूल जाता है और उसके विपरीत स्वरुपको मानने लगता है । जिस प्रकार मद्यपान करनेवाला पुरुष माताको स्त्री समझ लेता है वा बहिनको स्त्री मान लेता है। उसी प्रकार मोहके कारण ही यह जीव पर पदार्थोको अपना मान लेता है और अपने आत्माके स्वरुपको भूल जाता है । जब यह जीव इस मोहको छोड देता है तब ही यह जीव अपने आत्माका स्वरूप समझने लगता है और फिर पर पदार्थोको अपना माननेका संकल्प छोड देता है। ऐसा करनेसे वह यथार्थ ज्ञानी कहलाता है और शीघ्र ही आत्माका कल्याण कर लेता है।
प्रश्न -- एकस्थाने सदा ब्रूहि कि न तिष्ठति मानव: ?
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( शान्तिसूत्रासिन्धु )
अर्थ - हे देव ! अब यह बतलाइये कि यह जीव सदा काल किमी एक स्थानपर क्यों नहीं रहता है । परिभ्रमण क्यों किया करता है । उत्तर- पूर्वक्रियाकर्मयशाच्च जीवो
हात्यन्तनिद्ये विषमे भवान्धौ । भूत्वा ह्यसाम्यो भ्रमतीह नित्यं वस्त्रान्नपानं रहितश्च वीनः ॥ २३ ॥
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पूर्वप्रयमादिवा
भुवोह व धूमरथो यथा हि । कुलालचक्रं वरगीतयंत्रं गतिविचित्रास्ति कुकर्मणो हो ॥ २४ ॥
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अर्थ – जिस प्रकार हवाई जहाज पहले के प्रयोगसे अर्थात् चावी भर देनेसे या यंत्र घुमा देनेसे आकाशमं उडा करता है किसी एक स्थानपर नहीं ठहरता तथा पृथ्वीपर चलनेवाली रेलगाडी एक स्थान पर नहीं ठहरती अथवा कुंभारका चक्र एक बार घुमा देनेपर घूमता ही रहता है तथा फोनोग्राफकी चूडी एक बार चावी देनेपर वह धूमती ही रहती है उसी प्रकार इस जीवने जैसे कर्म किये हैं उनके उदय होनेपर यह जीव राग द्वेषको धारण करता हुआ तथा अन्न पान वस्त्र आदिसे रहित अत्यंत दीन होता हुआ अत्यंत निन्द्य और भयानक ऐसे संसाररूपी समुद्र में सदा काल परिभ्रमण किया करता है। सो ठीक ही है इस संसार में अशुभ कर्मोंका उदय वा कुकमौका फल बहुत ही विचित्र होता है ।
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भावार्थ -- यह जीव जैसे कर्म करता है उनके उदय होनेपर उसको मी ही गति में वैसी ही योनिमें और वैसाही शरीर धारण कर जन्म लेना पड़ता है | कभी नरकमें जाकर जन्म लेता है, कभी तियंच योनि में जाकर अनेक प्रकारके कीड़े मकोडोंमें जन्म लेता है, कभी मनुष्य योनिमें ऊंच नीच दुःखी दरिद्री वा धनी सुखी होकर जन्म लेता है और कभी व्यंतर ज्योतिष्क भवनवासी आदि देवोंमें जन्म लेता है। अपने अपने कर्म के अनुसार चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता रहता है । इस जीवके जबतक यह कर्मोंका संबंध लगा रहता है तब तक यह जीव कभी एक
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स्थानपर नहीं ठहर सकता । जन ग्रह जीव विषशकापायोंका त्यागकर ध्यान और तपश्चरण करने लगता है तब यह जीव समस्त कर्मोको नाश कर सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है और फिर अनंत काल तक वहीं विराजमान रहता है । कर्मोका अभाव होनेसे फिर उसका परिभ्रमण सर्वथा हट जाता है।
प्रश्न- स्वामिन् ! पातयितुं चेच्छत्स्वयं पतेन वा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य दूसरोंको गिराना चाहता है वह स्वयं गिरता है वा नहीं ? उत्तर- यः कोपि दुष्टः खलु दुष्टबुद्ध्या
स्वमानवृद्ध्य स्वधनादिहेतोः । न्यायात्स्वधर्मात्स्वपदात्सुमार्यात् लक्षम्यास्तथा पातयितुं सदा यः ॥ २५ ॥ अन्यान् सुबन्धून् यततेऽन्धकूपे, स एव पापीह तथान्यलोके । तत्पापयोगात्स्वयमेव भीमेः, पतत्यवश्यं नरके निगोदे ॥ २६ ॥
अर्थ- जो कोई दुष्ट पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धिके कारण अपना धन बढ जाने के कारण अपने अभिमानको बढानेके लिए अन्य धर्मात्मा भाइयोंको न्यायमार्गसे गिराना चाहता है वा अपने धर्मसे गिराना चाहता है वा अपने स्थानसे गिराना चाहता है अथवा श्रेष्ठमार्गसे गिराना चाहता है अथवा किसीको धनसे गिराना चाहता है अथवा अन्य किसी अन्धकूपमें गिराना चाहता है वह पापी पुरुष अपने उस महापापके कारण दूसरे जन्ममें जाकर अत्यंत भयानक नरकमें वा निगोदमें अवश्य गिर जाता है।
भावार्थ- इस संसारमें जो जीव जैसा करता है यह वैसा ही फल पाता है । जो मनुष्य जिनालयकी शिम्बर बनता है वह शिस्त्र रकी उंचाईके साथ-साथ उचां चढ़ता जाता है तथा जो कूआ खोदता हैं
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और कएँकी गहराइके साथ साथ नीचे उतरता जाता है । इसीप्रकार जो जीव अन्य जीवोंका उद्धार करता रहता है वा अन्य जीवोंका कल्याण करता है उसका कल्याण सदा होता है और जो पुरुष दूसरोंके अहित करनेका विचार करता रहता है या किसीको न्यायमार्गसे च्युत करना चाहता है वा धर्ममार्गसे न्युन करना चाहता है वा किसीका धन लूटना चाहता है वा अपनी प्रसिद्धि के लिए दूसरोंको गिराना चाहता है अथवा अन्य किसी भी तरहसे दूसरोंको हानी पहुंचाना चाहता है वह जीव इस जन्ममें भी नीचा दिखता है, दुःखी दरिद्री होता है और परलोकमें जाकर नरक निगोदके असह्य दुःख भोगता रहता है । इसलिए हे आत्मन् ! तू अपने आत्माका कल्याण करता हुआ सदा दूसरोंका कल्याण करता रह ।
प्रश्न- कृतकर्मफलं जीवो स्वयं भुक्तेऽथवा परः ?
अर्थ- हे भगवन् ! यह जीव अपने किये हुए कमोका फल स्वयं भोगता है अथवा अन्य किसीको भोगना पडता है ? उत्तर- शुभाशुभं यत्किमपोह कर्म,
कृतं च यैर्वा खलु कारितं हि । तैरेव तत्कर्मफलं हठाद्धि, प्रभुज्यते राज्यपदे स्थितेऽपि ॥ २७ ॥ स्पष्टं परर्दश्यत एव लोके, यस्यास्ति देहे विषमश्च रोगः । स एव तं सहते स्थितेऽपि,
न स्यात्सभागी प्रियांधवेपि ॥ २८ ॥
अर्थ -- संसारमें यह बात स्पष्ट रीतिसे दिखाई पड़ती है कि जिसके शरीरमें कोई विषम रोग हो जाता है वही पुरुष अनेक प्रिय भाई बंधुओंके होनेपर भी अकेला ही उस दुःखको सहन करता रहता है उस समय कोई भी भाई बंधु उसके दुःखको नहीं बांट सकते । इसी प्रकार जिस जीवने शुभ अशुभ जो कुछ कर्म किये हैं वा जो कुछ कराये हैं उन समस्त कर्मोका फल यही जीव बडे-बडे राज्य सिंहासन पर विराजमान होकर भी परवश होकर सहन करता रहता है ।
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भावार्थ- इस संसारमं जो कर्ता है वही भोक्ता है । उसका कारण यह है कि जिस समय यह जीव किसी भी शुभ वा अशुभ कार्यको करनेका चितवन करता है वा उसकी सामग्री इकट्ठी करता है अथवा उस कामको करने लगता है उसी समय इस जीवके जैसे शुभ वा अशुभ परिणाम होते हैं उन्हीं परिणामोंके अनुसार उसी समय इस जीवके वैसे ही शुभ अथवा अशुभ कर्मका बंध हो जाता है उस समय यदि शुभ परिणाम हों तो शुभ कर्मोका बंध होता है और यदि अशुभ परिणाम हों तो अशुभ बंध होता है । तथा उसी समय इस जीवके परिणामोंमें यदि तीव्र कषाय होते हैं तो उन कर्मों में अधिक दिन तक प्रबल दुःख देनकी शक्ति पड़ जाती है और यदि कषायोंकी मंदता होती है तो थोडे दिनों तक थोडे सुख वा दुःख देने की शक्ति पड जाती है, इसप्रकार जिन कर्मों में सुख वा दुःख देने की शक्ति पड गई है और मुख देने के लिए कालकी मर्यादा वा स्थिति भी पड़ गई है ऐसे वे कर्म अपने समयके अनुसार उसी समय उदयमें आ जाते हैं और उसी जीनको सुख वा दुःख देने लगते है । उदयमं आनेपर वे कर्म अपने सुख दुःख देनेके निमित्त भी सब वैसे ही मिला लेते हैं । यद्यपि कर्म जड वा पुद्गल हैं परंतु जिस प्रकार जीव पदार्थमें गमनागमन करनेकी वा क्रिया करनेकी शक्ति होती है उसी प्रकार पुद्गलों में भी गमनागमन करनेकी वा क्रिया करनेकी शक्ति होती है । जिसप्रकार सूर्य चन्द्रमा वा नक्षत्रोंके विमान पुद्गलके बने हुए होनेपर भी समयानुसार अपने आप उदय अस्त होते रहते हैं वा पानीका बरसना वा दक्षिणी पश्चिमी वायुका चलना समयानुसार अपने आप होता रहता है उसीप्रकार कर्म भी अपने समयपर अपने आप उदयमें आकर इस जीवको सुख वा दुःख दिया करते हैं और यह जीव उन कर्मोके उदयसे उस किये हुए अपने कर्मके अनुसार स्वयं दुःख वा सुख भोगा करता है । उस सुख वा दुःखको अन्य कोई भी जीव नहीं बांट सकता । जिसप्रकार किसी रोगीका दुःख अन्य कोई भी नहीं बांट सकता उसी प्रकार किसीके किए हुए कर्मोंका वा उनके उदयमे होनेवाले सुख दुःखको कोई नहीं बांट सकता यह अटल सिद्धांत है।
प्रश्न- पशुन् नयन्ति बध्वेति रज्जुना केन मानवान् ?
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अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जिस प्रकार पशुओंको रस्सीसे बांधकर ले जाते हैं उमी प्रकार मनुष्यों को किससे बांधकर ले जाते है ? उत्तर - दृढप्रगाढेन च मोहरज्जु-,
नान्त्यन्तदुःखाब्धिविवर्द्धकेन । बध्वेति जीवान् खलकमंचौरा, हठान्नयन्त्येव च यत्र तत्र ।। २९ ॥ यथैव बध्वा वृद्धरज्जुना च, को श्रृंखलेनैव नरा नयन्ति । क्रूरांश्च सौम्यानपि सर्वजन्तून्, ग्रामान्तरं वा नगरान्तरं च ॥ ३० ।।
अर्थ- जिस प्रकार मनुष्य किसी मजबूत रस्सीसे अथवा सकलसे बांधकर क्रूर अथवा शान्त पशुओंको एक गांवसे दूसरे गांव तक अथवा एक नगरसे दुसरे नगर तक ले जाते हैं, उसीप्रकार अत्यन्त दुष्ट ऐसे कर्मरूपी चोर अत्यन्त महादुःख रूपी समुद्रको बढानेवाले ऐसे मोहरूपी रस्मीसे इन मनुष्यादिक समस्त जीवोंको जबरदस्ती बांधकर इधर उधर ले जाते हैं।
भावार्थ- ग्रह जीव स्वयं जिन कोको करता है फिर वह उन्हीं कर्मोके आधीन हो जाता है। जिस प्रकार घोडेके वालोंसे बनी हुई रस्सी उसी घोडेको मजबूतीके साथ बांध लेती है, उसी प्रकार इस जीवके द्वारा किये हुए कर्मरूपी चोर उन्हीं कोंके उदयसे उत्पन्न होनवाले मोहरूपी रस्सी के द्वारा इस जीवको मजबूतीके साथ बांध देते हैं और फिर चारों गतियोंके परिभ्रमणमें अनन्त काल तक धुमाया करते हैं । पशुओंको सांकल वा रस्सीसे बांधकर एक स्थानसे दूसरे स्थान तक ले जाते हैं इसमें तो मनुष्योंका स्वार्य है । मनुष्य अपने स्वार्थके लिए ही पशुओंको बांधते हैं और बांधफर ले जाते हैं । परन्तु कर्म जो मोहरूपी रम्सीमे जीवोंको बांधते हैं वा बांधकर चारों गतियोंमें परिभ्रमण कराते हैं उसमें कर्मोंका कोई स्वार्थ नहीं है। वे कर्म तो इसी जीवने अपने
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स्वार्थ के लिए वा विषयभोगों की तृष्णाके लिए बांधे थे। परन्तु वे ही कर्म उदय आनेपर इस जीवको चारों गतियोंमें परिभ्रमण कराते हैं जिसप्रकार चोरी करनेवाले चोरको राजकर्मचारी पकड़कर बांध लेते हैं परन्तु उसमें राजकर्मचारियोंका कुछ स्वार्थ नहीं है। चोरी करने के अपराधसे ही वे उसको बांधते हैं, इसी प्रकार जीवका ही स्वयं अपराध होनेसे जीव बांधा जाता है तथा उस अपराधके कारण ही कर्म उसे बांधकर चारों गतियों में परिभ्रमण कराता हैं ।
प्रश्न-- गुरो यत्र भवेद्रागस्तत्र द्वेषो न वा वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि जहांपर राग होता है वहां पर ष होता है वा नहीं अर्थात् जिम जीवके राग होता है उसके द्वेष होता है वा नहीं ?
उत्तर - यस्यास्ति रागो भवदुःखदश्च,
समस्तसंकल्पविकल्पकारी ।
द्वेषोपि तस्यावयवेस्ति पूर्णा, मिथः सदा वैरविरोधहेतुः ॥ ३१ ॥
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ग्रस्तः सदा भोगपिशाचवगँ -, यः कोपि मूर्खश्च कुटंबवर्गः । द्वेषो न कस्योपरि मे प्रभो स्याद्, ब्रवीति चेयं स खलेषु मुख्यः ॥ ३२ ॥
अर्थ जिस जीवके आत्मामें समस्त संकल्प विकल्पोंको करनेवाला और संसारके महादुःख देनेवाला राग होता है, उस जीवके अवयवों में सदाकाल वैर विरोधको वद्वानेवाला वा परस्पर वैर विरोधका कारण ऐसा द्वेष भी पूर्ण रीतिसे रहता है। यदि भोगोपभोगरूपी पिशाच्चोंके समूहसे ग्रस्त हुआ और अनेक कुटंबियोंसे घिरा हुआ कोई भूर्ख पुरुष यह कहे कि हे भगवन् ! मैं किसीसे द्वेष नहीं करता तो समझना चाहिए कि वह दुष्टों में भी मुख्य दुष्ट है।
भावार्थ- संसारी जीवोंमें यह नियमसिद्ध सिद्धान्त है कि जहां जहां राग होता है वहां-वहां द्वेष अवश्य होता है अथवा जहां जहां द्वेष
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होता है वहां-वहां राग अवश्य होता है। जहां राग नहीं होता वहां द्वेष भी नहीं होता। अथवा जहां द्वेष नहीं होता वहां राग भी नहीं होता । यह राग-द्वेषका जोडा बराबर नौवें गुणस्थान तक बना रहता है। इसलिए जो मनुष्य भोगविलासोंमें लगा हुआ है तथा जो अनेक कुटंबियोंके साथ रहता है ऐसा जो मनुष्य यह बात कहता है कि मैं राग तो करता हूं परतु द्वेष किति नहीं करता तो समझना चाहिए कि वह मायाचारी करता है । जब वह कुटंबियोंसे प्रेम वा राग करता है तो उन कुटवियोंको हानि पहुंचानेवालोंपर वेष भी अवश्य करेगा । अथवा यो समझना चाहिए कि जो पुरुष अपने कुटंबियोंको हानि पहुंचानेपर वा मारनेपर हानि पहुंचावानेलेके साथ बा मारनेवालेके साथ द्वेष नहीं करता वह अपने कुटंबियोंके साथ राग भी नहीं करता । इससे सिद्ध होता है कि रागद्वेष दोनों साथ-साथ ही रहते हैं जहां राग होता है। वहां द्वेष अवश्य होता है ।
प्रश्न- दुःखं संसारिजन्तोर्वा सुखं स्यात्कीदृशं वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इन संसारी जीवोंका सुख कैसा होता और दुःख कैसा वा किस प्रकार होता है ? उत्तर -प्रमोहिजन्तोः परिवर्तते च,
दुःखस्य पश्चात्फलदं सुखं थे। भीमं च दुःखं हि सुखस्य पश्चात्,
लोके सदैवं दिनरात्रिवद्धि ॥ ३३ ॥
अर्थ- इस संसारमें जिसप्रकार दिनके बाद रात्रि और रात्रिके वाद दिन होता है उसी प्रकार मोह करनेवाले इन संसारी जीवोंका सुख दुःख बदलता रहता है । दुःखके बाद श्रेष्ठ फल देनेवाला सुख होता है और सुखके बाद भयंकर दुःख होता है। ___ भावार्थ- यह जीव प्रत्येक समयमें कर्मोका बन्ध करता रहता है। यदि वह कर्मका बन्ध अशुभ परिणामोंसे किया जाता है तो अशुभ कर्मोका बन्ध अधिक होता है और शुभ कर्मोंका थोडा भाग मिलता है
और यदि वह कर्मका बन्ध शुभ परिणामोंसे किया जाता है तो शुभ कर्मोका बन्ध अधिक होता है और अशुभ कर्मोका थोडा भाग मिलता
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है । तथा परिणाम सब जीवोंके सदा एकसे नहीं रहते । कभी शभ होने हैं और कभी अशुभ होते हैं । इसलिए जिस प्रकार परिणानीमें शुभपना तथा अशुभपना बदलता रहता है उसी प्रकार उनसे बन्धे हुए कर्मोक फलमे होनेवाले सुख दुःख भी बदलते रहते हैं, कभी मुक होता है और कभी दुःख होता है । जिस प्रकार रात्रि दिन बदलते रहते हैं उसी प्रकार सुख दुःख बदलता रहता है । तथा कभी दिन बड़ा होता है और कभी रात्रि बड़ी होती है उसी प्रकार कभी दुःख अधिक होता है ओर कभी सुख अधिक होता है । अथवा जिस प्रकार कभी कभी दिन रान बराबर होते हैं उसी प्रकार कभी कभी मुख दुःख बराबर होते हैं।
प्रश्न- धनार्जनं किमर्थं भो क्रियेत दुःखद गुरी ?
अर्थ- हे भगवन् ! ये मंसारी जीव दुःख देनेवाले इस घनका मंग्रह किस लिए करते हैं। उत्तर - दुःखं यदुत्पादन एव तीवं,
तदक्षणे स्मारक तनोएि। तद्भक्षणे तत्पचनेपि चैव-, माद्यन्तमध्ये विषमं व्यथादम् ॥ ३४ ॥) एतादृशं दुःखगृहं धनं च, भोगोपभोगाय कुटंबहेतोः । दानविना केवलकुक्षिहेतो,
विचक्षणो रक्षति कश्च भव्यः ॥ ३५ ॥ ( अर्थ, इस धनके उत्पन्न करने में तीन दुःख होता है तथा उमकी रक्षा करने में उससे भी अधिक तीव्र दुःख होता है और उसके भोग करने में वा उसको पचाने में उससे भी अधिक दुःख होता है। इस प्रकार यह धन प्रारम्भमें भी विषम दुःख देनेवाला है, मध्य में भी विषम दुःस्त्र देनेवाला है । और अन्तमें भी विषम दुःख देने वाला है । इस प्रकार यह धन अनेक दुःखोंका घर है तथापि यह मनुष्य अपने भोगोपभोगके लिए अथवा अपने कुटंबके लिए उस धन को इकट्ठा किया करता है । परन्तु दानके बिना केवल पेट भरने के काममें आनेवाले उस धनको ऐमा कौन चतुर भव्य पुरुष है जो उसकी रक्षा करे ? अर्थात् कोई नहीं ।
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___ भावार्थ- इस संसारमें धन कमानेके लिए बड़े बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं, बड़े बड़े दुःख सहन करने पडते है और बड़े बडे पाप करने पडते हैं । इतना सब करनेपर भी वह धन किमीको प्राप्त हो जाता है और किसीको नहीं होता । इसका कारण यह है कि धन कमानसे नहीं आता किंतु पुण्यकर्मके उदयमे आया करता है। जिस किसीके पुण्यकर्मका उदय होता है उसके परिश्रम करनेपर भी धन आ जाता है और बिना परिश्रमके भी आ जाता है । लोग लखपति वा करोडपतिके घर दत्तक चले जाते हैं वे बिना कमायें ही बहुतसे धनके स्वामी बन जाते हैं तथा उन्हीं के सगे भाई दरिद्राबस्थामं ही पडे पड जन्मभर दुःख भोगा करने हैं । इससे सिद्ध होता है कि धन आनेका मुख्य हेतु पुण्योदय है तथापि यह जीव उस धनको कमाने के लिए तीव्र दुःख भोगा करता है । यदि किसी पुण्यकर्मके उदयसे धन जा भी जाय तो उसकी रक्षा करने में महा दुःख होता है । चोर लोग सदा उसकी घात लगाया करते हैं, राजा भी सब तरहसे उनसे धन छीननेका प्रयत्न किया करता है और कुटुंबी लोग भी उसके बांटने का प्रयत्न करते रहते हैं। इन सबसे धनकी रक्षा करना अत्यंत कठिण हो जाता है । यदि कदाचित् उसकी रक्षा भी हो जाय तो उस धनके द्वारा फुटबका पालन करनेमें वा भोगोपभोगोंका सेवन करनेसे महा पाप हुआ करता है। इसके सिवाय भोगपभोगोंका सेवन करनेमे अनेक प्रकारके रोग हो जाते हैं जिससे महा दुःख होता है इस प्रकार यह धन सब प्रकारसे दुःखका साधन है । एक दान देना ही इसका सदुपयोग है । जो पुरुष धन पाकर सत्पात्रदान देता है वही पुरुष अपने धनको सार्थक बनाता है। इसलिए धन पाकर दान अवश्य देना चाहिए। बिना दानके धनको शोभा नहीं है। केवल पेटके लिए धनका संग्रह करना और अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करना बुद्धिमानी नहीं है । कोई भी बुद्धिमान पुरुष केवल पेटके लिए धन कमाना नहीं चाहता । क्योंकि पेट तो कुत्ता बिल्ली ऐसे नीचसे नीच पशु भी भर लेते है । धन कमानेका वा प्राप्त करनेका सदुपयोग केवल दान देना है । धनकी तीन गति हैं दान, भोग, नाश । सबसे अधिक धन दानमें देना चाहिए और बचेखुचे थोडेसे धनको भोगोपभोगके साधनमें लगाना चाहिए । जो लोग न तो दान करते हैं और न भोगोपभोगोंके साधनमें खर्च करते हैं उनका धन किसी न किसी प्रकारसे अवश्य नष्ट हो जाता है ।
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( शान्तिसुवासिन्धु )
प्रश्न- किं कार्यं चतुरैर्दृष्ट्वा लोकान् दोषगुणान्वितान् ? अर्थ - अनेक दोषांसे दुषित और अनेक गुणोंसे सुशोभित होनेवाले लोगोंको देखकर चतुर पुरुषोंको क्या करना चाहिए ? उत्तर - स्वाचारनिष्ठश्च गुणी स्वदोषं,
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त्यजत्यवश्यं भवदं प्रमादम् । स्वाचारशून्यस्त्यजति स्पृहां न, ततः कुमार्ग पतति प्रमूढः ॥ ३६ ॥ पूर्वोक्त जन्तोश्च कृति विलोक्य, ह्यासभव्यो निजदोषदूरः । भयत्यवश्यं चतुरश्चिदात्मा,
तवन्यजीवश्च खलः प्रमादी ।। ३७ ॥
अर्थ- गुणोंसे सुशोभित होनेवाले तथा दोषोसे दुषित होनेवाले मनुष्योंको देखकर अपने सदाचार में लीन रहनेवाला गुणवान् पुरुष संसारके महा दुःख देनेवाले दोषोंका त्याग कर देता है और उन दोषोंके कारणभूत प्रमादका त्याग कर देता है। इसी प्रकार सदाचारको कमी न पालन करनेवाला मनुष्य अपनी तृष्णाओं का त्याग नहीं करता और इसी लिए वह मूर्ख कुमार्ग में जाकर पड जाता है । इस प्रकार ऊपर लिखे हुए जीवोंके कार्योंको देखकर निकट भव्य-जीव अपने समस्त दोषोंका त्यागकर चतुर और शुद्ध चैतन्य स्वरूप बन जाते हैं तथा दीर्घ संसारी जीव गुणोंका त्यागकर दुष्ट और प्रमादी बन जाते हैं ।
भावार्थ - इस संसार में गुणी पुरुष अपने आत्माका कल्याण करते हुए समस्त जीवोंका उपकार किया करते हैं। इसीलिए सदाकाल और सर्वत्र उनका आदर होता है और ने इस संसार में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं। ऐसे गुणी पुरुषोंको देखकर प्रत्येक भव्य जीवको गुणी बन जाना चाहिए । यदि अपने में कोई दोष हों तो उसका त्याग कर देना चाहिए। गुणी पुरुषोंके समागमका यही सर्वोत्तम फल है । दोषोंको धारण करनेवाले पुरुष सर्वत्र तिरस्कृत होते हैं तथा अपने आत्माका भी अकल्याण किया करते हैं और अन्य दूसरे लोगोंका भी अकल्याण किया
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
करते हैं । इसलिए अपने आत्माके स्वरूपको जाननेवाले और इसीलिए सदाचार पालन करने में ही श्रद्धा रखनेवाले पुरुष इन दोषोंका सर्वथा त्यागकर देते हैं तथा आत्मकल्याण में लग जाते हैं ।
२४
प्रश्न- धने सत्यपि किं नाति किं ददाति न साधवे ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि धनके रहते हुए भी बहुतसे लोक न तो उसका उपभोग करते हैं और न किमी साधुके लिए आहार तक देते हैं इसका क्या कारण है । उत्तर "जीवान् कष्टगतप्राणान्, वस्त्रानगृहवर्जितान् । स्वबन्धून् द्रव्यहीनान् वा दृष्ट्वापि योगिनस्तथा ॥ स्वयं तद्रक्षगाथं न ददाति नाति मानवः ।
ततो निश्चीयते द्रध्यं लोभिनां त्रागतः प्रियम् ॥
अर्थ - इस संसार में बहुतमे ऐसे पुरुष हैं जो अन्न वस्त्र घर आदि सबसे रहित हैं, धनसे सर्वथा रहित हैं और जिनके प्राण अत्यंत कष्ट भोग रहे हैं। ऐसे दुःखी जीवोंको वा ऐसे दुःखी अपने भाई बन्धुओं को देखकर भी न तो उनको कुछ देते हैं और न स्वयं खाते पीते हैं। यहां तक कि किसी महा तपस्वी मुनिको भी देखकर उनके लिए आहार तक नहीं देते हैं। ऐसे महा लोभी पुरुष उस धनकी केवल रक्षा किया करते
। इससे यही निश्चय कर लेना पडता है कि लोभी पुरुषोंको अपना धन प्राणोंसे भी अधिक प्रिय होता है ।
भावार्थ- पहले इसी ग्रंथ में दिखला चुके हैं कि धनका सदुपयोग दान देना है। दान भोग और नाश ये तीन हो धनकी गति हैं । जो पुरुष न तो दान देते हैं, न भोगोपभोगक काममें लाते हैं उनका धन अवश्य नष्ट होता है । धनका सद्भाव तो पुण्यकर्मके उदयसे होता है । तथा जितना पुण्यकर्म का उदय होता है उतना ही बना रहता है । कूएँके जलके समान उसमेंसे चाहे जितना खर्च किया जाय तो भी वह धन बढ़कर उतना ही हो जाता है। इसलिए धन पाकर खूब दान देना चाहिये । चैत्यालय बनवाना चाहिए जिनप्रतिमा बनवानी चाहिए, चारों प्रकारके मंधके लिए जिस-जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसको वहीं
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( शान्तिसुधामिन्ध्र ।
पदार्थ देना चाहिए । मुनियोंको आहारदान, पोंछी, कमण्डलु, शास्त्र, औषध आदि देना चाहिए । अजिका भुल्लिकाओंको पीछी, कमंडलु, आहार, शास्त्र, औषध और वस्त्र आदि देना चाहिए । मुनि अर्जिकाओंको उप्पण जलको आवश्यकता हो तो उण जल देना चाहिए । मुनि लोग वा अजिकाएँ आहारको जाते समय जो जल होता है वह आठ पहर तक चलना है। यदि वे मुनि वा झुल्लिका अजिकाएं दूसरे दिन उपवास करें वा दो चार लगातार उपवास करें तो उनके कमंडलम जलकी आवश्यकता होती है। इसलिए ऐसा समय आनेपर उष्ण जल पहुंचाना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है । श्रावकोंको मनियोंकी देख भाल रखनी चाहिए । बेलगांवके पास पहिले किसी धाबकने मुनियोंके निवासके लिए पर्वत में उकेर कर सातसौ गुफाएं वनवाई थीं। यह बात निश्चित है कि जहां इतने मुनियोंका समुदाय रहता है वहांपर दस बीस पचास मुनि एक एक दो-दो बा चार-चार उपवास करनेवाले भी मिल जाते हैं। ऐसे मुनियोंके कमंडलुओंमें गर्म जल पहुचाने के लिए उनी श्रावकने एक गांव भी समर्पण किया था। इस प्रकार उस श्रावकने सदाके लिए यह प्रबंध कर दिया था । ऐसा ही विचार प्रत्येक श्रावकको रखना चाहिए। इसके सिवाय मुनियोंके समुदायमें जिस पदार्थकी आवश्यकता हो वह पहुंचाना चाहिए, उनकी रक्षाका पूर्ण प्रबंध करना चाहिए, शास्त्रभंडार स्थापित करने चाहिए जिनमें जैनशास्त्र ही विराजमान करने चाहिए । इनके सिवाय जिनपूजन और जिन-प्रतिष्ठाएं करानी चाहिए, पंचकल्याणक महोत्सव कराने चाहिए, रथोत्सव कराना चाहिए और जिनधर्मकी खूब प्रभावना करानी चाहिए । इन सबमें द्रव्य लगानसे महा पुण्यकर्मका बंध होता है। इसी प्रकार श्रावक श्राविकाओंको भी आहार औषध वस्त्र आदि देना चाहिए। श्रावकोंमें इस प्रकार जो देन लेन होता है वह सब समदत्ति कहलाती है । यह समदनि श्रावकोंको अवश्य करनी चाहिए । इसके सिवाय जो जीव दुःखी हैं उनका दुःस्व दूर करना चाहिए । जो भूखे हैं उनको अन्न वस्त्र देना चाहिए, जो बेकार हैं उन्हें जीविकामे लगा देना चाहिए और जो रोगी हैं उनको औषध दान देना चाहिए । इस प्रकार श्रावकोंको अपना बहुतसा द्रव्य दान पुण्यमें स्वर्च कर देना चाहिए केवल पहरेदारके समान धनकी रक्षा कर लेना पुण्यका फल नहीं है ।
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( शान्तिसुघासिन्धु )
प्रश्न- मुमुक्षुर्विपदाकीर्णे वा सुखे चिन्तयतीह किम् ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुष किसी पनि समयम अथवा सुखके समयम क्या क्या चिन्तवन करते हैं ?
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उत्तर - कोहं ममात्मा स्वपदं च किं मे, जैनोस्म्यजैनः सुजनश्च पापी ।
धर्मोपि मे कः स्वगुणः स्ववासः, कि मे स्वकृत्यं स्वगृह च किं मे ॥ ४० ॥
ग्राह्यस्तथाग्राह्यविधिश्च मे कः,
किं साधनीयं च विवर्जनीयम् ।
इत्थं मुमुक्षु निजराज्यहेतोः,
सा विचारं सुखदं करोति ॥ ४१ ॥
अर्थ - मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुष चाहे तो बड़ी भारी विपत्ति में फंसे हों अथवा चक्रवर्तीका सुख भोग रहे हों दोनों ही अवस्थाओं में वे सदाकाल यही सुख देनेवाला चितवन करते रहते हैं कि मैं कीन हूं, मेरे आत्माकी क्या अवस्था है अथवा मेरे आत्माका क्या स्वरूप है, मेरा अपना निवासस्थान वा मेरा पद कौनसा है, में जैनधर्मको धारण करता हुं अथवा अन्य किसी धर्मको धारण करता हूं में सज्जन हूँ अथवा पापी हूं, मेरा धर्म क्या है, मेरे निजके गुण क्या है, मेरा निजका निवसस्थान कहां है. इस संसार में मेरा कर्तव्य क्या है मेरा घर कौनसा है: इस संसार में मेरे लिए ग्रहण करने योग्य पदार्थ कौन से हैं और त्याग करने योग्य पदार्थ कौनसे हैं, त्याग करने को विधी बना है, हमें क्या ग्रहग करना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार मोक्षको इच्छा करनेवाला पुरुष मोक्षरूपी स्वराज्यके लिए सदाकाल ऐसा ही सुख देनेवाला चितवन किया करता है ।
भावार्थ- मोक्ष की इच्छा करनेवाला आत्मा सदाकाल अपने आत्मामें ही लीन रहता है, तथा आत्मामें लीन रहनेके कारण वह न तो किसी दुःखसे दुःखी होता है और न किसी सुखमें सुख मानता है
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चक्रवर्ती महाराज भरतके समान वह सदा सिद्धोंका चिन्तवन करता रहता है अथवा नरकम पडे हुए श्रेणिकके जीबके समान घोर दुःखम भी आत्म-चिन्तवन करता रहता है । आत्माक चिन्तवन करने में ना आत्माके स्वरूपका चितवन करता है, आत्माके गुणाका चिनबन करता है, आत्माके निवासस्थानका चितवन करता है । आत्माकं धर्मका चितवन करता है, आत्माके कर्तव्योंका चितवन करता है, हेय उपादेयका चितवन करता है और मोक्ष प्राप्त होने का उपाय वा साधन चितवन करता है । इस प्रकार चितवन करता हुआ वह अपनं मोक्ष प्राप्त करनेके कार्य में लग जाता है और इस प्रकार वह स्वर्गादिकक मुख भोगता हु। मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न- किमर्थं संचिनोतीह धनं धर्मप्रभावकः ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि धर्मको प्रभावना करनेवाले सज्जन पुरुष धनका संचय किस लिए करते हैं ? उत्तर - श्रीजनधर्मादिविकासनार्थ,
विद्यालयादेः स्थितिवृद्धिहेतोः। स्थर्मोक्षमार्गायतनप्रवृद्ध्य, सत्पात्रदानाय शिवप्रदाय ॥ ४२ ॥ जैनागभावः परिरक्षणार्थ, व्याध्यादिदुःखथ्यपनोवनार्थम् । धर्मप्रचारी च धनं चिनोति, न चेन्द्रियार्थं व्यसनादिवृद्ध्यं ॥ ४३ ॥
अर्थ- धर्मको प्रभावना करनेवाला धर्मात्मा पुरुष चारों ओर जन धर्मका प्रचार करने के लिए, धार्मिक ग्रंथोंका पठन पाठन करनेके लिए, स्वाध्यायशाला वा विद्यालय स्थापन करने के लिए वा उनकी वृद्धि करने के लिए, स्वर्ग मोक्षके मार्ग के आयतनोंकी वृद्धिक लिए, मोक्ष देनेवाले सत्पात्र दानके लिए, जैन आगम आदिकी रक्षा करने के लिए और किसी भी रोगसे उत्पन्न हुए दुःखोंको दूर करने के लिए धनका मंचय करना है ।
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धर्मात्मा पुरुष इन्द्रियोंको पुष्ट करने के लिए अथवा किसी व्यसनको वृद्धिकरने के लिए धनका मंचय कभी नहीं करता :
भावार्थ- विना धनके गृहान्य चल नहीं सकता : मार्ग भी नहीं चल सकता । यह ठीक है कि मोक्षका साक्षात् साधन निग्रंथ वीतराग अवस्था है परन्तु उस निग्रंथ वीतराग अवस्थाका टिका रहना गृहस्थधर्मके आधीन है और गृहस्थधर्म धन के आधीन है । यही समझकर धर्मात्मा गृहस्थ न्यायपूर्वक धन कमाते हैं अन्यायपूर्वक एक पैसा भी घरमें नहीं आने देते । इसका भी कारण यह है कि अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन धर्मकार्य में कभी नहीं लग सकता। वह तो अधर्म और अन्याय कार्योंमें ही लगता है और अन्त में घरको लेकर नष्ट हो जाता है । न्यायपूर्वक कमाया हुआ धन धर्मकार्य में लगता है और वह धर्मकी वृद्धि करता हुआ स्वयं वृद्धिको प्राप्त होता रहता है। इसलिए धर्मात्मा पुरुष सदाकाल न्यायपूर्वक ही धनका संचय करते हैं । बहुतसे लोगोंको पड़ा हुआ धन मिल जाता है अथवा अन्य किसी अन्याय मार्गसे आ जाता है तथा वह लेनेवाला यह समझ कर ले लेता है कि इस धनको किसी धर्मकाममें लगा देंगे । परंतु ऐमा अन्यायका आया हुआ धन धर्मकार्यमें कभी नहीं लगाना चाहिए । अन्यायका आया हुआ धन धर्मकार्य में लगानेसे उस धर्मायतनको भी नष्ट कर देता है। इसलिए ऐसे धनको ग्रहण न करना ही सबसे अच्छा है। न्यायसे कमाया हुआ धन धर्म के प्रचारमें लगाना चाहिए । गा बजाकर वा ड्रामा आदि दिखाकर लोगोंको प्रसन्न कर लेना और फिर उनसे खूब धन ऐंठ लेना धर्मका प्रचार नहीं कहलाता । इसी प्रकार धर्मका घात करनेवाली विद्याकी शिक्षा देनेवाले विद्यालय धामिक विद्यालय नहीं कहलाते हैं । अथवा जैन ग्रंथोंको छोडकर अन्य धर्मके ग्रंथ पढानेवाले विद्यालय भी धार्मिक विद्यालय नहीं कहलाते । वर्तमान कालमें जो बहुतसे विद्वान् धर्मका धात करनेवाले व्याख्यान देते फिरते हैं बा धार्मिक संस्कारोंको नष्ट करनेका उपदेश व्याख्यान देते फिरते हैं वा ऐसी पुस्तकों वा समाचार पत्र लिखते हैं वे सव ऐसे ही विद्यालयोंके फल हैं । इसलिए ऐसे विद्यालयोंमें धन देना दान नहीं कहलाता किंतु कुदान कहलाता है तथा यह भी निश्चित ही समझना चाहिए कि अन्यायसे आया हुआ धन ही ऐसे विद्यालयोंमें
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। लगता है । न्यायपूर्वक कमाया हुआ धन उन्हीं विद्यालयोंमें वा
स्वाध्यायशालाओंमें लगता है जिनमे कि धार्मिक ग्रंथ ही पढाये जाते हैं वा धार्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय किया जाता है । ऐसे धार्मिक विद्यालयोंमें घन लगाना पुण्यका कार्य समझा जाता है वर्तमान कालमें हार्मके नामपर कितने ही पुस्तकालय खुल गये परंतु उनमें अधिकतर पश्चिमी सभ्यताका उपदेश देनेवाले जासूसी उपन्यास रहते हैं, अथवा धार्मिक संस्कारोंका घात करनेवाले समाचारपत्र पढ़े जाते हैं । परंतु ऐसे पुस्तकालयोंसे धर्मको कुछ उति नहीं होती । इस लिए ऐसे पुस्तकालयोंमें धन देना भी पुण्यका कार्य नहीं है। जिन कामोंसे भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका प्रचार हो वा जिन ग्रंथोंके पढनेसे विषय कषायोंका त्याग हो ऐसे कामोंमें वा ऐसे ग्रंथ पढानेवाले विद्यालय वा सरस्वती भवनोंमें धन देना पुण्य कार्य गिना जाता है । किसी भी कार्य में धन देते समय धर्मात्मा लोग धर्म की वृद्धिका ध्यान रखते हैं । देखो तीर्थकर परमदेवसे अनेक भव्य जीवोंका कल्याण होता है, इसलिए मुनि अवस्था धारण करनेवालो को जो थोडासा आहार दिया जाता है उसका फल तत्काल रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्यवर्षा है तथा परम्पराफल मोक्षको प्राप्ति है। इसलिए जिन-जिन स्थानोंसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति हो, जिन जिन श्रावकोंसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति वा वृद्धि हो अथवा जिन जिन कार्योंसे मोक्षमार्गकी वृद्धि हो ऐसे कार्योंमें धन देना प्रत्येक श्रावकका कर्तव्य है । श्रावक लोग इंद्रियोके विषयोंको तो सर्वथा हेय समझते हैं। इसलिए वे लोग अपना धान ऐसे हेय कार्योंमें कभी नहीं लगाते ।
प्रश्न- केवलं कुक्षिहेतोर्यः पचत्यन्नं स कीदृश: ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो गृहस्थ केवल पेट भरनेके लिए भोजन बनाता है वह कैसा है ? उत्तर - तपो जपध्यानदयाग्विताय,
स्वानन्दतृप्ताय निजाश्रिताय । बत्वा यथायोग्यपदाश्रिताय, पात्राय दानं नवधापि भक्त्या ॥ ४४ ॥
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करोति पश्चात्खलु भोजनादि, संकल्प्य योग्यं पचतीति बस्तु । श्रेष्ठो गृही स्यात्स च केवलं यः, स्वकुक्षिपुष्ट्यै पशुतः पशुः सः ॥ ४५ ॥
अर्थ- जो पुरुष जप तप ध्यान और दया आदि गुणोंसे सुशोभित रहता है, जो अपने आत्मजन्य आनंदसे तृप्त रहता है और जो अपने आम के है. आलीन रहता है ऐसे महा पुरुषको पात्र कहते हैं । उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे उस पात्रके तीन भेद हैं । इन तीनों भदोंमें से जो अपने यथायोग्य पदपर विराजमान है ऐसे पात्रको उसकी योग्यतानुसार नवधाभक्तिपूर्वक दान देकर जो भोजन पान करता है और पात्रदानका संकल्पकर ही जो योग्य शुद्ध आहार बनाता है वही पुरुष इस समस्त मंसारमें श्रेष्ठ गृहस्थ कहलाता है। जो पुरुष केबल पेट भरनेके लिए भोजन बनाता है वह पुरुष पशुसे भी अधम पशु कहलाता है ।
भावार्थ- रत्नत्रयको धारण करनेबाला पात्र कहलाता है । उस पात्रके तीन भेद हैं । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और पूर्ण सम्यक्चारित्रको धारण करनेवाला महाव्रती साध उत्तम पात्र कहलाता है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और एकदेश-चारित्रको धारण करनेवासः अणुवती श्रावक मध्यमपात्र कहलाता है और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरणचारित्र को धारण करनेवाला श्रावक जघन्य पात्र कहलाता है । ये तीनों ही पात्र सम्यग्दर्शनरूपी आत्मजन्य प्रकाशके प्रकट होनेसे अपने आत्मजन्य आनन्दमें ही तृप्त रहते हैं, अपने ही आत्माके आधीन रहते हैं और अपनी अपनी योग्यताके अनुसार जप तप वा ध्यानमें लीन रहते हैं और समस्त जीवोंपर दया पालन करते हैं । इन तीनों प्रकारके पात्रोको उनकी योग्यतानसार दान देना चाहिए
तथा उनकी योग्यतानुसार ही उनको नवधा भक्ति करनी चाहिए प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादोदक, अर्चना,प्रणाम, मनशुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि और आहारशुद्धि यह नवधाभक्ति कहलाती है। चर्याके लिए आते हुए मनिको ' हे स्वामिन यहां ठहरिये आहार पानी शुद्ध है' इस प्रकार कहना प्रतिग्रह है। भीतर ले जाकर उनको ऊंचे आसनपर विराजमान करना उत्स्वस्थान है । उनके चरण धोकर मस्तकसे लगाना पादोदक है । अष्ट
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द्रव्य से पूजा करना अर्चन है । नमस्कार करना प्रणाम है।
मनको शुद्ध रखना मनशुद्धी है । वचनको शुद्ध रखना वचनशुद्धि है । कायको शुद्ध रखना कायशुद्धि है और आहारको शुद्ध रखना आहार शुद्धि है । इस प्रकार मुनियोंको दान देते समय नी प्रकार की भक्ति करनी पड़ती है । तथा क्षुल्लक ऐलकोंके लिए भी ये भक्ति करनी पड़ती है। इसके सिवाय अन्य धावकों के लिए न्योता देना प्रतिग्रह है । उनक आनेपर उनके योग्य स्थानपर उनको बिठाना उच्चस्थान है। उनके पैर धुलाना पादोदक है। उनकी योग्यतानुसार पहावनी दुपट्टा देना वा उनकी प्रशंसा करना अर्चन है । यथायोग्य रीतिसे उनको जुहार करना प्रणाम है और मन वचन कायमें किसी प्रकारकी मायाचारी नहीं करना मनाद्धि बचनशद्धि कायशद्धि है तथा उनको शुद्ध भोजन कराना आहार शुद्धि है। इस प्रकार श्रावकोंके लिए उनकी योग्यतानुर नवधा भक्ति की जाती है । प्रत्येक गृहस्थके घर प्रतिदिन भोजन बनता है यदि वहीं भोजन शुद्ध बनाया जाय और यह धारणा रक्खी जाय कि " यदि कोई पात्र मिलेगा तो उसको खिलाकर ही खाऊंगा " तो वही भोजन बनाना पुण्य का कारण बन जाता है । अन्यथा पीसने फुटने में, चौका लगाने में. पानी आदिके भरने में बहुतसी हिसा होती ही है । यदि उस भोजनमें पात्र...का ध्यान न हो तो फिर वह उस भोजनका बनाना हिंसाकाही साधन समझना चाहिए । पात्रदानका ध्यान परिणामोंको शुद्ध रखता है और फिर वह भोजन शुद्ध परिणामोंसे ही बनाया जाता है । इसलिए उसके बनाने में विशेष हिंसा नहीं होती तथा जो कुछ होती है वह परिणामोंकी शुद्धतासे वा पात्रदानकी धारणाके संस्कारसे व्यर्थ हो जाती है नष्ट हो जाती है । इसलिए प्रत्येक गहस्थको पात्रदानके अभिप्रयासे ही भोजन बनाना चाहिए और पात्रदानके समयको टालकर ही भोजन करना चाहिए । अथवा पात्र न मिननेपर किसी एक रसका त्याग कर देना चाहिए । गृहस्थ के लिए धनके सदुपयोग करनेका और पात्रदान करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है । जो लोग केवल पेट भरनेके लिए ही भोजन बनाते हैं वे पशओंसे भी बडकर नीच पश हैं।
प्रश्न- स्याद्वा धनार्जने पापं न गुरों सिद्धये वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब मेरी आत्माकी सिद्धिके लिए यह बतलाइए कि धन कमाने में पाप लाता है वा नहीं ?
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उत्तर - मायाचारसहस्रेण दुराचारशतेन हि ।
उपाज्यंते धनं नित्यं ससारक्लेशवद्धकम् । मन्ये ततो धनं न स्यात् पापपुंजमुपाज्यते । दाने धर्मे व्ययं नित्यं न कुर्याद् यतिशर्मदे । ध्रुवं तत्पापतो भीमं प्रयाति नरकं नरः । ज्ञात्वेति चतुरंनिंदेयं तत्पापशान्तये ।। ४८ ॥
अर्थ- इस संसारमें जो धन कमाया जाता है वह हजारों मायाचार और संकड़ों दुराचार करके कमाया जाता है । इसीलिये वह धन संसारके अनंत दुःखोंको देनेवाला कहा जाता है । अतएव आचार्य कहते हैं कि यह संसारी जीव धन नहीं कमाता किंतु पापोंका समूह ही कमाता है । यदि वह गृहस्थ इस धनको दान धर्ममें खर्च न करे अथवा मुनियोंके कल्याणके लिये खर्च न करे तो समझना चाहिए कि वह गृहस्थ उस पापके उदयसे भयानक नरकमें अवश्य पडेगा । अत एव यही समझकर चतुर पुरुषोंको उस धन कमानेके पापको शांत करनेके लिए वह धन दान देने में ही खर्च कर देना चाहिए।
भावार्थ- खेती करना वा व्यापार करना आदि धन कमानेके साधन हैं तथा इन सब साधनोंमें जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है । इसके सिवाय अनेक प्रकारकी मायाचारी करनी पडती है, अनेक प्रकारके न करने योग्य काम करने पड़ते हैं और अनेक प्रकारके दुराचार करने पडते हैं इतने सब अनर्थ करनेपर धन कमाया जाता है । इसीलिए यह धन पापोंका समूह माना जाता है । और धन कामानेका अर्थ पापोंका समूह कमाना हो जाता है । परंतु वह पापोंका समूह उस धनको दानधर्ममें खर्च कर देनेसे नष्ट वा शान्त हो जाता है । यदि यह धन दानधर्ममें खर्च न किया जाय अर्थात् दान-धर्ममें खर्च कर उस पापको शांत न किया जाय तो उस धन कमानेवालेको उन पापोंके उदयसे अवश्य ही नरकमें जाना पड़ता है और बहत काल तक वहाँके घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं । वे नरकके घोर दुःख सहन न करने पड़ें इसके लिए गृहस्थोंको दान धर्म अवश्य करना चाहिए । दान करनेसे ही गृहस्थीके पाप शांत होते हैं।
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प्रश्न- कीदृक् कामपिशाचोस्ति तदोधाय गुरो ! वद ? ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब मुझे यह बतलाइए कि यह कामरूपी पिशाच्च कैसा है ? उत्तर - समस्तसंतापविवर्द्धकश्च,
स्थर्मोक्षमार्गाविनिरोधकारी। भवप्रवो वरविरोधकर्ता, क्षमाकृपाशान्तिदयापलापी ।। ४९ आद्यन्तमध्ये खलवघ्यथाः, एतादृशः कामपिशाचवर्गः । तभेदभावाविविवा नरेण, केनात्मनाशाय सुरक्ष्यते सः ॥ ५० ॥
अर्थ-(यह कामरूपी पिशाच्चोंका समूह संसारके समस्त संतापोंको बढ़ानेवाला है, स्वर्ग वा मोक्षके मार्गको रोकनेवाला है, जन्म-मरणके महा दुःखोंको देनेवाला है, सबके साथ वैर विरोध करनेवाला है, आमा कृपा शांति दया आदि आत्माके स्वाभाविक गुणोंका नाश करनेवाला है। और आदि मध्य अंत तीनों अवस्थाओंमें दुष्ट पुरुषके समान महा दःख देनेवाला है । इस प्रकारके इस कामदेवके भेद वा हावभाव आदिके जाननेवाले ऐसे कौन मनुष्य हैं जो अपने आत्माका नाश करनेके लिए इस कामदेवकी रक्षा करें अर्थात् कोई नहीं ।
भावार्थ- संसारमें समस्त आपत्तियोंका मूल कारण वा समस्त दुःखोंका मूल कारण यह कामदेव ही है । जिस मनुष्यके हृदय में कामवासना बनी रहती है उसका मन सदाकाल अपवित्र और मलिन रहता है तथा उस अपवित्र और मलिन मनसे फिर किसी भी धर्मकार्यको वह नहीं कर सकता । फिर उससे न तो पुण्यका कोई साधन बनता है और न मोक्षका कोई साधन बनता है । फिर तो वह उस अपवित्र और मलिन मनसे सदाकाल पाप ही उत्पन्न करता रहता है और उन पापोंके फलसे नरकादिकके घोर दुःख सहन किया करता है । देखो इमी कामकी तीन वासनासे रावणने सीताका हरण किया था । यद्यपि वह परम सनी
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( शान्तिसुधामिन्धु ) -- सीताके पवित्र शील में रतीभर भी मलिनता नहीं ला सका था। अपने पवित्र शीलके पालन करने में वह सीता सुमेरु पर्वतके समान अचल रही थी तथापि उस रावणको केवल कामदेवकी कामवासनामाप्रसे ही नरकम । जाना पड़ा था और अब तक वहांके घोर दुःस्व सहन कर रहा है। कामदेवकी वासनामात्रसे इस जीवको घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं | और रावणके समान युगयुगांतर तक अपकीर्ति बनी रहती हैं। इस कानदेषकी बाननानासे हो राम रावणका घोर युद्ध हुआ था और इसीक कारण कृष्ण शिशुपालका युद्ध हुआ था, कहां तक कहा जाय यह कामदेव भाई-भाइयोंमें, पिता-पुत्रमें, मा-बेटोंमें और न जाने कितने कितने सगे-सम्बन्धियोंमें वर-विरोध करा देता है । यह निश्चित है कि जहांपर कामदेवकी वासना रहती है वापर आत्माके कोई भी उत्तम गुण नहीं रह सकते । यद्यपि रावण महा विद्वान् था तथापि कामदेवकी वासनामासे ही उसके शांति दया क्षमा आदि गुण सब नष्ट हो गये थे। और तो क्या सीताका अपहरण होने पर रामचन्द्र जैसे आदर्श महापुरुष भी अत्यंत विव्हल हो गये थे और इतने विव्हल हो गये थे कि वक्षोंतकसे सीताकी खबर पूछने लगे थे । इससे सिद्ध होता है कि यह कामदेव : बड़े-बड़े महापुरुषोंसे भी बड़ी कठिनतासे जीता जाता है । जो शूरवीर । महापुरुष इस अकेले कामदेवको जीत लेता है वह पुरुष अवश्व ही : आत्माके समस्त गुणोंको धारण करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है। . इसलिए इस कामदेवकी वासनाको हटाकर आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन होना ही मोक्षका सर्वोत्तम उपाय है ।
प्रश्न- तृप्तः स्यात्कामभोगैश्च प्रभो मे वद मानव: ?
अर्थ- हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइये कि यह मनुष्य इस । कामदेबसे कभी तृप्त भी होता है वा नहीं ? उत्तरमवीसहस्रेहदधिश्च तृप्तः, .
स्यावेव वन्हिस्तृणकाष्ठतैलेः।। तोयं तथाधो गमनेन पापी, लोभी धनः पापशतेन धूर्तः ॥ ५१॥ ।
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न स्याखि जीवश्च कदापि तृप्तः, सत्कामभोगरिह जीवलोके । ज्ञात्वेति धीरैः परिवर्जनीयः,
दशहा जात्रा सलोर ।। ५ ॥ (अर्थ- यद्यपि हजारों लाखों नदियोंसे समुद्र कभी तृप्त नहीं होता लकड़ों काठ वा तेलके समूहसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, जल नीचेको ओर गमन करनेसे कभी तृप्त नहीं होता, पापी लोभी पुरुष धनसे कभी तृप्त नहीं होता और धूर्त पुरुष सैकड़ों पाप कर लेनेसे भी कभी तृप्त नहीं होता तथापि यदि कदाचित् हजारों लाखों नदियोंसे समृद्र भी तृप्त हो जाये, बहुतसी लकडी वा काठ तैलसे अग्नि भी तृप्त हो जाय, कदाचित् नीकी ओर गमन करनेसे जल भी तृप्त हो जाय, बहुतसे धनमे कदाचित् लोभी भी तृप्त हो जाय और सैकडों पापोंसे धूतं भी कदाचित् तृप्त हो जाय तथापि इस संसारमें यह जीवकाम भोगोंसे कभी तृप्त नहीं हो सकता। यही समझकर धीर वीर वा शूर वीर पुरुषोंको स्वर्ग मोक्षको हरण करनेवाले इस दुष्ट कामभोगका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ।
___ भावार्थ- यह जीव कामभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता । यह कामभोग दादके समान हैं । जिस प्रकार दादको जितना खुजाते हैं उसनी ही खुजली उसमें और बढ़ती है तथा खुजानेके बाद बहुत दुःख देता है । दाद खुजलानेसे कभी अच्छी नहीं होती । इसी प्रकार काममोगोसे भी यह जीव कभी तृप्त नहीं होता । यह जीव ज्यों ज्यों कामभोगोंका सेवन करता है त्यो त्यों कामभोगोंकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है। इसलिए सबसे पहले अपने मनको वश में रखना चाहिए। उस मनको कामभोगोंसे हटाकर उसके दुःखदायी स्वरूपके चितवनमें लगाना चाहिए और इस प्रकार चितवन करते करते उससे विरक्त हो जाना चाहिए । यह जीव आत्मजन्य सुख पे तृप्त हो सकता है, अन्य किसीमे भी तृप्त नहीं हो सकता।
प्रश्न- निजाम्नाये सतो वृत्तिः कीदृशी स्यात्वलस्य का ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर पह बतलाइये कि अपने आम्नायमें अर्थात् देव शास्त्र गुरुके श्रद्धानमें सज्जन पुरुषोंकी प्रवृत्ति कैसी होती है और दुष्ट पुरुषोंकी प्रवृत्ति कसी होती है ?
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उत्तर - निःशंकवत्तिय जिमोक्तमार्ग,
स्वर्मोक्षदे स्याद्गुरुदेवशास्त्रे । सतः प्रवृत्तिर्व्यवहारकायें यदा तदा स्याच्च विचारशीला ॥ ५३॥ . सशंकवृत्तिर्गुरुदेवशास्त्र, जिनोक्तमार्ग विपरीतबुद्धिः। खलस्य लीला भुवि तद्विरुद्धा, ततः सुबुद्धि जिन ! देहि तस्मै ॥ ५४ ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए मोक्षमार्ग में तथा मोक्ष देनेवाले देव शास्त्र गुरुमें सज्जन पुरुषोंकी प्रवृत्ति, सदा निःशंकरूप रहती है । तथा जब कभी व्यवहार में प्रवृत्ति होती है तब भी विचार पूर्वक होती है । परन्तु दुष्ट ! पुरुषोंकी प्रवृत्ति देव शास्त्र गहमें भी सशंकित बनी रहती है और । रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमें उस दुष्टकी प्रवृत्ति विपरीतरूप ही रहती है। इस प्रकार दुष्ट पुरुषोंकी लीला इस संसारमें सदा विरुद्ध ही रहती है । हे । भगवन् ! उन दुष्ट पुरुषोंको आप सुबुद्धि प्रदान करें ।
भावार्थ- यहांपर सज्जन पुरुषोंके कहने से सम्यग्दृष्टी पुरुष ' समझना चाहिए । सम्यग्दृष्टी पुरुषोके सम्यग्दर्शनरूप.एक विचित्र अमूर्त . प्रकाश प्रगट हो जाता है, जो. आत्माके अथार्थ स्वरूपको दिखला देता । है । आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जानेके कारण सज्जन पुरुषोंकी बुद्धि आत्मस्वभावके अनुकूल ही रहती है। इसलिए वे आत्माके शुद्धस्वरूपको भी समझते हैं, देव शास्त्र गुरुके स्वरूपको भी समझते हैं और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथाः सम्यकचारित्ररूप मोक्ष मार्गको भी समझते हैं । इसीलिए वे सम्यग्दृष्टी पुरुष. रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमें कभी किसी प्रकारको शंका नहीं करते और न देव शास्त्र गुरुमें किसी प्रकारकी शंका करते हैं, वे सम्यग्दृष्टी पुरुष भगवान अरहन्तदेवको ही देव मानते हैं, वीतराग निर्ग्रन्थ गुरुको ही गुरु मानते हैं और भगवान जिनेन्द्रदेवकी कही हुई वाणीको ही शास्त्र मानते हैं। ऐसे पुरुष व्यवहारके कार्योको भी बहुत विचारके साथ करते हैं, हिंसादिक पापोंसे सदा डरते हैं और
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सदाकाल दयारूप धर्मका पालन करते रहते हैं । दुष्ट वा मिथ्यादृष्टी पुरुषों की बुद्धि अपने तीन मिथ्यात्वकर्मके उदयसे सदाकाल विपरीतरूप रहती है । मिथ्यात्वरूपी अन्धकार देव शास्त्र गुरुका वा रत्नत्रयरूप मोमा यथार्थ जान नहीं होने देता। इसीलिए इन सबमें उनकी बुद्धि विपरीत ही रहती हैं। वे कुदेवको ही देव मानते हैं, कुशास्त्रोंको ही शास्त्र मानते हैं और कुगुरुओं को ही गुरु मानते हैं । तथा जो संसारके मार्ग हैं उन्हीं को मोक्षका मार्ग मानते हैं। इस प्रकार वे अपनी सब प्रवृत्तियां विपरीत ही करते हैं । हे भगवन् ! कृपाकर उनका मिथ्यात्व दूर कीजिये। जिससे कि उनको सुबुद्धि उत्पन्न हो और aava fart कर्तव्यों को छोडकर सुमार्ग में लगे और उनके आत्माका कल्याण हो ।
प्रश्न- कर्तुं योग्य गुरोः कृत्यं यः करोति स कीदृश: ?
अर्थ- हे गुरो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो पुरुष अपने करने योग्य कार्योंका पालन करता है वह मनुष्य कैसा है ?
उत्तर- कियत्कृतं वांछितदं क्षमादं,
पुण्यं मया क्लेशकलंकमुक्तम् । लोकप्रिय प्राणिदयाप्रधानं, लोकद्वये शांतिकरं यथेष्टम् ॥ ५५ ॥
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कियत्कृतं घोरतरं कुकृत्यं, लोकद्वये क्लेशकरं नितान्तम्
एवं करोत्येव सदा विचार,
स एव धीमान् नरकृत्यवेदी ॥ ५६ ॥
अर्थ- इस संसारमें जो विचारशील मनुष्य प्रतिदिन यह विचार करता रहता है कि जो पुण्यकार्य समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है, क्षमा आदि आत्माके गुणों को प्रगट करनेवाला है, क्लेश और कलंक से जो सर्वथा रहित है, जो समस्त लोक प्रिय है, प्राणियोंकी दया करना हो जिसमें प्रधान कार्य है और जो इच्छानुसार दोनों लोकोंमें शांति उत्पन्न करनेवाला है ऐसा पुण्यकार्य मैंने कितना किया हैं । तथा जो दुष्कृत्य
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दोनों लोकोंम अत्यंत क्लेश उत्पन्न करनेवाला है ऐसा अत्यंत घोर दुष्कृत्य मैंने कितना किया है। इस प्रकार जो पुरुष प्रतिदिन विचार करता रहता है वही पुरुष बुद्धिमान् कहलाता है और वही पुरुष मनुष्योंके कर्तव्योंका जानकार गिना जाता है ।
___ भावार्थ- इस संसारमें रहता हुआ यह जीव प्रतिदिन पापकार्य वा पुण्यकार्य करता रहता है । आत्माके गुणोंको प्रगट करनेवाले जितने कार्य हैं वे सब पुण्यकार्य कहलाते हैं और आत्माके गुणोंको घात करनेवाले जितने कार्य हैं बे सब पाप कार्य कहलाते हैं। यह जीव जबतक अपने आत्मज्ञानसे रहित रहता है तबतक आत्माके यथार्थ स्वरूपको न जाननेके कारण प्रायः पाप-कार्यो में ही लगा रहता है। परन्तु मोहनीय कर्मका क्षय होनेसे अथवा अत्यन्त मंद हो नेसे जब इसको आत्माके स्वरूपका बोध होता है तब यह जीव आत्माको यथार्थ सुख पहुंचानके अभिप्रायसे पाप कार्योका त्याग करता है और पुण्य कार्योंकी वृद्धि करता है। ऐसा ही विचारशील सम्यग्दृष्टी पुरुष प्रतिदिन अपने पुण्यकार्य वा पापकार्योकी संख्या गिनता रहता है । वह सम्यग्दृष्टी पुरुष उन पुण्य-पापोंकी संख्या ही गिनकर नहीं रह जाता किंतु प्रातःकाल, मध्यान्हकाल और सायंकाल तीनों समय पापकार्योंकी आलोचना करता है, उनको नष्ट करनेके लिए प्रतिक्रमण करता है और आगे ऐसे पाप न करने के लिए आत्माको बोधित करता है । इस प्रकार वह पापकार्योका त्यागकर पुण्यकार्योंमें लग जाता है । तदनंतर धीरे धीरे बह आत्माको शुद्ध करनेका प्रयत्न करता है । इसके लिए वह पुण्यकार्योका भी त्याग कर देता है और फिर आत्म-ध्यानमें लीन होता हुआ समस्त कर्माको नष्ट कर सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। इस संसारमें ऐसा जो पुरुष है वही बुद्धिमान् और कर्तव्योंका पालन करनेवाला कहा जाता है। .
प्रश्न- गुरो ! विषयतुल्योस्ति पदार्थोऽन्योपि मादकः ?
अर्थ- हे भगवन् क्या इस संसारमें विषयसेवनके समान अन्य भी कोई मादक पदार्थ है ?
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तर न्यूनाधिकाद्वा सकलः पवार्थः,
उन्मादकः स्याद् भुवने कदाचित् । न किंतु दृष्टो विषयस्य तुल्य, उन्मायकश्चैव विकारकारी ॥ ५७ ॥ (यत्सेवनेनैव जनाश्च सर्वे, स्वबोधशून्याश्च सदा हि दीनाः । वाचन्द्रसूर्य च भवन्ति मसा, धिगस्तु को तं विषयं नरं च ॥ ५८ ।।
अर्थ-वास्तबमें देखा जाय तो इस संसारमें कोई भी पदार्थ उन्माद उत्पन्न करनेवाले नहीं है । तथापि कदाचित् किसी कारणसे हीनाधिकरूपसे समस्त पदार्थ उन्माद उत्पन्न करनेवाले हो जाय तो भी विषयोंके समान उन्मत्तता उत्पन्न करनेवाला दुसरा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। क्योंकि इन विषयोंका सेवन करने से जब तक ये सूर्य और चन्द्रमा विद्यमान है तब तक ये संसारी जीव अपने आत्मज्ञानसे रहित हो जाते हैं, दीन हो जाते हैं और उन्मत्त हो जाते हैं । इसलिए इन विषयोंको धिक्कार हो और उन विषयोंको सेवन करनेवाले मनुष्योंको भी धिक्कार हो ।
भावार्थ- भांग, चरस, गांजा, अफीम, मद्य, आसव, अरिष्ट आदि बहुतसे पदार्थ मादक वा उन्मत्तता उत्पन्न करनेवाले हैं परंतु वे सब सशरीर जीवका संबंध होनेपर ही उन्मत्तता उत्पन्न करते हैं अन्यथा दूध पानी आदि अन्य पदार्थों के समान पड़े रहते हैं, पडे पडे वे कुछ नहीं कर सकते । दूसरी बात यह है कि मद्य आदिक पदार्थ भी जो उन्मत्तता उत्पन्न करते हैं वह थोड़ी ही देरके लिए उत्पन्न करते हैं, परंतु विषयोंकी तृष्णाकी समानता वे मद्यादिक पदार्थ कभी नहीं कर सकते। क्योंकि विषयोंकी तृष्णासे जो उन्मत्तता उत्पत्र होती है वह अनंतकाल तक रहती है और इस जीवको नरकादिके महा दुःखोंमें पटक देती है। विषयोंकी तृष्णासे उन्मत्त होकर यह जीव विषयोंका सेवन करता है और उनसे उत्पन्न हुए महापापसे यह जीव नरकादिके दुःख भोगता है । विषयोंके सेवन करनेसे यह विषयोंकी तृष्णा दिन-दिन दुनी बहती है
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तथा इस आत्माको अज्ञानी बनाकर दीन और उन्मत्त बना देती है ।। इसलिए आचार्योंन सदा काल इन विषयोंका तिरस्कार किया है और | अन्य सब जीवोंको इनके छोडने तथा तिरस्कार करनेका उपदेश दिया है।
प्रश्न- शुद्धो निश्चयाज्जीबाऽशुद्धो जातः कथं प्रभो !
अर्थ- हे भगवन् ! यह जीन निश्चयनयसे शुद्ध है फिर भला बह | अशुद्ध कैसे हो गया ? उत्तर - अनावितः स्यात् भुवि,
कर्मबन्धोऽशुद्धश्च हेमोपलवत्सुजीवः स्यात्कितु चानन्दपदाधिकारी, यो यक्रियायोगत एच शुद्धः ।। ५९ ॥ ( काठाद्यथाग्निश्च घृतं हि दुग्धातलं, 'तिलादेव तनोश्चिदात्मा।
ज्ञा वेति सुक्त्वा भवदं प्रमावं, निजात्मशुद्धयं चतुरा यतन्ताम् ॥ ६० )
अर्थ- यद्यपि वास्तव में देखा जाय तो सुवर्ण शुद्ध है परंतु बह् अनादिकालसे सुवर्णपाषाणमें मिला रहने से अशुद्ध हो रहा है । वह सुबर्णपाषाण अग्निके संयोगसे अपने कीट-कालिमाको अलग कर देता है तब शुद्ध सुवर्ण हो जाता है। उसी प्रकार इस संसारमें यह जीव भी अनादिकालसे कर्णे बंधनमें पड़ा हुआ अशुद्ध हो रहा है तथापि तपाचरण ध्यान आदि योग्य क्रियाओंक निमित्तसे यही चिदानन्दमय अनंत सुखको भोगनेवाला शुद्ध हो जाता है जिसप्रकार लकाडीसे अग्नि उत्पन्न होती है. दूधसे घी उत्पन्न होता है और तिलसे तेल उत्पन्न होता है उसी प्रकार चिदानन्दमय शुद्ध आत्मा भी इसी अशुद्ध पर्यायसे सर्वथा भिन्न होकर सदाके लिए शुद्धस्वरूप हो जाता है । यही समझकर चतुर पुरुषोंको जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाले प्रमादका त्याग कर देना चाहिए और अपने आत्माको शुद्ध बनानेके लिए पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।
भावार्थ - सुवर्ण और पाषाण दोनों ही अनादिकालसे मिले हुए हैं । उस सुवर्ण में पाषाण मिला रहनसे बह सुवर्ण अनादिकालसे
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ही अशुद्ध माना जाता है । परन्तु वह अशुद्ध मुवर्ण अग्निके मयोगसे अत्यन्त शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार यह आत्मा कर्मोके सम्बन्धम अनादिकालसे अशुद्ध हो रहा है । कोका सम्बन्ध अनादिकालने लगा हुआ है इसलिए अनादिकालसे ही यह जीव अशुद्ध हो रहा है । जब यह जीव ध्यानरूप अग्निके द्वारा ममस्त कर्मोको नष्ट कर देता है और पर सम्बन्धसे सर्वथा भिन्न हो जाता है, तब यह जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। इस संसारमें यह जीव जो अनेक प्रकारके दुःख भोग रहा है बह कर्मोके उदयसे ही भोग रहा है । यदि इस जीवके साथ कर्म न रहें तो यह जीव अपने स्वाभाविक स्वरूपमें हो जाता है और फिर शुद्ध चैतन्यस्वरूप अनन्तसुखमय हो जाता है। इसलिए प्रत्येक चतुर पुरुषको अपना प्रमाद छोडकर अपने आत्माके अनन्त सुखमय कल्याणमें लग जाना चाहिए।
प्रश्न वपुःसंगोत्कथं जीवोऽशुद्धो 'भ्रमति भूतले ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि शरीरके बंधनसे यह जीव किस प्रकार से अशुद्ध हो जाता है और क्यों इस मंसारमें परिभ्रमण करता है ? उत्तर -संसर्गतो हमलोमसस्त्र,
शुद्धः पदार्थोपि भवेदशुद्धः। वस्त्रानपानं च विपनादिरत्यंनिद्यश्च विवर्जनीयः ॥ ६१॥ जोबोपि तत्संगवशात्प्रमूढो, भूत्वा भवाब्धौ भ्रमतीह भीमे । त्याज्यश्च बुद्ध्वेति वपुःप्रसंगः, स्वराज्यतोश्च विचारशीलैः ॥ ६२ ॥
अर्थ-देखो, इस शरीरको मलिनताके संबंधमे अन्न पान वस्त्र चन्दन आदि जितने शुद्ध पदार्थ हैं वे सब अत्यंन अशुद्ध अत्यंन निंदनीय और त्याग करने योग्य हो जाते हैं । इसी प्रकार ये संसारी जीव भी इस शरीरके सम्बन्धसे अत्यंत अशानी होकर इस भयानक संसाररूपी
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सागरमें परिभ्रमण किया करते है । यही समझकर विचारशील पुरुषोंको अपना मोक्षरूपी स्वराज्य सिद्ध करने के लिए इस शरीरका सम्बन्ध छोड़ देना चाहिए ।
भावार्थ- इस शरीरके सम्बन्धसे सर्व अन्न विष्ठाके रूपमें परिणत हो जाता है, दूध पानी आदि मूत्रके रूपके परिणत हो जाता है, जो वस्त्र एक बार पहने जाते हैं उनको फिर दूसरा कोई आदमी नहीं। पहनता । चन्दन केसर कपूर आदि सुगन्धित और शुद्ध पदार्थ भी शरीरपर लगाते ही अशुद्ध हो जाते हैं फिर उनको छूता भी नहीं, वे तो निय और त्याज्य हो जाते हैं। वास्तव में यह शरीर अत्यंतणित है, मांस रुधीर आदि अस्पृश्य पदार्थोसे ही बना हुआ है, जीवके सम्बन्धसे ही यह स्पर्श करने योग्य हो जाता है, अन्यथा इस शरीरसे अब यह बीमा जाता है और मुरदा शरीर पड़ा रहता है तब उसे स्पर्श करके स्नान | करना पड़ता है । अथवा मुरदेके साथ जानेवाले चाहे स्पर्श भी करें | तो भी उन्हें स्नान करना पड़ता है, इसलिए इन निंदनीय और मर्वया | त्याज्य शरीरके सम्बन्ध से ही यह जीव महा पाप उत्पन्न करता रहता है तथा उन पापोंके निमित्तसे नरक-निगोद आदिके महा दुःख भोगता । रहता है । यद्यपि यह शरीर इस प्रकारके महा दुःखोंको देनेवाला है। सथापि यह अज्ञानी जीव रातदिन इसका पालन पोषण करता रहता है । इसके पालनपोषणके लिये अनेक प्रकारके अन्याय और अत्याचारोंसे ।। द्रव्य कमाता है और इसको सुख पहुंचानेके लिये बड़े बड़े महल दा बड़े बड़े बाग बगीचे लगाता है, अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न । करता है। ये सब बातें समझकर विचारशील पुरुषोंको शरीरसे। अपना ममत्व हटा लेना चाहिये और अत्यंत दुर्लभतासे प्राप्त होनेवाले इस मनुष्यशरीरसे तपश्चरण वा ध्यान करके अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिये। यह मनुष्य-जन्मकी सार्थकता है।
प्रश्न- सन्त्यात्महितकर्तारः के विश्वे वद मे प्रभो !
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें आत्माका हित करनेवाले कौन कौन है ?
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उत्तर - व्रतोपवासश्च जपस्तपोपि,
कृपाक्षमाध्यानदयासुर्धर्यः । स्वाध्यायशान्तिप्रशमप्रमोदाः, सिद्धिः समाधिः परिणाशुद्धिः ॥ ६३ ॥ प्रीतिश्च मैत्री करुणापि कान्तिः, पूर्वोक्तभावाः सुखदाः पवित्राः । पर्यायदृष्टयात्मन एत्र चोक्ताः, स्वर्मोक्षहेतोरहृदि धारणीयाः ।। ६४ ।।
अर्थ- ब्रत, उपवास, जप, तप, कृपा, क्षमा, ध्यान, दया, धैर्य, स्वाध्याय, शान्ति, प्रशम, प्रमोद, सिद्धि, समानि, परिणामोंकी शुद्धता, प्रीति, मैत्री करुणा और कान्ति आदि जितने सुख देनेवाले पवित्र भाव हैं वे सब पर्याय दृष्टीसे आत्माके ही कहे जाते हैं और इसीलिये ये सब भाव आत्माका हित करनेवाले हैं । भव्यजीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये ये सब भाव अपने हृदयमें धारण करने चाहिए ।
__ भावार्थ-- इस संसारमें जीवोंको जो दुःख होता है वह पर पदार्थोंके निमित्तसे ही होता है तथा जबतक पर पदार्थोका संबंध बना रहता है तबतक इस जीवको बराबर दुःख भोगना पड़ता है। जब यह जीव परभावोंका त्याग कर देता है तब इसके निजके भाव अपनेंआप प्रगट हो जाते हैं । जैसे क्रोध का त्याग कर देने से आत्माका क्षमा गुण प्रगट हो जाता है, मान का त्याग कर देने से आत्माका मार्दव गुण प्रगट हो जाता है, मायाचारीका त्याग कर देनेसे आर्जव गुण प्रगट होता है, लोभका त्याग करनेसे शौच गण प्रगट होता है, मिथ्या भाषणका त्यागकर देनेसे सत्य गुण प्रगट होता है, हिंसाका त्याग कर देने से दया प्रगट होती है, काममोगोंका त्याग कर देनेसे ब्रह्मचर्य गुण प्रगट होता है और अशुभ परिणामोंका त्यागकर देनेसे शुभ वा शुद्ध परिणाम प्रगट हो जाते हैं । ये सब आत्माके निजके गुण हैं और इमीलिए आत्माका हित करनेवाले हैं इसलिए भव्य जीवोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिए क्रोधादिक परभावोंका त्याग कर अपने आत्माके गुण प्रमट कर लेने चाहिये क्योंकि आत्माके गुण ही मोक्षके कारण है ।
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प्रश्न-- स्वात्माहितकराः पृथ्व्यां के सन्ति वद मे प्रभो !
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि इस पृथ्वीपर अपने । आत्माका अहित करनेवाले कौन कौन है ? उत्तर - दाहाकराः क्रोधपिशाचवर्गाः,
स्पृहाः प्रदोषाश्च सदा व्यथादाः । मोगोपभोगादिकसेवनेच्छाः, क्रूराः सदा मर्मविदारकाश्च ।। ६५ ॥ पूर्वोक्तभावाश्च निजात्माबाह्याः, प्रोक्तास्तथात्महितकारकाश्च। शास्वेति धीरैः स्वपरात्मशान्त्य
प्रवर्जनीयाश्च परा: पदार्थाः ॥ ६६ ।।
अर्थ- इस संसारमें क्रोधरूपी पिशाच्चोंका समूह इस शरीरको जला देनेवाला है, मर्मस्थानोंको विदीर्ण कर देनेवाला है, क्रूरता उत्पन्न करने वाला है और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाला है । इसी प्रकार भोगोपभोगादिके सेवन करने की इच्छा वा तृष्णा आदि अनेक दोष दुःख देनेवाले हैं वा मर्भस्थानोंको विदीगं करनेवाले हैं। ये सब अशुद्ध आत्माके भाव हैं और इसीलिए अपने आत्माके स्वरूपसे भिन्न हैं अपने आत्माके स्वरूपसे भिन्न होनेके ही कारण ये सब विभावभाव आत्माका अहित करनेवाले है । यही समझकर धीर बीर पुरुषों को अपन आत्माको अटल शांति प्राप्त करनेके लिए तथा अन्य जीवोंको शाति प्राप्त करानेके लिए पर पदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए
भावार्थ- क्रोध शब्दसे क्रोध, मान, माया, लोभ, काम आदि आत्माको दुःख देनेवाले जितने विकार हैं वे सब ग्रहण कर लेना चाहिए । जो पुरुष अत्यन्त क्रोधी होता है वह अपने हृदय में सदाकाल जला करता है तथा दूसरेके मर्मको विदीर्ण करनेवाले वचन ही उसके मुखसे निकलते है । क्रोधके आवेशमें आकर वह अन्य जीवोंका भी घात कर देता है। - इस प्रकार इस लोकमें महा दुःख भोगकर परलोकमें नरकादिकके दुःख । भोगता है । इसी प्रकार मान करनेवाला गुणी जनोंका भी तिरस्कार .
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करता हुआ पाप बन्ध्र किया करता है। मायाचारी करनेवाला न जाने कितने लोगोंको हानि पहुंचाया करता है । लोभी पुरुष सब प्रकारके अन्याय और अत्याचार किया करता है । कामी पुरुषसे संसारका कोई पाप नहीं बन सकता । इस प्रकार ये सब आत्माके बिकार इस जीवको इस लोकमें भी दुःख देते हैं और परलोकमें भी नरकादिकके दुःख देते हैं । इसी प्रकार धनादिकको तृष्णासे वा भांगोपभोग सेवन करने को लालसासे भी सदा पाप उत्पन्न होते रहते हैं और इसीलिए ये सब विकार आत्माका अहित करनेवाले हैं। ये विकार कर्मों के निमिससे होते हैं और कार्मोंका सम्बन्ध इन्हीं विकारोंसे होता है। इसलिए आत्माको मुख पहुंचाने के लिए इन सब विकारोंका त्याग कर देना चाहिए और इन विकारोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका भी नाश कर देना चाहिए।
प्रश्न- देहद्वारेण जीव: स्वहिताहितं करोति किम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बसलाइये कि यह जीव अपने शरीरसे क्या-क्या अपना हित करता है और क्या-क्या अपना अहित करता है। उत्तर - देहदुरुपयोगाद्धि जीवोयं धर्मवजितः ।
याति सन्नरक निधं दुःखद मर्मभेदकम् ।। ६७ ॥ देहसदुपयोगात्स्याज्जीवोयं धर्मधारकः । लभते स्वर्गसौख्यं च मोक्षसुखमनुक्रमात् ॥ ६८ ॥ अग्नेर्दुरुपयोगाद्धि यथा वस्त्रानवजितः । तत्सदुपयोगात्स्यात्सदा सुखी गृहस्थकः ।। ६९ ॥
अर्थ- जिस प्रकार अग्निका दुरुपयोग करनेसे वह गृहस्थ अन्न बस्त्रसे रहित हो जाता है और उसी अग्निका सदुपयोग करनेसे वही गृहस्थ सदा सुखी बना रहता है उसी प्रकार शरीरका दुरुपयोग करनेसे यह जीव धर्म-कर्मसे रहित होकर अत्यन्त निद्य दुःख देनेवाले और मर्मस्थानको भेदन करनेवाले नरकमें जा पडता है । तथा इसी शरीरका सदुपयोग करनेसे यह जीव धर्मको करता हुआ स्वर्गोका सुख प्राप्त कर लेता है और अनुक्रमसे मोक्षके सुख प्राप्त कर लेता है ।
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भावार्थ- अपने घर में अग्नि लगा देना वा अपने अन वस्त्र सत्र जला देना अथवा अग्निमें कूदकर जल जाना आदि सब अग्निका दुरुपयोग है तथा मुनिराजोंको आहार देनेके लिए अग्नि भोजन बनाना वा श्रावकों को भोजन करानेके लिए भोजन बनाना वा दानके लिए औषधियां तैयार कराना अथवा भगवान जिनेन्द्रदेवको चानके लिए लाडू वा नैवेद्य बनाना अग्निका सदुपयोग है । इस प्रकार अग्निका सदुपयोग करनेसे यह जीव इस लोकमें भी सुखी होता है और परलोकके लिए भी अनन्त पुण्य कमा लेता है। इसी प्रकार इस शरीर से हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, दुराचार सेवन करना, अधिक परिग्रह इकट्ठा करना, अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करना, अन्याय करना, सातों व्यसनों का सेवन करना, लूटना, भारना आदि सब कार्य शरीरका दुरुपयोग है। तथा इसी शरीर से भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना, मुनियोंके लिए शुद्ध निर्दोष आहार दान देना, क्षुल्लक, ऐलक, अर्जिका, क्षुल्लिका श्रावक श्राविका, आदिको आहार दान देना, औषध दान देना, वस्त्रादिक दान देना, जिन शास्त्रोंको लिखना, पढना, दान देना, व्रत, उपवास करना, तपश्चरण करना, देख-शोध कर चलना, जीवों की रक्षा करना, शुद्ध निर्दोष भोजन करना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि कार्य करना शरीरका सदुपयोग है | शरीरका सदुपयोग करनेसे यह जीव अपने धर्मका पालन करता है और इसीलिए इस लोकमें मान्य पूज्य होता हुआ परलोकमें स्वर्ग मोक्ष के सुख प्राप्तकर लेता है। तथा शरीरका दुरुपयोग करनेसे इस लोक में अनेक रोगादिक तिरस्कारादिकके दुःख भोगता हुआ परलोकमें नरक निगोदके दुःख भोगता है । इस लिए विचारशील पुरुषोंको यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर इसको सदाकाल सदुपयोग में ही लगाना चाहिए। शरीर धारण करनेका यही फल है।
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प्रश्न- रौद्रध्यानी नरः श्वभ्रं याति वा न प्रभो वद ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि रौद्रध्यानको धारण करनेवाला यह मनुष्य नरकमें जाता है बा नहीं ? उत्तर - हिंसानन्वमृषानन्दस्तेयानन्दादिसंयुतः ।
सम्यक्त्व सुख निर्मुक्तः प्रयाति नरकं नरः ॥ ७० ॥
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गृहकर्मादिसिद्धयर्थ क्वचिद्धर्मादिसिद्धये । हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयानन्दयुतोपि यः।। ७१ ॥ सम्यक्त्तसम्म सम्पनः वास्तलो व्यापक्षक: ।
धर्मप्रभावको धीरो न याति नरकं नरः ॥ ७२ ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शनके सुखमे सर्वथा रहित रहनेवाला मनुष्य यदि हिसानंद, मषानंद, स्तेयानंद, परिग्रहानंद इन चारों रौद्रध्यानोंको धारण करता है तो वह मनुष्य अवश्य हो नरक जाता है। परंतु जो मनुष्य सम्यग्दर्शनके सुखसे सुशोभित है, जिनशास्त्रोंका जानकार है, न्यायकी रक्षा करनेवाला है. धर्मकी प्रभावना करनेवाला है और धीर वीर है ऐसा मनुष्य यदि गृहस्थीके किमी कामके लिये अथवा कभी क्वचित् कदाचित् धर्मकायोंकी सिद्धि के लिए हिंसानंद वा मृषानंद वा स्तेयानंद अथवा परिग्रहानंद इन चारों रौद्रध्यानोंमसे कोई भी रौद्रध्यान धारण करता है अथवा चारोंको धारण करता है तो भी वह नरक नहीं जाता।
भावार्थ- हिंसामें आनंद मानकर हिंसा करने वा करानेका बार वार चितवन करना हिंसानंद नामका रौद्रध्यान है । झूट बोलने में आनंद मानकर झूठ बोलना वा झ्ठ बुलवाने के लिए बार-बार चितवन करना मृषानंद नामका रौद्रध्यान है । चोरीमें आनंद मानकर चोरी करने कराने के लिए बार-बार चितवन करना स्तेयानंद नामका रौद्रध्यान है
और परिग्रहम आनंद मानकर परिग्रहकी वृद्धि रक्षा आदिके लिए बार बार चितवन करना परिग्रहानंद नामक रौद्रध्यान है । ये चारों रौद्रध्यान नरकके कारण हैं और इसीलिए ये मुख्यतासे मिथ्यादृष्टियोंके ही होते हैं । यदि किसी सम्यग्दृष्टीके होते हैं तो अत्यंत मंदरूपसे होते हैं तथा चौथे गुणस्थान तक ही होते हैं । क्वचित कदाचित् किसी जीवके पांचवें गुणस्थानमें भी होते हैं । परंतु वे चौथे वा पाचवें गुणस्थानमें होनेवाले रौद्रध्यान नरकके कारण नहीं होते । इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दष्टी पुरुषको आत्मज्ञान प्रगट होता जाता है और उसके परिणाम दया रूप हो जाते हैं इसलिए ऐसे दयालु पुरुषके रौद्रध्यानकी तीव्रता कभी नहीं हो सकती तथा रौद्रध्यानकी तीव्रता ही नरकका कारण है ।
सम्यग्दृष्टी पुरुषके यह रौद्रध्यान कभी तो घरके कामोंके लिए
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होता है और कभी-कभी धर्मकार्य के लिए भी होता है। जब कोई दुष्ट पुरुष किसी धर्म कार्यमें विघ्न करना चाहता है तब उस विघ्नको दूर करनेके लिए बह सरलसे सरल उपाय करता है । यदि किसी सरल उपायसे वह विघ्न दूर नहीं होता तो उस समय उसको रौद्रघ्यान हो सकता है। जिनालयोंपर आक्रमण करनेवालोंका निग्रह किया ही जाता है । पूजा प्रतिष्ठा रथोत्सव आदि प्रभावनाके अंगोंमें विघ्न करनेवालोंका भी निग्रह किया ही जाता है। इन सब कामोंमें रौद्रध्यान हो सकता है । परंतु वह अत्यंत मंदरूंप होता है. साथमें दयारूप परिणाम भी होते है इस लिए वह रौद्रध्यान नरकका कारण कभी नहीं होता।
प्रश्न- आर्तध्यानी जनो याति तिर्यग्गत्यादिकं न बा ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि आतध्यान करनेवाला पुरुष तिर्यंचगति वा अन्य नीच गतियोंमे जाता है वा नहीं ? उत्तर - धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थक्रियोज्झितः ।
तिर्यग्गति समायाति नातध्यानी ह्यदर्शनः ।। ७३ ॥ क्वचिदिष्टवियोगाचार्तध्यानधारकोपि को। धर्मार्थकाममोक्षादिपुरुषार्थसमन्वितः ।। ७४ ॥ दीनजन्तुष्यथाहर्ता जिनधर्मप्रभावकः ।
याति सम्यक्त्वयुक्तो न तिर्यग्गत्यादिकं नरः ॥ ७५ ॥
अर्थ- जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका पालन नहीं करता ऐसा मिथ्यादृष्टी आर्तध्यानी पुरुष तिर्यग्गतिको अवश्य प्राप्त होता है। परन्तु जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका पालन करता है, दीन हीन जीवोंके दुःखोंको दूर करता रहता है, जिनधर्मकी प्रभावना करनेमें सदा तत्पर रहता है और जो सम्यग्दर्शनसे विभूषित होता है वह मनुष्य किसी समय इण्ट वियोग वा अनिष्ट संयोगसे उत्पन्न होनेवाले आर्तध्यानको धारण करता है तो भी वह तिर्यंच गतिमें वा अन्य किसी नीच गति में नहीं जाता।
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भावार्थ- ऋत शब्दका अर्थ दुःख है । जो ध्यान किसी दुःखसे होता है उसको आर्तध्यान कहते हैं। उस आर्तध्यानके चार भेद हैं किसी इष्ट पदार्थ के वियोग होनेपर उसके संयोगके लिए बार बार चितवन करना पहला आर्तध्यान है । किमी अनिष्टक संयोग होने पर उसके वियोगके लिए बार बार चितवन करना दुसरा आध्यान है । किमी गेगके होनेपर उसके दूर करने के लिए बार बार चितादन करना तीसग आर्तध्यान है । और आगामी काल के लिए वा आगामो जन्मके लिए भोगापभोगोंकी इच्छा करना चौथा आनध्यान है । ये चारों आर्तध्यान तिर्यंच गतिके कारण हैं । गो चारों आतध्यान मुख्यतासे मिथ्यादृष्टियोंके होते हैं तथा चौथ पांचवें गणस्थान में सभ्यग्दृष्टीक भी होते हैं । छठे मणस्थान में भी किसी मनिने ये आतध्यान होते है। परन्तु निदान नामका चौथा आतध्यान मनियोंके नहीं होता । यदि कोई मनि चोथा आर्तध्यान करता है तो उस समय उसका छठा गुणस्थान छूट जाता है । छठ गणस्थानमें वा चौथे पांचवें गणस्थान होनेवाले आतध्यान अत्यन्त मन्द रीतिसे होत है इसी लिए व नियंचगतिक कारण नहीं होते । इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके प्रभावसे सम्यग्दृष्टी पुरुष अपने आत्माके स्वरूपको समझता है इसीलिए किसी भी प्रकार इष्ट वियोग वा अनिष्ट संयोग होनेपर वह अपने आत्मामें तीन संक्लेश परिणाम नहीं करता । वह सब प्रकारके दुःखोंको कर्मोंका फल समझता है । इसीलिए वह तीबसे तीव दुःख आने पर भी परिणामोम समता धारण करता है। इसीलिए उसके आर्तध्यान में तीव्रता नहीं हो सकती। उस आर्तध्यानमें मन्दता ही रहती है। इसीलिए वह आर्तध्यान तिर्यंच गतिका वा अन्य नीच गतिका कारण नहीं होता। यही कारण है कि आतध्यान करनेवाला सम्यग्दृष्टी पुरुष तिर्यंच गति वा अन्य नीच गतिमें उत्पन्न नहीं होता। यहांपर इतना और समझ लेना चाहिए कि धर्म अर्थ काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ है। इन चारों पृश्यार्थों का पालन सम्यग्दृष्टी ही कर सकता है । इसका भी कारण यह है कि ये सब पुरुषार्थ अनुक्रमसे पालन किए जाते हैं। धर्म पुरुषार्थ के साथ-साथ जो अर्थ पुरुषार्थ वा काम पुरुषार्थ कहलाता है । विना धर्मपुरुषार्थको सेवन किए अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ कभी पुरुषार्थ नहीं कहलाते हैं । यों तो सभी संसारी जीव धन कमाते हैं और कामभोगोंका सेवन करते हैं परन्तु वे दोनों पुरुषार्थ
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
धर्मपुरुषार्थं पूर्वक न होनेके कारण पुरुषार्थ नहीं कहला सकते । इसके सिवाय एक बात यह भी है कि इन सब पुरुषार्थों में मोक्ष प्राप्त करनेका ध्येय दिलमान रहता है। धर्म सेवन करना परंपरा मोक्षका कारण है ही, तथा सम्यग्दृष्टी पुरुष मोक्षकी अभिलाषा करता हुआ ही धर्मका सेवन करता है । तथा धन कमाता है वह भी मोक्ष प्राप्त करनेके लिए मुख्यतया धर्मसेवन में ही लगाता है। इसलिए वह उस अर्थ पुरुषार्थका भी मोक्षकी सिद्धिका साधन समझता है और इसीलिए वह अन्याय वा अनीतिपूर्वक धन नहीं कमाता, न्याय और नीति मार्गसे ही धन कमाता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टी पुरुष धार्मिक संतान उत्पन्न करने के लिए काम पुरुषार्थका सेवन करता है । धार्मिक संतान उत्पन्न होनेसे ही धर्म को सत्ता कायम रह सकती है और मोक्षमार्ग चल सकता है । यदि संतान श्रमिक न हो तो धर्म और मोक्षमार्गका लोप ही हो जायगा । इसलिए सम्यग्दृष्टी पुरुष धर्मवृद्धि के अभिप्रायमे तथा मोक्षमार्ग की स्थिति सदाकाल बनी रहने के लिए ही कामपुषार्थका सेवन करता है और इसीलिए अन्त में वह सबका त्याग कर मोक्षमार्ग में लग जाता है । मिथ्यादृष्टि पुरुष धन कमाने में या कामसेवन करने में धर्मका वा मोक्षमार्गका कुछ ध्यान नहीं रखता । इसलिए उसके ये दोनों काम पुरुषार्थ नहीं कहलाते | पुरुष शब्दका अर्थ आत्मा है और अर्थ का अर्थ प्रयोजन है । जिसमें आत्माका प्रयोजन सिद्ध हो आत्मा का कल्याण हो वही पुरुषार्थ कहलाता है । मिथ्यादृष्टी पुरुष आत्माके स्वरूपको ही नहीं समझता है । इसलिए वह उसके कल्याणकी ओर कभी नहीं झुकता । इसलिए ही वह किसी पुरुषार्थ का सेवन नहीं कर सकता । सम्यग्दृष्टी ही पुरुषार्थो का सेवन कर सकता है ।
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इसी प्रकार स्त्रियां भी न तो धन कमा सकती हैं और न कामका फल प्राप्त कर सकती है । कामका फल संतान है वह पिता की कहलाती है । इसलिए धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंको पुरुष ही प्राप्त कर सकता है, स्त्रियां नहीं ।
प्रश्न-- धर्मध्यानी नरो याति कीदृशी वद मे गतिम् ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि धर्मध्यान करनेवाला मनुष्य कैसी गतिको प्राप्त होता है ?
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(शान्तिसुधासिन्धु)
उत्तर - आर्तरौद्रं परित्यज्य संसारक्लेशकारणम् ।
आज्ञापायवियाकादिधर्मध्यानपरायणः ।। ७६ ।। व्रताचारसमापन्नः सम्यक्त्वरत्नभषितः। स्वर्मोक्षमार्गसंलग्नः स्वर्ग श्रेष्ठं प्रयाति सः ।। ७७ ॥ अर्थ – जो पुरुष दुःखमय संसारके क्लेशोंके कारण ऐसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों अशुभ ध्यानांका त्याग कर आज्ञाविचय, अपायवित्रय विपाकविनय और संस्थानविचय इन चारों धर्म्यध्यानौंको धारण करता है, जो व्रत सदाचार आदिके पालन करने में लीन रहता है, सम्यग्दर्शन रूपी रत्नसे सुशोभित रहता है और स्वगं वा मोक्षके मार्ग मे सदाकाल लीन रहता है वह पुरुष स्वर्गम उत्पन्न होता है।
भावार्थ -- ऊपर जिन आनध्यान और रौद्रध्यानका वर्णन किया है वे दोनों ध्यान जन्म मरणरूप संसारके समस्त दुःखोंके कारण है । धर्मध्यान परंपरासे मोक्षका कारण है और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका कारण है । धर्मसे बा आत्माके गणोंकि संलग्नतासे जो ध्यान उत्पन्न होता है उसको धर्मध्यान कहते हैं। धर्मध्यानके चार भेद हैं। भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको मानना और उस आज्ञाका सर्वत्र प्रचार करना आज्ञात्रिचय नामका धर्मध्यान कहलाता है। इस संसारमें मिथ्यादृष्टियोंका मिथ्यात्व किस प्रकार दूर हो, वा दुःखी जीवोंका दुःख किस प्रकार दूर हो. इस प्रकार चितवन करना अपायबिचय धर्मध्यान काहा जाता है । अपने ऊपर दुःख आनेपर उसको कर्मोंका फल मानना और उसे समतापूर्वक सहन करना विपाकविचय धर्मध्यान कहलाता है। तथा लोकका स्वरूप अथवा लोकमें भरे हए समस्त तत्त्वोंका स्वरूप चितवन करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । इन चारों ध्यानोंमें किसी प्रकारका पाप उत्पन्न नहीं होता और ये चारो ध्यान आत्माके स्वभावसे उत्पन्न होते हैं । इसलिये इनको धर्मध्यान कहते हैं।
धर्मध्यानको धारण करनेवाला पुरुष भी कभी अन्याय नहीं करता, बह व्रतोंको पालन करता रहता है, सदाचारका पालन करता रहता है । सम्यग्दर्शनसे सुशोभित रहता है और इसीलिए वह स्वर्ग वा मोक्षके मार्गमें लगा रहता है । ऐसा पुरुष उत्तम स्वर्गही
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उत्पन्न होता है। आर्त्तध्यान और रौद्रध्यानका त्याग कर दे वह नरकगति वा तियंचगति में उत्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए वह उनम स्वर्ग में ही उत्पन्न होता है ।
प्रश्न- कस्य ध्यानस्य कार्येण भो प्रयाति मानवः ?
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अर्थ - हे स्वामिन् ! अब पाकर यह बतलाइये कि यह मनुष्य किस ध्यानको करनेसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है ?
उत्तर - शुक्लध्यानी व्रती धोमांश्चरमांगी दयानिधिः । गतस्पृहः सदानंदो मदमानमलोज्झितः ॥ ७८ ॥ निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तः कृपाविधः शीलसागरः । मोक्षपुरी प्रयात्युच्चे: विश्वतत्त्वविशारदः ।। ७९ ॥
अर्थ -- जो पुरुष महाव्रतोंको धारण करता है, जो अत्यन्त बुद्धिमान हैं, चरमशरीर है. नानिधि है, सब प्रकारकी इच्छाओंसे रहित है, सदानन्द स्वरूप है, मद मान आदि विकारोंसे सर्वथा रहित है, सन प्रकार के संकल्प विकल्पोंसे रहित है, जो मद रहित है, अत्यंत शांत है, कृपाका सागर है, शीलसागर है, और समस्त तत्त्वोंका जानकर है ऐसा शुक्लध्यान करनेवाला महापुरुष मोक्ष नगर में जा बिराजमान होता है । भावार्थ - आत्मा के शुद्धस्वरूपका चिन्तवन करना शुक्लध्यान है । पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृति ये चार उसके भेद हैं। इनमें से पहलेके दो शुक्लध्यान श्रुतलियोंके होते हैं, और अन्तके दोनों ध्यान केवली भगवान के होते हैं पृथक्त्ववितर्क तीनों योगों से होता है, एकत्ववितर्क किसी एक योगसे होता है. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती काययोग से होता है और व्युपरतक्रियानिवृति किसी योग नहीं होता है अयोग अवस्थामं होता है । पृथक्त्ववितर्क के चितवनमें पदार्थोंका संक्रमण होता रहता है, अर्थात् एक पदार्थको छोड़कर दूसरे पदार्थका चितवन करने लगता है, फिर उसको छोडकर तीसरेका चितवन करता है । इसी प्रकार पदार्थक चितवनका संक्रमण होता रहता है। इसके सिवाय योग और शब्दों का संक्रमण भी होता है। मनोयोग से चितवन करते करते वचन योगसे चितवन करने लगता है, वचन योगको छोडकर काययोगसे चितवन
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( शान्तिसुधासिन्धु )
करता है फिर काययोगको छोडकर मनोयोग वा वचनयोगसे चितवन करने लगता है इसको योग संक्रमण कहते हैं । किसी पदार्थको एक शब्दसे चितवन करते करते दुसरे शब्दो चितवन करने लगता है फिर तीसरे शब्दसे चितवन करता है। इस प्रकार व्यंजन संक्रमण करता रहता है। इन सब संक्रमणोंको विचार कहते हैं । यह विचार पहले ही शुक्लध्यान में होता है आगे नहीं। इस प्रकारके इस शुक्लध्यानको धारण करनेवाला महापुरुष मोक्षमें हो जा विराजमान होता है ।
प्रश्न- ग्राह्यास्ति की शचात्मा बुध्यते कम हेतुना ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि इस जीवको अपना कसा आत्मा ग्रहण करना चाहिए और वह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? उत्तर स्वागन्दधारी भवभोतिहारी,
मायानिवारी मदनप्रहारी । स्वराज्यकारी स्वसुखप्रसारी। सम्पूर्णसाम्राज्यपदाकाधिरी ॥ ८०॥) (समस्तसंकल्पविकल्पवरी, वाद्यन्तमध्याविविदूरकारी। पूर्वोक्तधर्मेण युतश्चिदात्मा,
प्रायः स्वसंवेदनतश्च गम्यः॥ ८१॥ (अर्थ- जो आत्मा अपने आत्मजन्म आनन्दको धारण करनेवाला है, संसारके जन्ममरणरूप भयको हरण करनेवाला है; मायाचारीसे सर्वथा दूर रहनेवाला है, कामदेवको नष्ट करनेवाला है अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यको धारण करनेवाला है, आत्मजन्य सुखको फैलानेवाला है, मोक्षरूप समस्त साम्राज्यके पदका अधिकारी है, जो संकल्पविकल्पोंसे रहित है और आदि मध्य अन्तसे रहित है, जी चैतन्यस्वरूप आत्मा इन ऊपर लिखे हुए धर्मोसे सुशोभित है वहीं शुद्ध आत्मा ग्रहण करने योग्य है ऐसा आत्मा अपने स्वसंवेदनसे जाता जाना है।
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(aitagarfong)
भावार्थ - इस संसारमें शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऊपर जितने गुण लिखे हैं वे सब शुद्ध आत्मामें प्राप्त हो सकते हैं । इसलिए शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य हो सकता है । वह शुद्ध आत्मा अमूर्त होता है इसलिए उसका ज्ञान इंद्रियोंमे नहीं हो सकता । उसका ज्ञान स्वसंवेदनसे होता है । स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञानका अंश है और वह सम्यग्दर्शन के साथ प्रगट होता है । में शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, समस्त विकारोंसे रहित हूं और रत्नत्रयस्वरूप हूं इस प्रकारके आत्माके अनुभवको स्वसंवेदन कहते हैं। इसी स्वसंवेदनसे आत्माका शुद्धस्वरूप जाना जाता है और वही ग्रहण करने योग्य है ।
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प्रश्न- स्वात्मायं साध्यते केनोपायेन वद मे गुरो ?
अर्थ- गुरो ! अब कृपाकर यह कहिये कि यह शुद्ध आत्म किस उपाय से सिद्ध किया जाता है ?
उत्तर चित्तावेगं भवबन्धबोजं,
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संयम्य सन्तोषहरं कषायम् । चिन्हेन बुध्वेति चिदन्यवस्तु, स्वस्वस्वभावे हि यथास्थितं च ॥ ८२ ॥ स्वात्मात्मना चात्मनि चात्मने था, ऽऽत्मानं सवालोकन बोधनं यः । करोति भव्यश्च स एव शीघ्रः, स्वानन्दसाम्राज्यपदे प्रयाणम् ॥ ८३ ॥
अर्थ- जो महापुरुष संसारके कर्मबन्धके कारणभूत इन्द्रिय और मन वेगको रोक लेता है तथा सन्तोषगुणको नाश करनेवाले कषायों को दूर कर देता है और फिर अपने-अपने स्वभाव में स्थिर रहने वाले चैतन्यमय जीव पदार्थको तथा अन्य समस्त पदार्थोंको उनके भिन्न त्रिन्होंसे समझ लेता है । तदनन्तर जो भव्यस्वरूप अपना आत्मा अपने ही आत्मा में, अपने ही आत्माके द्वारा, अपने ही आत्मा के लिए, अपने ही आत्माको सदाकाल देखता और जानता है वही महापुरुष भव्यजीव शीघ्र ही अपने शुद्धात्मजन्य : अनन्त सुखरूपी साम्राज्यस्थान में जा बिराजमान होता है ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- यह जीब इंद्रियोंके विषयोंके वशीभूत होकर अनेक प्रकारके अशुभ कर्मोका बन्ध करता है । तथा कषायोंके निमित्तसे तीन कोका बंध करता है। इस संसार में इस जीवको डबानेवाले इंद्रियों के विषय और कषाय ही हैं । अतएक मोक्ष प्राप्त करनेवाले महापुरुषोंको सबसे पहले इन इन्द्रियोक विषयोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । तदनन्तर समस्त तत्त्वांका यथार्थ स्वरूप समझना चाहिये । तथा उनम जो हेय वा त्याग करने योग्य पदार्थ हैं उनका त्याग कर देना चाहिए, उनसे अपना ममत्व हटा लेना चाहिये । और उपादेय स्वरूप अपने शुद्ध आत्माको ग्रहणकर उसी में लीन होने का प्रयत्न करना चाहिये । तथा अन्त तक उसी शुद्ध आत्माका ध्यानकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए। यही भव्य श्रावकका सबसे मुख्य कर्तव्य है । - प्रश्न- कीदृशोऽस्तीह चात्मायं गुरो मे वद तत्त्वत: ?
अर्थ- है भगवन् ! अन कृपाकर यह बतलाइये कि वास्तवमें आत्माको स्वरूप कैसा है ? उत्तर जाता वृष्टा जगत्साक्षी तत्त्वतो दोषदूरगः । : . स्वपरवस्तुनः स्वात्मा प्रदीपवत्प्रकाशकः ॥ ८४ ॥
___ अर्थ-- यदि वास्तवमें देखा जाय तो यह आत्मा समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है, समस्त पदार्थोंको देखनेवाला है, तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष देखने जाननेवाला है, रागादिक समस्त दोषोंसे रहित है और दीपकके समान अपने स्वरूपको तथा पर पदार्थोको प्रकाशित करनेवाला है । .:. ''भावार्थ- यह संसारी जीव कर्मोके अधीन हो रहा है, उन कर्मों के आधीन होनेसे ही यह जीव राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदि अनेक दोषोंसे दूषित हो रहा है। परंतु जब यह आत्मा उन कर्मीको नाश कर अपना शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेता है तब ये दोष भी सब नष्ट हो जाते हैं, तथा ज्ञानावरणकर्मके नाश होनेसे यह आत्मा अनंतशानी बन जाता है, और दर्शनावरण कर्मके अत्यन्त क्षय होनेसे अनंतदर्शन प्रगट हो जाता है, इसी प्रकार अन्य कर्मोंके नाश होनेसे मोहादिक सच दोष नष्ट हो जाते हैं। उस समय यह आत्मा समस्त पदार्थोका ज्ञाता हो जाता है, समस्त पदार्थोंका दृष्टा हो जाता है। तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष करनेयाला हो
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(शान्तिसुवासिन्धु )
जाता है, समस्त दोषोंसे रहित होता जाता है, और स्वपर प्रकाशक बन जाता है। जिस प्रकार दीपक अपने स्वरूपको भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अपने स्वरूपका भी ज्ञाता दृष्टा हो जाता है और अन्य समस्त पदार्थों का भी ज्ञाता दृष्टा हो जाता है। यही आत्माका शुद्ध स्वरूप है । प्रश्न- को ज्ञेयो ज्ञायकः कोयं दृष्टा दृश्यः प्रभो वद ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि इस संसार में ज्ञेय कौन है, जायक कौन है, दृष्टा कौन है और दृश्य वा देखने योग्य कौन है | उत्तर - ज्ञेयोपि ज्ञायकोप्यात्मा स्वापरबोधनात्सवा ।
दृष्टा वृश्यस्ततः खात्माऽन्यवस्तुव्यवहारतः ॥ ८५ ॥
अर्थ - यह आत्मा अपने स्वरूपको भी जानता है तथा अन्य समस्त पदार्थोंके स्वरूपको भी जानता है । इसलिए यही आत्मा ज्ञेय है: और यही आत्मा ज्ञायक हैं । इसीप्रकार यह आत्मा अपने स्वरूपको भी देखता है और अन्य पदार्थों के स्वरूपको भी देखता है, इसलिए यही आत्मा दृष्टा कहलाता है और यही आत्मा दृश्य वा देखने योग्य कहलाता है । आत्माके सिवाय अन्य पदार्थोंके लिये यह आत्मा व्यवहारदृष्टिसे ज्ञायक और दृष्टा ही कहलाता है ।
भावार्थ - यह आत्मा समस्त पदार्थोंको जानता है तथा देखता है इसलिए ज्ञाता दृष्टा तो है ही, इसमें तो किसी प्रकारका सन्देह ही नहीं है, परंतु यह आत्मा अपने ही आत्माके द्वारा देखा जाता है और अपने ही आत्माके द्वारा जाना जाता है, इसलिए यही आत्मा ज्ञेय और दृश्य भी माना जाता है । इसके सिवाय अन्य जितने पदार्थ हैं, वे सब ज्ञेय और दृश्य ही हैं, ज्ञायक और दृष्टा नहीं हैं ।
प्रश्न - सर्वदेवं च मुक्त्वा किं गृह्यते वद में जिन ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि भव्य श्रावक लोक अन्य समस्त देवोंको छोड़कर भगवान जिनेन्द्रदेवको ही क्यों ग्रहण करते हैं?
उत्तर
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त्यक्त्वा जिनं सर्वकलंकमुक्तं,
सर्वोपि देवोखिलदोषधारो ।
१.
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अस्तोह लोके विषयाभिलाषी, तस्यानभावन विभूषणेन ॥ ८६ ॥ निश्चीयते ह्येव सरागतापि, प्रवेषता शत्रुविधातनेन। ततो प्रमुक्त्येति किलान्यदेवं,
गृण्हाति लोको जिनपं स्वसिद्धये ॥ ८७ ॥ (इयं प्रसिद्धा प्रबलास्ति रीतिः, 'यादग्धनं यस्य भवेत्स्वपार्वे । तादृग्धनं बीयत एव तेन, गृण्हाति जोवापि यतामिलाषः ॥८८॥ .
अर्थ- भगवान् जिनेन्द्रदेव समस्त दोषरूपी कलंकोसे रहित हैं। एसे भगवान जिनेन्द्रदेवको छोड कर अन्य जितने देव है वे सब दोषोंको धारण करनेवाले हैं और सब विषयाभिलाषी हैं। उनके हावभाव और आभूषणोंसे उनमें राग होने का भी निश्चय होता है और शत्रुओंका घात करनेसे द्वेष होनेका भी निश्चय होता है । इसीलिए विचारवान श्रावक अपने आत्माकी सिद्धिके लिए अन्य समस्त देवोंका त्याग कर देते हैं और भगवान जिनेन्द्रदेवको ग्रहण करते हैं । संसारमें यह प्रसिद्ध और प्रबल रीति है कि जिसके पास जैसा धन होता है वह उसी धनको दुसरोंके लिए दे सकता है तथा ये जीव भी अपनी-अपनी इच्छानुसार ले जाते है।
भावार्थ- इस संसारमें भगवान जिनेन्द्रदेवको छोड़कर बाकीके जितने देव है वे सब विषयाभिलाषी हैं और राग द्वेष आदि समस्त दोषोंसे भरपुर हैं। महादेवको देखो तो वे अपने आधे शरीरमें भवानीपार्वतीको बिठाये हये हैं और राग त्रिशूल उनके हाथ में है तथा सवारीके लिए बैल भी उनके पास है । ये सब साधन विषयोंकी अभिलाषा और राग द्वेषको सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार विष्णु भी राधिकाके साथ रहते हैं, चक्र गदा आदि शस्त्रोंको रखते हैं और सबारीको गरुड रखते हैं, ये सब साधन भी विषयोंकी अभिलाषा और द्वेषको सिद्ध करते हैं।
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
ब्रह्मा तिलोत्तमाके वशीभूत हो गया था। इसलिए वह विषयाभिलाषासे दूर नहीं हो सकता । इतके सिवाय अन्य काली भैरों बादि देव भी मद्य मांस आदि निषिद्ध और घृणित पदार्थोको सेवन करनेवाले कहे जाते हैं। इन सब देवोंके पास विषयोंकी अभिलाषा, राग, द्वेष आदि आत्माके सब विकार उपस्थित है। यदि कोई सेवक इनकी सेवा करता है वा आराधना उपासना करता है तो वे देव उस सेवकको सिवाय विषयोंकी अभिलाषाके, और राग द्वेषके और कुछ नहीं दे सकते, क्योंकि जिसके पास जो होता है वह वही दे सकता है । जिसके पास धन है वह धन दे सकता है, और जिसके पास विद्या है वह विद्या दे सकता है। जिसके पास धन नहीं है बड़ धन कहांसे दे सकता है. जिसके पास विद्या नहीं है वह विद्या या ज्ञान कहांसे दे सकता है ? कभी नहीं दे सकता | इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णू, महादेव आदि देव अपने सेवकोंको राग, द्वेष वा विषयोंकी अभिलाषा ही दे सकते हैं। यदि उनसे आत्माका निर्विकार, निर्दोष आत्माका शुद्ध स्वरूप मांगा जाय तो वह कैसे और कहांसे दे सकते हैं ? क्योंकि वह उनके पास है ही नहीं । वह आत्माका निर्दोष शुद्ध स्वरूप तो भगवान जिनेन्द्र देवके पास है, इसलिए आत्माका शुद्धस्वरूपं भगवान जिनेन्द्र देव ही दे सकते हैं । आत्मा के शुद्धस्वरूपको • भगवान जिनेन्द्र देवके सिवाय अन्य कोई देव नहीं दे सकता । इसीलिए जो भव्य जीव अपने आत्माका कल्याण करना चाहते हैं और रागद्वेष आदि विकारोंका त्यागकर मोक्ष प्राप्तकर लेना चाहते हैं वे भव्य जीव अन्य रागी द्वेषी समस्त देवोंको छोड़कर वीतराग सर्वज्ञ और सर्वथा निर्दोष ऐसे भगवान जिनेन्द्रदेवकी ही उपासना करते हैं ऐसे भव्यजीव अन्य किसी देवकी उपासना कभी नहीं कर सकते। जो जीव रागी द्वेषी हैं और अपने राग द्वेष वा विषयोंको बढाना चाहते हैं ऐसे दीर्घंसंसारी जीव ही अन्य रागी द्वेषी वा विषयाभिलाषी देवोंकी उपासना करते हैं इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको आपना आत्माकल्याण करने के लिए भगवान जिनेन्द्रदेवकी ही उपासना करनी चाहिए ।
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प्रश्न - त्यक्त्वान्नशास्त्रं च जिनेन्द्रशास्त्र किं पठ्यते मे कयय प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामित्! अब कृपाकर यह बतलाइये कि भव्य जीव
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अन्य समस्त शास्त्रोंकों छोड़कर भगवान जिनेन्द्रदेवके ही शास्त्रोंको क्यों पढ़ते हैं ?
उत्तर
संसारचक्रस्य विचर्द्धकत्वादेकान्तपक्षस्य समर्थकत्वात् ।
त्यक्त्वान्यशास्त्रं विधिवद् विचार्य, स्वर्मोक्षसिद्धेविधिदर्शकत्वात् ॥ ८९ ॥
यथार्थधर्मप्रतिपादकत्वात्, सापेक्षदृष्टया नयमानसिद्धः । जिनागमोऽस्त्येव च पाठनीयः,
स्वर्मोक्षसिद्धयं परिणामशुद्धयं ॥ ९० ॥
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अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंके सिवाय अन्य जितने शास्त्र हैं वे सब संसार-चक्रको बढानेवाले हैं और एकान्तपक्षका समर्थन करनेवाले हैं । भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्र स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धिको विधिपूर्वक दिखानेवाले हैं, यथार्थ धर्मको प्रतिपादन करनेवाले हैं और अपेक्षा पूर्वक प्रमाणनयसे सिद्ध हैं । इसलिए भव्यजीवोंको विधिपूर्वक विचार करके अन्य शास्त्रोंके पठनपाठनका त्याग कर देना चाहिए और स्वर्ग मोक्षकी सिद्धिके लिये तथा अपने परिणामों को शुद्ध रखनेके लिये भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रोंका ही पठनपाठन करना चाहिये ।
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भावार्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं । जो वीतराग वा रागद्वेषसे रहित होता है वह किसी प्रकारका पक्षपात नहीं कर सकता तथा जो सर्वज्ञ होता है वह भी पदार्थका स्वरूप विपरीत नहीं कह सकता । इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ पुरुष कभी किसी पदार्थका स्वरूप विपरीत वा मिथ्या नहीं कह सकता । इसलिए भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रही यथार्थ शास्त्र हैं। वे ही पदार्थों के यथार्थस्वरूपको कहनेवाले हैं, वे ही आत्माके यथार्थ - स्वरूपको कहनेवाले है और वे ही . शास्त्र यथार्थ मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाले हैं। प्रमाण और नयसे सिद्ध होनेवाले शास्त्र भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए शास्त्र हैं. इसलिए
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कल्याण करनेवाले परिणामोंको विशुद्ध करनेवाले, और मोक्ष देनेवाले शास्त्र भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्र ही हैं । महा भारत रामायण स्मृति आदि जितने शास्त्र हैं, वा वेद उपनिषद आदि शास्त्र हैं, वे मोक्षमार्गके यथार्थ स्वरूपका निरूपण नहीं करते। वे शास्त्र सराग अवस्थाका ही प्रतिपादन करते हैं, अथवा वेदादिक शास्त्र मांस-भक्षणादिकका उपदेश देते हैं, इसलिये वे शास्त्र जीवोंका कल्याण कभी नहीं कर सकते । उनके पठन-पाठनसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । अतएव अपने आत्माका कल्याण करनेवाले भव्य-जीवोंको अन्य समस्त शास्त्रोंके पठन-पाठनका त्यागकर भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए जिनशास्त्रोंका ही पठन-पाठन करना चाहिये । इन्हीं के पठन-पाठनसे जीवोंका कल्याण हो सकता है तथा मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है । प्रश्न- सग्रंथलिंगयक्तं च साधं त्यक्त्वा विचक्षणः ।
निग्रंथलिंगयुक्तं कि वंदते मे वद प्रभो ! अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलानेको कृपा कीजिये कि चतुर पुरुष परिग्रह धारण करनेवाले साधुओंको छोड़कर सर्वथा परिग्रह रहित रहनेवाले साधुओंकी वन्दना क्यों करते हैं ? उत्तर - बाह्मादिसंगादिविवर्जकत्वाद,
वस्त्रास्त्रसंस्कारसुदूरकत्वात् । सदा निरारम्भपदाश्रयत्वात्, स्वानन्दसाम्राज्यसुखे स्थिरत्वात् ।। ९१ ॥ निग्रंथसाधुः सुखदस्ततश्च, प्रपूज्यते नव सरागसाधुः । स्वर्मोक्षमार्गचिदर्शकत्वाद्,
वस्त्रास्त्रसंगाविसमन्वितत्वात् ।। ९२ ।। अर्थ- इस संसारमें जो परिग्रह रहित साधु होते हैं वे अंत-रंग बहिरंग आदि सब प्रकारके परिग्रहसे रहित होते हैं, वस्त्र, अस्त्र, शस्त्र आदिके संस्कारोंसे बहुत दूर रहते हैं । सदाकाल आरंभरहित पदपर ही विराजमान रहते हैं और अपने आत्मजन्य आनंदके साम्राज्यसुखमें सदाकाल स्थिर रहते हैं। इसीलिए वे वीतराग परिग्रह रहित साधु सबके
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लिये सुख देनेवाले होते हैं, और इसी कारण तीनों लोक उनकी पूजा करता है । रागद्वेषको धारण करनेवाला साधु स्वर्ग और मोक्षके मार्ग में सदा अरुचि दिखलाता रहता है, और अस्त्र शस्त्र, वस्त्र परिग्रह आदि अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले सामानको अपने पास रखता है. इसीलिए सरागी साधुओं की कोई भी पूजा नहीं करता है ।
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भावार्थ- पूजा वा वंदना पूज्य पुरुषोंकी की जाती है तथा पूज्यता आत्माकी शुद्धता से प्राप्त होती है, इस आत्मामें जो अशुद्धता है वह कर्मो निमित्तसे होती है तथा कर्मोंका बंधन रागद्वेषसे होता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि इस आत्माकी अशुद्धता रागद्वेषसे ही होती है जिसके रागद्वेष है उसका आत्मा अशुद्ध है और जिसके रागद्वेष नहीं हैं अर्थात् जो वीतराग है उसका आत्मा शुद्ध है, रागद्वेष के कारण ही यह आत्मा परिग्रहको धारण करता है, रागद्वेषके कारण ही मोह वा ममत्व करता है, और रागद्वेषके कारण ही दुःखी होता है। ऐसे रागद्वेषको धारण करनेवाला साधु कभी मोक्षमार्ग में नहीं लग सकता । रागद्वेषके कारण वह निवृत्तिमार्ग में नहीं लग सकता । इसलिये वह मोक्षमार्ग से हटता ही रहता है, और इस प्रकार वह अपने आत्मकल्याणसे बहुत दूर पड जाता. है, ऐसा साधु साधारण हीन दीन गृहस्थों के समान झोंपडी बनाकर रहता है, बर्तन भी रखता है। और अस्त्र शस्त्र, वा वस्त्र भी रखता है । फिर भला पूज्य कैसे हो सकता है ? वह तो रातदिन पेटके धंदे ही लगा रहता है, परंतु जो साधु रागद्वेष से सर्वथा रहित होते हैं, वे बीतराग होने के कारण न तो किसी प्रकारका परिग्रह रखते हैं, न झोंपडी बनाते हैं, औरन पेटके धंदे में लगते हैं, वे तो ध्यान, अध्ययन और तपश्चरणमें ही लगे रहते हैं । ध्यान और तपश्चरणके द्वारा वे अपने कर्मोंका नाश करते जाते हैं, तथा मन-वचन-कायको वश में रखनेके कारण कर्मबन्धनको भी रोकते रहते हैं । इसप्रकार वे साधु अपने आत्माको अत्यंत शुद्ध बनाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे ही साधु इस संसार में तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य और वंदना करने योग्य समझे जाते है ।
प्रश्न - किमस्ति सद्यतित्वं च वद् केन हेतुना !
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अर्थ- हे स्वामिन्! अब यह बतलाने की कृपा कीजिये कि यतिपना क्या है और वह किस कारणसे प्राप्त होता है ? उत्तर - स्वर्मोक्षमार्गपतनात्सुखदं यतित्वं, बाह्यादिसंगमलमोचन तो मुनित्वं । स्वानन्दसिंधुगमनेन भवेद् ऋषित्वमिष्टार्थसाधनत एव च साधुतापि ॥ ९३ ॥ मोहात्मभेदकरणात्परमकृतित्वं, चित्ताक्षसंयमनतो वरसंयमित्वम् । ब्रह्मव्रतं रमणतोस्ति निजात्मसौख्ये,
नाम्ना न लिंगग्रहणाद्भुवने यतित्वम् ॥ ९४ ॥
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अर्थ- जो स्वर्ग और मोक्षके मार्ग में सदाकाल प्रयत्न करते रहते हैं वे सुख देनेवाले यति कहलाते हैं, अन्तरंग और बाह्य परिग्रह के मलका सर्वथा त्याग कर देनेसे मुनि कहलाते हैं, अपने शुद्धात्मजन्य महासागर में गमन करने से ऋषि कहलाते हैं, मोक्ष रूप अपने इष्टको सिद्ध करनेके कारण साधु कहलाते हैं। मोह और आत्माको भिन्न करनेके कारण साधु परमकृती कहलाते हैं, मन और इन्द्रियोंका निग्रह करनेके कारण संयमी कहलाते हैं और ब्रह्मव्रतमें लीन होने के कारण अपने आत्मजन्य अनन्तसुख में निमग्न रहते हैं । इस प्रकार अपने अपने गुणोंसे यति आदि कहलाते हैं । केवल नाम रख लेने अथवा लिग धारण कर लेनेसे यति आदि नहीं कहलाते ।
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भावार्थ- ऋषि, मुनि, यति, साधु, केवल नामसे वा वेष धारण करलेने से नहीं कहलाते किंतु अपने अपने कर्तव्यों कहलाते हैं । यति शब्दका अर्थ यत्न करनेवाला है । जो मुनि मोक्ष प्राप्त करनेके लिए वा मोक्षमार्ग में चलनेकेलिए सदाकाल प्रयत्न करते हैं वे ही घति कहलाते हैं । जो अन्तरंग बहिरंगपरिग्रहका सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको मुनि कहते हैं। आत्माकी अत्यन्त शुद्धता के कारण जिन्हे ऋद्धियां प्राप्त होजाती हैं, इसीलिए जो आत्मजन्य सुखकेसा गरमें रात दिन विहार किया करते हैं उनको ऋषि कहते हैं, जो मोक्षके सिद्ध करने में लगे रहते है, उनको साधु कहते हैं । जो मोहको नाश कर अपने शुद्ध
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आत्माको मोहसे सर्वथा भिन्न कर लेते हैं । उनको परम कृती कहते हैं। जो इन्द्रिय और मनको पूर्ण रूपसे निग्रह करलेते हैं उनको संयमी कहते है, तथा जो ब्रह्मचर्य वा आत्माके शद्ध स्वरूपमें रमण किया करते हैं वे आत्मसुखी वा अनन्तसुखी कहलाते हैं। इसप्रकार जो अलग अलग नाम है वे सब अपने अपने कर्तव्यसे वा गुणोंसे हैं । केवल नाम रखनेसे अभिलाषा रोसे सि त गुनि नहीं हो सकते, अतएव जो अवस्था वा जो पद धारण किया जाय वह यथार्थ कर्तव्य और यथार्थ गुणोंसे परिपूर्ण होना चाहिये, तभी उसकी शोभा है, अन्यथा बिडवनामात्र है। प्रश्न- यत्संगं प्राप्य चात्मा स्यात्स्वर्गापवर्गसाधकः ।
स कोस्ति कीदृशो लोके शनंदो मे गुरो वद ? अर्थ- हे कल्याण करनेवाले गुरो, स्वामिन् ! जिनके समागम करने मात्रसे यह जीव स्वर्ग मोक्षको सिद्ध कर लेता है, वे कौन-कौन है ? और कैसे है। यह अब बतलानेकी कृपा कीजिये ? उत्तर - जिनागमो जिनो देवो जिनधर्मः शिवप्रदः ।
स्याभिर्ग्रन्थगुरुः पूज्यः, स्तुत्यः संसारतारकः ॥ १५ ॥ निर्दोषो निर्मदः श्रेष्ठः, सर्वक्लेशहरो ध्रुवम् ।
तत्संगं प्राप्य चात्मायं प्रयाति शाश्वतं पदम् ॥ ९६ ॥
अर्थ-- भगवान् जिनेन्द्र देव, भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ आगम, भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ धर्म, और समस्त परिग्रहसे रहित गुरु, ये चारों पदार्थ इस संसारमें मोक्ष देनेवाले हैं, पूज्य हैं, स्तुति करने योग्य हैं, संसारसे पार कर देनेवाले हैं, समस्त दोषोंसे रहित हैं, मदसे रहित हैं, सर्वोत्तम है और समस्त क्लेशोंको दूर करनेवाले हैं । इन्हीं चारों पदार्थोंका समागम करनेसे यह आत्मा मोक्षरूप शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ- जिनके तीर्थंकर नामकर्मका उदय प्राप्त हो गया है, जिन्होंने घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है और इसीलिए जिनके अनंतशान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चारों अनंतचतुष्टय प्रगट हो गये हैं, जो अष्ट प्रातिहार्य
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सहित, चाँतीस अतिशय सहित समवसरण में विराजमान है और अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मोपदेश देकर अनेक भव्यजीवोंका कल्याण करते है, उनको देव या भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं। वे भगवान जिनेन्द्रदेव अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा जो तत्त्वोंका यथार्थ निरूपण करते है. वा आत्मकल्याणका मार्ग दिखलाते हैं वह सब जिनागम कहलाता है। अथवा उमी दिब्ध ननिक लपदेशको गणधर परमदेब जो अंगपूर्वरूप रचना करते हैं, और रचनाके अनुसार जो आचार्यादिक शास्त्र रचना करते हैं, वह सब जिनागम कहलाता है, तथा उन्ही भगवान जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसामय धर्मका स्वरूप कहा है, जिसमें पांचों पापोंका त्याग बतलाया है, गुप्ति और समितियोंका स्वरूप बतलाया है, दश धर्मोका म्वरूप बतलाया है, और तपश्चरण, चारित्र वा ध्यानका स्वरूप बतलाया है तथा जो परंपरा वा साक्षात् मोक्षका कारण है उसको जिनधर्म कहते हैं। उस पूर्णधर्मको धारण करनेवाले जो निग्रंथ साधु हैं, जो विषय कषायोंगे सर्वथा रहित हैं, आरंभ परिग्रहसे सर्वथा रहित हैं और जो ध्यान, अध्ययन वा तपश्चरणमें लगे रहते हैं ऐसे वीतराग साधुओं को वा आचार्य उपाध्यायोंको गुरु कहते हैं। इस संसारमें आत्माका कल्याण और मोक्षकी प्राति इन्हींसे होती है । संसारमें ये ही तरणतारण हैं। जन्ममरणरूप संसारके समस्त क्लेशोंको दूर करनेवाले हैं, और द्वेषादिक समस्त दोषोंसे रहित हैं और सर्व श्रेष्ठ हैं, इसलिए हे आत्मन् ! तु इन्हींका शरण ग्रहणकर, इन्हींकी सेवा वा पूजा कर, इन्हींका स्मरण कर, जप कर और ध्यान कर । ऐसा करनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होगी।
प्रश्न संवरः निर्जरा मोक्षः कस्य जीवस्य जायते ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि संवर निर्जरा और मोक्ष किस जीवको प्राप्त होते हैं ? उत्तर - त्यक्त्वाऽशुभं व्यथामूलं संसारचक्रभूलकान् ।
मिथ्यात्वद्वेषरागादिभावकर्मप्रपंचतः ॥ ९७ ।। वा ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणो मोक्षरोधिनः। सवा भिन्नोस्मि देहादि नोकर्मजालतो ध्रुवम् ।। ९८॥
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एवं हिं चिन्तयन् धीरस्तिष्टति कामदे शुभे । चिदानन्दपवं शुद्धं यावन्न लभते भुवि ॥ ९९ ॥ तत्त्वतस्तस्य जीवस्य संवरो निर्जरा तथा । सर्वकर्मविनिर्मुक्तो मोक्षोपि सहजायते ॥ १० ॥
अर्थ- जो महापुरुष सबसे पहले समस्त दुःखोंके कारण ऐसे अशुभ परिणामोंका वा अशुभ कार्योंका त्याग कर देता है । तदनन्तर जो धीरवीर यह चितवन करता है कि मैं इस संसार चक्रके मूलकारण ऐसे मिथ्यात्व द्वेष, राग, आदि भावकौके समूहसे सर्वथा भिन्न हूँ, मोक्षप्राप्तिको रोकनेवाले ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोसे भिन्न है और शरीर आदि नोकमोंके समूहसे सर्वथा भिन्न हुँ । इस प्रकार चितवन करता हुआ जो धीर-वीर पुरुष जब तक शुद्ध चिदानन्द स्वरूप मोक्षपद प्राप्त न हो जाय, तब तक समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेबाले शुभ वा शुद्ध परिणामोंमें ठहरता है उसी महापुरुके यथार्थ रीतिसे संवर. होता है, यथार्थ रीतिसे निर्जरा होती है, और अन्त में समस्त कर्मोंसे रहित मोक्षपद प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ-- मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, योग, प्रमाद आदि सब कर्मों के आनेके कारण हैं। कर्मोके आनेको आस्रव कहते हैं और आस्रवके रोकनेको संवर कहते हैं । यह संवर गुप्तियोंके पालन करनेसे, समितियोंके पालन करनेसे, दस धमोंके पालन करनेसे, बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन करनेस, बाईस परिषहीको जीतनेसे और चारित्रको पालन करनेसे होता है । जो पुरुष मिथ्यात्व, अवत, कषाय, प्रमाद और योगका सर्वथा त्याग कर देता है और गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परीषहजय और नारित्रको धारण करता है उसके संवर अवश्य होता है । संवर होनेपर जो कर्मोका नाश होता रहता है उसको निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा तपश्चरणसे होती है। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदिके साथ-साथ जो तपश्चरण किया जाता है, उससे संवरके साथसाथ निर्जरा होती है । तदनन्तर ध्यानके द्वारा जो शेष समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रकट होकर यह आत्मा सिद्ध अवस्थामें जा विराजमान हो जाता है उसको मोक्ष
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कहते है । जिस महापुरुषको संवर और निर्जरा होती है, उसको मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है । क्योंकि संवरके होनेसे कर्मोका बन्धन स्क जाता है, आगे नवीन कर्म नहीं आते, तथा निर्जराके होनेमे कर्म नष्ट होते रहते हैं । इसप्रकार संवर और निर्जराको धारण करनेवाला महापुरुष ध्यानके द्वारा समस्त कर्माको नष्ट कर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है । इति श्रीआचार्यवयं श्रीकुन्थुसागरविरचिते शान्तिसुधासिन्धुम्रन्थे
हितोपदेशदोनो नाग पथसोधिकारः समाप्तः । इसप्रकार आचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रीशान्तिसुधासिन्धु ग्रन्थमें
'धर्मरत्न' पं. लालारामजी शास्त्रीकृत हिन्दीभाषाटीकाम यह आत्माके कल्याणका उपदेश देनेवाला पहला अध्याय
समाप्त हुआ।
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दूसरा अध्याय
अब जिनागमरहस्यं प्रतिपाद्यते-- अब आगे जिनागम रहस्य नामका दूसरा अधिकार प्रारम्भ करते हैं
मिथ्यात्वमूढस्य परात्मबुद्धः, स्वर्मोक्षमार्गादिनिषेधकस्य । स्वच्छन्दवृत्तः सुखशान्तिहाः, प्रचारकस्यैव पशुक्रियायाः ॥ १०१ ॥ कलंककीविषयान्धजन्तो, स्तृष्णाग्निदग्धस्य च पापमूर्तः । गावातिगाढोऽचिरभेद्य एषास्रवच्च बन्धोपि भवेद् व्यथावः ॥ १०२ ॥
अर्थ - जो जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयसे अत्यन्त मूल हो रहा है, जिसकी बुद्धि परपदार्थमय हो रही है, जो स्वर्ग और मोक्षके मार्गका सदा निषेध करता रहता है, जिसकी प्रवृत्ति सदा स्वतंत्र रहती है, जो सुख और शांतिको हरण करनेवाली पशुओंके समान क्रियाओंका प्रचार करता रहता है, जिसकी कीति कलंकरूप है, जो विषयोंसे अन्धा हो रहा है, तृष्णारूपी अग्निसे जल रहा है और जो पापकी मूर्ति है, उसका गाढसे गाढ़ कर्मोका बन्ध, अथवा अत्यन्त शीन नष्ट होनेवाला कर्मोका बन्ध अस्त्रशस्त्रके समान दुःख देनेवाला ही होता है।
भावार्थ - यों तो कर्मोकर बंध सदा ही दुःख देनेवाला होता है, परन्तु मिथ्यात्वके निमित्तसे होनेवाले कमोंका बंध अत्यन्त दुःख देनेवाला होता है । जिसप्रकार अस्त्र शस्त्र चाहे चिरकाल टिकनेवाले हों और चाहे शीत्र ही नष्ट होनेवाले हों, परन्तु उन दोनोंका घात
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महा दुःख देनेवाला होता है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि पुरुष सदा तीन कर्मोका ही बंध करता है, वह मोक्षमार्गका निषेध करता हुआ महापाप उत्पन्न करता है. पशुओंके समान अनेक निदनीय क्रियाओंको करता हुआ महापाप उत्पन्न करता है, इंद्रियोंके विषयोंमें तल्लीन हो कर अंधा बन जाता है, और महापाप उत्पन्न करता रहता है । तृष्णारूपी अग्निमें जलता हुआ महापाप उत्पन्न करता रहता है । इस प्रकार वह मिथ्यादृष्टि पुरुष सदाकाल अनेक प्रकारके महापाप उत्पन्न करता रहता है । इन पापोंके कारण वह सदाकाल तीन और गादसे गाढ महा अशुभ कर्मोका बंध करता रहता है, और उन कर्मोंका उदय होनेपर नरक निगोदके महादुःख भोगता रहता है । इस प्रकार वह घोर पापोंका ही बंध करता है, तथापि कभी-कभी उस मिथ्यात्वकी मंदता होनेपर अल्प स्थितिको धारण करनेवाला कर्मबंध भी कर लेता है। वह मिथ्यादष्टि पुरुष जो तीन कर्मोका बंध करता है, वह तो महा दुःखदायी होता ही है परंतु वह मिथ्यादृष्टि जो अल्पस्थितिवाला कर्मबंध करता है, वह भी महादुःखदायी होता है । छरी अत्यंत छोटी होती है, वा बंदूककी गोली अत्यंत छोटी होती है, अथवा विष बहुत थोडा होता है, तथापि वह प्राणोंको हरण करता ही है, इससे यह सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिका बंध कसा ही हो वह दुःखदायी ही होता है । यही समझकर समस्त भव्य जीवोंको सबसे पहले इस मिथ्यत्वकर्मका नाश करना चाहिए । मिथ्यात्वकर्मका नाश हो जानेसे सम्यग्दर्शनगुण प्रकट हो जाता है, सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होनेसे आत्मज्ञान हो जाता है तथा स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है । इन दोनोंके प्रगट होनेसे वह कषायादिक परपदार्थोका त्याग कर देता है और आत्मामें लीन होकर अपने आत्माको शुद्ध पवित्र बना लेता है। इस प्रकार वह मिथ्यात्वकर्म के नाश होनेसे वह आत्मा शीघ्रही समस्त कार्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यही आत्माका कल्याण है ।
प्रश्न- निबन्धो वा संबन्धः कः कर्मणा मुच्यते वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि कर्मोके बन्धनोंसे बन्धा हुआ जीव कर्मोसे मुक्त होता है अथवा कर्मों के बन्धनोंसे रहित आत्मा
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कर्मो से मुक्त होता है । इन दोनोंमें से कौनसा आत्मा कर्मोसे मुक्त होता है ?
उत्तर - यः कोपि बद्धः स च मुच्यते हि, दुःखप्रदात्कर्म कलंकजालात् । निर्बन्धजीवो न च लुच्यते हो,
यो मन्यते मूर्खशिरोमणिः सः ॥ १०३ ॥ ]
"रागादिभावेन भवप्रवेन,
नोकर्मा द्रव्यमलेन बद्धः ।
स मुच्यते प्राप्य विधि च तेन,
नो चेद् वृथा मोक्षविधेविधानम् ।। १०४ ॥ ]
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अर्थ- इस संसारमें जो जीब महादुःख देनेवाले कर्मरूपी कलंकके जालसे बंधा हुआ है, वही जीव उस कर्मरूपी जालसे मुक्त हो सकता है । जो जीव बन्धा ही नहीं वह भला किससे मुक्त होगा अर्थात् जो बन्धा हुआ नहीं है, वह मुक्त नहीं हो सकता । जो लोग बन्धरहित जीवको भी मुक्त होना मानते हैं, वे अज्ञानी हैं, वा अज्ञानियों में भी मूर्ख हैं । जो जीव जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाले रागादिक भावोंसे बन्धे हुए हैं, वा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकमोंसे बन्धे हुए हैं अथवा शरीरादिक नोकमोंसे बन्धे हुए हैं, वे ही विधिपूर्वक उन कर्मोको नाश कर उनसे मुक्त हो सकते हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो मोक्षको मानना अथवा मोक्ष प्राप्त करनेके उपायोंको मानना सर्व व्यर्थं मानना पडेगा 13
भावार्थ - मोक्ष शब्द का अर्थ छूटना है। छूटता वही है जो बंधा होता है। जो बंधा हुआ नहीं है वह छूटा ही है, उसका फिर छूटना क्या ? यदि छूटा हुआ वा मुक्त जीव भी फिरसे मुक्त होता है, तो फिरसे मुक्त हुआ जीव भी फिर मुक्त होना चाहिये, और वह भी फिर मुक्त होना चाहिये । इस प्रकार मुक्त होनेसे भी उसको कभी विश्रांति नहीं मिल सकती, इसको अनवस्था दोष कहते हैं, दूसरी बात यह है कि यह जीव अनादिकालसे कमसे बंधा रहा है, और
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इस संसारमें अनंत दुःख भोग रहा है। ऐसे ही जीवके लिए उस दुःखमे छूटने और मोक्षमें प्राप्त होनेवाले अनंत सुख प्राप्त करने के लियं रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गका निरूपण किया है । वह रलवयरूप मोक्षका मार्ग कर्मबंधनोके कारणोंसे सर्वथा भिन्न है। कर्मोंका बंधन रागादिक विकार भावोंसे होता हैं और मोक्षकी प्राप्ति रागादि रहित निर्विकार भावोंसे होती है। यदि बंधरहित मुक्त जीवको भी मुक्त होना मान लिया जायगा तो फिर मुक्त होनेकी यह सब व्यवस्था व्यर्थ ही माननी पड़ेगी। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जो जीव कर्मबंधसे सर्वथा रहित है वह अत्यंत शुद्ध है तथा शुद्ध होने के कारण वह रागद्वेषसे भी सर्वथा माहित होते कारण तो वह कोदा न कर सकता है और न मुक्त हो सकता है। इस प्रकार बंधरहित जीबका मुक्त मानना सर्वथा असंभव है। इन सब बातोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि बंधनसे बद्ध ही जीव मुक्त होता है । कर्मबंधरहित जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता।
प्रश्न- अनादिबद्धो जीवोयं मुच्यते कर्माणा कथम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! यह बतलानेकी कृपा कीजिये कि अनादिकालसे बंधा हुआ यह जीव कर्मोसे कैसे मुक्त हो जाता है ? उत्तर - यः कर्मबद्धोस्ति स बद्ध एवं
न मुच्यते कार्यशते कृतेपि। एवं छान्मन्यत एव कोपि प्रगण्यते धूर्ततरः स मूढः ॥ १०५॥ विधि च लब्ध्दा खनिजातरुक्म यथा विशेषेण विशुध्यते हि । निसर्गसिद्ध जननस्वभावं यथा सुदग्धं त्यजतोह बीजम् ॥ १०६ ।। योऽनदिबद्धोपि तथा हि जीवः त्यक्त्वा प्रमोहं सुगुरुं च लब्ध्वा ।
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ध्यानाग्निना कर्मचयं सुदग्ध्वा
यात्यत्र मोक्षं सुखदं सदैव ॥ १० ॥ अर्थ- कोई कोई लोग ऐसा मानते हैं, कि जो जीव कर्मोंसे बंधा है, वह सदाकाल बंधा ही रहता है । कोस बंधा हुआ जीव सैकडो कार्य वा उपाय करनेपर भी उन कर्मोसे कभी नहीं छूट सकता। इस प्रकार बहुतसे जीव मानते हैं, परंतु ऐसे लोग अत्यंत धूर्त और अज्ञानी हो समझे जाते हैं । देखो ! जिस प्रकार खानमें से मिट्टी मिला सोना निकलता है, परंतु वही मिट्टी मिला सोना विधिपूर्वक गलानेसे अत्यंत शुद्ध होता जाता है, तथा बीजमें उत्पन्न होनेकी शक्ति स्वाभाविक होती है, परंतु उस बीजके जल जानेपर वा भुन जानेपर बीजकी उत्पन्न होनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है । उसी प्रकार अनादिकालसे कर्मों द्वारा बंधा हआ जीब भी अपने निग्रंथ श्रेष्ठ गुरुको पाकर, मोहका त्याग कर देता है, और ध्यानरूपी अग्निसे समस्त कर्मोको जलाकर, सदाकालके लिए सुख देनेवाले मोक्षमें जाकर विराजमान हो जाता है ।
भावार्थ- जिस प्रकार खानमें मिट्टी मिला सोना, अनादिकालसे मिट्टीसे मिला हुआ है, तथापि प्रयत्न करनेसे गलानेसे, तपानेसे उसकी मिट्टी अलग हो जाती है, और सोना अत्यंत शुद्ध हो जाता है, इसी प्रकार यह जीव भी यद्यपि अनादिकालसे कर्मोसे बंधा रहा है, अनादिकालसे ही उन रागद्वेष के कारण कर्मोका बंधन करता चला आ रहा हैं, तथापि जब यह जीव श्रेष्ठ गुरुओंका समागम पाकर रागद्वेषका त्याग कर देता है, और तपश्चरण व ध्यानके द्वारा अनुक्रमसे समस्त कोको नष्ट कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। कोंक सर्वथा नष्ट हो जानेसे वह आत्मा अत्यंत शुद्ध हो जाता है । शुद्ध हो जानेके कारण राग द्वेष आदि समस्त विकारोंका सर्वथा अभाव हो जाता है, विकारोंका अभाव हो जानेसे फिर यह आत्मा काँका बंधन कमी नहीं कर सकता । जिस प्रकार बीजके जल जानेसे वा भुन जानेसे फिर उसमें उत्पन्न होनेकी शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार आत्माके शुद्ध हो जानेसे तथा रागद्वेषका सर्वथा अभाव हो जानेसे फिर उस आत्मामें कर्म बंधन होने की शक्ति नहीं रहती । कर्म मूर्त हैं, इसलिए कर्मविशिष्ट
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आत्मा ही उन कर्मोका बंध कर सकता है । जो आत्मा कर्मरहित अमूर्त हो जाता है, वह कर्मोका बंध कभी नहीं कर सकता । इन सब बातोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि कर्मबद्ध आत्मा भी तपश्चरण वा ध्यानके द्वारा उन कर्माको नष्ट कर मुक्त हो सकता है, और मुक्त होनेपर फिर कभी भी कर्मबद्ध नहीं होता। इसलिए "कर्मबद्ध आत्मा कभी मुक्त नहीं होता” ऐसा जो मानते हैं, वे सर्वथा भूलते हैं ।
प्रश्न- त्यज्यते पापमेघ को पुण्यमपि न मे मतिः ?
अर्थ- हे भगवन् ! में तो यह समझता हूं कि इस संसारमें इस प्रकारके लोग पापका त्याग तो कर देते हैं, परंतु पुण्य का त्याग कोई नहीं करता । क्या यह बात सत्य है ।। उत्तर - तीव्रचारित्रमोहादिकर्मोदयवशाद पदि ।
सर्वसंगपरित्यागं कर्तुं शक्तो भवेन्न चेत् ॥ १०८ ॥ तॉवश्यं सदा निचं साम्राज्यसौख्यनाशकम् । अवस्करमिव त्यक्त्वा सेव्यं पापं नराधमः ॥ १०९ ॥ पुण्यकार्ये प्रवृत्तिश्च कुर्याद बांछितवे सदा । आत्मशक्तिविशिष्टा स्वाद् यदा स्वानन्दशोधिनी । सदा पापसमं पुण्यं मत्वा तत्त्वात्स्वघातकम् । यतिनिधं जवात्स्यक्त्वा चित्ताक्षतृप्तिकारकम् ॥ १११।। चिदानंदपदं शुद्धं निराकारं निरामयम् । निद्वं हि क्रमाद् ध्यायन् मोक्षं यात्येव धीधनः ।११२॥
अर्थ- चारित्रमोहनीय कर्मके तीन उदयसे यह जीव अंतरंग बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्याग नहीं कर सकता, तब यह जीव आत्मजन्य अनंतसुखको नाश करनेवाले नीच मनुष्योंके द्वारा सेवन करने योग्य अत्यंत निध ऐसे पापोंको विष्ठाके समान त्याग कर देना है, तथा इच्छानुसार फल देनेवाले · पुण्यकार्यमें अपनी प्रवृत्ति करता रहता है, परंतु ऐसा करते-करते जब इस आत्माकी शक्ति विशेष बढ़ जाती है, और अपने आत्मजन्य अनंत सुखकी खोज करने में रुक जाती है, तब यही आत्मा पुण्यको भी पापोंके समान ही अपने आत्माका धात
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करनेवाला समझता है । यद्यपि वह बुद्धिमान आत्मा उस पुण्यको इंद्रिय और मनको तृप्त करनेवाला समझता है. तथापि उसको यतियोंके द्वारा निंदनीय भी समझता है। इसलिए वह शीघ्र ही उस पुण्यका त्याग कर देता है, और अत्यंत शुद्ध निराकार, निरामय, निद्वंद्व ऐसे अपने चिदानन्द-पदको अनुक्रमसे चिन्तबन करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ- अनादिकालसे यह आत्मा कर्मोके बंधनमे बंधा हुआ है, जब कभी काललब्धिके निमित्तसे इस जीवके कर्मोका उदय अत्यंत मंद होता है, और दर्शनमोहनीय कर्मका. तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया लोभका उपशम, क्षयोपशम, वा क्षय हो जाता है, तब इस जीवको सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेसे इस जीवको अपने आत्माका स्वरूप प्रगट होता है। आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रगट होनेसे यह जीव आत्माके शुद्ध स्वरूपको और उसके रत्नत्रयादिक गुणोंको अपना समझने लगता है, और रागादिक परिणामोंको वा शरीरादिकको अपने आत्मासे सर्वथा भिन्न समझने लगता है। तदनन्तर उस जीवके ज्यों ज्यों चारित्रमोहनीय कर्मका उपशम का क्षयोपशम होता जाता है त्यों त्यों यह जीव पाप कार्योंका त्याग करता जाता है और जिनपूजन पात्रदान आदि पुण्य कार्यों में अपनी प्रवृत्ति करने लगता है । उस समय वह पापोंको विष्ठाके समान अत्यन्त निद्म और सर्वथा त्याग करने योग्य समझता है । और पुण्य कार्योको उपादेय समझता है, जब तक उसके चारित्रमोहनीयका मन्द उदय बना रहता है, तब तक वह पुण्यका त्याग नहीं कर सकता, परन्तु जब उसके चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम वा क्षय हो जाता है, तब वही आत्मा पुण्य' कार्यको भी हेय समझने लगता है, फिर वह समझने लगता है, कि जिस प्रकार पापकर्म आत्माको बन्धनमें डालनेवाला हैं, उसी प्रकार पुण्यकर्म भी आत्माको बन्धन में डालनेवाले हैं। इन पाप और पुण्यमें केवल लोहे और सोनेके समान अन्तर है। पापका उदय लोहेकी बेडीक समान आत्माको निन्दनीय बनाकर बन्धनमें डालता है । और पुण्यका उदय सोनेकी बेडीके समान आदर सत्कारके साथ बन्धनमें डालता है। आत्माको बन्धनमें डालनेवाले दोनों हैं। इस प्रकार समझकर वह
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आत्मा अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपको प्रगट करने में लग जाता है । उस समय यह अपने आत्मा के स्वरूपको निराकार समझने लगता है, निरामध अर्थात् रोगादिक समस्त विकारोंसे रहित समझने लगता है । निर्द्वन्द अर्थात् समस्त संकल्प - विकल्पोंसे रहित समझने लगता है । और शुद्ध चैतन्य - - स्वरूप तथा अनन्त - सुखमय समझने लगता है । इस प्रकार समझकर यह शुद्ध आत्मा उसी अपने शुद्ध चिदानन्दमय, निराकर आत्माका ध्यान करने लगता है। इस प्रकार ध्यान करता हुआ वह आत्मा पहले तो घातिया कर्मोंको नष्ट करता है। फिर अन्तमें समस्त कर्मोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करनेके लिए यह जीव पुण्य-पाप दोनोंका त्याग कर देता है। क्योंकि दोनोंके त्याग कर देनेसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
प्रश्न
स्वात्मविमुखजन्तोश्च किं चिन्हं विद्यते वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि अपने आत्मासे विमुख रहनेवाले जीवके क्या क्या चिन्ह मिलते हैं ?
उत्तर - पंचाक्षपोषणरतः खलकांमदग्धो,
धर्मार्थमोक्षविमुखः परवस्तुमग्नः । स्वाचारसौख्यचलितोऽखिलपापपिण्डो, दुर्मार्गपक्षपरिपोषणधीरवीरः ॥ ११३ ॥ सत्यार्थपक्षपरिपालनशक्तिहीनः, थर्मोक्षमार्गपरि रोधनदत्तचित्तः । पूर्वोक्तदोष सहितो हतधर्मकर्मा, प्रोक्तः
अर्थ- जो पुरुष पांचों इन्द्रियोंके पालन-पोषण करनेमें तल्लीन रहता है, जो दुष्ट कामदेवसे सदा जलता रहता है, धर्म, अर्थ, और मोक्ष पुरुषार्थ से सदा विमुख रहता है, आत्मासे सर्वथा भिन्न रहनेवाले पुद्गलादिक पदार्थोंमें ही निमग्न रहता है, अपने आत्मामें लीन रहनेरूप सुख से सदा चलायमान रहता है, जो समस्त पापोंका पिंड कहलाता है, जो कुमार्ग पक्षको पुष्ट करनेके लिये सदा धीर-वीर रहता है, यथार्थ
[: खलः परमुखी स च रंगामी ।। ११४ ।।
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पक्षको पालन करने के लिये जो अपनेको शक्तिहीन बतलाता है । और जो स्वर्ग-मोक्षके मार्गको रोकने में सदा सावधान रहता है । इस प्रकार जिसमें ऊपर लिखे सब दोष विद्यमान हैं । और जो धर्म-कर्म से सर्वथा रहित है, ऐसा दुष्ट पुरुष अपने आत्माके स्वरूपसे सदा विमुख रहनेवाला अथवा शरीरादिक वा पुद्गलादिक पर पदार्थोमें मग्न रहनेवाला परमुखी कहलाता है । ऐसा पुरुष अवश्य ही नरकगामी होता है ।
भावार्थ- जो जीव अपने आत्मासे विमुख रहता है, शरीरादिक पर पदार्थोके पालन पोषणमें ही लगा रहता है, वह पुरुष पांचों इंद्रियोंके विषयों में ही लगा रहता है। उसके हृदयमें सदाकाल इन्द्रियोंको तृप्त रखनेकी लोलुपता ही बनी रहती है, उसके हृदयमें कामदेवकी अग्नि सदा जलती रहती है, वह धार्मिक क्रियाओंसे भी सदापराङ्गमुख रहता है । और मोक्षके मार्गसे भी सदा पराङगमुख रहता है, ऐसा जीव मकान, वस्त्राभूषण आदि पर पदार्थों में ही निमग्न रहता है, और सदाकाल धनादिककालोलुपी बना रहता है। ऐसा जीव अपने सदाचारके सुखसे दूर रहता है, सब प्रकारके पापोंको करता रहता है, सदाकाल कुमार्गके पक्षकी ही पुष्टी किया करता है । यथार्थ और सत्य बातके लिये वह शक्तिहीन बन जाता है, तथा स्वर्ग-मोक्षके कारणोंमें वा धर्मकार्यों में सदा विघ्न किया करता है । इस प्रकार आत्मासे विमुख रहनेवालेके चिन्ह बतलाये हैं । ऐसे पुरुष नरकगामी ही होते हैं ।
प्रश्न स्वात्मसन्मुखजन्तोः किं चिन्हं स्यान्मे प्रभो बद?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो जीव आत्माके स्वरूपके सन्मुख रहता है उसके क्या-क्या चिन्ह हैं ? उत्तर - चिदानन्दपदे शुद्ध संसारक्लेशजिते ।
निराबाधे निराकारे निर्विकारे निरामये ॥ ११५ ॥ पूर्वोक्तगुणयुक्ते यो लोनः स्वात्मनि शाश्वते ।
स एव मोक्षगामीति सुख्येव सौल्यवायकः ॥ ११६ ।।
अर्थ- यह अपना शुद्ध आत्मा यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो अत्यंत शुद्ध है । चिदानन्द पदपर विराजमान है, संसारके समस्त क्लेशोंसे
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रहित है, समस्त बाधाआम रहित है. सरकार है, सबाल विकारोंसे, समस्त रोगोंसे रहित है, और सदा इसी प्रकार शुद्ध अवस्था में रहनेवाला है। ऐसे अपने शुद्ध स्वरूप आत्मामें जो सदाकाल लीन रहता है, तथा जो सदा अनंत सुखी रहता है, और समस्त जीवोंको सुख देनेवाला है, ऐसा जीव अवश्य ही मोक्षमें जा विराजमान होता है।
भावार्थ-- जो जीव अपने आत्माके सन्मुख है अर्थात् परपदार्थोंका मंबंध छोडकर वा उनसे ममत्व छोड़कर अपने आत्माकं गद्ध स्वरूपमें लीन रहता है, वह महापुरुष संसारक समस्त क्लेशोंमें रहित होकर अनंत सुख में मग्न हो जाता है, तथा समस्त जीवोंको मुख देनेवाला होता है, वा सुखका कारण होता है, और ऐसा जीद अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। प्रश्न- शीतवर्षादिकाले कि दानधर्मधनार्जनम् ।
समरूपेण कार्य वा न्यूनाधिकगुरो वद ? अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि शीतकालमें वा ग्रीष्मकालमें और वर्षाकालमें गृहस्थ श्रावकोंको दान-धर्म और धनका उपार्जन समान रीतिसे करना चाहिये अथवा कुछ हीनाधिक रीतिसे करना चाहिये ? . . उत्तर - मुख्यरीत्याष्टमासे हि कार्य धनार्जनाविकम् ।
व्रतोपवासयोगादि गौणरीत्येव धार्मिकः ।। ११७ ।। गौणरीत्या चतुर्मास कार्य धनार्जनं तथा । स्वानन्दस्वादकाः सन्तः सन्ति यत्रात्मदर्शकाः । तत्र गत्वार्चनं दान कार्य प्रश्नोत्तरादिकम् । यथाशक्ति तपोध्यानं स्वात्मा स्याविमलो यतः पूर्वोक्तरीत प्रविहाय मूर्खः स्वच्छन्दरीत्या भुवि केवलं यः। धनार्जनं ह्येव करोति नित्यं स एव पापी पशुतः पशुश्च ॥ १२० ।।
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अर्थ - धर्मात्मा श्रावकोंको शीत ऋतु और ग्रीष्म ऋतु इन आठ महीनों में तो मुख्य रीति से धन कामाना चाहिए | तथा गौण रीति से व्रतउपवास, योग, ध्यान आदि धार्मिक कार्य करने चाहिए । परंतु चातुर्मासमें धन कमानेका काम गौण रीति से करना चाहिए। तथा जहां पर अपने आत्मजन्य आनंदका स्वाद लेनेवाले और अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपको अनुभव करनेवाले साधु महात्मा हों वहां जाकर उनकी पूजा करनी चाहिए दान देना चाहिए और उनमे आत्माका स्वरूप वा तत्त्वोंका स्वरूप पूछना चाहिए तथा अपनी शक्तिके अनुसार तप और ध्यान करना चाहिए। जिससे कि यह अपना आत्मा अत्यंत निर्मल हो जाय । जो अज्ञानी जीव इस कही हुई रोटर केवल धन ही कमाने में लगे रहते हैं, वे मनुष्य पापी हैं, और पशुओंसे भी निकृष्ट पशु हैं ।
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भावार्थ - मगसिर (अगहन) पौष, माघ, फाल्गुन ये चार महीने शीत ऋतु कहलाते हैं। चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ ये चार महीने ग्रीष्म ऋतु वा गर्मी कहलाते हैं। श्रावण, भादों, आश्विन, कार्तिक ये चार महीने वर्षा ऋतुके कहलाते हैं । वर्षा ऋतु पानी बरसने के कारण अनेक प्रकारके स्थावर और अनेक प्रकारके त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं । यद्यपि कभी-कभी आषाढमें भी पानी बरस जाता है । परंतु जीव की उत्पत्ति प्रायः श्रावणसे ही होती है । इसीलिए श्रवणसे लेकर कार्तिक तक वर्षायोग धारण करनेके दिन कहे जाते है, अर्थात् इन दिनों मुनिराज वा क्षुल्लक, ऐलक किसी एक ही स्थान में रहते हैं । चातुर्माससे पहले ही वे अपने धर्म - ध्यानकी सुलभता देख लेते हैं, और फिर वर्षायोग धारण करते हैं । एक स्थानपर वर्षायोग धारण करनेसे वहां के श्रावकोंको तथा समीपवर्ती अन्य देशके श्रावकोंको धर्मोपदेश सुननेका, वैयावृत्य करनेका तथा आहार दान देने वा आत्मकल्याण करने की बहुत सुविधा रहती है। इन दिनों प्रायः व्यापार भी कम हो जाता है । तथा सर्वोत्तम दशलाक्षणिक पर्व भी इन्हीं चातुर्मास के मध्य भाग में आ पडता है, इसलिए श्रावकों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे इन दिनों आठ महीने की हुई कमाईको सार्थक करे। इन दिनों प्रायः श्रावकोंको मुनिराजकी सेवामें ही अपना समय व्यतीत करना चाहिए। सुनिराज के
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समागमसे आत्माका कल्याण बहुत शीघ्र होता है । तत्त्वज्ञान बढता है । और व्रत उपवासको धारण कर या जप-तपके द्वारा यह आत्मा अपना कल्याण कर लेता है। इसलिए चातुर्मासके दिनों में श्रावकोंको प्रायः ऐसे ही स्थानोंमें रहना चाहिए जहां किसी मुनिराजने वर्षायोग धारण किया हो, ऐसा करनेसे उनका व्यापार आदि जीविकाके साधन अपने आप कम हो जाते हैं । चातुर्मासके सिवाय शेष आठ महीनोंमें मुनिराज भी विहार किया करते हैं। इसलिए श्रावकोंको उनके साथ रहने में कठिनता भी होती है । और फिर जीविकाका साधन भी करना पड़ता है। इसलिए आठ महीन व्यापार आदि जीविकार साधनमें लगे रहना चाहिए । यदि इन दिनोंमें भी कोई मुनिराज वा अन्य त्यागीवर्ग अपने 'स्थानपर आवें तो फिर उनकी सेवामें लग जाना चाहिए और जितनी बन सके उतनी उनकी भक्ती-सेबा करनी चाहिए । यही श्राबकोंका कर्तव्य है । केवल खाने-पीने के काममें बा कमानेके काममें बारहों महीने लगे रहना मनुष्योंका कर्तव्य नहीं है । प्रश्न- सन्ताडिताश्च सततं खलभूतवर्ग:
ध्यानाच्चलन्ति न चला वरसाधुवर्गाः ? अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि दृष्ट लोग वा भूत पिशाच्च आदि व्यंतर देव जब किसी उत्तम साधुको दुःख देते हैं, ताडन करते हैं वा मारते हैं तो उस समय वे साधु अपने ध्यानसे चलायमान हो जाते हैं वा नहीं ? उसर - सन्तोषशांतिजनका ननु संगमुक्ता
स्वोक्षमार्गनिरता विषयाद्विरक्ताः । स्यावावरीतिरसिकाः परमार्थपुष्टाः घोरोपसर्गजयिनः समतासमुद्राः ॥ १२१ ।। संसारतापशमकाश्च निजात्मनिष्ठाः संतारकाश्च सुखदाः परमाः पवित्राः स्वानन्वतृप्तमुनयो निजभाक्लीनाः व्याघ्राहिसिंहपशुभिः शठधूर्त्तवर्गः ॥ १२२ ॥
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सन्ताडिता अपि सदा परिपीडिताः को ध्यानाच्चलन्ति न च शान्तिसुखात् स्वधर्मात् । वातैर्यथा न गिरयश्च चलन्ति मूलात् म्लेच्छाविसंगमलिनैविधवाः सुशीलः ॥ १२३ ।।
अर्थ -- जिस प्रकार पर्वत वायुके चलनेपर भी जडमूलसे नहीं उखडते हैं तथा जिस प्रकार म्लेच्छोंकी संगतिसे, मलिन हृदयको धारण करनेवाले लोगोंसे मशीला विधवाएं कभी चलायमान नही होती हैं, उसी प्रकार जो मुनि संतोष और शांतिके जनक हैं, सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित है, स्वर्ग वा मोक्षके मार्गमें सदा लीन रहते हैं, इंद्रियों के विषयोंसे सदा विरक्त रहते हैं, स्याद्वाद-सिद्धांतके रसिक होते हैं, पारमार्थिक भावनाओंसे सदा पुष्ट रहते हैं, जो घोर उपसर्गा को जीतनेवाले है, समतारूपी अमृत के समुद्र हैं, संसारके समस्त संतापोंको दूर करनेवाले हैं. अपने आत्मामें लीन रहते हैं, संसारसे पार कर देने वाले हैं, सब जीवोंको सुख देनेवाले हैं, परम उत्कृष्ट हैं, अत्यत पवित्र हैं, और अपने आत्माके शुद्धभावोंमें सदाकाल लीन रहनेवाले हैं, ऐसे अपने आनंदमें तृप्त रहनेवाले मुनिराज सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट पशुओंके द्वारा वा दुष्ट धूर्तोके द्वारा ताडन किये जानेपर भी, वा अत्यंत दुःख देनेपर भी न तो अपने ध्यानमे चलायमान होते हैं न शांतिरूप सूखसे चलायमान होते हैं और न अपने आत्मधर्मसे चलायमान होते हैं।
भावार्थ-- यदि हम लोग किसी विशेष काममें लग जाते हैं । वा हमारा मन किसी विशेष काममें लग जाता है, तो उस समय सामनेसे निकलते हुए लोगोंको भी हम लोग नहीं देख सकते, वा समीपमें ही बजते हए बाजोंको नहीं सुन सकते । इसी प्रकार जब विचारमें मग्न हो जाते हैं, तो उस समय भोजन करते हुए भी नमक-मिरचका स्वाद नहीं जान सकते । इसका कारण यही है कि उस समय हमारा मन किसी और काममें लगा है तथा सेनी जीवोंको इंद्रियां बिना मनके सहयोगके अपना अनुभव नहीं कर सकती । यही कारण है, कि मन जब दूसरे काममें लग जाता है तब वे इंद्रियां अपने विषयोंका संपर्क होनेपर
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भी उसका अनुभव नहीं कर सकती । इसी प्रकार मुनि लोग भी सदाकाल अपने आत्मकायम लगे रहते हैं। कभी तो वे आत्माके गुणोका अनुभव करते हुए परम संतोष धारण करते हैं, कभी आत्माको परम शांतिका अनुभव किया करते हैं. कभी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्थिर हो जाते हैं, कभी स्याद्वाद सिद्धांतकी अपेक्षाओंका वा नयोंका अनुभव किया करते हैं, कभी प्रमाणरूप अखंडसिद्धांतका अनुभव करते हैं, कभी आत्माकी पारमार्थिक अवस्था बा शुद्ध अवस्थाका अनुभव करते हैं, कमी समतारूपी महासागरमें डूब जाते हैं, कभी संसारी जीवोंका उद्धार करनेरूप अपायविचय नामके धर्मध्यानका चितवन करने लग जाते हैं, कभी आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करने लगते है, कभी आत्माकी पवित्रता और उत्कृष्टताका चितवन करते हैं, कभी अपने आत्मजन्य अत्यंत सुखं का स्वाद लेते हैं, और कभी शुद्धोपयोगमें लीन हो जाते हैं । इस प्रकार के मुनि सदाकाल अपने आत्मकार्य में लगे रहते हैं। उनके पास न तो परिग्रह है, और न उनके विषयोंकी लालसा है। यदि उनके पास परिग्रह हो तो भी उनका मन उस परिग्रहकी रक्षा करने में, वा बदलने में, वा नवीन उपार्जन करने में लग सकता है । यदि उस परिग्रहकी रक्षा आदिमें कोई बाधा डालता है तो फिर उमका मन उसके विरोध करने में लग सकता है । इसी प्रकार विषयों की लालसासे भी अनेक कामोंमें मन लग जाता है, परंतु आत्मकल्याणमें तत्पर रहनेवाले उन मनिराजोंके ये दोनो नहीं होते । न तो उनके परिग्रह होता है और न विषयोंकी लालसा होती है। इसलिए उनका मन सिवाय आत्मचितवनक वा स्वाध्यायादिक अन्य आत्मकार्योके अन्यत्र कहीं नहीं जाता, सदाकाल आत्मकार्य में ही लगा रहता है । ऐमी अवस्थामें यदि कोई दुष्ट पशु अथवा कोई दुष्ट भूत-प्रेत आदि व्यंतरदेव उनपर कोई उपसर्ग करता है, या उनको मारता है, ताडन करता है, अथवा अन्य किसी प्रकारसे दुःख देता है, तो वे मुनिराज अपने उसी आत्मकार्य में लगे रहते हैं। उनका मन आत्मकार्य में लगे रहने के कारण अथवा आत्मामें लीन होनेके कारण उन्हें उस दुःखका किंचितमात्र भी अनुभव नहीं होता है । यही कारण है कि वे मुनिराज अपने ही ध्यान में लगे रहते हैं बा अपने शांतिसुख में निमग्न बने रहते हैं अथवा रत्नत्ररूप आत्मधर्म में मग्न रहते हैं।
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महा विपत्ति आनेपर भी वे मनिराज उस अपने ध्यानसे चलायमान नहीं होते । पहले अनेक मुनियोंको पानीमें पेल दिया। मुनिराज गजकुमारके मस्तकपर अग्नीकी अंगीठी जलाकर रख दी, यधिष्ठिर आदि पाचों पांडव मुनियोंको लोहेके आभूषण गर्म करके पहना दिए, मुनिराज सूकुमारके शरीरको तीन स्यालिनियोंने मिलकर खा डाला, मुनिराज सुकोशल स्वामीको शेरनीने वा डाला, कितने ही मुनि नदियोंमें बहकर चले गए, परंतु कोई भी मुनि अपने ध्यानसे विचलित नहीं हुए । पहलेकी बात यदि छोड़ दी जाय तो इस समय में भी आचार्य श्रीशांतिसागरजीके शरीरपर भयंकर पर्वतीय सर्प बहुत देर तक फिरता रहा, परंतु वे भी अपने ध्यानसे चलायमान नही हुए । आनार्य सुधर्मसागरजीको क्षय रोग हो गया तो भी वे अपने ध्यान-अध्ययन वा ग्रंथ निर्माण कार्य से चलायमान नहीं हुए। इससे सिद्ध होता है कि मुनियोंके समस्त कर्तव्य अलौकिक होते हैं, और इसीलिए वे शीघ्र ही अपने आत्माका कल्याण कर लेते हैं।
प्रश्न- ध्याता ध्यानं तथा ध्येयः ध्यानाङगाश्च त्रयोप्यमी ।
__ स्यात्मनः सन्ति भिन्ना बाभिन्ना मे वद सन्मुने ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि ध्याता, ध्येय, और ध्यान ये जो ध्यानके तीन अंग हैं, वे आत्मासे भिन्न हैं अथवा अभिन्न हैं। उत्तर - वाच्यवाचकमेवेन शहादा व्यवहारतः ।
ध्यातादित्रिविधस्यापि सम्यग्भेदा यथास्थिताः ॥ ध्याताविभेवबुद्धिर्न तत्त्वतस्तत्त्वनाशिनी । यो ध्याता शर्मदो ध्यानं तदेव शान्तिसौख्यदम् स्वात्मैव ध्येयरूपोस्ति निर्दोषो निर्मदोतुलः । प्रोक्तः स्वानन्दतुष्टेण सूरिणा कुंथुसिंधुना ।। १२६ ॥
अर्थ- ध्याता, ध्यान और ध्येय इन तीनोंमें वाच्य-वाचक भेदसे भेद है, शव भेदसे भेद है, और व्यवहार भेद हैं। अपने-अपने स्वरूपको लिए हुए ये तीनों भेद विद्यमान हैं, परंतु यदि यथार्थ रीतिसे देखा जाय तो यह ध्याता, ध्येय, और ध्यानरूप भेद-बुद्धि आत्मतत्त्वको नाश
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करनेवाली है। निश्चयनयसे जो कल्याण करनेवाला ध्याता है वही शांति और सूख देनेवाला ध्यान है, और वहीं अपना समस्त दोषोंसे रहित, मद, मत्सर आदि विकारोंसे रहित और सर्वोत्कृष्ट आत्मा ध्येयरूप है। ऐसा अपने आत्मजन्य आनन्दमें सन्तुष्ट रहनेवाले आचार्य मुगुमगारने गिल्ला किया हो :
भावार्थ-- किसी भी पदार्थका चितवन करना ध्यान है, तथा उस चितवनको करनेवाला ध्याता कहलाता है, और जिस पदार्थका चितवन किया जाता है, उसको ध्येय कहते है। इस प्रकार इन तीनोंमें वाच्यवाचकभेदसे भेद है । ध्याताका वाच्य ध्यान करनेवाला है, ध्येयका वाच्य ध्यान करने योग्य पदार्थ है, और ध्यानका वाच्य चितवन करना है । इस प्रकार शब्दभेदसे भी अर्थभेद हो जाता है। यदि एक ही पदार्थक वाचक अनेक शब्द होते हैं, तो भी उनके अर्थ में कुछ न कुछ भेद अवश्य रहता है । जैसे इंद्र, शक्र, पुरंदर ये तीनों शद्धोंका अर्थ इंद्र है, परंतु यदि द्धिभेदसे अर्थभेद लिया जाय तो जो ऐश्वर्यशाली हो उसको इंद्र कहते हैं, जो अत्यंत समर्थ हो उसको शक कहते हैं, और जो पुर वा नगरको चलानेवाला हो उसको पुरंदर कहते हैं । इंद्र में ये तीनों अर्थ संघटित होते हैं, इसलिए ये तीनों शद्ध इंद्रके याचक कहलाते हैं । इसी प्रकार ध्याताका अर्थ ध्यान करनेवाला है, ध्यानका अर्थ ध्यान वा चितवन करना है, और ध्येय शहका अर्थ ध्यान करने योग्य पदार्थ है । परंतु जब यह शुद्ध आत्मा अपने ही आत्माके द्वारा अपने ही आत्माका ध्यान करता है, उस समय वही आत्मा ध्याता होता है. वही ध्येय होता है, और वही आत्मा चितवनरूप होता है । उस समय वह शुद्ध आत्मा अपने शुद्ध स्वरूपमें इस प्रकार लीन हो जाता है, और इस प्रकार उसमें निश्चल हो जाता है, कि फिर उसमें किसी प्रकारकी भेदबुद्धि नहीं रहती । मैं ध्याता हूं, ध्यान कर रहा है, इस प्रकारकी भेद-बुद्धि भी नहीं रहती। इसलिए उस निश्चल ध्यानमें ध्याता, ध्येय, वा ध्यानका कोई भेद सिद्ध नहीं होता । जो ध्याता है, वही ध्यान है, और वही ध्येय है, तथा ध्येय-ध्याताका संकल्प-विकल्प भी नहीं है, निर्विकल्प अवस्था है, इसलिए वहांपर किसी भी प्रकारसे भेद सिद्ध नहीं होता है, यही ध्याता, ध्यान, और ध्येयकी अभेद अवस्था मोक्षका साधन है। इस प्रकार आचार्य श्री कुंथुसागरने निरूपण किया है।
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प्रश्न- देवशास्त्रगुरुं दृष्ट्वा के नमन्ति न के बद ? अर्थ- हे! कृण कीजिये कि देव शास्त्र गुरुको देखकर उनके लिये कौन नमस्कार करते हैं और कौन नहीं करते ?
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उत्तर - शुद्धं बुद्धं जिनं स्तुत्यं शास्त्रं स्याद्वादशोभितम् । स्वानन्दस्वावकं साधुं जंनधर्मशिरोमणिम् ।। १२७ ॥ पूर्वोक्तदेवगुर्वादीन् संसारबंधभेदकान् । काष्ठवृक्षशिलाभित्तिमुखश्चेते नमन्ति न ॥ १२८ ॥ शेषा दृष्ट्वा नमन्त्येव पूजयन्ति च भक्तितः । मन्यन्ते सफलं जन्म लौकान्तिका यथा जिनम् ॥
अर्थ - भगवान जिनेंद्रदेव अत्यंत शुद्ध हैं, अनंत ज्ञानी हैं, और तीनों लोकोंके इंद्रोंके द्वारा स्तुति करने योग्य है। उन्हीं भगवान जिनेंद्रदेव के कहे हुए शास्त्र स्याद्वादरूपी अटल सिद्धांत से सुशोभित है, तथा वीतराग निर्ग्रथ गुरु अपने आत्मजन्य सुखका अनुभव करनेवाले है । इस पवित्र जैनधर्म में ये तीनों ही सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। ये देव, शास्त्र, गुरु तीनों ही संसारके बंधनोंको नाश करनेवाले हैं। ऐसे इन देव, शास्त्र गुरुको देखकर, बडे-बडे लक्कड, वृक्ष, शिला दीवाल और मूर्ख लोग कभी नम्रीभूत नहीं होते, इनको छोड़कर बाकीके जितने जीव हैं वे सब इन देव, शास्त्र, गुरुओं को नमस्कार करते हैं । भक्ति पूर्वक उनकी पूजा करते हैं, और जिस प्रकार लोकांतिक देव भगवान तीर्थंकर परमदेवको दीक्षाके समय देखकर अपना जन्म सफल मानते हैं, उसी प्रकार वे जीव भी देवशास्त्र गुरुकी पूजा भक्ति कर आपना जन्म सफल मानते हैं ।
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भावार्थ- नम्रता एक आत्माका गुण है। जिन जीवोंके मोहनीय कर्मका, वा मानकषायका तीव्र उदय होता है, उन जीवों के नम्रता कभी नहीं हो सकती । इसलिये जो पुरुष देव, शास्त्र गुरुको देखकर भी उनको नमस्कार नहीं करते है. वे अपने तीव्र मानकषायके उदयके वशीभूत होकर बडे लक्कडके समान, अथवा बड़े वृक्षके समान, अथवा दीवालके
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समान जडरूप वा अत्यंत मूर्ख हो गये हैं। जिस प्रकार लक्कड, दीवाल आदि आदि कभी नम्रीभूत नहीं होते, उसी प्रकार जड वा मूर्ख मनुष्य भी सर्वोत्कृष्ट देव, शास्त्र, गुरुको देखकर भी कभी नम्रीभूत नहीं होते । यह कर्मोका तीव्र उदय उनको जडके समान बना देता है। परंतु जिन जीदों : उम्र मंत्र होता है. और इसीलिए जिनमें नम्रता गुण विद्यमान रहता है, वे जीव देव, शास्त्र गरुको देखकर तुरंत ही उनको नमस्कार करते हैं. भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं, और इस प्रकार भक्ति, पूजा कर अपना जन्म सफल मानते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो अनादिकालसे पड़े हुए इस संसारमं इस जीवको यथार्थ देव शास्त्र गुरुकी प्राप्ति होना वा उनके दर्शन होना अत्यंत कठिन है, अत्यंत दुर्लभ है । जिन जीवोंको देव, शास्त्र, गुरुकी प्राप्ति होती है । ऐसे देव, शास्त्र, गरुको पाकर भी जो उनको नमस्कार नहीं करते वे जीव इस संसारमें अत्यंत मुर्ख वा अज्ञानी समझे जाते हैं।
प्रश्न- संक्षेपाद बंधमोक्षस्य स्वरूपं वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! कृपाकर यह बतलाइए कि बंध और मोक्षका क्या स्वरूप है। उत्तर - सर्ववस्तु सा मेऽस्तीत्येकाक्षरेण जन्तवः ।
बद्धा भवंति मूढाश्च स्वात्मसौख्यपरामुखाः ॥१३॥ सर्ववस्तु न मेस्तहि इधक्षरेणेति शीघ्रतः । मुच्यते कर्म गा भन्याः भवंति मोक्षभागिनः ॥ १३१ ।। ज्ञात्वेति मोक्षसिद्धय मेऽक्षरं त्यक्ता भवप्रवम् । न मेऽक्षरवयं सारं ग्राह्यं शांतिभवे यतः ॥ १३२॥
अर्थ -- इस संसारमें जो जीव अपने आत्मसुखसे पराङमुख होते हैं और इसीलिए जो मूर्ख कहलाते हैं बे जीव ' इस संसारमें जितने पदार्थ हैं वे सब मेरे हैं ' इस प्रकारके ' मे' इस एक अक्षरसे ही कर्म बंधनोंसे बंधे जाते हैं तथा जो भव्य जीव मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं वे ' इस संसारमें कोई भी पदार्थ 'मेरा नहीं हैं' इस प्रकारके 'न में" इन दो अक्षरोंसे शीन ही कर्मोसे छूट जाते हैं। यही समझकर
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भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाला इस 'मे' अक्षरका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और न मे' इन सारभूत दो अक्षरोंको ग्रहण करना चाहिए जिससे कि आत्माको शांति प्राप्त हो ।
भावार्थ – 'मे' शब्द का अर्थ मेरा है । यह भी मेरा है, वह भी मेरा है, इस प्रकार संसारके समस्त पदार्थों को मेरा मेरा कहना ममत्व वा मोह कहलाता है । वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें एक आत्मा ही अपना है। आत्माके सिवाय अन्य शरीरादिक समस्त पदार्थ पर हैं । यह जीव अपनी अज्ञानताके कारण उन परपदार्थों को भी अपना मानकर " यह शरीर मेरा है , वह पुत्र मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह घर मेरा है, यह सब विभूति मेरी है " इस प्रकार मेरा मेरा करता रहता है। अनादार्थको भागना स . और इसी अपराधसे वह कर्मोंके बंधनोंसे बंधा जाता है । परंतु जब इस जीवको आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है, और उस सम्यग्दर्शनरूप आत्मजन्म अमूर्त प्रकाश में स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, अर्थात् अपने परायेका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है तब यह जीव परपदार्थोंको पर ही समझने लगता है, और फिर इमे न मे सन्ति' अर्थात "ये पदार्थ मेरे नहीं हैं। इस प्रकार कहने लगता है । इसीको मोहका त्याग कहते हैं । जब यह भव्य जीव इस प्रकार मोहका त्याग कर देता है, और आत्माके सिवाय अन्य समस्त पदार्थो में " न मे" अर्थात् " ये मेरे नहीं हैं" इस प्रकारकी भावनाका चितवन करने लगता है उस समय ये समस्त विकार नष्ट हो जाते है, तथा आत्मामें अत्यंत शुद्धता प्राप्त हो जाती है। इस शुद्धताके बलसे यह जीव समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इससे सिद्ध होता है कि " मे " इस एक अक्षरसे यह जीव कर्मों के बंधनोंसे बँध जाता है और न मे ' इन दो अक्षरोसे यह जीव कर्मोसे छूट जाता है । इसलिए भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए 'मे' वा ममत्वका त्याग कर देना चाहिए और न मे' इन दो अक्षरोंको ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए। इस संसारमें यही सार है, और सब असार है।
प्रश्न- स्यात्स्वात्मबंधक स्वामिन् परवस्तु न मे बद ?
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अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइए कि शरीरादिक परपदार्थ आत्माको कर्मबंधन में डालनेवाले हैं बा नहीं ?
उत्तर - न वर्गो वर्गणाकर्म न नोकर्म न जन्तवः ।
प्रियाप्रियपदार्था न न बन्धुर्न च भाक्तिकः ॥ १३२ ॥ न निर्जन्तुप्रदेशानिदर्न स जन्तुर्वपुश्च को । किंतु स्वात्मविभावाश्च भवंति स्वात्मबंधकाः ।। १३४॥ केवलं परवस्तु स्यानिमित्तमात्रकं सदा।। ज्ञात्वेत्यात्मविभावानां शुद्धिः कार्या विशेषतः॥१३५॥ यतः स्यात्स्वात्मराज्यं च समापं सर्ववस्तुतः। षड्रिपुजयिनो राजो यथा विश्वं समीपगम् ॥ १३६ ।।
अर्थ- इस संसारमें इस जीवको कर्मबंधन में डालनेवाले न तो कर्मपरमाणु हैं, न कर्मपरमाणुओंका समूह है, न कर्म हैं, न नोकर्म हैं, न अन्य जीव है, न प्रिय वा अप्रिय पदार्थ है, न भाई-बंधु हैं, न भक्ति करनेवाले भक्तजन हैं, न निर्जीव प्रदेश हैं, न जीव हैं, और न यह शरीर है. किंतु अपने आत्माके विभाव-परिणाम ही अपने आत्माको बंधन में डालनेवाले हैं। आत्माको बंधन में डालनेके लिये परपदार्थ तो केवल निमित्तमात्र होते हैं। यही समझकर आत्माके विभाव-परिणामोंको विशेष रीतिसे शुद्ध कर लेना चाहिये । जिस प्रकार क्रोधादिक अंतरंग छहों शत्रुओंको जीतनेवाले राजाके समीप समस्त संसार आ जाता है । उसी प्रकार विभाव परिणामोंको जीत लेनेसे समस्त पदार्थोंसे अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्य प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ-- इस जीवके साथ विभाव-परिणाम अनादिकालसे लगे हुए हैं। उन्हीं विभाव-परिणामोंसे कर्मोका बंध होता हैं तथा वे विभावपरिणाम कर्मोके उदयसे होते हैं, इस प्रकार कर्मों के उदयसे विभाव-परिणाम और विभाव-परिणामोंसे कर्मका संबंध इस जीवके साथ लगा हुआ है । वे विभाव-परिणाम कभी तीव्ररूप होते है और कभी मंदरूप होते हैं। जब मंदरूप होते हैं तब यह जीव अपने आत्माको स्वरूप भी चितवन
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कर सकता है, और उन विभाव परिणामोंको रोक सकता है। विभाव परिणामोंके रुक जानेसे फिर कोरबंध नहीं होता और फर्नाका बंध न होनेसे तथा पिछले कर्म नष्ट हो जानेसे अपनेआप मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये भव्य जीवोंको अपने विभाव परिणामोंको स्वभावरूपमें बदलनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये, क्योंकि मोक्ष अवस्थामें स्वभाव परिणाम होते हैं, तथा इस आत्माके साथ जो वैभाविकशक्ति है, वहीं वैभाविकशक्ति बदलकर स्वाभाविकरूप हो जाती है।
इसमें इतना और समझ लेना चाहिए कि कर्मों के बंध होने में मुख्य कारण विभाव-परिणाम है और परपदार्थ सब निमित्त कारण है। जसे कोई मनष्य अपने किसी शत्रको देखकर क्रोध करने लगता है, और उस क्रोधके निमित्तसे अशुभ कर्मोका बंध करता है । उस अशुभ कर्मके बंधमें श्रोध ही मुख्य कारण है । बह शत्रु तो निमित्तकारण है । शत्रुको देखकर क्रोध करना और न करना दोनों अपने आधीन हैं । राजा श्रेणिकने एक मुनिको दुःख दिया था, परंतु रानीके समझानेपर जब उनका उपसर्ग दूर किया, और राजा श्रेणिकने भी उन मुनिमहाराजको नमस्कार किया तो मुनिराजने राजा श्रेणिकको धर्मवृद्धिरूप आशीर्वाद ही दिया था। तथा धर्मोपदेश देकर उसका कल्याण ही किया था। इससे सिद्ध होता है कि शत्रुको देखकर क्रोध करना अथवा उस दुःखको अपने कर्मीका फल मानकर शांत रहना, दोनों अपने आधीन हैं, इसलिए कर्मबधमें विभाव-परिणाम ही कारण हैं, परपदार्थ केवल निमित्तमात्र हैं, इसलिए मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको अपने विभाव-परिणामोंका त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न- कौ कर्म कीदशो जीवो वन्धाति वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बललाइए कि इस संसारमें कैसा जीव कर्मोका बंध करता है ? उत्तर - राग्येध कर्मनिचयानि भयंकराणि,
संसारतापपरिवृद्धिकराणि मूर्खः । निद्यानि चात्मसुख शांतिविनाशकानि, स्वर्मोक्षमार्गपरिरोधनतस्पराणि ॥ १३७ ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
षटखण्ड राज्य विभवादिविधातकानि स्वात्मप्रदेशगमनप्रतिबन्धकानि । बन्धाति शत्रुसमदुःखकराणि नित्यं, स्निग्धो घटोहि विपुलानि रजःकणानि ।। १३८ ॥
अर्थ - जिस प्रकार चिकने घडेपर बहुतसे धूलिक कण आकर जम जाते हैं, उसी प्रकार राग वा द्वेषको धारण करनेवाला अज्ञानी पुरुष बहुतसे कर्मोंका बंध करता रहता है । ये कर्म अत्यंत भयंकर है, संतापोंको बढानेवाले हैं, अत्यंत निन्द्य हैं, आत्मासे उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख और शांतिको नाश करनेवाले हैं, स्वर्ग वा मोक्षको रोकने के लिये सदा तत्पर रहते हैं इंद्र, चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको नाश करनेवाले हैं, अपने ही आत्माको अपने ही आत्माके प्रदेशों में लीन होनेमें रुकावट डालनेवाले हैं, और शत्रुके समान सदा दुःख देनेवाले हैं । ऐसे इन कर्मो को रागी पुरुषही ही बांधता है ।
८८.
भावार्थ - अग्नि में पके हुए मिट्टीके घडेपर धूलि कभी जमती नहीं । चाहे जितनी धूलि उसपर डाली जाय तथापि वह जमती नहीं, यदी उसी घडेपर तेल या घी लगा दिया जाए और उसको चिकना कर दिया जाय, तो फिर रखखे रखखे ही उस घडेपर धूलि जम जाती है । बिना चिकनाईके धूलि जम नहीं सकती। इसी प्रकार जो आत्मा राग-द्वेष धारण करता है । विना राग-द्वेषके कर्मोंका बंध नहीं हो सकता, इसलिए जो पुरुष कर्मोंको नष्टकर मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसको सबसे पहले राग-द्वेषका त्याग कर देना चाहिए | राग द्वेषका त्याग कर देनेसे नवीन कर्मोका बंध नहीं होता तथा पिछले कर्मोकी निर्जरा होनेसे, किसी न किसी दिन वे समस्त कर्म अवश्य नष्ट हो जाते हैं ।
प्रश्न- बध्यते कर्मणा यो न स जीवः कीदृशः प्रभो ?
अर्थ हे स्वामिन्! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कैसा जीव कर्मोंका बंध नहीं करता ?
उत्तर - स्थूलाविसूक्ष्मतनुधारणकारणेषु शुष्केषु तापजनकेषु सुशीसकेषु ।
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( शान्तिसुधासिन्धु)
पूर्वोक्तवस्तुषु सदैव नरः स्थितोपि, . .
नो बध्यते स्फटिकवद् विमलो विरागी ॥ १३९ ॥
अर्थ- यह मनु चाहे तो स्थूल वा सूक्ष्म शरीरको धारण करने के कारणोंमें रहे, चाहे संताप उत्पन्न करनेवाले उष्ण पदार्थोम रहे, अथवा शुष्क वा सूखे पदार्थोंमें रहे, और चाहे शीत पदार्थों में रहे, परंतु यदि वह राग-द्वेषसे रहित वीतराग है और स्फटिकके समान निर्मल आत्माको धारण करनेवाला है तो उस मनुष्यके कर्मोका बंध कभी नहीं होता।
भावार्थ-- कर्मोका बंध राग-द्वेषसे होता है, केवल संसारमें रहने मात्रसे कर्मोंका बंध नहीं होता। यदि यह जीव राग-द्वेष धारण करता है तो सिद्धशिलापर पहुंचने पर भी कर्मोका बंध अवश्य होता है, और यदि उसके राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है, तो संसारमें किसी स्थानपर रहनेपर भी कोका बंध नहीं कर सकता। यह निश्चित सिद्धांत है कि कर्मोका बंध राग-द्वेष आदि विकारोंसे ही होता है। जिसका आत्मा राग-द्वेषका अभाव होनेसे स्फटिकके समान निर्मल हो जाता है उसके कोका बंध कभी नहीं हो सकता ।।
प्रश्न- आकिंचन्यपदारूढः कोस्ति भूमण्डले प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस पृथ्वी मंडलपर आकिंचन्य पदपर कौन महापुरुष विराजमान होता है। उत्तर - पुत्रश्च पौत्राऽखिलबन्धुबर्गो, .
निजात्मवाह्यः सकलः पदार्थः । स्याल्लोकवार्ता विषमा व्यथादा, संगोपि निद्यो भवमग्नजन्तोः ॥ १४० ॥ तपश्च तेभ्योस्मि सर्वव भिन्नः शुद्धः प्रबुद्धः परमार्थतोहम् । एवं विचारो हृदि यस्य पूज्यः स एव चाकिंचनधर्मधारी ।। १४१ ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- जो महापुरुष सदाकाल यह विचार करता रहता है, कि मैं इस जन्म-मरणरूप संसारमें अनादिकालसे निमग्न हो रहा हं, मेरे ये पुत्र-पौत्र वा समस्त भाई बंधु आदि जितने पदार्थ हैं, वे सब मेरे आत्मासे भिन्न हैं, तथा इस संसारमें जितनी लौकिक बातें हैं वे भी सब विषम है, और महादुःख देनेवाली है, और वस्त्र, आभूषण, धन, मकान
आदि जितना परिग्रह है, वह सब निंदनीय है । इसलिए मेरा यह आत्मा इन सब पुत्र-पौत्रादिकोंसे वा भाई-बंधुओंसे, अथवा परिग्रहसे सर्वथा भिन्न है । यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो यह मेरा आत्मा अत्यंत शुद्ध है और अनंत ज्ञानमय है । इस प्रकारके विचार जिसके हृदयम सदाकाल विद्यमान रहते हैं, वहीं पूज्य महापुरुष आकिंचन्य धर्मको धारण करनेवाला कहलाता है।
भावार्थ- किंचन शब्दका अर्थ 'कुछ' है, अकिंचन शब्दका अर्थ 'कुछ भी नहीं है। उस अकिंचनके भावको आकिंचन्य कहते हैं । यह आकिंचन्य धर्म आत्माका निज स्वभाव है, और यही आकिंचन्य धर्म मोक्षका कारण है । जबतक यह मनुष्य आकिंचन्य धर्मको धारण नहीं करता, तबतक वह मोक्षका पात्र कभी नहीं हो सकता। अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका सर्वथा त्याग कर देना ही आकिंचन्य धर्म है । अंतरंग परिग्रहोंका त्याग करनेसे कर्मोका बंध नहीं होता तथा वाह्य परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती । इस प्रकार दोनों प्रकारका त्याग कर देनसें यह जीव अत्यंत शुद्ध और सर्वथा निराकुला हो जाता है, और कर्मोको नष्ट कर अनंतसुखी बन जाता है । इसलिये प्रत्येक भव्य जीवोंको इस आकिंचन्य धर्मका चितवन करते हुए राग-द्वेष वा ममत्वका त्याग कर देना चाहिये,
और इस प्रकार निराकुल होकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिये । यही मनुष्य जन्मका सार है।
प्रश्न- कि भेदज्ञानिनश्चिन्हं वद मे विद्यते प्रभो ? ___ अर्थ- हे प्रभो! अब कृपा कर यह बतलाइए कि भेदज्ञानियोंके क्या क्या चिन्ह होते हैं ? उत्तर - भिन्नोहं कर्मणो मत्तो भिन्नं कर्मापि सर्वथा ।
नैवाहं कर्मणः कर्ता भोक्तापि परवस्तुनः॥ १४२ ॥
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( शान्तिसुधामिन्धु )
नाहं त्यागी तथा भोगी साध्यश्च साधकोपि न । ध्याता ध्यानं न च ध्येयं वस्तुतोहं निरंजनः ।। १४३॥ ज्ञाता वृष्टा जगत्साक्षी शुद्धचिपचिन्मयः ।
प्रतिभातीव मोक्षस्थो ज्ञान्येवं चितयन् सदा ॥ १४४ ॥
अर्थ- जिन जीवोंके स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, वे सदाकाल यही चितवन किया करते हैं कि मैं इन कर्मोंमे सर्वथा भिन्न हूं ये कर्म भी मुझसे सर्वथा भिन्न हैं, मैं न तो इन कर्मोका कर्ता हुँ, न परपदार्थोका भोक्ता हूं, मैं न त्यागी हूँ, न भोग करनेवाला हूं, न साधक हूं, न सिद्ध करने योग्य साध्य हूं, न ध्याता हूं, न ध्येय हूं और न ध्यान हूं । वास्तवमें देखा जाय तो में निरंजन हूं, ज्ञाता हूं, दृष्टा हूं, जगतको प्रत्यक्ष देखनेवाला हं, शुद्ध चैतन्यस्वरूप हं, और मोक्षमें विराजमान होने के समान प्रतिभासित हो रहा हु ।
भावार्थ--- यह आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, और कर्म जड हं. पोद्गलिक हैं। इसलिए यह मानना ही पड़ता है, कि कर्म भिन्न है, और आत्मा भिन्न है, अथवा कसि आरमा भिन्न है, और आत्मासे कमें भिन्न है । इस प्रकार रागद्वेषको धारण करनेवाले जीत्र ही कर्मोका बंध करते हैं, और वे ही उन कोंके उदयसे होनेवाले फलको भोगते हैं । जो आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप है वह न तो कर्मोका बंध कर सकता है, और न उन कर्मोक फलको भोग सकता है । इसलिए यह आत्मा न तो कर्ता है, और न भोक्ता है । इसी प्रकार जो आत्मा परिग्रहको धारण करता है, वा रागद्वेषको धारण करता है वही आत्मा उस परिग्रहका रागद्वेषका त्याग कर सकता है, अथवा वही पुरुष उस परिग्रहादिकको भोगनेवाला कहा जा सकता है । जो आत्मा परिग्नहादिकसे या रागद्वेषसे सर्वथा रहित हूँ, वह न तो त्यागी बन सकता है, और न भोगनेवाला कहा जा सकता है । त्याग परपदार्थका होता है। शुद्ध आत्मा किसी भी परपदार्थको ग्रहण नहीं करता। इसलिए वह किसीका त्याग भी नहीं कर सकता और भोग भी नहीं कर सकता ।इस प्रकार त्याग और भोगसे भी यह आत्मा सर्वथा रहित है, तथा यह आत्मा साध्यसाधक भी नहीं है। जो आत्मा अशुद्ध होता है वही आत्मा शुद्ध होने के लिए साध्य था सिद्ध करने योग्य गिना जाता है तथा ऐसा
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( शान्तिसुधासिन्धु )
ही आत्मा अपने आत्माको सिद्ध करनेवाला साधक कहलाता है, परंतु यह आत्मा शुद्ध है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है । इसलिए यह आत्मा न तो साध्य है, और न साधक है। इसी प्रकार जो आत्मा कर्मसहित होता है, वही आत्मा ध्यान कर सकता है, अथवा अपने आत्माके स्वरूपका भी चितवन कर सकता है । इस प्रकार कर्म विशिष्ट आत्मा ही ध्याता वा ध्येयरूप अथवा ध्यानरूप हो सकता है । शुद्ध निरंजन आत्माम ध्याता ध्येय वा ध्यानकी कल्पना कभी हो ही नहीं सकती हैं । इसलिए यह आत्मा न ध्याता है, न ध्येय है, और न ध्यानरूप है । इस प्रकार यह आत्मा समस्त संकल्प-बिकल्पोंसे सर्वथा रहित है। केवल ज्ञाता दृष्टा है, ज्ञाता दृष्टा होनेपर भी राग द्वेषके न होनेसे यह आत्मा किसी भी परपदार्थ से किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रखता । न तो उनम ममत्व-बुद्धि करता है, न इष्ट अनिष्टकी कल्पना करता है, न कर्ताः भोक्ता, ध्याता, ध्यान, ध्येय आदिकी कल्पना करता है । बिना किसी प्रकारके संकल्प-विकल्पके केवल ज्ञाता दृष्टा बना रहता है । यह जीव जब तक परपदार्थो के साथ अभेदबुद्धि रखता है । तब तक ही सब प्रकारके संकल्प-विकल्प कर सकता हैं । जब इस आत्माको भदज्ञान प्रगट हो जाता, और उस भेदज्ञानसे अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको समस्त परपदाथोंसे सर्वथा भिन्न मान लेता है, उस समय यह आत्मा अपने शुद्ध आत्माको सब संकल्प-विकल्पोंसे रहित, ज्ञाता, दृष्टा, अत्यंत शुद्ध और साक्षात् सिद्धोंके समान मान लेता है। यही भेद ज्ञानीका चिन्ह है ऐसा ही भेदज्ञान प्रगट करनेके लिए प्रत्येक भव्य जीवको सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिये
प्रश्न - मो कुटुम्बादिसंयोगादात्महानिर्भवेन्न वा ?
अर्थ-हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस कुटुंब आदिके संयोगसे आत्माकी कुछ हानि होती है बा नहीं ? उत्तर - संयोगतः पुत्रकलत्रबन्धोः,
क्रोधादिकालुष्यविवर्द्धकस्य। चित्ते विकारो विषयाभिलाषा, स्वानन्वहर्षी विविधापि चिता ॥ १४५ ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
संजायते चैरविरोधभावो, ज्ञात्वेति संयोगभवं च दोषं । त्यक्त्यान्यसंग मदकारकं वा,
भव्या भवेथुविमला विसंगाः ॥ १४६ ॥
अर्थ - इस संसारमें जितने स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई आदि सगे संबंधी हैं वे सब क्रोधादिक कषायोंको बढ़ानेवाले हैं, और हृदयमें कलुषता उत्पन्न करने वाले हैं इसीलिए इनके संयोगसे हृदयमें विकार उत्पन्न होता है, अपने आत्मजन्य आनंदको हरण करनेवाली, विषयोंकी अभिलाषा बढती है, अनेक प्रकारकी चिंताएं बढ़ती हैं, और अनेक जीवोंके साथ वैर-विरोध बढ़ता है। इस प्रकार पुत्र मित्रादिकके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले दोषों को समझकर भव्य जीवोंको मद उत्पन्न करनेवाले समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देना चाहिए, और समस्त परिग्रहसे रहित होकर अपने आत्माको निर्मल बना लेना चाहिए ।
भावार्थ - स्त्री-पुत्र आदि कुटुंबी लोगोंके संबंधसे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। प्रथम तो उनके लिए कमाना पड़ता है, जिसमें अनेक प्रकारके बहुतसे जीवोंकी हिसा होती है, परंतु उस हिंसाजन्य पापका फल स्वयं भोगना पड़ता है, नरक-निगोदादिक दुर्गतियोंमें ले जानेवाले पाप इस कुटुंबके लिए ही करने पड़ते हैं। यदि कुटुंबका ममत्व छुट जाय तो यह आत्मा बहुत शीन अपना कल्याण कर सकता है। इस कुटुम्बके ही निमित्तसे यह जीव क्रोध करता है, मान करता है, मायाचारी करता है, लोभ करता है, हृदयमें कलषता उत्पन्न करता है। और अनेक प्रकारके कामादिक विकार उत्पन्न करता है । इस कुटुम्बके ही लिए अनेक प्रकारकी चिंताएं करता है. और अनेक जीवोंके साथ वैर-विरोध करता है । कहां तक कहा जाय, इस संसार में जितने पाप हैं, वे सब इस कुटम्बके ही लिए किये जाते हैं, और जितने दुःख हैं वे सब इस कुटुम्बके ही लिए भोगे जाते है । इस प्रकार यह कुटुम्बका सम्बन्ध सब प्रकारसे दुःख देनेवाला है। यही समझकर भव्य जीवोंको कुटुम्बके मोहका त्याग कर देना चाहिये । और फिर इसका सर्वथा त्याग कर तथा भगवती जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर, आत्मकल्याण कर लेना चाहिये । यही इस संसारमें सार है।
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(शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न- संसारकार्यकर्ता यस्तस्य सिद्धिर्भवेन्न बा ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि जो मनुष्य संसारके कार्य करने में लगा रहता है, उसको मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है वा नहीं ? उत्तर - कर्तापि भोक्ता परवस्तुनोस्मि,
हता स्वरादेर्जनबान्धवानाम् । स्वामी प्रजानां सुखदुःखदाता, ममोपरीहाखिलविश्वभारः ।। १४७ ॥ एवं विचारो हवि यस्य तस्य, संसारवृद्धिः शिवमार्गहानिः । तद्भावमुक्तस्य नरोत्तमस्य, संसारनाशः सुखशांतिलाभः ॥ १४८ ॥
अर्थ- मैं परपदार्थों का कर्ता हूं. भोक्ता हूं, अपने भाई बंधुओंके ज्वरादिकको दूर करनेवाला हूँ, प्रजाका स्वामी हैं, और प्रजाको सुख वा दुःख देनेवाला हूं। इस संसारमें मेरे ही ऊपर समस्त संसारका भार आ पडा है । इस प्रकारके विचार जिसके हृदयमें सदा बने रहते हैं, वह मनुष्य जन्म-मरणरूप संसारकी वृद्धि ही करता रहता है, तथा मोक्षमार्गकी हानि करता रहता है। परंतु जो मनुष्य ऐसे विचारोंको छोड़ देता है, उस उत्तम पुरुषका जन्म-मरणरूप संसार नष्ट हो जाता है, और अनंत मुख तथा अनंत शांतिकी प्राप्ति हो जाती है।
भावार्थ- इस संसारमें परपदार्थोका ममत्व ही संसार को बढानेबाला है, जिस जीवके परपदार्थोंका ममत्त्व होता है, वही जीव परपदार्थोका कर्ता वा भोक्तारूप बुद्धि रखता है । वह यही समझता है, कि यह मकान मैंने ही बनाया है, यह वस्त्र मैंने ही बनाया है, यह भोजन मैंने ही बनाया है, मैं इस मकानका मालिक हूं, यह भोजन मेरे लिये है, मैं ऐसे उत्तम वस्त्र धारण करता हूं, यह रोग मैने खो दिया, मैं चक्रवर्ती सम्राट हूं, मेरे आधीन इतनी प्रजा है, और यह काम मैंने किया है । इसप्रकारके विचार वा इस प्रकारकी समझ संसारी जीवोंकी ही होती है, इसको पररूप बुद्धि कहते हैं । यह पररूप बुद्धि तीव्र कर्मोका बंध करती है । यदि वास्तबमें देखा जाय तो यह आत्मा अमूर्त है । इसलिये
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( शान्तिसुधासिन्धु )
वह न तो मकान बना सकता है, न भोजन बना सकता है, और न अन्य पौद्गलिक पदार्थोंको बना सकता है । पौद्गलिक पदार्थोको पौद्गलिक शरीर ही बनाता है । यदि यह अमूर्त आत्मा कुछ कर सकता है, तो अपने शुद्ध भावोंको ही उत्पन्न कर सकता है, इसके सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। यही कारण है, कि जबतक यह आत्मा परपदा को अपनाता रहता है, अपने आत्माको उन परपदार्थोका कर्ता वा भोक्ता मानता रहता है, तबतक पंचपरावर्तनरूप संसारमें ही परिभ्रमण किया करता है, तथा मोक्षमार्गसे दूर हटता जाता है । परंतु जब यह आत्मा परपदार्थोसे अपने ममत्वको त्याग देता है, और अपने आत्माको किमीका कर्ता-भोक्ता न मानकर केवल अपने आत्माके शुद्धभावोंका ही कर्ता-भोक्ता मान लेता है, और फिर उन्हीं भावोंमें लीन बना रहता है, तभी यह आत्मा संसारको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिये परपदार्थोसे ममत्वको त्याग कर देना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- कर्ताकर्मक्रियादिः क्व तत्वाद् घटते मे वद ?
अर्थ-- हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइये कि यथार्थ रीतिसे कर्ता, कर्म, और क्रियाएं कहां संघटित होती हैं ? उत्तर - कर्ताकर्मक्रियादिः को स्वद्रव्ये घटते सदा ।
स्वात्मबाह्ये परे नवाधाराधेयदिजिते ॥ १४९ ॥ वस्तुतो विद्यते चवं ततापि व्यवहारतः। कर्ताकर्मक्रियादिश्च घटते परवस्तुनि ॥ १५० ।। किन्तु तेनात्मसिद्धिर्न ज्ञात्येति निजवस्तुनि । कर्ताकर्मक्रियाविश्च मन्यन्ते मुनिसत्तमाः ॥ १५१ ॥
अर्थ-- कर्ता, कर्म, और क्रिया ये तीनों ही अपने निज द्रव्पमें संघटित होती हैं, अपने निज द्रव्यके सिवाय अन्य किसी पदार्थमें संघटित नहीं हो सकती । इसका भी कारण यह है, कि किसी एक द्रव्यकी किसी दूसरे द्रव्यके साथ आधाराधेय कल्पना नहीं हो सकती । यद्यपि वस्तुका स्वभाव यही है, तथापि व्यवहारनयसे कर्ता, कर्म, क्रिया ये
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
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तीनों ही परपदार्थों में संघटित होती हैं । परंतु परपदार्थों में कर्ता, कर्म क्रिया होनेसे आत्माकी सिद्धी नहीं होती । यही समझकर उत्तम मुनिराज अपने पदार्थ में ही कर्ता, कर्म और क्रियाओंका होना मानते हैं । भावार्थ - में घट बनाता हूं ' इस वाक्यमें में कर्ता है, घट कर्म है, और बनाना किया है। बनाना क्रियाका आधार घट है। यहांपर मैं शब्द से रागादि विशिष्ट अशुद्ध आत्मा लिया जाता है, अथवा शरीर विशिष्ट आत्मा लिया जाता है । में घट बनाता हूं इसमें शरीर विशिष्ट आत्मा ही बनानेरूप क्रिया को करता है। इस प्रकार पुद्गलरूप घटको बनानेवाला कर्ता शरीर विशिष्ट आत्मा कहलाता है । यह सब व्यवहारनय है । व्यवहारसे ही ऐसा कहा जाता है । यदि वास्तव में देखा जाय तो यहां पर भी पुद्गलरूप घटका कर्त्ता आत्मविशिष्ट शरीर पौद्गलिक है इस बात को सब कोई जानता है । इसप्रकार घटरूप पुद्गलका कर्ता शरीररूप पुद्गल ही पड़ता है और इस वार्ता कर्म क्रिया तीनों ही पुद्गलमें सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार यथार्थ रीतिसे कर्ता, कर्म, क्रिया, तीनों एक अपने ही द्रव्यमें सिद्ध होते हैं, यदि आत्मद्रव्यको कर्त्ता मान लिया जाय तो आत्मा अपने ही भावोंका कर्ता होता हैं वह परभावों का कर्त्ता कभी नहीं हो सकता । यदि वह आत्मा शुद्ध है तो अपने शुद्ध भावोंका कर्ता होता है और जो आत्मा अशुद्ध होता है वह अपने रागादिक अशुद्ध भावोंका कर्ता होता है । आत्मा चाहे शुद्ध हो और चाहे अशुद्ध हो, वह घटपटादिकका कर्ता तो कभी नहीं हो सकता । घटपटादिकका कर्ता तो शरीर ही हो सकता है । घटपटादिकका इस प्रकार से भी कर्ता, कर्म, क्रिया, तीनों ही अपने द्रव्यमें ही सिद्ध होते हैं । पर द्रव्यमें कभी नहीं हो सकते ।
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इस प्रकार कर्ता, कर्म, क्रियाकी सिद्धी अपने निज द्रव्यमें सिद्ध होनेपर भी उससे आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती । जिस समय यह शुद्ध आत्मा, अपने ही शुद्ध आत्मा में, अपने ही शुद्ध आत्माके द्वारा अपने ही शुद्ध भावोंको उत्पन्न करता है, उस समय वह शुद्ध आत्मा कर्ता कहलाता है, शुद्ध भावकर्म कहलाते हैं, और शुद्ध भावोंका प्रगट होना क्रिया कहलाती है । यद्यपि इस प्रकार शुद्ध भावोंके उत्पन्न होने में कर्ता कर्म क्रियाकी कल्पना की जाती है, परन्तु
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( शान्तिसुधासिन्धु )
वास्तवमें देखा जाय तो उस कर्ता कर्म क्रियामें कोई नही होता और न कर्ता, कर्म, क्रियाको कल्पना होती है, वहांपर तो शुद्ध आत्मा है, उसका परिणमन स्वयं शुद्ध भावरूप होता रहता है, और वह भी तद्रूप ही होता है, इसलिए वह शुद्ध आत्मा हो कता है, वहीं शुद्ध आत्मा कर्म है और वही शुद्ध आत्मा क्रियारूप परिणत होता है । इस प्रकार कर्ता, कर्म, क्रिया इन तीनोंमे अभेद सिद्ध होनेसे निर्विकल्प अवस्था माननी पडती है । इस प्रकार समस्त संकल्प-विकल्पसे रहित शुद्ध चतन्य स्वरूप जो आत्मा है, वही कर्ता है, वही कर्म है, और वही क्रिया है, तथा आत्मसिद्धिका वा मोक्ष प्राप्तिका साक्षात् कारण है । इस प्रकार आत्मा द्रव्यमें ही कर्ता, कर्म, क्रिया माननेसे आत्माकी सिद्धि होती है । अन्यथा नहीं।
प्रश्न- बद स्वद्रयचिन्हं कि कर्ताकर्माद्यभेदकम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया तीनोंम अभेद सिद्ध होता हो, ऐसे स्वद्रव्यका चिन्ह क्या है ? उत्तर – व्याप्यव्यापकभावेन विना कर्ताविकारकम् ।
घटते न परद्रव्ये कचिद्वा घटते यदि ॥ १५२॥ सत्यार्थे स्वपदार्थे हि तादात्म्यवशतः सवा । ज्ञात्वेति प्राप्य वस्तुत्वं स्थातव्यं (?) परमात्मनि।।१५३॥
अर्थ- कर्ता, कर्म, क्रिया, इन तीनोंका सद्भाब वहीं होता है, जहां परस्पर एक दूसरेके साथ व्याप्य-व्यापकभाव होता है 1 व्याप्य-व्यापकभाव एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ नहीं होता, इसलिए व्याप्य-व्यापकभावके बिना कर्ता, कर्म, क्रिया, ये तीनों ही परद्रव्यमें कभी संघटित नहीं हो सकती। यदि कर्ता, कर्म, क्रिया, ये तीनों ही संघटित होते हैं. तो यथार्थ स्वद्रव्यमें ही संघटित होते हैं, क्योंकि स्व द्रव्यमें ही तादात्म्य संबंधसे व्याप्य-ध्यापकभाव बनता है, और कर्ता, कर्म, क्रिया, तीनों ही संघटित हो जाती हैं । इस प्रकार वस्तुका यथार्थ स्वरूप समझकर और उस यथार्थ निज द्रव्यको प्राप्त होकर परमात्मामें स्थिर हो जाना चाहिए ।
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( धान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- जहां व्याप्य व्यापक संबंध होता है, वहीं कर्ता, कर्म, संघटित होती है। जहां व्याप्य व्यापकभाव नहीं होता, वहां कर्ता, कर्म, क्रिया कभी संघटित नहीं हो सकती । व्याप्य व्यापकभाव निज द्रव्यमें ही होता है । दो द्रव्यों में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव कभी नहीं हो सकता। यही कारण है कि दो द्रव्यों में एक दूसरेके साथ कर्ता, कर्म, क्रिया संघटित नहीं हो सकती। किसी एक ही द्रव्य में व्याप्य व्यापकभाव होता है, और उसी एक द्रव्यमें कर्ता, कर्म, क्रिया, संघटित होती है । इसका भी कारण यह है कि तादात्म्य संबंध किसी एक ही अन्य में होता है, तथा जहां तादात्म्य संबंध होता है, वहीं व्याप्यव्यापकभाव होता है, और जहां व्याप्यव्यापकभाव होता है, वहीं कर्ता, कर्म, क्रिया, हो सकते हैं । अतएव उपरके श्लोकों में कहे अनुसार आत्माके शुद्ध स्वरूपमें ही कर्ता, कर्म, क्रियाका अन्वेषण करना चाहिए और अभद दृष्टिसे शुद्ध आत्माको हो कर्ता कर्मरूप मानकर उसीमें स्थिर हो जाना चाहिए | मोक्षप्राप्तिका यही उपाय है ।
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प्रश्न - तत्त्वत्तः कीदृशोहं को वद में शान्तये प्रभो ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अपनी आत्माको शांति प्राप्त करनेके लिए यह बतलाइये कि वास्तवमें आत्मस्वरूप कैसा है, अथवा में कैसा हूं? उत्तर - बालो न वृद्धस्तरुणी युवा न
वेषी न रागी कृपणो न दानी । स्वामी न भृत्यः सुजनो न पापी वर्णो न वर्णी न पशुर्मनुष्यः ॥ १५४ ॥ व्याधिस्ततो मे जननं न मृत्युः । कुकर्मणो भ्रान्तिकरः सदैव ।
सर्वोपि पर्यायचयोस्ति तत्त्वात् स्वराज्यकर्तास्मि निरंजनोहम् ।।
१५५ ।।
अर्थ - वास्तवमें देखा जाय तो में न तो बालक हूं, न वृद्ध हूं, न तरूण स्त्री हूं, न युवा पुरुष हूं, न किसी वेषको धारण करनेवाला हूं, न रागी हूं, न कृपण हूं, न दानी हूं, न स्वामी हूं, न सेवक हूं, न सज्जन
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( शान्ति सुधासिन्धु )
हूँ, न पापी हूं, न किसी वर्णका हूं, न किसी वर्णमें रहनेवाला हूं, न पशु हूं, न मनुष्य हूं, न मुझे कोई व्याधि होती है, न मेरा जन्म होता है, और न मेरी मृत्यू होती है । यह सब निदनीय कर्मोंके उदयसे होनेवाला और सदाकाल बाल, वृद्ध आदिकी भ्रांति उत्पन्न करनेवाला पर्यायोंका समूह हैं । यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यका वा मोक्षरूप स्वराज्यका में कर्त्ता हूं, और समस्त कर्म वा दोषोंसे रहित निरंजन हूं ।
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भावार्थ - यह संसारी आत्मा कर्मोके निमित्तसे चारों गतियोंमें अनेक प्रकारको पर्यायें धारण करता रहता है । कभी मनुष्य पर्यायमं उत्पन्न होकर अनेक प्रकारके शरीर धारण करता है। कभी पशु पर्याय में उत्पन्न होकर गाय, भैंस, घोडा, हाथी, भौंरा, मक्खी, लट आदि अनेक प्रकारके शरीर धारण करता है, कभी नरकमें उत्पन्न होता है, कभी स्वर्ग में देव होता है, वा देवो होता है, कभी बालक कहलाता है, कभी वृद्ध कहलाता है, कभी स्त्री कहलाता है, कभी स्वामी कहलाता है, कभी सेवक कहलाता है, कभी पापी कहलाता है। कभी धर्मात्मा कहलाता है, कभी रोगी, कभी शोक करनेवाला और जीने मरनेवाला कहलाता है । ये सब इस संसारी जीवकी वैभाविक पर्यायें हैं, और कर्मोके उदयसे हुआ करती हैं। यदि इस जीवके साथ कर्मोंका उदय न हो तो ये पर्यायें कभी उत्पन्न नहीं हो सकती इससे सिद्ध होता है, कि ये पर्याये यर्थाथमें शुद्ध जीवकी नहीं हैं, तथा मेरे आत्माका यथार्थ स्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, और इसीलिए वह मेरा आत्मा रागद्वेषादिक समस्त विकारोंसे रहित है, समस्त कर्मोसे रहित है, और सिद्धोंके समान अत्यंत शुद्ध है । इसीलिए वह मेरा आत्मा मोक्षरूप स्वराज्यका कर्ता है, और तज्जन्य अनंत सुखका भोक्ता है । अतएव हे आत्मन् ! यदि तू अपने वास्तविक स्वरूपको देखना चाहता है, और अनंत सुखी होना चाहता है तो रागद्वेषादिक विकारोंका सर्वथा त्याग कर, आत्माकी शुद्ध अवस्था प्रगट कर और मोक्षकी प्राप्ति कर ।
प्रश्न- केन स्वात्मपदं शुद्धं प्राप्यतेऽन्विष्यते भुवि ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि इस संसार में
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(शान्ति सुधासिन्धु )
अपने आत्मा शुद्ध पदको कौन प्राप्त कर लेता है, बा कौन तलाश कर लेता है ।
उत्तर
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अज्ञानतश्चान्यपदेऽतिनिद्ये, दुःखप्रदे व वसता मया हि । अनन्तकालो गमितो भवान्धौ,
दुःखंच भोक्त्रा कुकृति प्रकर्त्रा ।। १५६ ॥
अद्यापि चानन्दपदं न लब्धं,
हा कर्मचोरेण हतः प्रगष्टः । एवं विचारः क्रियते च येन, ह्यन्विष्यते स्वात्मपदं च तेन ॥
१५७ ॥
अर्थ - इस संसाररूपी महासागरमें मैं अपनी अज्ञानता के कारण अत्यंत दुःख देनेवाले और महा निद्य ऐसे नरक निगोद आदि अन्य स्थानों में ही निवास करता रहा। वहांपर रहते हुए मैंने अनंतकाल व्यतीत कर दिया, और वहीं पर अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहा, और अनेक प्रकारके कुकर्म करता रहा, तथा इसीलिए मैंने आज तक अपने आत्मजन्य आनन्दको प्राप्त नहीं किया । इस प्रकार इन कर्मरूपी चोरोंने मेरा सब कुछ छीन लिया, और मुझे सब प्रकारसे नष्ट कर दिया । जो महापुरुष सदाकाल इस प्रकार के विचार करता रहता है, वह पुरुष अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको अवश्य तलाश कर लेता है ।
भावार्थ - अज्ञान वा आत्मज्ञानके बिना यह जीव संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण करता रहता है, और अनंत दुःख भोगता रहता है । अनादिकालसे लेकर आज तक इस जीवको आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ । वह आत्मज्ञान सम्यग्दर्शनरूपी आत्मजन्य अमूर्त प्रकाशके प्रगट होनेपर होता है । जिस समय यह आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है उसी समय स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, स्वपरभेदविज्ञान प्रगट होनेसे यह आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप निज स्वभावको ग्रहण करने लगता है और रागद्वेषादिक परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देता है। तथा ममत्वका सर्वथा त्याग कर देता है उस समय यह जीव कर्मजन्य समस्त विकारों
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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को हेय समझता है, और आत्माके शुद्ध परिणामोंको उपादेय वा ग्रहण करने योग्य समझता है । इस प्रकार हेय-उपादेयका ज्ञान होनेपर यह जीव आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रगट करनेका प्रयत्न करता है। और धीरे-धीरे चारित्रको धारण कर, दान व तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्माको नष्ट कर आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हो जाता है । इसलिए भव्य जीवोंको सदाकाल आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते रहना चाहिए । तथा परपदार्थोका त्याग कर आत्मस्वरूपमें लीन होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । यही मनुष्य जन्मकी सफलता है।
प्रश्न- भो परग्रहणत्यागः कतिवारं कृतं मया ?
अर्थ-- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिये कि इन परपदार्थोका ग्रहण और त्याग इस जीवने कितनी बार किया है ? उत्तर - प्रियोपि पुत्रः सुखदश्च बंधुः,
श्रेष्ठापि भार्या च सखा दयाः । मातापि मान्या चतुरः पितापि, स्वप्ता सुशीला प्रियबांधवोपि, ॥ १५८ ॥ त्यक्तो गृहीतो बहुबारमेव, निजात्मबाह्यः सकलः पदार्थः । किन्तु स्वभावो विमलो न
यस्याज्जातोस्मि दोनो भवदुःखपात्रम् ॥ १५९ ।।
अर्थ- प्रिय पुत्र, सुख देनेवाला भाई, श्रेष्ठ स्त्री, चतुर पिता, माननीया माता, दयाल मित्र, सुशील बहिन और प्यारे कुटंबी लोग तथा इसी प्रकारके आत्मासे भिन्न रहनेवाले संसारके समस्त पदार्थ अनेक बार ग्रहण किये हैं, और अनेक बार इनका त्याग किया है । परंतु अपने आत्माका निर्मल स्वभाव आज तक ग्रहण नहीं किया है। इसीलिए अबतक दीन और संसारके समस्त दुःखोंका पात्र बना है।
भावार्थ - इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनंतानंत काल व्यतीत हो गया है । इस अनंतानंत कालमें अनंतही पुत्र प्राप्त किये
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( शान्तिसुधासिन्धु ।
अनंत ही स्त्रियां प्राप्त की, अनंत ही भाई प्राप्त किये, अनंतही माताएं हई अनंत ही पिता हुए अनंत ही मित्र बनाये, अनंत ही बहिनें हुई और अनंत ही कुटुंबी मिले। इसके सिवाय अनंतबार देवोंकी विभूति प्राप्त की, अनंत बार राज्य वा साम्राज्य प्राप्त किये, अनंतानंत विशाल भवन बनवाये, और अनंतानंतबार ही संसारके समस्त पदार्थ प्राप्त किये । अब तक इन समस्त बाह्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि करता रहा, और इन सबको अपना मानता रहा, और उनको देख-देख कर प्रसन्न होता रहा, लथा इसी प्रकार अनंतबारही इन सबका वियोग सहन किया, अनंतबार ही उनके लिए आंसू बहाये, और अनंतबार ही उनके लिये न जाने कैसे-कैसे दुःख महे । यदि इस अनंतानंत काल में एक बार भी अपने आत्माके निर्मल स्वभावको ग्रहण कर लेता, तो अवश्य ही इस संसारके विषम बंधनोंसे छूट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता, और सदाके लिये अनंत सुखी हो जाता। इससे सिद्ध होता है कि आत्म स्वभावका चितवन करना और उसको प्राप्त करना प्रत्येक भव्य जीवोंका कर्त्तव्य है। यही मोक्षका कारण है।
प्रश्न – स्वार्थी यथार्थो क्द कोस्ति लोके ?
अर्थ – हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में बास्तविक रीतिसे स्वार्थी कौन है ? उत्तर - स्वर्मोक्षमार्गादिविनाशकं हि
चित्ताक्षवेगं च कषायकाण्डम् । निरुध्य मायामलिनस्वभावं त्यक्त्वा ध्यादं च कुटुम्बमोहम् ॥ १६० ।। क्षमाकृपाशान्तिदयादिहेतोः स्थानन्दसाम्राज्यपदप्रसिद्ध । यः कोपि जीवो यतते सदैव स्वार्थी यथार्थोस्ति स एव लोके ॥ १६१ ॥
अर्थ - जो महापुरुष स्वर्ग और मोक्षके मार्गको नाश करनेवाले इंद्रिय और मनके वेगको रोक लेता है, समस्त कषायोंके सम्हको रोक लेता है, मायाचारीसे उत्पन्न होनेवाले मलिन स्वभावको रोक लेता है
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और महादुःख देनेवाले कुटुंबके मोहको सर्वथा छोड देता है । इन सबका त्यागकर जो महात्मा क्षमा, कृपा, शान्ति, दया आदि आत्माके गुणोंकी बुद्धि के लिए तथा शुद्ध आत्मासे उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख रूपी साम्राज्यपदको प्रगट करने के लिये.सदाकाल प्रयत्न करता है, वही महात्मा इस संसारमें यथार्थरूपमे स्वार्थी है ।
भावार्थ - अपने स्वार्थको सिद्ध करनेवाला पुरुष स्वार्थी कहलाता है । स्वार्थी पुरुष अपने काममं विघ्न करनेवालोंका त्याग कर देते हैं, और जिस प्रकार बनता है उसी प्रकार अपने कार्यकी सिद्धिमें लगे रहते हैं । यह स्वार्थ शब्द दो शब्दोंसे मिलकर बना है, स्व और अर्थ शब्द मिलकर स्वार्थ बनता है। स्व शब्दका अर्थ अपना है । अपना वा स्व शब्दसे यहापर आस्मा ग्रहण करना चाहिये और अर्थ शब्दका अर्थ, प्रयोजन है जिससे स्व अर्थात् आत्माका अर्थ अर्थात् प्रयोजन सिद्ध होता हो, उसको स्वार्थ कहते हैं । आत्माका प्रयोजन वा हित, मोक्ष प्राप्त करने में है, इसलिए मोक्ष प्राप्त कर लेना ही आत्माका यथार्थ स्वार्थ हैं, इस मोक्षकी प्राप्तिमें मन और इंद्रियोंके विषय विघ्न करनेवाले है, कषायोंका समूह विघ्न करनेवाला है, मायाचारीसे उत्पन्न होनेवाले मलिन परिणाम विघ्न करनेवाले हैं, और कुटुंबका मोह विघ्न करनेवाला हैं, इसलिए आत्माका हित करनेवाला यथार्थ स्वार्थी पुरुष सबसे पहले इंद्रिय और मनके विषयों का त्याग करता है, क्रोधादिक समस्त कषायोंका त्याग करता है, मायाचारीका त्याग कर, आत्माको निर्मल बनाता है, और कुटुंबके मोहका त्याग कर आत्माको अत्यंत शांत बना लेता है । इस प्रकार इन सबका त्याग कर देने से क्षमा कृपा शांति, दया, आदि आत्माके गण अपने-आप प्रगट हो जाते हैं। इन गुणोंके प्रगट होने से उसे आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है, अपने आत्माम रहनेवाले अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत मुख और अनंत वीर्यका ज्ञान हो जाता है, और फिर उस अनंत जान वा अनत मुखको प्राप्त करनेके लिए ध्यान वा तपश्चरण करने लगता है। धीरे-धीरे उस तपश्चरण और ध्यानसे समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, और मोक्षरूप अपने आत्माकी निधिको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अपनी निजकी निधिको प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़कर और
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( शान्तिसुधासिन्धु )
यथार्थ स्वार्थ है । संसारी जीव जो क्षणभरके स्वार्थके लिए महापापके उत्पन्न कर नरक-निगोदादिकके दुःस्न भोगते हैं, इसको स्वार्थ नहीं कहते हैं । बास्तविक स्वार्थ वही है, जिससे यह आत्मा सदाकालके लिए अनंत सुखी हो जाय । इसलिए भव्य जीवाको अपना ऐसा ही यथार्थ स्वार्थ सिद्ध कर लेना चाहिए । वा उसके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
प्रश्न- अखण्डं वस्तु खण्डं कि कृल्प्यते बद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें अखंड पदार्थों में भी खंडरूप कल्पना क्यों करते हैं ?
उत्तर - ज्ञानं व्याप्यमिति स्वात्मा व्यापकस्तत्त्ववेदिभिः
क्रियतेऽपि तयोभवोऽबोधानां बोधहेतवे ॥ १६२ ।। यथान्यष्णादिभेदोपि संज्ञासंख्याप्रयोजनात् ।। क्रियते न तयोः पश्चाच्छुद्धचिद्रूपवस्तुनः ॥ १६३ ।।
अर्थ- जिस प्रकार अग्नि और उष्णता दोनों ही अखंड पदार्थ हैं, तथापि अज्ञानी जीवोंको वा बालकोंको समझाने के लिये संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उस अग्नि और उष्णतामें अनेक भेद सिद्ध किये जाते हैं । इसी प्रकार यद्यपि ज्ञान और आत्मा दोनों एक हैं, अखंड पदार्थ हैं तथापि अज्ञानी वा वालकोंको समझानेके लिये व्याप्यध्यापकके भेदसे, बा गुण-गुणीके भेदसे उसके अनेक भेद सिद्ध किये जाते हैं । परंतु जब वह समझानेवाला आत्माका यथार्थ स्वरूप समझ लेता है, और उस आत्माको शुद्ध चैतन्यमय मान लेता है तब फिर वह उसमें भेद कल्पना नहीं करता।
भावार्थ- यद्यपि अग्नि और उष्णता दोनों एक ही अखंड पदार्थ हैं । न तो उष्णता अग्निसे कभी भिन्न हो सकती है, और न अग्नि ही उष्णतासे भिन्न हो सकती है, जहाँ अग्नि है, वहां उष्णता है, और जहां उष्णता है, वहां अग्नि है, तथापि समझानेक लिये उसमें भिन्न - भिन्न कल्पना करते है । अग्नि एक
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( शान्ति सुधासिन्धु )
पौद्गलिक पदार्थ है, और उष्णता उसका गुण है। दोनोंकी अलग-अलग संज्ञा बतलाकर समझाते हैं। अग्निकी संख्या भी भिन्न-भिन्न बतलाने हैं । यह बलके लकडीकी अग्नि है, यह आपके लकडीकी अग्नि है, यह कंडोंकी अग्नि है और यह फूंसकी अग्नि है । इस प्रकार अग्निमें भी अनेक भेदोंकी कल्पना करते हैं । यद्यपि सत्र अग्नि एक समान है, तथापि उनमें उष्णताकं मंदस, भद हो जाता है, बबुलकी लकड़ी में अग्निकी उष्णता ती होती है, आमकी लकडीमें अग्निको उष्णता उससे कम होती है. कंडेकी अग्नि उससे कम होती है और फूंकी अग्नि में उससे कम होती है। इस प्रकार संख्याके भेदसे, भेद सिद्ध होता है। इसी प्रकार कंडेकी अग्निसे जो काम होता है, वह फूसकी अग्नि नहीं हो सकता है, तथा बबूल वा आमकी लकडीसे भी नहीं हो सकता और जो काम बबुल वा आमकी लकड़ी से होता है वह कंडा वा फूंसकी अग्निमे नही हो सकता । इस प्रकार प्रयोजनके भेदमे भी इनमें भेद सिद्ध हो जाता है । जिस प्रकार यह संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि अग्निमें भेद सिद्ध होता है, उसी प्रकार आत्मामें भी संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे, भेद सिद्ध हो जाता है । यद्यपि ज्ञान और आत्मा दोनों अभिन्न हैं, तथापि आत्मा गुणी है । ज्ञान उसका गुण है । गुणी होने से आत्मा व्यापक है, और ज्ञान गुण होनेके कारण व्याप्य है । आत्मामें जिस प्रकार ज्ञग्न गुण है, उसी प्रकार दर्शन, वीर्य, सुख, आदि अनेक गुण आत्मामें रहते हैं । इसीलिए आत्मा व्यापक कहलाता है, तथा उसके गुण व्याप्य कहलाते हैं । इस प्रकार संज्ञाके भेदसे अखंड आत्मामें भी भेद सिद्ध किया जाता है । अथवा यद्यपि ज्ञान गुण एक ही अखंड गण है, तथापि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान केवलज्ञान आदिके भेदसे ज्ञानके भी बहुतसे भेद सिद्ध हो जाते हैं । यह भी संज्ञा द मंद सिद्ध हो जाता है । यद्यपि आत्मा एक अखंड है, तथापि कभी बालक होता है, कभी युवा होता है, कभी वृद्ध होता है, कभी मुनि अवस्था धारण करता है, कभी पशु होता है, कभी नरक में जाता है. कभी देव होता है, इस प्रकार अनेक प्रकारके शरीर धारण करता रहता है । उन शरीरोंके भेदसे उसके ज्ञानगुण में भी भेद सिद्ध होता है. tayar में अवधिज्ञान वा मिथ्याअवधिज्ञान अवश्य होता है. परंतु मनुष्य वा पशु शरीरमें यह अवधिज्ञान वा मिव्यवविज्ञान हो भो
ܢܘ
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( शान्तिसुधासिन्धु )
सकता है, और नहीं भी होता। इस प्रकार इस जीवके कभी दो ज्ञान होते हैं, और कभी तीन ज्ञान होते हैं । इस प्रकार संख्याके भेदसे उनमें भेद सिद्ध होता है । मोक्षकी प्राप्ति मनुष्य शरीरसे ही होती है । स्त्रीके शरीरसे न तो मोक्षकी प्राप्ति होती है और न सातवें नरककी प्राप्ति होती है। इस प्रकार इस जीवकी भिन्न भिन्न पर्यायोंसे भिन्नभिन्न अनेक प्रयोजन सिद्ध होते हैं । इस प्रकार प्रयोजनके भेदसे भी इनमें भेद सिद्ध होता है । इस प्रकार संज्ञा संख्या प्रयोजन आदिके भेदसे इस अखर आत्माम अनेक भेद सिद्ध होते है तथा ये सब भेद अज्ञानी वा बालकोंको समझाने के लिए कहे जाते हैं । यहांपर जो आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानता उसेही बालक वा अज्ञानी समझना चाहिए । जो पुरुष शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माके स्वरूपको समझ लेता है, फिर वह अखंडरूपसे ही उसको ग्रहण कर लेता है । उसके लिए फिर किसी भी भेदकी आवश्यकता नहीं होती।
प्रश्न- कस्तीवपापनिचयं भुवि संचिनोति ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें तीन पापोंका संचय कौन करता है ? उत्तर - यस्तीवकर्मवशगो नितरामभागी,
स्वर्मोक्षदं त्यजति धर्मविधि स एव । भ्रान्तिप्रदं नरकदं विषमं व्यथावं, पापं करोति सततं भुवि बोधशून्यः ॥ १६४ ॥
अर्थ- जो जीव आत्मज्ञानसे रहित होता है, तथा जो तीव्र कर्मोके वशीभूत होता है, और इसी लिए जो भाग्यहीन कहलाता है, ऐसा जो जीव स्वर्ग मोक्षके कारणभूत धार्मिक विधियोंका त्याग कर देता है, वही जीव भ्रांति उत्पन्न करनेवाले, नरकमें पहुंचानेवाले, अत्यंत विषम और महा दुःख देनेवाले पापोंको निरंतर उत्पन्न करता रहता है ।। ___भावार्थ-- जो जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझता है, अर्थात् जिसके सम्यग्दर्शन प्रगट हो गया है और इसीलिए जिसके तीव्र कर्मका उदय नहीं है, ऐसा जीव धार्मिक विधियोंको कभी नहीं छोड़ सकता ।
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{ शान्तियुधासिन्धु )
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वह समझता है, कि दान पूजा आदि धार्मिक कार्य पूण्य कोको बढानेवाले हैं, और पापकर्मोको नाश करनेवाले है । इस प्रकार विचार करनेवाला जीव धार्मिक क्रियाओंमें वृद्धि करता जाता है, और पाप कर्मों का नाश करता जाता है । इस प्रकार वह पाप कर्मोसे सदा बचता रहता है. परन्तु जो जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं समझता अर्थात जो सम्यदष्टी नहीं है, मिथ्यादृष्टी वा तीब्रमिथ्यादृष्टी है वह अपने तीव्र मिथ्यात्लके उदयसे सदा दीन, दरिद्री, दुःस्त्री और भाग्यहीन बना रहता है । तीन मिथ्यात्वके उदयसे वह पुरुष देव, शास्त्र गुरुको भक्ति कोई देता है, दान, जा जादि पुण्यक कायाँको छोड देता है, और व्रत उपवास आदि क्रियाओंका भी त्याग कर देता है। ऐसा पुरुष इन धार्मिक क्रियाओंका त्याग कर देनसे पुण्य कर्मोका बंध नहीं कर सकता किंतु मिथ्यात्व में लीन रहने के कारण सदाकाल तीव्र पार्पोका बंध करता रहता है । इस संसारमें यह निश्चित सिद्धांत है, कि सम्यग्दर्शनके समान अन्य कोई भी परिणाम पुण्यकर्मोका बंध करनेवाला नहीं है, और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई भी परिणाम पापोंका बंध करनेवाला नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मज्ञानसे रहित मिथ्यादृष्टि पुरुष ही सबसे अधिक पाप कर्मोका बंध करता रहता है।
प्रश्न- कृत्यं करोति शिवदं क्रमतः स कोस्ति?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेली कृपा कीजिये कि ऐसा कौन मनुष्य है जो अनुक्रमसे मोक्ष देनेवाले कार्यको सदाकाल करता रहता है ? उत्तर - यस्तीवकर्मरिपुणा ह्यशुमेन मुक्तः,
चित्ताक्षतृप्तिकरपुण्यशतेन युक्तः । भन्यात्मभावपरिपूरणदत्तचित्तः कृत्यं स च प्रतिभवं सुखदं करोति ॥ १६५ ॥
अर्थ- जो मनुष्य तीब्र अशुभ कर्मोसे रहित होता है, इंद्रिय और मनको तृप्त करनेवाले सैकडों पुण्यकर्मोंसे सुशोभित होता है और सदाकाल अपने मनको भव्य जीवोंके होनेवाले शुभ वा शुद्ध भावोंके
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( शान्तिसुत्रा सिन्धु )
पूर्ण करने में लगा रहता है, ऐसा मनुष्य प्रत्येक अव सुख देनेवाले पात्रदान, जिनपूजन, व्रत, उपवास आदि कार्य ही किया करता है । भावार्थ - इस संसारमें नीमको तीन ही पोधमार्ग में लगनेमें रोकता है। मोहनीय कर्म में ही सबसे तीव्र दर्शनमोहनीय कर्म है। दर्शन मोहनीय कर्म सम्यदर्शनको प्रगट नहीं होने देता । सम्यग्दर्शनके प्रगट न होने से इस जीवको स्वपरभेदविज्ञान नहीं होता, और स्वपरभेदविज्ञान न होनेसे यह जीव अपने आत्मा के स्वरूपको भूल जाता है, और रागद्वेषादिक बाह्य विभूति आदि परपदार्थोंको अपना मान लेता है । परपदार्थोंको अपना मान देना, तीव्र अपराध है, और इसी अपराधके कारण यह जीव तीव्र अशुभ कर्मोका बंध करता रहता है। ऐसा जीव मोक्ष मार्गमं कभी नहीं लग सकता । जो जीव इस संसारके कारणभूत मोहनीय कर्मको नष्ट कर, सम्यग्दर्शन कर लेता है, तथा उस सम्यग्दर्शनस, स्वपरभेदविज्ञान होनेसे आत्मा के यत्रार्थं स्वरूपको समझने लगता है, और इसीलिए जो परपदार्थों में मोहित नहीं होता, परपदार्थ के मोहका सर्वथा त्याग कर देता है, और उस सम्यग्दर्शनके प्रभाव अनंत पुण्य संपादन करता रहता है, तथा अपने आत्माकी निर्मलताको वा शुद्धताको प्राप्त करनेके लिए सदाकाल प्रयत्न करता रहता है। इसके लिए जो चारित्रको धारण करता है, ध्यान वा तपदचरण करता है, वा गुप्ति समितियों का पालन करता है, ऐसा जीव प्रत्येक भवमें मोक्ष के साधनभूत तथा आत्माको अनंतसुख प्राप्त करनेवाले कार्य करता रहता है, और इस प्रकार बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है । अतएव भव्य जीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेनेका प्रयत्न करना चाहिए जिससे कि शीघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ।
प्रश्न - स्वयमात्मा विकारी स्याद्वा कस्यापि निमित्ततः ?
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अर्थ - हे स्वामिन्! अब यह बतलाइए कि यह आत्मा स्वयं विकाको उत्पन्न करता रहता है, अथवा किसीके निमित्तसे विकारोंको उत्पन्न करता है ।
उत्तर - जीवप्रमोहजनननेस्ति निमित्तमात्रं, बंधुः प्रिया परिजनोऽखिल विश्ववर्गः ।
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( शान्तिसुधासिन्ध )
जीवः स्त्रयं भवति मोह कषायकोर्णः, स्यादर्पणोपि मणिसंगवशाद्विकारी ।। १६६ ॥ चक्राबिवण्डनिचयोस्ति निमित्तमात्रो मृद्वै स्वयं परिणता सुघटायारूपा। तन्तुः स्वयं पटमयो भवति स्वभावाद् जेयं तथैव भुवनेऽखिलवस्तुरूपम् ॥ १६७ ॥
अर्थ- जिस प्रकार लाल पीले आदि रंगके मणि लगानेसे दर्पणम विकार उत्पन्न हो जाता है, चक्र, दंड, आदिके निमित्तसे मिट्टी स्वय घटरूप वा अन्य बर्तनरूप परिणत हो जाती है, अथवा बनने के साधनोंके निमित्तसे तन्तु स्वयं पटरूप बन जाते हैं, उमी प्रकार इस जीवको मोह उत्पन्न करनेमे भाई, स्त्री, पुत्र, कुटुंबी लोग, तथा यह समस्त संसार निमित्तसे यह जीव स्वयं मोह और कयाय करने लगता है ।
भावार्थ - मिट्टीका घडा बनता है, परंतु उसमें चाक, दंड, कुम्हार, आदि परपदार्थ निमित्तकारण होते हैं । यद्यपि घडा बननेमें मिट्टी उपादानकदारण है, तथापि बिना निमित्तके वह मिट्टी घटरूप परिणत नहीं हो सकती । इसी प्रकार सूतके वस्त्र बनते हैं, परंतु उसमें भी वस्त्र बननेके साधन सब निमित्तकारण होते हैं । दर्पण अत्यंत निर्मल होता है, परंतु उसमें जिस रंगकी मणि लगा देते हैं उसी रंगका विकार उसमें हो जाता है । वह विकार यद्यपि दर्पणमें होता हैं तथापि बिना मणि आदि निमित्तकारणके वह विकार कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार इस जीवका यथार्थ स्वरूप यद्यपि अत्यंत शुद्ध और निर्मल है तथापि कर्मोके उदयसे अनादिकालसे ही विकार धारण कर रहा है । उन विकारोंके कारण यह स्त्री, पुत्र, आदि बुटम्बी छोगोंसे मोह करता है, धन-धान्यादिक पदार्थों को अपना मानता है, और उनकी रक्षा
आदिके लिए अनेक प्रकारके पाप कर्मोका बंध करता रहता है । यदि • यह जीव स्त्री-पुत्र आदि कुटुंबी लोगोंसे अथवा धन-धान्यादिक बाह्य पदार्थोंसे मोह न करे, तो फिर उस आत्मामें कर्मोका बंध नहीं हो सकता । परपदार्थोंसे मोह न करने के कारण यह जीव अपने आत्माके
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( शान्तिसुधासिन्धु )
म्वरूपमें अनुराग करने लगता है, और उस आत्माके यथार्थ शुद्ध स्वरूपको प्रगट करनेके लिए प्रयत्न करता है । जब यह जीव ध्यान वा तपश्चरणकेद्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, सब यह आत्मा अत्यंत निर्मल, निर्विकार और अत्यंत शुद्ध हो जाता हैं, इमीको मोक्षकी प्राप्ति कहते हैं इससे सिद्ध होता है कि रागद्वषादिक विकार तो आत्मामें होते है परंतु विकार होने में कुटुंबी लोग बा संसारके अन्य पदार्थ निमित्तकारण हैं। उन पदार्थोंके होनेसे ही यह जीव उनमें रागद्वेष करने लगता है। यदि पदार्थ न हों तो रागद्वेष भी उत्पन्न न हों । यदि कोई शत्रु सामने आ जाता है, हृदयमें द्वेष उत्पन्न होने लगता है, यदि शत्रु सामने न आवे तो वह द्वष उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार स्त्री-पूत्र आदिके मिलनेपर विशेष राग उत्पन्न होता है। इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। कि रागद्वेषादिक विकारोंके उत्पन्न होने में परपदार्थ ही निमित्तकारण है।
प्रश्न – त्यागोस्ति सुलभः कस्य दुर्लभो वद मेऽधना ?
अर्थ - हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइये कि किन किन पदार्थोका त्याग सरल रीतिसे हो जाता है और किन किनका त्याग अत्यन्त दुर्लभ होता है ? उत्तर – सुगन्धतैलेन विलेपनादेवस्त्राधलंकारविभूषणादेः ।
त्यागो धनादेर्वनितागृहादेरनौषधादेः सुलभोस्तिलोके न किन्तु मोहादिकषायवन्हेरीष्याभिमानस्य भवप्रवस्य । त्यागश्च साध्यः सुलभः कदापि
ज्ञात्वेति तत्त्यागविधिविधेयः ॥ १६९ ।।
अर्थ- इस संसारमें सुगन्धि तैल आदिके द्वारा होनेवाले विलेपन आदिका त्याग कर देना सरल है, वस्त्र आभूषण आदि अलंकारके साधनोंका त्याग कर देना सरल है, धनादिकका त्याग करना सरल है, स्त्रीका त्याग करना सरल है, घर-मकान आदिका त्याग करना सरल है, अन्न औषध आदिका त्याग करना सरल है, परन्तु जन्म-मरणरूप संसारको बढानेवाले मोह और कषायोंका त्याग करना कभी सरल नहीं
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
हो सकता और ईर्ष्या वा अभिमानका त्याग करना कभी सरल नहीं हो सकता । यही समझकर भन्यजीवोंको मोह, कषाय वा ईर्ष्या, अभिमान आदि आत्मा के विकारोंके त्याग करनेका प्रयत्न करना चाहिये । इन्हींका त्याग करना आत्माके हितका कारण है ।
भावार्थ- परिग्रह दो प्रकारके होते हैं, अंतरंग परिग्रह और बांधपरिग्रह | खेत, मकान, पशु, धान्य, धन, दासी, दास, आसन, शव्या, उत्त्र और वर्तन के संग काम नहि कहलाते हैं, तथा मिथ्यास्त्र, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति शोक, भय, जुगुप्या, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चौदह अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं । इनमें से बाह्य परिग्रहका त्याग करना तो सरल है, परंतु अंतरंग परिग्रहका त्याग करना अत्यंत कठिन है। इसका भी कारण है कि ये अंतरंग परिग्रह इस जीवके साथ अनादि कालसे लगे हुए हैं । बाह्य परिग्रह तो कभी होते हैं, और कभी नहीं होते, अथवा कभी अधिक होते है, और कभी बहुत कम होते हैं । परंतु अंतरंग परिग्रह आज तक कभी नहीं छूटे | यदि एक बार भी इन अंतरंग परिग्रहोंका त्याग हो जाता, तो इस जीवको अवश्य ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाती । इस मोक्षकी प्राप्ति में अंतरंग परिग्रहोंका त्याग होना ही मुख्य कारण है । अंतरंग परिग्रहोंका त्याग होनेसे आत्मा में निर्मलता प्राप्त होती है, तथा आत्मा में निर्मलता प्राप्त होनेसे रत्नत्रयादिक आत्माके गुण प्रगट होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार मोक्षकी प्राप्तिमें अंतरंग परिग्रहोंका त्याग ही मुख्य कारण है । इस लिए भव्य जीवोंको सबसे पहिले इन अंतरंग परिग्रहोंका त्याग करनेका ही प्रयत्न करना चाहिए । यही मनुष्य जन्म प्राप्त करनेका फल है ।
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प्रश्न- को सुखदः स्वधर्मो वा विधर्मोस्ति गुरो वद ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारम सुख देनेवाला स्वधर्म है या विधर्म है ?
उत्तर
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धर्मः स्वकीयः सुखदः प्रसिद्धः विधर्मएवाखिलदुःख दोस्ति । ज्ञात्वेत्यधर्मं प्रविहाय नियं ग्राह्यः स्वधर्मः सुखदः सदैव ॥ १७० ॥
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ - इस संसार में यह प्रसिद्ध है, कि स्वकीय धर्म ही सुख देनेवाला है, तथा स्वकीय धर्मके प्रतिकूल जो विधर्म है । वह समस्त दुःखों को देनेवाला है | यही समझकर इस निंदनीय धर्मका त्याग कर देना चाहिए, और सुख देनेवाले स्वधर्मको सदाकाला ग्रहण करते रहना चाहिए |
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भावार्थ- स्व शब्दका अर्थ आत्मा है, आत्माका जो निजस्वभाव है, वही स्वधर्म कहलाता है, तथा जो आत्माका विभावभाव है उसको विधर्म वा अधर्म कहते हैं. आत्माका स्वभात्र रत्नत्रय स्वरूप है, इसलिए रत्नत्रय हो स्वधर्म है, अथवा उत्तम क्षमादिक दशधर्म आत्माका स्वभाव है, इसलिए इस दशमको भी स्वधर्म कहते हैं । अथवा आत्माका जो अत्यंत शुद्ध स्वभाव है, वह स्वधर्म कहलाता है । यह सत्र स्वधर्म मोक्ष के कारण है आत्म-जन्य अनंत सुखको देनेवाला है, अपने आत्मामें स्थिर रहनेसे ही इस आत्माको निराकुलता और शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए, यह स्वधर्म सदाकाल सुख देनेवाला माना जाता है। इस स्वधर्मके विपरीत जो आत्माके विकार हैं, वे सब वि कहलाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि जितने आत्माके विकार हैं, वा जितने परिग्रह हैं, वे सब स्वधर्म से विपरीत है, कर्मोक उदयसे उत्पन्न होते हैं, और नरकादिकके कारण हैं । इसलिए वे सब अधर्म वा विधर्म कहलाते हैं, और नरकादिकके महा दुःख देनेवाले हैं । इसलिए भव्य जीवोंको इन अधर्मोका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए 1 और दोनों लोकों में सुख देनेवाले स्वधर्मको ग्रहण कर लेना चाहिए ।
प्रश्न- कोस्ति स्वधर्मो वद मे विधर्म: ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि स्वधर्म किसको कहते हैं, और विधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर - / यत्रास्ति मोहादिकषायकोशस्तत्रास्ति तुष्टो विषमो विधर्मः । न दृष्यते मोहकषायकोशस्तनास्ति चानन्दमयः स्वधर्मः ॥ १७१ ॥
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( शान्तिमधामिन्ध ।
अर्थ- जहांपर मोह वा क्रोधादिक कषायोंका समूह रहता है, वहाँपर दुष्ट और भयंकर विधर्म रहता है, तथा जहांपर मोह वा क्रोधादिक कमाय नहीं रहते, वहांपर चिदानन्द स्वरूप म्वधर्म विद्यमान रहता है।
भावार्थ- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पंवेद, नपुंसक वेद, यं सत्र आत्माके विकार कहलाते हैं । ये सब विकार रागादिविशिष्ट अशुद्ध आत्मामें कर्मोके उदयमे होते हैं । कर्मोंके उदयसे होनेके कारण ये सब विकार पर वा पौद्गलिक कहलाते हैं, तथा पोद्गलिक होनेके कारण ही विनम वा अधर्म कहलाते हैं। ये सब विकार अत्यन्त तीव्र, अशुद्ध काँका बंध करनेवाले हैं. और इसीलिये इस जीवको नरकादिकके घोर दुःख देनेवाले है । यही कारण है, कि ये विकार अधर्म वा विधर्म कहलाते हैं, और इन्हींको दुष्ट वा भयंकर कहते हैं। यं विकार ही आत्माको संसारसागरमें वोनेवाले हैं । और मोक्षसुखसे वंचित रखनेवाले हैं, इसलिए भव्य-जीवोंको सबसे पहले इनका त्याग करना चाहिये । इनका त्याग कर देनेसे ही आनन्दमय स्वधर्मकी प्राप्ति हो जाती है । इसका भी कारण यह है, कि जब यह आत्मा अपने विकारोंका सर्वथा त्याग कर देता है, तब यह आत्मा अत्यन्त निर्मल हो जाता है, तथा निर्मल हो जानेके कारण इसका निजस्वभाव प्रगट हो जाता है, और निजस्वभाव ही स्वधर्म कहलाता है। यह स्वधर्म वा आत्माकी निर्मलता मोक्षका कारण है, और आत्माके अनन्त सुखको प्रगट करनेवाला है । इसलिए भव्य-जीवोंको विकारोंका सर्वथा त्यागकर इस आत्माकी निर्मलता वा रत्नत्रयरूप स्वधर्मको ही ग्रहण करना चाहिए।
प्रश्न- पुनःपुनर्मया कि-कि लब्धं स्वामिन् नवा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए मैने बार-बार क्या क्या प्राप्त किया है. और क्या प्राप्त नहीं किया है ? उत्तर - पुनश्च लब्धं सुसखापि बंधुः,
पुत्रश्च पौत्रोपि पुनश्च लब्धः ।
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{ शान्तिसुधासिन्धु )
धनं च राज्यं सचिवाश्च सन्यः पुनश्च लब्धः सुपितापि माता ॥ १७२ ॥ पुनश्च लब्ध्वा भगिनी च भार्या पुनश्च देवादिचतुर्गतिः को। न किंतु लब्धं स्वपदं पवित्रं ततः प्रयत्नाद्धि तदेव लभ्यम् ॥ १७३ ॥
अर्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवने बार-बार मित्र प्राप्त किए, बार-बार पुत्र प्राप्त किए. बार-बार पौत्र प्राप्त किए, बार-बार धन प्राप्त किया, बार-बार राज्य प्राप्त किया. बार बार मंत्रीपद प्राप्त किए, बार-बार सेना प्राप्त की, बार-बार पिता प्राप्त किए, बार-बार माताएं प्राप्त की, बार-बार बहिनें प्राप्त की, बार-बार स्त्रियाएँ प्राप्त की, परंतु अत्यंत पवित्र ऐसा आत्माका शुद्धस्वरूप आज तक प्राप्त नहीं किया। इसलिए अब प्रयत्न कर, वहीं आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त कर लेना चाहिए ।। भावार्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवको अनंतकाल व्यतीत हो गया और इस अनंतकालमें संसारकी समस्त विभूति अन्तबार प्राप्त की । पुत्र, पौत्र, स्त्री, बहिन, भाई, माता, पिता, धन, राज्य, सेना मादि, कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अनंत बार प्राप्त न हुआ हो । यदि प्राप्त नहीं हुआ है । तो आत्माका शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है, इस जीवको इस संसारमें यदि कोई सुख देनेवाला है, तो आत्माका शुद्ध स्वरूप ही है । शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेनेसे ही आत्माको अनंत सुखकी प्राप्ति होती है। इसलिए भव्य' जीवोंको अब इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । पुत्र-पौत्रादिक जो अनंतबार प्राप्त हुए हैं, उनका त्याग कर देनेसे तथा अनादिकालसे आत्माके साथ लगे हुए क्रोधादिक कषायोंका त्याग कर देनेसे ही आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त होता है। इसलिए इन सब परिग्रहोंका त्याग कर, आत्माका शुद्धस्वरूप प्राप्त कर लेना प्रत्येक भव्य जीवका कर्तव्य है ।
प्रश्न- कृतः स्वात्महितो येन तेन परहितो न था ? अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि जो
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( गान्निगुधासिन्धु)
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जीव अपने आत्माका हित कर लेता है । वह अन्य जीवोंका हित कर सकता है, बा नहीं ? उत्तर - द्वषश्च रागः खलु येन दग्ध
स्तेन ध्रुवं स्वात्महितः कृतः को । उषद्यभावाच्च तथा परेषां हितः कृतः स्वात्मपदे ध्रुतास्ते ।। १७४ ॥ द्वेषश्च बुद्ध्वेति विहाय राग तथान्यचिन्तां कुटिलां प्रवृत्तिम् । कार्यस्त्वया स्वात्महितः प्रयत्नात् यती ध्रुवं स्यात्स्वपरात्मासिद्धिः ।। १७५ ।।
अर्थ- जो पुरुष अपने रागद्वेषको नष्ट कर देता है, वही पुरुष इस संसार में अपने आत्माका हित कर लेता है, तथा जो पुरुष इस प्रकार अपने आत्माका हित कर लेता है, उसके द्वेषका सर्वथा अभाव होनेसे वह दूसरोंका अहित कभी नहीं कर सकता, किंतु दूसरोंका हित ही करता है, और उनको अपने आत्माके यथार्थ स्वरूप में धारण करनेका प्रयल करता है । यही समझकर, हे वत्स ! तुझे भी रागढषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, अपनी कुटिल प्रवृत्तियोंका त्याग कर देना चाहिए, और अन्य सब प्रकारकी चिन्ताओंका त्याग कर देना चाहिए । इन सबका त्याग कर तुझे प्रयत्नपूर्वक अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए, जीससे कि अपने आत्माकी भी सिद्धि हो जाय और अन्य जीवोंको भी अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो जाय ।
भावार्थ- जैन--सिद्धांतका यह आदेश है, कि " आदहिदं कादब्वं जं सक्कइ तं परहिदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुटुं कादब्वं ।। " अर्थात्-सबसे पहले अपने आत्माका हित करना चाहिए । यदि आत्माका हित करते हुए पर आत्माका हित कर सकता हो तो अवश्य करना चाहिए । परंतु जहांपर आत्माका हित और परआत्माका हित दोनों एक साथ आ पडें तो सबसे पहले आत्माका हित कर लेना चाहिए । इसका अभिप्राय यह है, कि-यहांपर आत्महितका अर्थ राग द्वेषका त्याग करना है । जो पुरुष राग द्वेषका त्याग कर देता है,
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
वही पुरुष अपने आत्माका हित करनेवाला गिना जाता है। जो पुरुष स्वयं राग-द्वेषका त्याग कर देता है, वही पुरुष दूसरोंको राग-द्वेष के त्याग करनेका उपदेश दे सकता है, और अन्य जीवोंपर उसके उपदेशका प्रभाव पड सकता है। जिसने स्वयं राग-द्वेषका त्याग नहीं किया है, वह दूसरोंसे राग-द्वेषका त्याग कभी नहीं करा सकता । यही कारण कि तीर्थंकर परभदेव दीक्षा लेकर भी, जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक उपदेश नहीं देते हैं. केवलज्ञान प्राप्त होनेपर जब उनका आत्मा परम शुद्ध हो जाता है, और वे आदर्श देव बन जाते हैं, तब वे दूसरोंको उपदेश देते हैं । इससे सिद्ध होता है, कि जो जीव अपने आत्माका हित कर लेता है, वही जीव दूसरोंका हित कर सकता है । इसलिए भव्य जीवोंको सबसे पहले राग-द्वेषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, अपनी कुटिल प्रवृत्तियोका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और अन्य समस्त चिताओंका वा विकारोंका त्यागकर, आत्माको अत्यंत शुद्ध बना लेना चाहिये | आत्माको अत्यंत शुद्ध बना लेनेसे ही अनंत सुखकी प्राप्ति होती है, तथा यही आत्माका हित है ।
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प्रश्न- मोक्षोपायो गुरो कोस्ति दयाब्धे वद मेऽधुना ?
अर्थ - हे दयासागर गुरो ! अब कृपाकर मुझे यह बतलाइए कि मोक्षका उपाय क्या है ?
उत्तर
—
तपोजपक्रियायोगात्केवलं वेषमात्रतः
व्रतोपवासमात्राद्धि मोक्षो न निकटायते ॥ १७६ ॥ स्वपरबोधतो मोक्षोऽन्यवस्तुत्यागतस्ततः । दासीवात्मानुभूतिश्च मोक्षोपि निकटायते ॥ १७७ ॥
अअ - केवल तप करनेसे, वा केवल जप करनेसे, अथवा ऐसी ही और क्रियाएं करनेसे, वा केवल वेष धारण कर लेनेसे, अथवा केवल व्रत, उपवास कर लेने मात्रसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, किंतु मोक्ष की प्राप्ति स्वपरभेद - विज्ञानसे होती है, तथा राग-द्वेषादिक अन्य पदार्थोके त्याग कर देनेंसे होती है । स्वपर भेदविज्ञान से और रागद्वेषादिकका
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{ शान्तिसुधासिन्च)
स्यार कर देनेसे स्वात्मानुभूति दासीके समान अपने निकट आ जाती है, और अनुक्रमसे मोक्ष भी अत्यंत समीप आता है।
__ भावार्थ-- यहांपर मोक्षकी प्राप्ति स्वपरभेदविज्ञानसे बतलाई है, तथा स्वपरभेदविज्ञानका होना सम्यग्दर्शनका कार्य है. जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक स्वपरभेदविज्ञान कभी नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शनके होनेपर ही स्वपरभेदविज्ञान होता है। इसलिए बिना सम्यग्दर्शन के चाहे जितना तपश्चरण किया जाय, चाहे जितना जप किया जाय, चाहे जितना साधुका वेष धारण किया जाय, और चाहे जितना व्रतउपवास किया जाय, परंतु बिना सम्यग्दर्शनके उस, जप, तप वा व्रत, उपवाससे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । इसका भी कारण यह है, कि आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान समग्दर्शनके प्रगट होनेपर ही होता है । आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेसे यह आत्माके स्वरूपको ग्रहण करने लगता है और आत्मामें रहनेवाले राग-द्वेषादिक कषायोंको
गलिक रमसा मामका त्याग कसा प्रयत्न करता है। इस प्रकार राग-द्वेषका त्याग कर, अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है, और अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है, परन्तु जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक आत्मज्ञान वा स्वपरभदविज्ञान प्रगट नहीं होता, तथा दिना स्वपरभेदविज्ञानके वह परपदार्थोका वा राग-द्वेषादिकका त्याग किए बिना, जप, तप सब निरर्थक हो जाता है, इसलिए विना सम्यग्दर्शनके जो तप, जप, वा प्रत-उपवास किया जाता है, वह सब मिथ्या कहलाता है । उस मिथ्या जप-तपमें वा ब्रत-उपवासमें अन्तरंग कषायें अवश्य विद्यमान रहती है, इसलिए उस मिथ्या जप-तपमे, मिथ्या व्रत, उपवाससे मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती। अतएव मोक्ष प्राप्त करनेके लिए भव्य जीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए, तदनंतर राग-द्वेषादिकका त्यागकर अपने आत्माको शुद्ध कर लेना चाहिए । यही मोक्ष प्राप्त करनेका सरल उपाय है।
प्रश्न- यत्नः कृतश्चित्तनिरोधनार्थ, तथापि चित्तं न निरुध्यते किम् ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कुपाकर यह बतलाइये कि हम लोग इस मनको रोकने का प्रयत्न करते हैं, तथापि यह मन रुकता क्यों नहीं है।
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( मान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर - यैर्यनतश्चित्तनिरोधितश्च
त्यक्तास्तथा स्त्रीधनपुत्रसंगः । अनात्मविद्या भवदा प्रमुत्का दुःखपदः क्रोधरिपुश्च त्यक्तः ॥ १७८ ॥ स्थानन्दभाजां सहवाससेवा कृता न तेषां विनयोपचारः । वा तर्न सार्द्ध निजत्वचर्चा कथं वेच्चित्तनिरोधनं वा ॥ १७९ ॥ सिद्धो यथा वातहतप्रदीपः प्रकम्पते वृक्षततिः किलारिधः संसर्गतः स्युर्मुनयोपि भ्रष्टाः
गुरुप्रसादाच्च निजात्मनिष्ठाः ।। १८० ॥
अर्थ- जो लोग बड़े प्रयत्नके साथ अपने चित्तको निरोध करनेका प्रयत्न करते हैं, जो स्त्री, पुत्र, धन आदि परिग्रहका भी त्याग कर देते हैं, जन्म-मरणरूप संसारको बढ़ानेवाली लौकिक विद्याओंका भी त्याग कर देते हैं, और महा दुःख देनेवाल मोधरूप शत्रुका भी त्याग कर देते हैं, परंतु जो लोग अपने आत्मजन्य आनंदम मग्न रहनेवाले गुरुओंकी मंगति नहीं करते, उनकी सेवा नहीं करते, उनकी विनय नहीं करते, उनकी वैयावृत्त्य नहीं करते, और उनके साथ आत्म-तत्त्वकी चर्चा भी नहीं करते । ऐसे लोगोंके चित्तका निरोध कैसे हो सकता है ? संसारमें यह बात प्रसिद्ध है, कि बायकी संगतिमे दीपक हिलने लगता है । वायुको संगतिसे वृक्ष भी हिलने लगते हैं, और समुद्र भी क्षुब्ध हो जाता है। इसी प्रकार नीच लोगोंकी संगतिसे मुनि लोग भी भ्रष्ट हो जाते हैं, और गरुको कृपासे वे ही मनि अपने आत्मामें लीन ही जाते हैं।
भावार्थ- ' संदिग्धं हि परिज्ञानं गुरुप्रत्यय विवजितम् ' अर्थात् किसी मनुष्यको चाहे जितना ज्ञान हो जाय, और वह ज्ञान यथार्थ भी हो, तथापि जो ज्ञान गुरु मुखसे प्राप्त नहीं किया जाता, उस ज्ञानमें
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(शान्ति सुधासिन्धु )
सदाकाल संदेह बना रहता है । यही कारण है, कि चित्तको निरोध करनेका चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, उसके लिए समस्त परिग्रहों का त्याग किया जाय, काय कि जानका विद्याओंको छोडकर अध्यात्म विद्याका अध्ययन किया जाय, तथापि विना गुरुकी सेवा किये बिना गुरुवासमें रहे, वित्तका विरोध नहीं हो सकता | चित्तका निरोध करना अभ्यास से साध्य है, और वह मुनि आवास में ही रह कर हो सकता है। इस संसार में जैमी मंगति मिलती है, वैसा ही प्रभाव पडता है । यह मनुष्य अच्छी संगतिसे अच्छे मार्गपर चल सकता है, और बुरी संगति से बुरे मार्गपर चल सकता है । यहां तक कि. बुरी संगति मुनि भी अपने मोक्षमार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं, और वही मुनि अपने आचार्य वा गुरुकी संगति से फिर मोक्षमार्ग में स्थित हो जाते हैं । अतएव चित्तका निरोध करनेके लिए गुरुकी चरण में ही रहना चाहिए, उन्हीं को सेवा करनी चाहिए, उन्हींका विनय करना चाहिए. और उन्हीं से अभ्यास करना चाहिए। यह मनुष्य यदि संसारसे पार हो सकता है, वा मोक्ष मार्ग में स्थित हो सकता है, तो निग्रंथ वीतराग गुरुकी कृपासे ही संसारसे पार हो सकता है, और उन्होंकी कृपासे मोक्षमार्गम स्थित हो सकता है। इसलिए भव्य जीवों को अपने चित्तका निरोध करने के लिए और इन्द्रियोंका निग्रह करनेके लिए वीतराग निद्र्य गुरुके समीप ही रहना चाहिए । चित्तका निरोध करनेके लिए इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है ।
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प्रश्न- बिना सर्वविश्वोपि शून्यस्ते प्रतिभाति के ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जिनके बिना यह समस्त संसार शून्य दिखाई पड़ता है, ऐसे वे कौन हैं ?
उत्तर - यथार्थतत्त्वप्रविवशंकेन,
स्वानन्यमूर्त्या गुरुणा विना हि । प्रम्पूर्णविश्वं प्रतिभाति शून्यं, सूर्येण होर्न च दिनं यथा कौ ॥ १८१ ॥ निःस्वार्थ बुद्धधा गुरुरेव धीरो, बोधामृतं मिष्टतरं पवित्रम् ।
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ܘܐܐ
( शान्तिमुधासिन्धु )
मोक्षप्रदं पाययितुं सुभव्यान्, मेघो यथा वै यतते यथेष्टम् ॥ १८२ ॥
अर्थ- इस संसार में जिस प्रकार सूर्यके बिना दिन सुना सा दिखाई पडता है, उसी प्रकार तत्वोंके स्वरूपको दिखलानेवाले, और आत्मजन्य आनन्दकी मूर्ति ऐसे वीतराग निग्रंथ गुरुके बिना यह समस्त संसार सूनासा दिखलाई पडता है। जिस प्रकार मेघ समस्त संसारी जीवोंको पानी पिलानेका यथेष्ट प्रयत्न किया करते हैं । उसी प्रकार धीरवीर वीतराग निग्रंथ गुरु भी बिना अपने किसी स्वार्थक भव्य जीवोंको अत्यंत पवित्र अत्यंत मिष्ट ऐसे मोक्ष सुखको देनेवाले ज्ञानामृतका यथेष्ट पान करानेका प्रयत्न किया करते हैं ।
भावार्थ - इस संसार में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहलाते हैं । इनमेंसे श्रावकों के लिए धर्म, अर्थ और काम में तीन पुरुषार्थ अनुक्रमसे सेवन करने योग्य हैं, तथा मोक्षपुरुषार्थ परम्परासे सेवन करने योग्य हैं । इन चारों पुरुषार्थो मेंसे मोक्षपुरुषार्थं तो सर्वथा निर्बंध वीतराग गुरुके ही अधीन है, तथा धर्मपुरुषार्थ भी उन्हीं गुरुको आधीन है। यदि वीतराग गुरुकी यथार्थं सेवा न की जाय तो किसी भी गृहस्थको धर्मपुरुषार्थकी सिद्धि नहीं हो सकती । धर्मकी प्राप्ति गुरुसे ही होती है, तथा विना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ और कामपुरुषार्थं हो ही नहीं सकते, क्योंकि कामपुरुषार्थ की सिद्धि अर्थपुरुषार्थ से होती है, और अर्थं पुरुषार्थकी सिद्धि धर्मपुरुषार्थ से होतो है, इसीलिए इन तीनों पुरुषार्थी में धर्मपुरुषार्थ ही मुख्य माना जाता है। विना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ, कामपुरषार्थ की सिद्धि हो नहीं सकती तथा धर्मपुरुषार्थ वीतराग निग्रंथ गुरुकी सेवा सुश्रूषा करनेसे ही प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थ से सुशोभित रहनेवाला गृहस्थजीवन वा श्रावकजीवन सब वीतराग निर्बंध गुरुओंके आधीन हो जाता है। यदि वीतराग निग्रंथ गुरुकी प्राप्ति न हो, वा उनकी सेवासुश्रूषा न की जाय, तो धर्मपुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती, तथा बिना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ और कामपुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार बिना निग्रंथ गुरुके गृहस्थजीवन ही शून्य हो जाता है, और गृहस्थजीवन के शून्य होनेसे यह समस्त संसार शून्य ही दिखाई पड़ता है । जिस प्रकार
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(बादामा
सूर्यके बिना दिन में ही अंधेरा रहता है, उसी प्रकार बिना निग्रंथ गुरुके यह मनुष्यजीवनभी अंध:कारमय हो जाता है । वे वीन गग निग्रंथगरु इस संसार में अपना कोई स्वार्थ नहीं रखते, उनका तो समस्त जीवन अपने आत्माका कल्याण करने में तथा अन्य जीवोंके कल्याण करने में ही व्यतीत होता है। ऐसे परम गुरुओंका दर्शन भी बडे पुण्योदयसे होता है, और आत्माका कल्याण करनेवाला होता है। इसलिए प्रत्येक भव्य-जीवको इन वीतराग गुरुओंकी भक्ति करना चाहिए, और उनकी सेवा-सुश्रूषा करनी चाहिए । यही मनुष्य जीवनका कर्तव्य है ।
प्रश्न- स्वात्मैवात्मगुरुः प्रोक्तः कथं संबद मे प्रभो ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि आचार्योंने जो अपने आत्माको ही, अपने आत्माका गुरु बतलाया है, मो कैसे बतलाया है ? उत्तर - श्रेणिप्ररूढश्च यतिनं यावत्
स्यादेव तावद् गुरुशिष्यभेदः । पश्चान्न चोक्तः परमार्थदृष्टया, स्वात्मस्थितित्वात् स्वसुखाश्रितत्वात् ॥ १८३॥ कुकर्ममग्नोपि सदास्मि शुद्धो मूर्योपि बुद्धोस्मि सदेति मत्वा । न मन्यतेहंदगुरुशिष्यभेदं स रंध्रगामी निजधर्मलोपी ।। १८४ ॥
अर्थ- ये निग्रंथ वीतराग मुनि जबत्तक श्रेणी आरोहण नहीं होते अर्थात् आठवें गुणस्थानमें नहीं पहुंचते, तबतक उनमें गुरु और शिष्यका भेद बना रहता है। परंतु जब वे मुनि आठवें गुणस्थानमें पहुंच जाते हैं, तब यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो उनमें फिर कोई किसी प्रकारका भेद नहीं रहता, क्योंकि आठवें गुणस्थानमें वा ऊपरके गुणस्थानोंमें रहनेवाले मुनि अपने आत्मामें लीन रहते हैं । और आत्मजन्य सुखमें लीन रहते हैं । जो पुरुष सदाकाल कुकर्म करने में लगा रहता है, फिर भी अपने आत्माको शुद्ध बतलाता है, और जो मूर्ख
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(शान्तिसुधसिन्धु )
होकर भी अपनेको ज्ञानी मानता है, और जो भगवान अरहंत देवमें और गुरु-शिष्यों में कोई भेद नहीं मानता, वह पुरुष अपने आत्मा धर्मका लोप करनेवाला माना जाता है, और नरकगामी होता है ।
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भावार्थ- आचार्योंने आत्माका गुरु आत्माको ही बतलाया है, वह आठवें गुणस्थान में वा उससे ऊपर बतलाया है। आठवें गुणस्थान में पहुंचने पर यह आत्मामें स्थिर हो जाता है, और आत्मसुखमें लीन हो जाता है । उस समय यह आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें लीन होकर कर्मो को नष्ट करता जाता है। और अपने आत्माको शुद्ध करता जाता है । ज्यों-ज्यों आत्मा शुद्ध होता जाता है । त्यों-त्यों यह आत्मा ऊपरके गुणस्थानों में चढता जाता है, यहां तक कि बारहवें गुणस्थानके अंत में घातिया कर्मोंको नाश कर, तथा केवलज्ञान प्राप्त कर जगत्गुरु अरहंतदेव बन जाता है । यह सर्वोत्तम अवस्था अपनेही आत्माकेद्वारा प्राप्त होती है । इस लिए आठवें गुणस्थानके ऊपर यह आत्मा अपने आत्माको शुद्ध करने के लिए स्वयं ही अपना गुरु होता है. इसलिए यात्राने आत्माकोही आत्माका गुरु बतलाया है, परंतु आठवें गुणस्थानसे नीचे गुरु-शिष्य भाव अवश्य मानना पडता | क्योंकि आठवे गुणस्थानसे नीचे बिनागुरुकी कृपाके यह शिष्य अपने आत्माका कल्याण नहीं कर सकता। इसलिए जो मूर्ख अपने आत्माको ही शुद्ध मानता हुआ, अपने गुरुको नहीं मानता, अथवा अपने आत्माको महाज्ञानी मानकर गुरुको नहीं मानता, उसको धर्महीन समझना चाहिये । ऐसा पुरुष अवश्य ही नरकमाभी होता है ।
प्रश्न
विनयादिगुणः क्वास्ति नास्ति क्व मे गुरो वद ?
अर्थ- हे गुरु | अब कृपाकर यह बतलाइये कि विनयादिक कहां कहां रहते हैं, और कहां-कहां नहीं रहते ?
उत्तर - विद्याविनीतश्च वसेच्च चित्ते सम्यक् प्रवृत्तिविनयोपचारः दयार्द्रभावः सद्सद्विचारो
निरन्तरं वांच्छितदः स्वधर्मः ॥ १८५ ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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विद्याप्रमत्तस्य वसद्धि चित्ते पूर्वोक्तधर्मेण विरुद्ध वेषः । विरवृतिश्च विरुद्ध भावः
ततः सुबुद्धि जिन देहि तस्मै ॥ १८६ ।।
अर्थ- जो पुरुष विद्या अध्ययन करनेके कारण विनीत हो रहे हैं, ऐसे पुरुषों के हृदय में अच्छी प्रवृत्तियां बनी रहती हैं, विनय बनी रहती है, उनके परिणाम दयासे भीगे रहते हैं, उनके हृदयमें भले-बुरेका विचार रहता है, और समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला आत्माका स्वभावरूपधर्म उनके हृदयमें ऊपर कहीं हुई भावनाएं रहती हैं, जो अविनयी है उनके भाव विरुद्ध रहते है, और उनकी प्रवत्ति भी विरुद्ध रहती हैं । इसलिये हे भगवन् ! ऐसे लोगोंके लिए आप श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करें।
भावार्थ- विनय करना, अच्छी प्रवृत्ति रखना, दया धारण करना, भले-बरे कामका विचार करना और अपने धर्मका पालन करना आदि मनष्यके धर्म कहलाते हैं। इन्हींको गुण कहते है । ये गुण प्रायः विद्याध्ययन करने से आते हैं । विद्याध्ययन करनेसे आत्मविद्याका अध्ययन ग्रहण करना चाहिए । क्योंकि विनय, शुभ प्रवृत्ति, सत्-असत्का विचार आदि आत्माके गुण है । वे आत्माके गुण आत्मतत्त्वका अध्ययन करनेसे ही प्राप्त हो सकते हैं। वर्तमान में कुछ ऐसी विद्याओंका प्रचार हो रहा है, जिनके अध्ययन करनेसे मायाचारी बढती है, बिनयगुण सर्वथा नष्ट हो जाता है, और सत-असतका विचार सर्वथा नष्ट हो जाता है । ऐसी विद्याओंके अध्ययन करनेसे आत्माके गुण कभी प्रगट नहीं हो सकते, किंतु नष्ट हो जाते हैं। इसलिए आत्माके गुण प्रगट करनेके लिए आत्मविद्याका ही अध्ययन करना चाहिए, अन्य विद्याओंका अध्ययन यदि करना हो तो, पहले आत्मविद्याका अध्ययन कर लेना चाहिए, फिर अन्य विद्याओंका अध्ययन करना चाहिए।
प्रश्न- कश्चलति स्वधर्माद् भो वद मे शर्मद प्रभो !
अर्थ- हे कल्याण करनेवाले प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौन पुरुष अपने धर्मसे चलायमान हो जाता है ?
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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर - यस्तत्त्ववेदी व्यवहारमार्गाद्
मोक्षप्रदानिश्चयमार्गतश्च। स्वानन्दवेशान चलेकदापि दृग्बोधचारित्रमयात्स्वभावात ॥ १८७ ।। यस्तत्त्ववेदीव विभाति किन्तु तत्त्वात्प्रमूढो न च तत्त्ववेदी । ततश्चलेत्स व्यवहारमार्गात् मोक्षप्रदानिश्चयमार्गतोपि ॥ १८८ ॥
अर्थ- जो पुरुष आत्मतत्त्व के स्वरूपको जानता है, वह पुरुष न तो व्यवहार मार्गसे चलायमान होता है, न मोक्ष देनेवाले निश्चयमार्गसे चलायमान होता है, न अपने आत्मजन्य चिदानंद प्रदेशसे चलायमान होता है, और न मम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमय अपने आत्माके स्वभावसे चलायमान होता है। परंतु जो पुरुष यथार्थमें आत्मतत्त्वका जानकार नहीं है, परंतु ऊपरसे आत्मतत्त्वकी जानकारी दिखलाता है। जो वास्तवमें अज्ञानी है, और आत्मतत्त्वका जानकार नहीं है, वह पुरुष व्यबहार मार्गसे भी चलायमान हो जाता है, और मोक्ष प्रदान करनेवाले निश्चयमार्गस भी चलायमान हो जाता है।
भावार्थ- मिथ्यात्वकर्मका उदयही आत्माको अपने स्वभावसे चलायमान करता है। मिथ्यात्वकर्मके उदयसेही इस जीवका बहुत बड़ा हुआ ज्ञानभी मिथ्याज्ञान कहलाता है, कितने ही मुनि ग्यारहअंगोतकका अध्ययन कर लेते हैं, परंतु मिथ्यात्वकर्मका उदय उनके इतने बड़े ज्ञानको भी विपरीतरूप परिणत कर देता है, और उनके ज्ञानको मिथ्या बना देता है । वह मिथ्याज्ञान मोक्षमार्गमें नहीं लग सकता किंतु उससे विपरीत संसारको बढानेवाले कार्यों में ही लगता है। ऐसा पुरुष निश्चयमोक्षमार्गसे चलायमान होता है, अपने चिदानन्द प्रदेशोंसे चलायमान होता है, और रत्नत्रयरूप धर्मसे भी चलायमान होता है । इसके सिवाय वह व्यवहारमार्गसे भी चलायमान हो जाता हे । यही कारण है, कि भव्यसेनमुनि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे
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हरीवास के ऊपर से भी चलने लगे और अप्रासुक जलको भी काममें लाने लगे । मुनि होकर भी व्यवहारमार्गको इस प्रकार छोड देना मिथ्यात्वकर्मके ही तीव्र उदयसे हो सकता है। जिस जीवके मिथ्यात्व कर्मका अत्यंत मंद उदय होता है, वह पुरुष भी इस प्रकार व्यवहारमार्गको नहीं छोड़ सकता । अंतएव प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माको अपने आत्मामें स्थिर रखने के लिए सबसे पहले मिथ्यात्वको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए। मिथ्यात्वकर्मको नष्ट कर लेनेसे इस आत्माका सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होनेसे आत्मज्ञान प्रगट होता है, और आत्मजान प्रगट होनेमे फिर यह आत्मा मोक्षमार्गमे कभी चलायमान नहीं हो सकता, जो पुरुष मोक्षमार्ग से चलायमान नहीं होता, वह न तो व्यवहारमार्गसे चलायमान होता है, न निरन्त्रयधमंसे चलायमान होता है, ओर न रत्नजयसे चलायमान होता है ।
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प्रश्न - जनसंघः प्रभो कस्मै रोचते मधुना वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि लोगोंका समुदाय किसको अच्छा लगता है, और किसको अच्छा नहीं लगता ? उत्तर - चित्तेप्यहंकाररिपुश्च येषां
दुःखप्रदः स्यात्ममकार एव । तेभ्यो नृसंगः सजनः प्रदेश: सुरोचते विश्वविचित्रवार्ता ॥ १८९ ॥ येषामहंकाररिपुर्न चित्ते
भवप्रदं वा ममकारजालम् । तेभ्योऽसुसंगः सजन प्रदेशो
न रोचते स्वात्मपदं विना कौ ॥ १९० ॥
अर्थ - जिनके हृदयमें अहंकाररूपी शत्रु विद्यमान है और जिनके हृदयमें दुःख देनेवाला ममकार वा मोह विद्यमान है, उन्हीं लोगोंको मनुष्यों का समुदाय और मनुष्योंके रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं, ग्रह भी एक संसारमें विचित्र बात है । परंतु जिनके हृदयमें न तो अहंकार है, और न संसारको बढानेवाला ममकार वा मोह है, ऐसे पुरुषोंको न तो
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जीवोंका समुदाय अच्छा लगता है, और न जीवोंके रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं । उनको तो केवल अपना आत्मा और अपने आत्मा के प्रदेश वा आत्माके गुण ही अच्छे लगते हैं आत्मा के सिवाय उन्हें और कुछ अच्छा नहीं लगता ।
१२६
भावार्थ- परपदार्थोंसे मोह करना अहंकार वा ममकारका कार्य है जिन लोगों के मन में अहंकार और ममकार है, वे ही पुरुष परपदार्थों से मोह करते हैं । ऐसे लोगोंको पुत्र, मित्र, स्त्री, माता, पिता आदि कुटुंबी लोग अच्छे लगते हैं, धन धान्य आदि बाह्य विभूति अच्छी लगती है, और अपने तथा कुटुंबी लोगों के रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं, अहंकार और ममकार होनेके कारण वे पुरुष अपने आत्माक
को भूल जाते हैं, इसलिए वे अपने मनको आत्माके स्वरूपमें नहीं लगा सकते | मोहनीय कर्मका उदय उनके मनको आत्माके स्वरूपमें नहीं लगने देता । परंतु जो पुरुष उस मोहनीय कर्मको नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करलेते हैं, वे उस सम्यग्दर्शनरूप अमूर्त प्रकाशके कारण अपने आत्मा के स्वरूपको पहिचानने लगते हैं, और फिर उसीको अपना निधि मानकर उसकी रक्षा करनेमें तत्पर हो जाते । फिर उस निधि के सामने उन्हें बाह्य समस्त विभूति तुच्छ और दुःख देनेवाली जान पडती है। इसलिए वे का भी त्याग कर देते हैं, और अपने आत्मामें लीन होकर अपने आत्माका कल्याण कर लेते हैं । अतएव भव्यजीवको अहंकार और ममकारका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । तथा आत्मा के स्वरूपको समझकर कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न -- कस्य बाह्यरसे प्रीतिर्मोहमायापरे बद ?
अर्थ- हे स्वामिन ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि कौन पुरुष बाह्यरसमें प्रेम करता है, कौन पुरुष परपदार्थों में मोह वा माया करता है । उत्तर - यावन्निजानन्दरसोतिमिष्टो
न पीयते जन्मजराहरश्च । न त्यज्यते बाह्यरसाभिलाषा समस्तसंतापविकारवात्री ॥। १९१ ॥
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न ज्ञायते स्वात्मनिवासभूमि रन्विष्यते बाह्यमहीति तावत् । निजान्यभेदः क्रियते न यावत् तावत्परे स्यात् खलु मोहमाया ॥ १९२॥
ज्ञात्वेति तत्त्यागविधेविधानं
काय यतः स्यात्स्वपदे निवासः । प्रीतिः सदा स्यात्स्वरसे सुमिष्टे दुःखप्रदे स्थान परे प्रमोहः ।। १९३ ।।
१२.७
अर्थ - यह मनुष्य जबतक जन्म और बुढापेको दूर करनेवाला तथा अत्यन्त मिष्ट ऐसे आत्मजन्य आनंदरसका पान नहीं करता है, जबतक समस्त संताप और विकारोंको उत्पन्न करनेवाली इंद्रियजन्य बाह्यरसकी अभिलाषाका त्याग नहीं करता है, और जबतक अपने आत्माके निवासस्थान मोक्षको नहीं पहचानता है, सत्रतकही यह जीव बाह्य भुमिकी तलाश करता रहता है। इसी प्रकार जबतक यह मनुष्य स्वपरभेदविज्ञान प्रगट नहीं कर लेता, अर्थात् आत्मा और परपदार्थोंके यथार्थ स्वरूप को नहीं जान लेता, तबतक ही यह जी परपदार्थों में मोह और माया वा ममकार करता रहता है। यही समझकर बाह्यसकी अभिलाषाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, जिससे कि यह जीव अपने आत्मपदमें निवास करने लग जाय, अत्यन्त सुमधूर ऐसे आत्मरसमें प्रेम उत्पन्न हो जाय, और महादुःख देनेवाले परपदार्थों में कभी मोह उत्पन्न न हो ।
भावार्थ - इंद्रियजन्य विषयोंकी अभिलाषाको बाह्यरसकी अभिलाषा कहते हैं । यह विषयोंकी अभिलाषा मोहनीयकर्मके उदयसे होती है । और नरकनिगोदादिके महा दुःख देनेवाली है जबतक मोहनीय कर्मका उदय रहता है तबतक यह जीव अपने आत्माके स्वरूपको नहीं पहिचान सकता, और जबतक आत्माके स्वरूपको नहीं पहचानता है, तबतक विषयोंकी अभिलाषाका त्याग नहीं कर सकता, तथा जबतक विषयोंकी अभिलाषाका त्याग नहीं करता, तबतक आत्मजन्य महामिष्ट अनंत मुखरूपी रसका पान नहीं कर सकता, और जबतक अपने आत्मरमका
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पान नहीं करता, तबतक अपने मोक्षरूप बिवासस्थानमें नहीं पहंच सकता । अतएव मोक्षरूप निवासस्थानको प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मोहनीयकर्मको नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए । जिससे कि विषयोंकी अभिलाषाका त्याग हो जाय और यह आत्मा मोह मायाका त्याग कर आत्मामें लीन होय जाय और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर ले। प्रश्न- प्रतिक्रमणकीपि विषकुम्भः प्रपूर्यते ।
अप्रतिक्रमणका मृतकुम्भ: कथं वद ।। अर्थ- हे भगवान् । यह रनलाइये लिः प्रतिगमण करनेवाला पुरुष किस प्रकार अपने विपकेघडेको भर लेता है, और प्रतिक्रमण न करनेवाला भी अमतके घडेको किस प्रकार भर लेता है ?
भावार्थ- प्रतिक्रमण करनेवाला अशम काँका बंध किस प्रकार कर लेता है, और प्रति कम ग न करनेवाला शुभकर्मोका गंध किस प्रकार कर लेता है ? उत्तर - प्रतिक्रमगकं कुर्वन् मिथ्यात्वेन भ्रमेच्चिरम् ।
प्रतिक्रमणहीनोपि सम्यक्त्वेन बजेच्छिवम् ॥ १९४ ॥ नाप्रतिक्रमणं कार्य नियं स्वप्नेपि धीमता। प्रतिक्रमणयोगोपि किंचित्स्यात्पुण्यदर्शकः ॥ १९५ ॥ क्रियतेऽशुभनाशाय शुभाप्त्यै व्यवहारतः । निश्चयाच्छुद्धसिद्धच च मोक्षार्थाय निरंतरम् ॥ १९६॥ स्वभावे भूयते स्वस्थो रागद्वेषादिदूरगे । यतः स्यात्स्वात्मसाम्राज्यं निजाधीनं निरंतरम् ॥ १९७॥
अर्थ- इस संसार में प्रतिक्रमण करता रहता हुआ भी यह जीव मिथ्यात्वकर्म के तीव्र उदयसे चिरकाल तक संसारमें परिभ्रमण करता रहता है । तथा प्रतिकमण न करनेवाला मनुष्य भी सम्यग्दर्शनके निमित्तसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसलिए बुद्धिमान पुरुषोंको स्वप्नमें भी प्रतिक्रमणका अभाव कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रतिक्रमण करनेसे कुछ पुण्यकर्मका बंध अवश्य होता हैं ।
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यह प्रतिक्रमण व्यवहारिक दृष्टिसे अशुभ कर्मोका नाश करनेके लिए और शभ कर्मोका संचय करने के लिए किया जाता है । प्रतिक्रमण करनेसे यह आत्मा राग-द्वेषसे रहित होकर अपने आत्माके शुद्ध रनभान में लीन हो जाता है । और मुद्ध स्वभावमें लीन होनेमे निरलर अपने आत्माके आधीन रहनेवाला शुद्धात्म साम्राज्य प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ- पापोंको दूर करनेके लिए वा पाप शांत करने लिए प्रतिक्रमण किया जाता है, परंतु वह प्रतिक्रमण आत्मज्ञानके माथ होता है। प्रतिक्रमणमें पापोंकी आलोचना की जाती है, तथा आगामी कालमें ऐसे पाप न हों। ऐसी भावना की जाती है । यदि अतिक्रमण करनेवालेको आत्मज्ञान न हो अथवा सम्यग्दर्शन न हो, तो वह पापोंकी
आलोचना भी मिथ्या हो जाती है, और पाप न करने की भावना भी मिथ्या हो जाती है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेमें वह मनुष्य फिर भी पाप कर्माको करता ही रहता है । इस प्रकार वह प्रतिक्रमण करता हआ भी पापोंका संचय करता रहता है, और संसार में परिभ्रमण किया करता है. इसलिए सम्यग्दर्शनके होनेपर जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वही प्रतिक्रमण पापोंका नाश कर सकता है, और पुण्यका संचय कर सकता है । सम्यग्दर्शन के साथ-साथ जब पूर्ण चारित्र धारण कर लिया जाता है, तब निश्चय प्रतिक्रमण करनेका उद्योग किया जाता है । उस निश्चय प्रतिक्रमणसे आत्माकी शुद्धता प्राप्त होती है, राग-द्वेष सब दूर हो जाते हैं । यह आत्मा अपने शुद्ध स्वभावम लीन और स्थिर हो जाता है । तदनन्तर समस्त कर्मोको नष्ट कर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है, और सदाकालके लिए अजर-अमरपद प्राप्त कर अनन्त सूखका स्वामी बन जाता है, इसलिए सम्यग्दर्शनके साथ ही प्रतिक्रमण करना सार्थक है। बिना सम्यग्दर्शनके प्रतिक्रमण करना निरर्थक है।
प्रश्न-- केन कृत्येन सिद्धिः स्यान्नवा केन प्रको वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि किन-किन कामोंके करनेसे आत्माकी सिद्धि हो जाती है, और किन-किन कामोंके करनेमे आत्माकी सिद्धि नहीं होती ?
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उत्तर - मालाजि निधान रणनि सायम्
लोके कषायान जयेत्प्रदुष्टान् । त्यजेसथा न प्रमवाप्रसंगं संसारमूला बहिरात्मबुद्धिम् ॥ १९८ ॥ सुदेवशास्त्रादिगुरोश्च याव दनन्यभक्तचा भवरोगहर्तुः । श्रद्धां न कुर्याद्विनयोपचार तायद् भवेन्नैव तवेष्टसिद्धिः ॥ १९९ ॥
अर्थ- इस संसारमें यह मनुष्य जबतक नियनीय इंद्रियोंके विषयों को नहीं रोकप्ता, जबतक दुष्ट कषायोंको नहीं जीतता, जबतक स्त्रियोंके संसर्गका त्याग नहीं करता, और जबतक जन्ममरणरूप संसारकी मल कारण ऐसी बहिरात्मबुद्धिका त्याग नहीं करता, तथा जबतक अनन्य भक्ति पूर्वक जन्ममरणरूप संसारको हरण करनेवाले देव-शास्त्र-गुरुकी श्रद्धा नहीं करता। जबतक उनका विनय नहीं करता, और जबतक देव-शास्त्र-गुरुकी पूजा भक्ति नहीं करता, तबतक इस जीवको इष्ट सिद्धिकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।
भावार्थ- इस संसारमें पांचों इंद्रियोंके विषयोका सेवन करनेसे आत्माकी सिद्धि कभी नहीं होती, कषायोंको धारण करनेसे आत्माकी सिद्धि कभी नहीं होती, स्त्रियोंका संसर्ग रखनेसे आत्माकी सिद्धी कभी नहीं होती और बहिरात्म बुद्धिको धारण करनेसे आत्माकी सिद्धी कभी नहीं होती । इसका कारण यह है, कि इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा और कषायोंका होना मोहनीय कर्मके तीन उदयसे होता है. तथा बहिरात्म बुद्धि का होना भी मोहनीय कर्मके तीब्र उदयसे होता है, जो बुद्धि आत्मरूप नहीं होती, आत्मासे भिन्न शरीरादिक पदार्थों में ही आत्मरूप बुद्धि हो जाती है, उसको अहिरात्म बुद्धि कहते हैं। बहिात्म बुद्धिके होनेसे ही यह आत्मा शरीरकोही आत्मा मान लेता है, अथवा शरीर और आत्माको एकही समझ लेता है, इसलिए शरीरसे ममत्व करने लगता है, तथा धन-धान्यादिक अन्य पदार्थोंसे भी ममत्व वा मोह करने लगता है । इन सबसे मोह करनेके कारण वह महापाप
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उत्पन्न करने लगता है, और अनन्तकालतक संसारमें परिभ्रमण करने लगता है । यही कारण है, कि ऐसे आत्माको मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । जब यह आत्मा अपने मोहनीयकर्मको नष्ट कर देता है, और बहिरात्म बुद्धिको त्याग कर विषयकषायों का त्याग कर देता है, तथा देवशास्त्र गुरुका यथार्थ स्वरूप समझकर उनका श्रद्धान करने लगता है, तथा उनको पूजा भक्ति करने लगता है, और इस प्रकार अपने आत्माको निर्मल बनाकर रत्नत्रयकी वृद्धि करनेमें लग जाता है, तथा तपश्चरण और ध्यानके द्वारा रत्नत्रयकी पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तभी इस जीवको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, फिर यह जीव सदाकालके लिए अनन्त सुखी हो जाता है । इसीको इष्ट सिद्धि कहते हैं ।
प्रश्न- निन्दास्तुतिकृते कस्मिन्नपि साधुः करोति किम् ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि यदि कोई पुरुष किमी साधुकी निंदा करे, अथवा स्तुति करे, तो वे साधु निंदा करनेपर क्या, करते हैं ?
उत्तर - कश्चित्प्रमूढो गुणदोषशून्यः
स्वात्माश्रितान् वाखिलसंगदूरान् । वृष्ट्वा सुसाधून् खलु निर्दयेन हन्ति प्रदुष्टं वचनं ब्रवीति ॥ २०० ॥ रुत्यबोधाविति निम्बतीह
स्तनीति कश्चित्रमति प्रवीणः । सेवादिभक्ति च करोति कांचित् तथापि सन्तो न चलन्ति धर्मात् ॥ २०१ ॥
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यावृक् मतिर्यस्य भवेद्धि जन्तो स्तादृक् क्रियांस सुखदुःखदात्रीम् । करोति बुध्येति निजात्मदेशे त्यक्त्वा कषायं भवतु प्रभग्नः ॥ २०२ ॥
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अर्थ- गुण और दोषोंको न जाननेवाला कोई मूर्ख मनुष्य केवल अपने आत्माके आश्रय रहनेवाले और समस्त परिग्रहोंसे रहित ऐसे साधुवोंको देखकर उन्हें निर्दयता के साथ मारते हैं, उनमें दुष्ट वचन कहते हैं, उनपर क्रोध करते हैं और अपनी अज्ञानता के कारण उनकी निंदा करते हैं, तथा गुण-दोषोंके जानकार कोई-कोई चतुर मनुष्य उन साधुओंकी स्तुति करते हैं, उनको नमस्कार करते हैं, उनकी सेवा करते हैं, और भक्ति करते हैं । परन्तु दोनों ही अवस्थामें वे साधु अपने धर्मसे कभी चलायमान नहीं होते । वे साधु ज्योंके त्यों निश्चल बने रहते हैं । इस संसारमें जिस जीवकी जैसी बुद्धि होती है, वह पुरुष वैसीही सुख - दुःख देनेवाली क्रियाएं करता है। जिसकी अच्छी बुद्धि होती है, वह अच्छे सुख देनेवाली क्रियाएं करता है, और जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं होती, वह दुःख देनेवाली अशुभ क्रियाएं करता रहता है । यही समझकर भव्य जीवोंको कषायों का त्याग कर देना चाहिए और अपने आत्मा के प्रदेशों में निमग्न हो जाना चाहिए।
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समस्त चे साधु
भावा- मुनि लोग किसीमे कुछ नहीं चाहते, वे लालसाओंसे रहित और समस्त परिग्रहोंसे रहित होते हैं । सदाकाल अपने आत्मामें लीन रहते हैं, और सदाकाल जीवोंके कल्याणका चितवन करते रहते हैं । वे स्वयं मोक्षमार्ग में लगे रहते हैं, और अन्य जीवोंको मोक्षमार्ग में लगाते रहते हैं । ऐसे साधुओं को भी बहुतसे निर्दयी, मूर्ख लोग बुरे वचन कहते हैं, कोई-कोई अज्ञानी उन्हे मारते हैं, कोई उनकी निंदा करते हैं, और कोई उनपर क्रोध करते हैं । ऐसी अवस्था में भी वे साधु न तो क्रोध करते हैं, न दुःखी होते हैं, और न अपने ध्यान से चलायमान होते हैं। वे तो अपने आत्मामें लीनही बने रहते हैं। यदि उनका उपसर्ग दूर हो जाता है, तो वे उसको शुभाशीर्वाद देकर उसको मोक्षमार्ग मेंही लगाते हैं । इसी प्रकार यदि कोई चतुर मनुष्य उनको नमस्कार करता है, वा उनकी स्तुति करता है, वा सेवा - भक्ति करता है, तो भी वे प्रसन्न नहीं होते, उस समय भी वे अपने आत्मामें लीन बने रहते हैं । इस प्रकार वे साधु निंदा करनेवाले और स्तुति करनेवाले दोनोंको समान दृष्टिसे देखते हैं । यह
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{ शान्तिमुधासिन्धु
उन साधुओं का समता गण सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। राम्ही साध इस संसारमें धन्य माने जाते हैं, और अपने आत्माका यथार्थ कल्याण कर लेते हैं । परंतु जिस प्रकार गद्ध दर्गणमें कोई संदर मनुष्य देखता है, तो उसको उस दर्पणमें सुन्दरता दिखलाई पड़ती है. और यदि कोई कुरूप देखता है, तो उसको कारूपता दिखाई पड़ती है, यह स्वभाव ही ऐसा है। इसी प्रकार जो मनुष्य उन साधुओंकी निंदा करना है, बा उनको दुःख देता है, वह नरक-निगोदका पात्र होता है, और जो उनकी स्तुति वा सेवा-भक्ति करता है, वह स्वर्गका पात्र होता है । यद्यपि दोनोंके लिए वे मुनिराज समान दृष्टि रखते हैं, तथापि निंदा करनेवाला पाप कर्मोंका बंध कर नरकादिकके दुःख भोगता है. और स्तुति करनेवाला पुण्य कर्मोका बंध कर स्वर्गादिकके सुन्दरमुख भोगता है । यह उनकी बुद्धिका फल है । बद्धि अच्छे कार्योंमें लगती है और बुरी बुद्धि पाप कर्मोंमें लगती हैं । यही समझकर बुद्धिमानोंको कषायोंका त्याग कर देना चाहिए और अपने आत्मामे लीन होकर आत्माको निर्मल बना लेना चाहिए । ऐसा करनेसे वद्धि निर्मल हो जाती है
और फिर वह मोक्षमार्ग में लग कर, इस आत्माको अनन्तसुख प्राप्त करा देती है । ऐसा आचार्यवर्य कुंथसागरका उपदेश है ।
इति श्री आचार्यवर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिमुधासिधुग्रंथे जिनागम रहस्य वर्णनो नाम द्वितीयोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रीशान्तिसुधासिन्ध ग्रन्थमें । धर्मरत्न पं. लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें जिनागमके रहस्यको वर्णन करनेवाला
यह दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।
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प्रश्न वद रक्षकतुल्यत्वाच्वोरोंस्ति को
नृपः
प्रभो ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि चोर और राजा दोनों के साथ रक्षक लोग चलते हैं, फिर भला राजा और चोर में क्या अन्तर है ?
तीसरा अध्याय
वस्तुस्वरूप वर्णन
-
―
उत्तर राज्ञः सामन्तादपि भृत्यवर्गः, चलत्यहो चौरसमन्ततश्च । कोsस्त्यावयोमें बद देव भेदो,
राजा यतोयं क्रियते हि चौरः ॥ २०३ ॥
येनेव मार्गेण नृपश्च गन्तुं, वांच्छेद्यदा गच्छति तेन भृत्यः ।
वांच्छेच्च भृत्यः खलु येन नेतुं, चौरस्तदा गच्छति तेन मौनात् ॥ २०४ ॥
अक्षाणि यः स्वात्मवशीकृतानि,
यथेति चाक्षाणि वशं भवन्ति । अक्षाश्रितो यश्च भवेत्प्रमुढो नयन्ति चाक्षाण्यपि यत्र तत्र ॥ २०५ ॥
अर्थ - देखो जिस समय राजा चलता है उस समय उसके बहुतसे रक्षक वा नौकर-चाकर उसके चारों ओर चलते हैं। इसी प्रकार किसी पकड़े हुए चोरके भी चारों और रक्षक लोग चलते है ।
4
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( शान्तिसुधासिन्धु )
हे देव ! फिर इन दोनोंमें क्या भेद है, जिसमें कि, यह राजा है, और यह चोर है. ये किस प्रकार मालूम हो । इसका मीधासा उत्तर यह है कि, राजा जिस मार्गसे जानेकी इच्छा करता है, रक्षकोंको उमी मार्गम उसके साथ चलना पडता है, परन्तु चोरके साथ यह बात नहीं होती। चोरको उसी मार्गसे चलना पड़ता है जिस मार्गसे रक्षक लोग उसे ले जाते हैं । जिस मार्गसे रक्षक लोग उस चोरको ले जाना चाहते हैं उमी मार्गसे बह चोर चुपचाप उनके साथ चला जाता है. ठीक इसी प्रकार जिन महापुरुषोंने इन्द्रियों को अपने वशमें कर लिया है, वे इन्द्रियां फिर उन्हीं महापुरुषोंके वश में रहती हैं, उन्हीं की ईच्छानुसार चलती हैं, परन्तु जो मूर्ख उन इन्द्रियोंके आधीन रहते है, उनको वे इन्द्रियां यहां वहां चाहे जहां पटक देती हैं।
भावार्थ- यद्यपि राजा और चोर दोनों के चारों ओर रक्षक लोग चलते है । तथापि राजा और चोर में स्वाधीन और पराधीनका अन्तर है । राजा स्वाधीन है, वह अपनी इच्छानुसार चाहे जहां जा सकता है,चाहे जहाँ ठहर सकता है। रक्षक लोगोको तो सर्वत्र राजाकी आज्ञा माननी पडती हैं, जहां राजा जाना है, वहां जाना पड़ता है, और राजा जहां ठहरता है, वहां ठहरना पड़ता है । राजा सब तरह स्वतंत्र है, और रक्षक लोग उसके आधीन है, परंतु चोरके लिए यह बात नहीं है । चोर पराधीन है। उसको रक्षकोंके साथ चुपचाप जाना पड़ता है, जहां रक्षक ले जायेंगे वहीं उसे जाना पडेगा और रक्षक जहां ठहरेंगे वहां उसे ठहरना पडेगा । इस प्रकार जो महापुरुष इन्द्रियोंके आधीन नहीं होते, इन्द्रियोंको अपनी आज्ञामें रखते है, ऐसे महापुरुष राजाके समान स्वतंत्र स्वाधीन कहलाते हैं, और इन्द्रियां उनके सेवकके समान उनके आधीन रहती हैं, परन्तु जो लोग इन्द्रियोंके आधीन रहते हैं, इन्द्रियोंको अपने आधीन नहीं कर सकते, इन्द्रियोंका निग्रह नहीं कर सकते वे पुरुष चोरके समान परतंत्र वा पराधीन कहलाते हैं, उसी प्रकार रक्षक लोग चोरको ले जाकर बन्दीगृहमें रखते हैं, उसी प्रकार वे इन्द्रियां भी उस पराधीन मनुष्यको नरक वा निगोदमें ले जा कर पटक देती हैं । अतएव जो लोग राजाके समान स्वाधीन रहना चाहते है, चोरके समान पराधीन नहीं रहना चाहते
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उनको अपनी इन्द्रियां अपने वशमें कर लेनी चाहिए । अर्थात उन्हें इंद्रियोंका निग्रह कर लेना चाहिए । इन्द्रियोंका निग्रह कर लेनेसे यह जीब मोह और पवाया का त्याग कर देता है, और अपनं आमाको निर्मल वा शुद्ध बनाकर सदाके लिए अनंतमुखी हो जाता है।
प्रश्न- सज्जनानां स्खलानां च स्वरूपं बद मे प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर सज्जन और दुर्जनोंका स्वरूप निरूपण कीजिये? उत्तर - निःस्वार्थबुद्धया यतते परार्थ
स एव धीमान् भुवि भाग्यशाली। .. स्वार्थाविरोधर्यतते परार्थ सामान्य एवास्ति सतां विचारे ॥ २०६ ।। स्वार्थाभिवृद्धयै च परान् प्रहन्ति पशुशंसोस्ति स एव धूर्तः । निष्कारणेनैव हिनस्ति चान्यान्
ववतुं प्रचो नास्ति स कीदृशः कौ ॥ २०७ ॥
अर्थ- जो पुरुष अपने बिना किमी स्वार्थके दूसरोंका कल्याण करते हैं, वे पुरुष संसारमें बद्धिमान और भाग्यशाली माने जाते हैं। तथा जो पुरुष अपने स्वार्थका विरोध न करते हुए दूसरोंका कल्याण किया करते हैं, वे पूरुष सज्जनोंके विचारमें सामान्य पुरुष कहलाते हैं,
और जो मनुष्य अपने स्वार्थकी सिद्धि के लिए बा स्वार्थ बढाने के लिए दुसरोंकी हिंसा तक कर देते हैं, वे मनुष्य इस मंसारमें पशु, धूर्त और नृशंश वा मनुष्यघातक कहलाते हैं । परंतु जो मनुष्य बिना किमी कारणके दूसरोंकी हिंसा कर देते हैं, ऐसे मनुष्य कैसे हैं, इस बातको कहने के लिए इस मंसारमें कोई वचन भी नहीं हैं।
भावार्थ-- दूसरोंका उपकार करना, दूसरोंके आत्माका कल्याण करना, उनके पापोंका त्याग कराना, धर्मोपदेश देना, धर्म धारण कराना और उनके धर्मकी रक्षा करना परोपकार कहलाता है । इस परोपकारको बहुतसे महात्मा अपने बिना किसी स्वार्थके सदाकाल
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( शान्तिमधासिन्धु)
करते रहते हैं। ऐसे पुरुष इस संसारमें सर्वोत्तम सज्जन कहलाते हैं। उन्हींको लोक भाग्यशाली कहते हैं, और बुद्धिमान कहते हैं, जो पुरुष अपने स्वार्थका घात भी नहीं करते अर्थात् अपना म्वार्थ वा अपने आत्माका कल्याण भी करते जाते हैं, और दूसरोंके आत्माका भी कल्याण करते जाते हैं। ऐसे पुरुष मध्यमपुरुष कहलाते हैं, परंतु जो लोक अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिए दूसरोंका घात कर डालते हैं, ऐसे धनं पशुओंको, मनुष्य घातक अत्यंत निकृष्ट और महाहिसक कहते हैं । इनके सिवाय एक प्रकारके मनुष्य और हैं, बिना कारण ही दूसरे जीवोंका घात किया करते हैं, शिकार खेला करते हैं, वा अनंन जीवोंका घात करनेवाले आविष्कार निकाला करते हैं, वा ऐमे अस्त्र शस्त्र बनाया करते हैं, वा और भी ऐसे कार्य किया करते हैं, ऐसे लोगोंको नाम नक रखने के लिए इस संसारमें कोई शब्द नहीं हैं। ऐसे मनुष्य इस समारमें सबसे निकृष्ट और महापापी समझे जाते हैं।
प्रश्न यस्य स्वात्मरसास्वादः स्यात्तम्यान्यरुचिर्न वा ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जो महापुरुष अपने आत्माके अनन्त सुखरूप रसका आस्वादन करते रहते हैं, उनकी रुचि किसी अन्य पदार्थके आस्वादन करने में वा अन्य किसी कार्यके करनेमें होती है, ना नहीं ? उत्तर - स्वानंदपुरश्च गतान्तराय
श्चिदात्मके स्वात्मनि शुद्धबुद्धे । सदा समन्ताद वहतोह तस्य तस्यास्मतुष्टस्य निजाश्रितस्य ॥ २०८ ॥ सम्पूर्णविश्वं तृणवविभाति स्याल्लोकवार्ता विफला ह्यलोक्या। क्वचिद्यसेत्कार्यवशानृसंगे
तथापि तत्रात्मरुचिर्न दृष्टा ॥ २०९ ।।
अर्थ-- जिस महापुरुषके शुद्ध और चतन्यस्वरूप आत्मामें दिना किसी अंतरायके अपने आत्मजन्य आनंदका पूर सदाकाल चारों ओरसे बहता रहता है, उस अपने आस्मामें संतुष्ट रहनेवाले और अपने
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आत्माके आधीन रहनेवाले पुरुषको यह समस्त मंसार तृणके समान मालुम पड़ता है, और उसको मांसारिक समस्त कार्य निष्फल और कभी न देखने योग्य मालूम होते हैं। कदाचित् वह मनुष्य किसी कार्यके निमिनको परमोंने वर्ष भी रहे सावपि उसकी रुचि उन मनुष्योंके संसर्गमें कभी दिखाई नहीं पड़ती।
भावार्थ- जो पुरुष अपने आत्मजन्य अनंत सुखरूप रसका आस्वादन करता रहता है, उसको फिर सांसारिक कोई भी कार्य अच्छा नहीं लगता । फिर उसे न तो इंद्रियोंके विषय अच्छे लगते हैं, न मनुष्योंका संगर्ग अच्छा लगता है, न कुटुंबी लोग अच्छे लगते हैं, और न बस्त्र आभूषण आदि अच्छे लगते हैं, फिर तो बह सदाकाल आत्मामें ही लीन रहनेका प्रयत्न करता है । इसके लिए वह एकांत स्थानम रहता है, मुनि आवासमें रहता हैं, ध्यान-अध्ययनमें लगा रहता है, तपश्चरण करने में लगा रहता है, बारह-भावनाओंके चितवन करने में लगा रहता है, दश-धर्मोके चितवनमें लगा रहता है, और गुप्तिसमितियोंके पालन करने में लगा रहता है । इस प्रकार आत्मामें लीन रहने के कारण उसका सब मोह छूट जाता है, वह समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देता है, और सदाकाल मोक्ष प्राप्त करनेके उपाय में लगा रहता है। ऐसा पुरुष भीत्रही मोक्ष प्राप्त कर, अनत सुख प्राप्त कर
प्रश्न- धर्मस्य शरणं याति कि कि स लभते वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जो मनुष्य सदाकाल धर्मको ही शरण मानता है, धर्मकी ही शरणमें रहता है, उसको किस-किस पदार्थकी प्राप्ति होती है ? उत्तर - अत्यंतदुष्टं प्रबलप्रमोहं
त्यक्त्वा प्रमावं भवबंधबीजम् । घ्याध्याविहर्तुः सुखशान्तिदातु यः कोपि धीमान् स्वगृहप्रणेतुः ॥ २१० ॥
/धर्मस्य भक्त्या शरणं प्रयाति 3 स एव लोके सद्सद्विचारी।
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सुतत्त्ववेदी खलु विश्वनेता स्वधर्मधारी परधर्महारी ॥ २११ ।।।
अर्थ- जो बुद्धिमान् पुरुष अत्यंत दुष्ट ऐसे प्रबल मोहका त्याग कर देता है, और संसारके कारणभूत प्रमादका सर्थथा त्याग कर देता है, तथा समस्त व्याधियोंको दूर करनेवाले, सुख और शान्तिको देनेवाले और इस आत्माके मोक्षरूप गयो बना काले धमकी नावितपूर्वक शरण लेता है, वहीं पुरुष इस मंसारमै सत् और असतका विचार करनेवाला कहलाता है, आत्मा आदि श्रेष्ठ तत्त्वोंका जानकर कहलाता है, समस्त संसारका नेता कहलाता है, अपने आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण करनेवाला कहलाता है, और परधर्म अर्थात विभावभावांका हरण करनेवाला कहलाता है।
भावार्थ- इस संसारमें ज्ञान, वैराग्य आदि आत्माके गणोंको ढक देनेवाला तीव्र कर्मोका बंधन करनेवाला मोह है । जो पुरुष इस बातको जानता है, वह इस मोहका त्याग कर, आत्माके गुण प्राप्त कर सकता है । परंतु प्रमाद इस आत्माको ऐसा नहीं करने देता । वह प्रमाद इस आत्माको अपना कल्याण करने से रोक देता है । इसलिए जिस प्रकार मोह आत्माके गुणोंको प्रगट नहीं होने देता, उसी प्रकार प्रमाद भी आत्माके गुणोंको प्रगट नहीं होने देता । इससे यह सिद्ध हो जाता है, कि आश्माके गुण प्रगट होने में मोह, प्रमाद ये दो ही मुख्य कारण हैं, अतएव जो भव्यजीव सबसे पहले मोह और प्रमादका त्याग कर देता है, और आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है, उस पुरुषको आत्म-तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, और आत्म-तत्त्वकी प्राप्ति होनेसे मोक्षरूप सुखकी प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार धर्म धारण करनेसे भले-बुरेका विचार उत्पन्न हो जाता है 1 भले बुरेका विचार उत्पन्न होनेसे यह आत्मा आत्माको दुःख पहचानेवाले इन्द्रियोंके विषयोंका त्याग कर देता है, कषायोंका त्याग कर देता है, और ध्यान वा तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष सुख प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार वह धर्मको शरण माननेसे संसारभरका नेता सबसे द्वारा पूज्य और मुनियों तकके लिए ध्यान करने योग्य ध्येय बन जाता है । अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य इन अनन्त चतुष्टयरूप आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है, और कषायादिक विभाव-भावोंको सर्वथा
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नष्ट कर देता है। इस प्रकार धर्म धारण करनेसे इस आत्माको सर्वोत्कृष्ट परमपद प्राप्त हो जाता है ।
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प्रश्न- सुजन्य वस्तुकर्ता स्यान्न वा मे वद सिद्धये ? अर्थ - हे भगवन् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिये यह बतलाइए कि ज्ञानी मनुष्य अन्य पदार्थोंका कर्ता होता है या नहीं ? उत्तर - येनात्मसाम्राज्यपदे प्रविष्टं
स्वात्मस्वरूपं स्वसुखादि दृष्टम् । तेनान्यकार्यं क्रियते न किंचित्
करोति किंचिद् यदि वान्यकार्यम् ।। २१२ ।। शिष्टार्थ पुष्टयं खलु केवलं च नास्त्यन्यहेतुर्भुवि कोपि तत्र । यावत्स्वरूपं न च येन दृष्ट
परतुः स्यःत् ११३
अर्थ - जिस महापुरुषने अपने आत्माकी शुद्धतारूप साम्राज्यमें प्रवेश कर लिया है, जिसने अपने आत्माका स्वरूप देख लिया है, तथा आत्मजन्य अनंत सुखका दर्शन कर लिया है, वह पुरुष इस संसार में अन्य कोई कार्य नहीं कर सकता। यदि ऐसा मनुष्य अन्य कोई कार्य करता है, तो केवल भव्यजीवोंके कल्याणकी पुष्टी करनेके लिए ही करता है । उस महापुरुषके लिए आत्मकार्य के सिवाय अन्य किसी कार्यके करनेमें जीवों के कल्याणके सिवाय अन्य कोई हेतु नहीं हो सकता। इससे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है, कि यह आत्मा जबतक अपने आत्मा के स्वरूपको नही देख लेता, तबतक ही यह आत्मा अपनेको परपदार्थों का कर्ता मान लेता है ।
भावार्थ आत्मरसका आस्वादन करनेवाला महापुरुष अपने आत्माकोही शुद्ध करनेका प्रयत्न किया करता है । आत्मकल्याणके सिवाय वह कोई अन्य कार्य नहीं करता । यदि करता है तो अपायविच धर्मध्यानका कार्य स्वरूप परजीवोंका कल्याण करता रहता है उनके लिए यह धर्मोपदेश देता है, धर्म धारण करता है, धारण किए
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प. पू. अनिन्य प्रज्ञापन हए धर्मकी रक्षा करता है, और प्रायश्चित्तादिके द्वारा व्रतोंकी शुद्धि ... करता कराता रहता है। वह पुरुष आत्मज्ञान होने के कारण तथा परपदार्थोंके यथार्थ बपको भी जानने के कारण, विधायक माह सागछोड़ देता है, तथा कषाय और इंद्रियोंके विषयोंका भी सर्वथा त्याग कर देता है. इसीलिए वह अन्य किसी भी कार्यमें नहीं लग सकता । इससे सिद्ध हो जाता है कि आत्मरसका आस्वादन करनेवाला पुरुष परपदार्थोंका कर्ता नहीं होता। जो पुरुष आत्माक स्वरूपको तथा परपदार्थोक स्वरूपको नहीं जानता और इसीलिए जो इंद्रियोंके विषयों के कषायोंका और मोहका त्याग नहीं करता, ऐसा पुरुषही अपने तीन मोहके कारण अपने आत्माको उन परपदार्थोका का मान लेता है । यह उसकी भूल है । अतएव भव्यजीवोंको मोहका त्याग कर, आत्मरसका आस्वादन करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे कि शीघ्र ही इस आत्माको मोक्ष सुत्रकी प्राप्ति हो जाय ।
प्रश्न - गुरो ! सदृष्टिमाहात्म्यं कीदृग्मे विद्यते बद ! ___अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह व्रतलाइये कि इस संसार में सम्यग्दृष्टिका महात्म्य कैसा है ? . उत्तर - सवृष्टिरेव विमलःसदसद्विचारी,
बाह्यादिसंगविरतः स्वपदे सुरक्तः । पश्यन्न पश्यति विशन् विशतीति तस्मात्, गच्छन्न गच्छति नयनयतोह नैव ॥ २१४ ।। वावन्न चानि सततं स्वपिति स्वपन्न, कुर्वन् करोति न भवन् भवति हो न । कोपि ह्यचिन्त्यमहिमा सुखदः सुदृष्टः, लोके स्थितोपि जिन एव सदा विलेपः ॥ २१५ ।। अर्थ- इस संसारमें सम्यग्दृष्टी पुरुष अत्यंत निर्मल होता है, अपने आत्मामें लीन रहता है, अन्तरंग और बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्यागी होता है, और अपने आत्माके कल्याण तथा अकल्याणका विचार करनेवाला होता है । ऐसा पुरुष इन्द्रियोंसे देखता हुआ भी कुछ नहीं
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देखता. शिरी नगर दिमें प्रवेश करता हुआ भी कहीं नहीं जाता, गमन करता हआ भी गमन नहीं करता, किमी पदार्थको ग्रहण करता हुआ भी ग्रहण नहीं करता, भोजन करता हुआ भी भोजम नहीं करता, सोता हुआ भी नहीं सोता, किसी कार्वाको करता हुआ भी नहीं करता,
और होता हुआ भी नहीं होता । इसलिए कहना पड़ता है, कि सम्यग्दृष्टिको सुख देनेवाली महिमा अचिन्तनीय है । वह संसार में रहता हुआ भी जिन कहलाता है, और कर्ममल कलंकमे रहित पुरुषोंक समान माना जाता है।
भावार्थ-आत्मामें अनेक गण हैं, परंतु उन सबमें एक सम्यग्दर्शन ही ऐसा उत्तम गुण है. कि जिसके होनेपर अन्य सब गुण प्रगट हो जाते हैं, और यह आत्मा इस संसार समद्रसे पार हो जाता है । इसका कारण यह है, कि मम्यग्दर्शनके प्रगट होनेपर स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, तथा स्वपरभेद विज्ञान प्रगट होनेसे आत्मा और परपदार्थोंका यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है, आत्मा और परपदार्थोंका यथार्थ स्वरूप प्रगट होनेसे, यह आत्मा परपदार्थोका मोह छोड़ देता है, और फिर वह अन्य किसी भी पदार्थसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता । फिर वह आत्मा, अन्य समस्त पदार्थोका त्याग कर, तथा क्रोधादिक कषायोंका सर्वथा त्याग कर केवल-आत्मामें लीन हो जाता है। उस समय इंद्रियोंका सब व्यापार छूट जाता है । इसलिए बह देखता हुआ भी कुछ नहीं देखता । यद्यपि वह इंद्रियोंसे समस्त पदार्थोंको देखता वा जानता है, परन्तु वह उन पदार्थोंसे कोई प्रयोजन नहीं रखता, और उन पदार्थोसे वह कोई किसी प्रकारका मोह वा ममत्व नहीं रखता है. इसलिए वह देखता हुआ भी न देखने के समान ही माना जाता है । इसी प्रकार वह आहारादिकके लिए नगरादिकमें आता-जाता है, परन्तु उस समय में भी वह आत्म-चितनमें ही लगा रहता है । भोजन करता हुआ भी आत्म-त्रितबनमें लगा रहता है, और यहां तक लगा रहता है, कि भोजन करता हुआ भी सातवें गुणस्थानमें जा पहुंचता है। इसलिए वह भोजन करता हुआ भी न करने के समान माना जाता है । इसी प्रकार सोता हुआ भी वह अन्य किसी पदार्थका चितवन नहीं करता, उस समय भी वह आत्माके गुणोंका चितवन करता रहता है, इसलिए वह सोता हुआ भी न सोनेवालेके
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समान गिना जाता है । कहां तक कहा जाय, सम्यग्दृष्टिकी महिमाको कोई चितवन भी नहीं कर सकता । उसकी महिमा अतुल है। वह संसारमें रहता है, तथापि जिन कहलाता है, और भोजन-पान आदि संसारके समस्त कार्य करता हुआ भी कर्मबंधनसे लिप्त नहीं होता । ऐसी यह विचित्र महिमा सम्यग्दृष्टिके सिवाय और किसीकी नहीं हो सकती । इसलिए भव्य जीवोंको सबसे पहले अपने मिथ्यास्वका त्याग कर, सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । यही इस संसारमें सार है।
प्रश्न- कि कार्यमथवा दृश्यं शर्मदं बद मे गुरो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि इस संसारमं सूख देनेवाला, वा कल्याण करने वाला कौनसा कार्य करना चाहिए, और क्या देखना चाहिए ? उत्तर- निजात्मबाह्यं बहुदोष युक्तं
भ्रान्तिप्रदं शान्तिहरं कुकर्म । कृतं त्वया कारितमेवचान्य रनन्तवारं विषमं कुबुद्धया ॥ २१६ ॥ तत्कर्मभिर्वत्स तथापि चात्मा तृप्तः कदाचिन्न बभूव लोके । विचिन्त्य कार्य सुखदं स्वकृत्यं दृश्यं तदेवं न कृतं न दृष्टम् ॥ २१७ ॥
अर्थ- हे वत्स ! अनादिकालसे इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए तूने अपनी कुबुद्धिसे अत्यन्त विषम, अनेक दोषोंसे परिपूर्ण, शान्तिको हरण करनेवाले, करानेवाले, भ्रांतिको उत्पन्न करनेवाला, और अपने आत्मासे भिन्न ऐसे, अनेक कुकर्म अनन्तवार किए हैं, तथा अनन्तवार ही दूसरोंसे कराये हैं । तथापि यह तेरा आत्मा इस संसारमें आज-तक कभी तृप्त नहीं हुआ है, यही समझकर अब तुझे सुख देनेवाला वही देखना चाहिए जो आजतक न किया हो और न देखा हो ।
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( शान्तिसुधासिन्धु ।
भावार्थ- यह आत्मा अनन्त कालसे इंद्रियोंके विषयों में लग रहा है, तथा उन इंद्रियोंके विषयोंके लिए अनेक प्रकार के कुकर्म करता चला आ रहा है, तथापि वह आजतक कमी तप्त नहीं हुआ। उन कुकर्माके कारण अनंतबार सिंहादिक क्रूर पशु हुआ, और न जाने कितनीबार निगोद गया, इन इंद्रियों के विषयोंके कारण इस आत्माने अनंतकाल नक घोर दुःस्व सहन किए, तथापि किसी भी इन्द्रियके विषयमे आजतक तृप्त नहीं हुआ, तथा अनंतकाल और बीत जानेपरभी तृप्त नहीं हो सकता । यदि यह आत्मा तृप्त हो सकता है, तो आत्मजन्य अनंत सुखसे तृप्त हो सकता है। आजतक अनंत जीव इसीसे तृप्त हुए हैं, और आगेभी इमी आत्मजन्य अनंतसुखसे अनंतानंत जीव तृप्त होते रहेंगे। यह आत्मजन्य अनंत सुख इस जीवने न तो आजतक प्राप्त किया, न प्राप्त करने का प्रयत्न किया और न कभी आजतक देखा । इसलिए हे आत्मन् ! अब तू इन इंद्रियों के विषयोका सर्वथा त्याग कर, और आत्माको सुख देनेवाले आत्माके स्वभावको प्राप्त करनेका प्रयत्न कर। आत्माका स्वभाव प्राप्त होनेसेही इस जीव को अनतमुखकी प्राप्ति होती है।
।
प्रश्न- यदा साधुनिजे तिष्ठेत्तदान्यं दृश्यते न वा ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइए कि जब यह साधु अपनं आत्मामें लीन होता है तब अन्य पदार्थों को देखता है, वा नहीं ! उ.- शुद्धचिद्रूपधाम्न्येव चित्तेन्द्रियाधगोचरे ।
सर्वकर्मक्रियादूरे यवा साधुः प्रतिष्ठति ।। २१८ ॥ तवातिशुद्धचिगुपं समन्ताद दृश्यते यथा । पदध्यानं क्रियते तद्धि स्वप्नेपि दृश्यते सदा ॥ २१९ ॥
अर्थ- यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा इंद्रिय और मनके अगोचर है, तथा समस्त क्रियाकर्म आदिसे रहित है । ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामें जब यह साध लीन हो जाता है, तब वह चारोंओरसे अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माकोही देखता है। उस समय वह और कुछ नहीं देख सकता । जैसे कि ध्यान करनेवाला मनुष्य जिस पदार्थका ध्यान करता है उसी पदार्थको वह स्वप्न में भी देखा करता है।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ - इस संसार में प्रायः यह देखा जाता है, कि यह मनुष्य दिनभर जिसके ध्यानमें लगा रहता है, उसीको स्वप्न में देखता है, उसका मन उस पदार्थ में लीन हो जाता है, और इसीलिए उसके मनमें उस पदार्थका संस्कार जम जाता है। उन्हीं संस्कारोंके जम जानेसे स्वप्न में भी उसके मनमें वे ही पदार्थ चक्कर लगाया करते हैं । इमी प्रकार जब यह साधु अपने इंद्रिय और मनके अन्य समस्त व्यापारांका त्याग कर अपने शुद्ध आत्मामें लीन हो जाता है, उस शुद्ध आत्माका ध्यान करता है, और शुद्ध आत्मस्वरूप हो जाता है, उस समय वह केवल उस शुद्ध आत्माको देखता है। उस समय इंद्रियों का व्यापार बंद हो जानेसे, वह न तो अन्य किसी पदार्थको देख सकता है. और न अन्य किसी पदार्थको जान सकता है। उस समय उसको सित्राय अपने शुद्धआत्माके और न कुछ दिखाई देता है, और न कुछ जाना जाता है. इसीको एकाग्रचित्त निरोध वा ध्यान कहते हैं। अपने चित्तको अन्य समस्त चितवन से हटा कर, किसी एक मुख्य पदार्थ में लगा देना एकाग्रचित्त निरोध कहलाता है, इसीको ध्यान कहते हैं । जब यह आत्मा अपने मनको वा अपने आत्माको अपनेही शुद्ध आत्मामें लगा देता है, तत्र अन्य समस्त पदार्थोंके चितवनका त्याग अपनेआप हो जाता है, और वह फिर किसी भी पदार्थको देख वा जान नहीं सकता। केवल अपनेही आमाको देखता है, और अपनेही आत्माको जानता है, अतएव भन्द जीवोंकोभी मोक्ष सुख प्राप्त करनेके लिए समस्त इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कर ऐसे ही ध्यान करनेका प्रयत्न करना चाहिए ।
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प्रश्न - स्वभावः कीदृशो जन्तोर्गतिर्वा कीदृशी वद ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अव यह बतलाए कि इस जीवनका स्वभाव और गति कैसी है ?
उत्तर - अयमात्मा यवा यत्र चिन्तयति किमप्यहो ।
तदा तत्र प्रयात्येव तन्मयतां स्वभावतः ॥ २२० ॥ ततो वांच्छितवः कार्यो भक्त्या साधुसमागमः । यतः परति त्यक्त्वा स्वात्मात्मनि रतो भवेत् ॥ २२१॥
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( शान्तिसुधासिन्नु )
__ अर्थ- यह आत्मा जब कभी किसी भी स्थानपर, जिस किसी पदार्थका चितवन करता है, तब वह उस समय स्वभावसेही उस पदार्थरूप हो जाता है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको भवित-पूर्वक समस्त इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला साधुओंका समागम करना चाहिए. जिसमे यह आत्मा परपदाथों के मोहको छोडकर अपनहीं आत्मा में लीन हो जाय ।
भावार्थ-- इस आत्माका स्वभाव वा इसकी गतिही ऐसी है कि यह आत्मा जब जिस पदार्थ का चितवन करता है, तब वह अपने आत्माको उसीरूप मान लेता है। जो आत्मा आग्नेयी धारणाका चितवन करता है। उस अग्निकी ज्वालासे अष्टकर्मोको जलता हुआ चितवन करता है। फिर वायवीय धारणाका चितबन करता हुआ वायुके द्वारा उस भस्मको उडानेका चितवन करता है 1 तदनंतर जलीय धारणा चितवन करता हुआ उस जलकी वर्षांके द्वारा अपने आत्माको शांत होना चितवन करता है । तदनंतर कर्मोंके जल जानेसे अपने आत्माको शुद्ध होना चितवन करता है । इस प्रकार वह चितवन करता हुआ अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है, कि अपने शुद्ध आत्माके ध्यानका अभ्यास करनेके लिए साधुवोंके निवासस्थानमें रहना चाहिए। वही रहकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । साधुओंके निवासस्थानमें रहनेसे अन्य समस्त पदार्थोके मोहका न्याग हो जाता है, तथा यह आत्मा ध्यानका अभ्यास करने लगता है, और अनुक्रममे शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ अपने आत्माको शुद्ध बनाकर मोक्षका अनंतसुख प्राप्त कर लेता है ।
प्रश्न- इष्टानिष्टपदार्थः को कस्य स्याद् दुःखदो वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें इष्ट और अनिष्ट पदार्थोका संयोग किसको दुःस्त्र देनेवाला होता है ? उत्तर - स्यादिष्टानिष्टसंयोगोऽन्यहेतुः कोपि वैविकः ।
दुःखदो मूर्खजन्तूनां कामान्धानां भवात्मनाम् ।। २२२॥ मुनीनां श्रावकाणां वा तथाहवर्मधारिणाम् । स्वानन्दसौख्यभाजां न स्वपरतत्त्ववेविनाम् ॥२२३॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- इन संसारी जीवों को जो इष्ट और अनिष्ट पदार्थोका संयोग हुआ करता है, वा इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग हुआ करता है, वह अपने-अपने कर्मोके उदयसे हुआ करता है, तथा आत्सज्ञानमे शुन्य ऐसे अज्ञानी और कामसे अंधे होनेवाले संसारी जीवोंकोही दुःख देनेवाला होता है। परंतु जो पुरुष भगवान अरहंत देवके कहे हए धर्मको धारण करते हैं। जो अपने आत्माके यथार्य स्वरूपको तथा परपदार्थोके स्वरूपको जानते हैं, और जो अपने आत्मजन्य अनंतसुनका अनुभव करते रहते हैं, ऐसे मुनि वा उत्तम श्रावकोंको व इष्टवियोग वा अनिष्टसंयोगसे होनेवाला दु:ख कमी नहीं होता है ।
भावार्थ – इस संसारमें इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग दोनाही अपने अशुभ कर्मके उदयसे होते हैं, तथा काँका उदय अनिवार्य हुआ करता है। उन कर्मोके उदयको इन्द्रादिक देव भी नहीं रोक सकत । इसलिए उसमें दुःख मानना अज्ञानी लोगोंका काम है । अज्ञानी जीव न तो आत्माके स्वरूपको समझते हैं और न कोके उदयको समझते हैं, इसलिए वे किसीभी इष्टकेवियोग होनेपर अथवा किसी अनिष्टके संयोग होनेपर दुःखी हुआ करते है । यह उनके प्रबल मोहका माहात्म्य है । जो मनुष्य अपने मोहका त्याग कर देता है, वह अपने आत्माकही स्वरूपको समझने लगता है, और इसलिए वह आत्माके सिवाय अन्य समस्त पदार्थोंको पर समझता है। यही कारण है, कि वह किसीभी इष्टके वियोग होनेपर दुःख नहीं करता। वह तो अपने आत्माकोही अपना समझता है, इसलिए वह किसीभी पदार्थोमें इष्ट वा अनिष्टकोही कल्पना नहीं करता। जब वह किसीभी पदार्थ में इष्ट वा अनिष्टकी कल्पना नहीं करता तब वह उनके संयोग वा वियोगकोभी समान समझता है । तथा इस प्रकार समताभाव धारण करनेके कारण वह कभी दु:खी नहीं होता। यही समझ कर भव्यजीवोंको सबसे पहले मोहका त्याग कर देना चाहिए। सम्यग्दर्शनकी धारणकर आत्माका स्वरूप समझ लेना चाहिए और फिर समताभाव धारण कर आत्मजन्य सुखका अनुभव करते रहना चाहिए। ऐसा करनेसे इस जीवको कभी दुःख नहीं होता।
प्रश्न – स्ववस्तुग्रहणे स्याद्वाऽन्यवस्तुग्रहणे मुखम् ?
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ - हे भगवान् ! अत्र कुपाकर यह बतलाइये कि इस जीबको अपनी वस्तु ग्रहण करने में सुख होता है, अथवा परपदार्थोक ग्रहण करने में सुख होता है ? उत्तर - व्यथा स्याद्वचनातीताऽन्यबस्तुग्रहणेऽर्थतः ।
स्ववस्तुग्रहणे सौख्यमक्षातीतं स्वभावजम् ॥ २२४ ॥ तथापि मोहमृतश्च त्यक्त्वा स्ववस्तु शर्मदम् । गृह्याति परवस्त्वेव कष्टं दुःख शतप्रदम् ॥ २२५ ॥
अर्थ- वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें परपदार्थोके ग्रहण करनेसे जो दुःख होता है, वह वचनोंसे भी नहीं कहा जा सकता । तथा अपना पदार्थ ग्रहण करनेमें इन्द्रियोंके अगोचर और स्वभाबसे उत्पन्न होनेवाला अपार गुस्त्र प्राप्त होता है । यद्यपि वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है । तथापि मोहसे अज्ञानी हुआ यह मनुष्य कल्याण करनेवाले अपने आत्मतत्त्वको तो छोड देता है, और परपदार्थोकोही ग्रहण करता है। यह मैकड़ों दुःख देनेवाली महाकष्टकी बात है । ___भावार्थ-- इस जीवका स्वपदार्थ शुद्ध आत्मतत्त्व है, तथा अपने आत्माके सिवाय अन्य जितने पदार्थ हैं, वे सब परपदार्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, काम, मोह, राग, द्वेष आदि सब परपदार्थ कहलाते हैं, तथा शरीर, धन, धान्य, सोना, चांदी आदि भी परपदार्थ कहलाते हैं । यह जीव मोहके कारणही परपदार्थोको ग्रहण करता है, और फिर उनमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना कर उनके संयोग-वियोगसे महादुःखी होता है । इस प्रकार यह जीव अनादिकालसे दु:खी होता चला आ रहा है। यह मोह आत्माके स्वरूपको जानने नहीं देता । इसलिए यह जीव अपने आत्माको भूल जाता है। जब यह आत्मा मोहका त्याग कर देता है, और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर आत्माके स्वरूपको समझ लेता है, तब यह आत्मा परपदार्थोको कभी ग्रहण नहीं करता । यदि कारणवश ग्रहण करता भी है, तो उसमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना नहीं करता। इसलिए उन पदार्थाका संयोगवियोग होनेपर भी वह दुःखी नहीं होता। फिर तो बह अपने आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । यह परपदार्थोका त्याग
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शान्तिसुरेश
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करता जाता है । और आत्माकी शुद्धता प्राप्तकर समस्त कर्मोको नष्ट करनेका प्रयत्न करता रहता है । इस प्रकार वह समस्त कर्मोको नष्टकर अनन्तसुखी हो जाता है ।
प्रश्न- परैः को निद्यते जीवः साम्प्रतं मे गुरो वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कंगा जीत्र दूसरों के द्वारा निंदनीय माना जाता है।
उत्तर - योऽन्याभिलाषी विपरीतवेषी, स निद्यते सर्वजनःप्रमहः ।
तथासदैवं नरके निगोदे, पीडामसह्यां सहतेऽन्यदताम्ज्ञात्वेति भयो न भवेत्कदापि, पराभिलाषी विपरीतवेषी। विश्वं स्ववडीव च मन्यमानः, श्रीकुंथुसिंधुविदच्च सूरिः। अर्थ- इस संसारमें जो पुरुष परपदार्थोकी अभिलाषा करता है। और विपरीत भेषको धारण करता है, वह मूर्ख सब लोगोंके द्वारा निंदनीय माना जाता है । ऐसा मनुष्य सदाकाल नरक-निगोदमें पड़ा रहता है । और दूसरोंके द्वारा दिये हुए अमय दुःखोंको सहन किया करता है । यही समझकर भव्यजीवोंको परपदार्थोकी अभिलाषा कभी नहीं करनी चाहिए और कभी विपरीत वेष धारण नहीं करना चाहिए भन्यजीवोंको तो समस्त संसारके प्राणी मात्रको अपनी आत्माके समान समझना चाहिए। ऐसा आचार्यदर्य श्री कुंथुसागरने निरूपण किया है।
भावार्थ-तीय मोह वा तीव्र लोभको धारण करनेवाला मनुष्य सदाकाल संसारके समस्त पदार्थोकी अभिलाषा किया करता है, यद्यपि उन पदार्थाका प्राप्त होना उनके आधीन नहीं है । पदार्थोका प्राप्त होना लाभान्तराय कर्मके क्षयोपशमके आधीन है । जबतक लाभन्तराय कर्मका क्षयोपशम नहीं होता तबतक किसी भी पदार्थकी प्राप्ति नहीं होती। अतएव अभिलाषा करनेवाला मनष्य व्यर्थही अशुभ कर्माका बंध किया करता है । स्वयंभरमण समुद्र में एक सबसे बडा मत्स्य होता है, और उसकी आंख में एक तंदुल मत्स्य नामका छोटासा मत्स्य रहता है। जब वह बड़ा मत्स्य मुंह खोलता है, तब हजारों छोटे-छोटे मत्स्य
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उसके मुख में आते हैं, और वे सब पीछे के रास्ते से निकल जाते हैं, इस देख दुलही करता है, कि यदि मैं होता तो इस प्रकार मुखमें आये हुए सैकड़ों-हजारों मत्स्योंको निकलने नहीं देता, सबको खा जाता। वह तंदुलमत्स्य इस प्रकार सदाकाल चितवन करता रहता है, और इस परपदार्थोंकी अभिलाषा के कारण मरकर सातवे नरक में जाता है। इसलिए भव्यजीवोंको परपदार्थों की अभिलाषा कभी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार विपरीत वेष धारण करनाभी निंदनीय है। जो वेष अपने लिए योग्य होता है, वही वेष उत्तम और प्रशंसनीय माना जाता है। साधुका वेष वीतराग और निविकार निग्रंथ अवस्था है । यदि साधु होकर भी परिग्रह रखता है, वा झोपडी बनाकर रहता है, अथवा भीख मांगकर पेट भरता है, तो वह उसका विपरीत वेष कहलाता हूँ । यदि कोई पुरुष गृहस्थ अवस्था में रह कर छहों खडकी विभूति अपने पास रखता है, तो भी वह निंदनीय नहीं कहलाता, परन्तु वही पुरुष यदि साधु होकर थोडासाभी परिग्रह रखता है, तो अत्यंत निंदनीय कहलाता है । इसका कारण यह है, समस्त पापोंका त्याग कर साधु अवस्था धारण करता है, और साधु होकर शेष समस्त कर्मोंको नाश करनेका प्रयत्न करता है, यदि साधु होकर भी परिग्रह रख कर पाप उत्पन्न करनेका साधन बनाता है, तो फिर वह महापापी कहलाता है । इसलिए साधु पुरुषोंको अपना विपरीत वेष कभी धारण नहीं करना चाहिए। इस प्रकार श्रेष्ठ गृहस्थोंको वा श्रावकोंकोभी अपना विपरीत वेष कभी धारण नहीं करना चाहिए, श्रावकों को सदाकाल ऐसा वेष धारण करना चाहिए जिससे कि कोई श्रावक वा साधु उसे श्रावक समझ ले । मुनि लोग विहार करते हुए न जाने कहांसे आते हैं, तो भी वे श्रावकों के घरोंको ही श्रावकों का घर समझकर उसके भीतरतक हो आते हैं। इसलिए श्रावकोंकोभी अपना वेष कभी चिपरीत नहीं बनाना चाहिए। जो बेष अपने योग्य है, वही वेष धारण करना चाहिए । विपरीत वेष सदा निंदनीय कहलाता है । इसका भी कारण यह है कि विपरीत वेष प्रायः दूसरोंके उगनेके लिए धारण किया जाता है । इसलिए भव्यजीवोंको अपनी योग्यतानुसार वेष धारण करना चाहिए।
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प्रश्न- कस्य तिष्ठति पार्वे भी मुक्ति, मुखदा बद?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मुख देनेवाली मुक्ती किस महापुरुषके समीप रहती है ? उत्तर - बाह्यादिसंगप्रविमुक्तमृत्तः,
कृपाक्षमाशांतिसुखाश्रितस्य । सच्छुद्धचिद्रूपपदस्थितस्य, स्वानन्दतृप्तस्य यतीश्वरस्य ।। २२८॥ मुक्तिःसदा तिष्ठति पार्श्वएथ, विद्यादिदेवीव सुमंत्रमुग्धा। ज्ञात्वेति चिद्रूपपदे पवित्रे, तिष्ठन्तु भव्याः खलु मुक्ति हेतोः ॥ २२९ ॥
अर्थ- जिस प्रकार विद्यादेवी वा अन्य देवियां अपने-अपने वाचक मंत्रोसे मुग्ध होकर आराधन करनेवालेके समीप अपनेआप चली आती है, उसी प्रकार जो मुनिराज अंतरंग-बहिरंग समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देते हैं कृपा, क्षमा, शान्ति, और आत्मजन्य आनंदके आश्रित रहते हैं, सर्वोत्तम शुद्ध चिदानन्द पदमें विराजमान रहते हैं, और अपने आत्मजन्य आनंदसे सदाकाल तृप्त रहते है । ऐसे मुनिराजोंके समीप यह मुक्ति सदाकाल विराजमान रहती है । यही समझकर भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए अत्यंत पवित्र ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप अपने शुद्ध आत्मामें सदाकाल लीन रहना चाहिए।
भावार्थ-- जो लोग मंत्र जपकर, देवताओंका आराधन करते हैं। उनके पास वे देवता उन मंत्रोके आधीन होकर अपनेआप चले आते हैं । इस प्रकार जो मुनिराज मुक्तिकी आराधना करते हैं, उनको मुक्ति भी अवश्य प्राप्त होती है । मुक्तिका अर्ध छूटना है । यह जीव अनादिकालसे कर्मोंसे बंधा हुआ है । अतएव उन समस्त कर्मोसे छूट जानाही मुक्ति कहलाती है। वे कर्म अंतरंग-बहिरंग परिग्रहोंसेही बंधते हैं, इसलिए वे मनिराज उन कर्मोको नाश करनेके लिए सबसे पहिले अंतरंग-बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका सर्वथा त्याग कर देते
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हैं; समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे फिर मुनिराज किसी पापसे लिप्त नहीं होते, इस प्रकार वे मनिराज कर्मोके आने केमार्ग बंद कर देते हैं । इसके सिवाय वे मुनिराज समस्त कषायोंका त्याग कर तथा समस्त इन्द्रियोंका निग्रह कर, कृपा, क्षमा, शांति आदि आत्माके गुणोंको धारण करते हैं । रागद्वेषका त्याग कर, आत्मजन्य मुखसे सुखी होते हैं । इसप्रकार वे मनिराज आगामी कर्मबंधको रोककर कृपा, क्षमा, शांति, समता, आदि आत्मगुणोंके द्वारा आत्माके साथ लगे हुए पिछले कर्मोको नष्ट करले हैं। वे मुनिराज इस प्रकार अपने आत्माको कषायरहित अत्यंत पवित्र, निर्मल बनाकर अपने आत्मजन्य चिदानंद स्वरूप में स्थिर और लीन हो जाते हैं, तथा फिर वे उस शुद्ध चतन्यमय सखसे तृप्त रहते हैं । इसप्रकार जब वे मुनि अपने आत्मध्यानद्वारा उस मुवितका आराधन करते हैं, तब वह मुक्ति सदाकाल उनके पासही रहती है, अर्थात् ऐसे मनिराज शीघ्रही उरा ध्यानद्वारा अपने समस्त कौंको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इसलिए आचार्य महाराज यही उपदेश देते हैं कि, भव्यजीवोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिए समस्त परिग्रहादिकोंका त्याग कर, अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मामे लीन होनेका प्रयत्न करना चाहिए । __ प्रश्न - कर्ममल्लनिरोधार्थ कि कार्य वद मे प्रभो !
अर्थ – हे प्रभो ! कृपा कर यह बतलाइए कि इस कर्मरूपी मल्लको रोकनेके लिए क्या-क्या कार्य करना चाहिए। उत्तर - क्रोधादिमोहस्य विनाशकर्तु
विज्ञानमल्लस्य सुखप्रवस्य । नित्यं निवासःसुखदोस्ति यत्र स्वानेपि तत्रात्मनि चित्स्वरूपे ॥ २३० ॥ न फर्ममल्लस्य भवेग्निवासस्ततः प्रमूढः स बहिः प्रयाति । ज्ञात्वेति विज्ञानभटोस्ति सेथ्यः कुकर्ममल्लस्य निरोधनार्थम् ॥ २३१ ॥
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अर्थ - यह स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल, क्रोधादिक कपायपी मल्लोको और मोहरूपी हालको नाश करबला है, और दाल आत्माको सुख देनेवाला है। ऐसा यह स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल जिस चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मामें अपना मुख देनेवाला निवासस्थान बना लेता है, उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामें कर्मरूपी मल्लका निवास कभी नहीं हो सकता। फिर तो वह कर्मरूपी मल्ल उस विज्ञानरूपी मल्लके निवास स्थान से बाहर होकर दूर भाग जाता है। यही समझकर भव्यजीवोंको अशुभ कर्मरूपी मल्लको रोकने वा भगानेके लिए विज्ञानरूपी मल्लकी सेवा करनी चाहिए ।
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भावार्थ ये कर्म बहुत बड़े मल्ल हैं । इनका उदय किमो में नहीं रोका जा सकता | देखो ! इन कर्मो केही उदयसे रामचन्द्र, लक्ष्मण ऐसे योद्धाओंकोभी वन-वन में भटकना पडा, इन कर्मो केही उदयसे सती सीताको अनेकवार दुःख भोगने पडे, इन कर्म केही उदयसे सती अंजनाको महादुःख भोगने पड़े। औरोंकी बातही क्या है, यह कर्मोंका उदय तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ता । इन्द्र चक्रवर्ती आदि किसीको नहीं छोडता, इसलिए इन कर्मोको महाबलवान माना है। ये कर्म इस संसार में किसी से नहीं हारते हैं। यदि हारते हैं, तो एक स्वपरभेदविज्ञारूपी मल्लसे हारते हैं । इन कर्मरूपी मल्लोंको स्वपरभेदविज्ञानरूपी महामल्लका इतना डर लगता है, कि जिस चैतन्यस्वरूप आत्मामे स्वपरभेदविज्ञानरूपी मल्ल अपना निवासस्थान बना लेता है, अर्थात् जिस आत्माको स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, उस आत्मा में फिर बे कर्मरूपीमल्ल कभी नहीं रह सकते । फिर वे कर्म उस आत्मा निकलकर दूर भाग जाते हैं, स्वपर भेदविज्ञान प्रगट होनेपर अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट होनेपर यह आत्मा ध्यान, तपश्चरण आदिके द्वारा बहुत शीघ्र उन कर्मीको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसलिए भव्यजीवोंको सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेना चाहिए और फिर चरित्र धारणकर, ध्यान वा तपश्चरणद्वारा अपने समस्त कर्मोंको नष्ट कर मोक्षप्राप्त कर लेना चाहिए । आत्मा के लिए यही कल्याणका सर्वोत्तम मार्ग है ।
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प्रश्न - सेवावृत्तिभवेल्लोके किदृशी वद मे गुरो ?
अर्थ – हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में सेवावृत्ति वा सेवा करना कैसा है ? उ. मौन्येव मर्यो भयवान् क्षमावान वाग्मी प्रजल्पी च दमी ह्यभागी
यः पार्श्व वासीसखलश्च धृष्टः, सूदूरवासी विनयप्रलोपी २३२ स्यान्मन्वगामी हलसः प्रमादी, सुतीव्रगामी चपलोऽविचारी । स्वामीति भृत्यं वदति स्वमत्तः, सेवाप्रवृत्तिश्च ततो न कार्या
अर्थ – जिसकी सेवा की जाती है, उसको स्वामी कहते हैं । वह स्वामी अपने धनसे सदा मदोन्मत्त रहता है । यदि सेवक अधिक बातचीत नहीं करता, मौन रहता है, तो स्वामी उसे मूर्ख कहा करता है। यदि सेवक क्षमा धारण करता है, तो स्वामी जमे भयभीत बतलाता है । यदि सेवक अधिक बोलता है, तो स्वामो उसे बकवादी कहता है। यदि सेवक अपनी इन्द्रियोंका दमन करता रहता है, तो स्वामी उसे भाग्यहीन बतलाता है। यदि सेबक सदाकाल समीप रहता है, तो स्वामी उसे धृष्ट और दुष्ट कहता है । यदि सेवक दूर-दूर रहता है, तो स्वामी उसे अविनयी बतलाता है। यदि सेवक धीरे-धीरे चलता है, तो स्वामी उसे आलसी और प्रमादी कहता है । तथा यदि सेवक शीघ्रताके साथ चलता है तो स्वामी उसे विचार न करनेवाला चंचल बतलाता है इस प्रकार यह स्वामी प्रत्येक बातमें सेवकको निन्दा करता है, इसलिए यह सेवावृत्ति कभी किसीको नहीं करनी चाहिए ।
भावार्थ - वास्तव में देखा जाय तो सेवा करना निन्दनीय कार्य है। कोई पूरुष निर्धन होने के कारण दूसरोंकी सेवा करता है । परन्तु स्वामी इस बातको नहीं समझता । धनी स्वामी अपने धनमें उन्मत्त रहता है, इसलिए वह उस सेवकके गुण-दोषोंको कुछ नहीं देखता, यदि सेवकमें अनेक गुण भी होते हैं, तोभी वह उनको दोषही बतलाया करता है । यदि सेवक कम बोलता है तो स्वामी उसे मूर्ख कहता है, गूंगा कहता है। यदि अधिक बोलता है तो उसे बक-बक करनेवाला बकवादी कहता है । यदि सेवक क्रोध करता है तो स्वामी उसे क्रोधी
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हत्यारा कहता है। यदि क्षमा धारण करता है, तो भयभीत वा डरपोक बतलाता है । यदि वह इंद्रियोंको वशमें रखता है, तो उसे भाग्यहीन बतलाता है । यदि सेवा करनेके लिए समीप रहता है, तो उसे भ्रष्ट कहता है, दूर रहता है, तो अविनयी, कामचोर बतलाता है। धीरे चलता है, तो आलसी कहता है। यदि शीघ्र चलता है, तो चंचल वा बिना वितारे काम करनेवाला कहता है । कहां तक कहा जाय, सेवकके लिए कहीं किसी प्रकारभी सुख नहीं है, इसलिए धनसे उन्मत्त रहनेवाले धनी लोगोंकी सेवा कभी नहीं करना चाहिए, यदि सेवाही करना है तो, भगवान अरहंत देवकी सेवा करना चाहिए अथवा वीतराग निग्रंथ गुरुकी सेवा करना चाहिए। इनकी सेवा करना सदाकाल प्रशंसनीय माना जाता है, तथा धनीकी सेवा करने में बहुतसी निंदाके साथ-साथ थोडासा धन प्राप्त होता है, परंतु भगवान अरहंत देवकी सेवा को लथा ती। निगम की सेगरी तीनों लोकोंकी संपत्ति प्राप्त होती है, तीनों लोकोंके इंद्र उसके दास हो जाते हैं, और वह परमपूज्य हो जाता है 1 धनिकोंकी सेवा करते करते अनंतकाल बीत गया. और इसके फलस्वरुप सिवाय नरकादि दुःखके और कुछ प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए अब धनिकोंकी सेवाका त्याग कर, देव और गुरुकी सेवा करना चाहिए जिससे आत्माका यथार्थ कल्याण हो ।
प्रश्न – राजा नियुज्यते राज्य कीदृग्मे शान्तये वद ?
अर्थ - हे भगवन् ? अब कृपाकर यह बतलाइये कि राज्यसिंहासनपर कैसा राजा नियुक्त करना चाहिए। उ. उवारबुद्धिर्वरधर्यधारी त्राता, सुनां निजपुत्रवत् यः । - स्वाचारनिष्ठः कुशलः सधर्मोऽमानी, सनोतिविनयी प्रतापो॥
धोरः कृपालुर्भवभीरुरेव, समस्तसंसारविचारवेदी। स्वानंदतुष्टः स्वपरात्मतोषी, राजा स राज्ये सुजनैनियोज्यः॥)
अर्थ - जो उदार बुद्धिको धारण करनेवाला हो, धीर-बीर हो, समस्त प्राणियोको पुत्रके समान रक्षा केरनेवाला हो, अपने आचरण और विचारों में श्रद्धा रखनेबाला हो, प्रत्येक कार्यमें कुशल हो, धर्मको
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धारण करनेवाला हो, अभिमानी न हो, न्याय और नीतिका पालन करनेवाला हो, विनयवान् हो, प्रतापी हो, धैर्यको धारण करनेवाला हो, कृपाल हो, संसारसे भयभीत हो, समस्त संसारके विचारोंको जाननेवाला हो, अपने आत्मासे उत्पः होनेवाले लद हो धारण करनेवाला हो, और सबको संतुष्ट रखनेवाला हो, ऐसा पुरुष सज्जनोंके द्वारा राज्यसिंहासनपर नियुक्त होना चाहिए।)
भावार्थ - यह नियम है कि जैसा राजा होता है, वैसीही प्रजा हो जाती है । यदि राजा धर्मात्मा होता है, तो प्रजाभी धर्मात्मा होती है, यदि राजा पापी होता है, तो प्रजाभी पाप करने लगती है। यदि राजा साधारण होता है, तो प्रजाभी साधारणही रह जाती है । यदि राजा दान-धर्म करने लगता है, तो प्रजाभी दान-धर्म करने लगती है। अपने राज्यमें राजा सबसे बड़ा माना जाता है । इसलिए सब प्रजा उसीके अनुसार चलती है । यदि राजा उन्नतिशील होता है. तो उसकी प्रजाभी उन्नति करने लगती है। यदि राजा आलसी होता है, तो प्रजाभी आलस्य करने लगती है । यदि राजा व्यापार-कुशल होता है, तो प्रजाभी व्यापारमें कुशल होती है। यदि राजा गुरुभक्त होता है, तो प्रजाभी गुरुभक्त बनती है । अभिप्राय यह है कि जैसा राजा होता है. वेसीही प्रजा होती है । इसलिए लोगोंको उचित है कि वे राज्य-सिंहासनपर ऐसे पुरुषको नियुक्त करें जिसमें राजाके पूर्ण गुण विद्यमान हो । राजाको सबसे पहले क्रोध, मान, काम, मोह आदि अंतरंग शत्रुओंको जीत लेना चाहिए । जो अंतरंग शत्रुओंको नहीं जीत सकता. वह राज्यके बाहरी शत्रओंकोभी नहीं जीत सकता । इसलिए अंतरंग शत्रुओंको जीतना उसके लिए परम । आवश्यक है । इसके सिवाय दान, मान, दंड, भेद, संधि, विग्रह आदि गुणोंकोभी जान लेना चाहिए । यदि राजा इन गुणोंसे काम न लेगा तो उसका राज्य कभी नहीं टिक सकता । इन नीतियोंका जानकार राजा अपनेसे बडे राजाओं को भी वशमें कर लेता है, और इन गुणोंसे काम न लेनेवाला बडा राजाभी, छोटे राजाकेद्वारा परास्त होकर नष्ट हो जाता है । इसलिए इन नीतियोका जाननाभी. राजाके लिए परम आवश्यक है। इस प्रकार अपनी प्रजाको संतुष्ट रखनाभी
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राजाका कार्य है । यदि प्रजा असंतुष्ट हो जायगी तो उस राजाको राज्यसिंहासनसे अलग कर सकती है, कहांतक कहा जाय ? राज्यसिंहासनगर वही राजा टीक सकता है जिसमें ऊपर लिखे हुए राजाके समस्त गुण हो ।
प्रश्न- कसाधुब्रह्मचारी कः कदा मे कीदृशो बद
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि किस-किम समयमें कौन-कौन साधु कहलाता है, और किस-किस समयमें कैसा ब्रह्मचारी कलाता है ? उ.-यो ज्ञानहीनश्च भवेत्स साधुः स ब्रह्मचारी रमया विहिनः
यः पुत्रहीनः सच देवभक्तः संषा सुशीला जरयातिजीर्णा २३६ ध्याता स मंत्रस्य धनेन हीनो, यो दन्तहीनश्चणकाद्विरक्त । यो धैर्यधारो परस्य दुःख सस्पेशाः कौ बहवश्च मूर्खाः २३७ पूर्वोक्तदोषश्च विवजिता ये, सन्त्यत्र लोके विरलाश्च भञ्याः। त्यक्त्वा स्पृहादि सुकृति हि कृत्वा,स्वर्गापवर्ग क्रमतो लभन्ते।।
अर्थ - इस संसारमें अहतसे लोग मायाचारीभी करते हैं। जो लोग आत्मज्ञानमे सर्वथा रहित होते हैं, वे साधु हो जाते हैं. जो लोग धनहीन वा स्त्रीहीन होते हैं, वे ब्रह्मचारी कहलाते हैं, जिनके पुत्रपौत्रादिक संतान नहीं होती, वे लोग देवोंकी भक्ति किंगा करते है, और देवभक्त कहलाते हैं । जो स्त्री वृद्धावस्था होनेके कारण अत्यन्त जीर्णशीर्ण हो जाती है, वह शीलवती कहलाती है । जो धनहीन होता है वह अनेक मंत्रोंका ध्यान करनेवाला ध्याता कहलाता है। जिसके दांत सब गिर जाते हैं. वह चना-चबानेका त्याग कर देता है । जो दूसरोके दुःख में भी धैर्य धारण करता रहता है, वह धीर-वीर कहलाता है । इस प्रकार संसारमें अनेक अज्ञानी देखे जाते हैं, परंतु जो लोग ऊपर लिखे दोषोंसे रहित हैं, ऐसे भव्यपूरुष इस मंसारमें बढ़त थोडे हैं । ऐसे भव्य मनुष्य अपनी इच्छाओंका त्याग कर पुण्य उपार्जन कर लेने हैं और अनुक्रमसे स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
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भावार्थ- यह आत्मा अनादिकालसे कर्मों के आधीन होकर अनंत दुःम्ल भोग रहा है। उन कर्मोसे छुटनेके लिए सबसे पहले आत्मज्ञानकी आवश्यकता है। जो पुरुष आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, वही पुरुष रागद्वेष, काम, कषाय, आदि विकारोंका त्याग कर, तथा बाहय परिग्रहका त्याग कर, उन कर्मोको नष्ट करने के लिए, साधू अबस्था धारण करता है । इसका कारण यह है कि, कर्मों का नाश ध्यान और तपश्चरणके द्वारा होता है, तथा वह ध्यान और तपश्चरण गृहस्थ अवस्थामें हो नहीं सकता, इसलिए वह साधु होकर रातदिन ध्यान वा तपश्चरण किया करता है । परंतु जो लोग आन्मज्ञान प्राप्त किये बिनाही साधु हो जाते हैं, वे साधु अपने अशुभ ध्यानके द्वारा गृहस्थ अवस्थासे भी अधिक पाण उत्पन्न करने रहते हैं। ऐसे साधु बिना आत्मज्ञानके अपनी आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकते । इस प्रकार ब्रह्म उदका अर्थ आत्मा है । जो पुरुष अपने ब्रह्म अर्थात् आत्मामें लीन बने रहते हैं, उनको ब्रह्मचारी कहते हैं। ऐसे ब्रह्मचारी धन, स्त्री, आदिके रहते हुए भी उन सबका त्याग कर देते है। इसलिए ऐसा ब्रह्मचारीही वास्तविक ब्रह्मचारी है । जिसकी सन्त्र लालसाएं नष्ट हो जाती हैं, वही ब्रह्मचारी कहलाता है। जिसकी लालसाएं नष्ट नहीं होती वह कभी ब्रह्मचारी नहीं कहलाता । इस प्रकार अपने-अपने स्वार्थ के लिए सभी लोग देवोंकी भक्ति करते हैं, बा मंत्रोका जप करते हैं, परंतु वह भक्ति
और जप कर्मोको नष्ट नहीं कर सकता । उससे तो बहुत से अशुभ कर्मोका बंधही होता है । इसलिए कर्मोको नष्ट करनेके लिए तथा अपने आत्माको शुद्ध निर्मल बनानेके लिए जो देवभक्ति की जाती है, वा जप किया जाता है वहही देवभक्ति वा जप कहलाता है । यही समझकर भव्यजीवोंको सबसे पहले अपनी लालसाओंका त्याग कर देना चाहिए
और फिर अपने आत्माके गुणोंका अनुभव करते हुए कर्मोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही इस संसारमें सार है।
प्रश्न- कस्य त्यागेन जीवः को सुखी स्यावद मे गुरो?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारम यह जीव किस-किसका त्याग करनेसे सुखी होता है।
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शान्तिसुधासिन्धु )
उ. त्याज्यो गुरुः स्वात्मसुखेन शून्यो, देवोपि चाष्टादशदोषयुक्तः । त्याज्यश्च धर्मोपि दद्याविहीनो, स्नेहविना बंधुसुमित्रवर्गः ॥ श्रेष्ठश्च राजाप्यहितस्य कर्ता, त्याज्यः स देशो व्रतशीलहीनः । त्याज्या हि नारी कलहस्य कर्त्री, क्रियाश्च हेया अपि भावशून्याः
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अर्थ-- इस जीवको निश्चिन्त और मुखी होनेके लिए ऐसे गुरुका त्याग कर देना चाहिए, जो अपने आत्मसुखका अनुभव भी न कर सकता हो । ऐसे देवका त्याग कर देना चाहिए, जिसमें अठारह दोषों में म कोईभी दोष हो । ऐसे धर्मकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो दयामे रहित हो, ऐसे भाई-बंधुओंका तथा मित्रवर्गोकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो स्नेहभी न रखते हों। उस श्रेष्ठ राजाकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो अपना अहित करनेवाला हो। उस देशकाभी त्याग कर देना चाहिए, जिसमें व्रत और शीलों का भी पालन न हो सकत हो । उस स्त्रीकाभी त्याग कर देना चाहिए, जो रातदिन कलह करनेवाली हो। और ऐसी क्रियाओंकाभी त्याग कर देना चाहिए जो भावपूर्वक न की जाती हों ।
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भावार्थ- आत्मसुख की प्राप्ति के लिए गुरु किया जाता है, तथा आत्मसुख उसीसे प्राप्त हो सकता है, जो स्वयं आत्मसुखका अनुभव करता हो । जो गुरु स्वयं आत्मसुखका अनुभव नहीं करता. अपना समस्त जीवन इंद्रियों केही सुखमें व्यतीत कर देता है, उसको गुरु बनाने से कोई लाभ नहीं । इसलिए ऐसे गुस्का त्याग कर देनाही सबसे अच्छा है । देवकी सेवा स्वयं निर्विकार और निर्दोष बनने के लिए की जाती है, तथा निर्दोष और निर्विकार उसी देवकी सेवा करनेमे हो सकता है, जो देव स्वयं निर्दोष निर्विकार तथा वीतराग सर्वेज हो । यह निश्चित सिद्धांत है, कि जो देव निर्दोष होता है, वह अवश्य सर्वज्ञ होता है । इसलिए ऐसे देवकी सेवा करनेसेही यह मनुष्य वीतराग सर्वज्ञ हो सकता है। जो देव-देव होकरभी निर्दोष न हो, ऐसे देवकी सेवा करने से कोई लाभ नहीं हो सकता । इसलिए ऐसे देवकी सेवाका त्याग कर देनाही अच्छा है। इस प्रकार धर्मका धारण, जीवोंकी रक्षाके लिए किया जाता है । जो धर्म स्वयं दया पालन करनेका आदेश नहीं
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देता ऐसे धर्मसे पापके सिवाय और क्या लोभ हो सकता है । इसलिए ऐसे धर्मकाभी त्याग कर देना अच्छा है। बंधु मित्रभी स्नेह रखने के लिए, समयपर सहायता पहुंचाने के लिए और हर्ष-विषादमें साथ देनेके लिये होते हैं । जो मित्र व बंधुजन स्नेहभी नहीं रखते हों, वे भला सहायता क्या पहुंचा सकेंगे? इसलिए ऐसे बंध व मित्रोंसे कोई लाभ नहीं है। ऐसे बंधु व मित्रोंकाभी त्याग कर देना चाहिए। जो राजा उत्तमभी हो, परंतु अहित करनेवाला हो, प्रजाको, लोगोंको दुःख पहुंचाता हो, तो ऐसे राजासेभी कोई लाभ नहीं है । राजा तो प्रजाका हित करने और सुख पहुंचानेके लिए होता है । जो राजा प्रजाका हित न करे, ऐसे राजासे क्या लाभ है? इस प्रकार जिस देश में रहने से अपने धर्मका साधन न होता हो, सम्यग्दर्शनका पालन न होता हो, व्रत बा शीलका पालन न होता हो, तो उस देशका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । धर्मसाधन करनाही इस मनुष्यजन्मका सार है। यदि इस धर्मकासाधन जिस देश में न होता हो, जिस देशमें कोई जिनालय न हो, धर्मात्मा लोग न हों, साधु वा गुरु न हों, ऐसे देश में जानाही नहीं चाहिए । यदि किसी कारणसे पहुंच जाय तो शीघ्रहीं उसका त्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार कलह करनेवाली स्त्रीसे सदा दुःख अना रहता है, इसलिए ऐसी स्त्रीसे सुख नहीं मिल सकता । स्त्री सुत्रके लिए होती है। यदि उससे दुःखही पहुंचता रहे, तो ऐसी स्त्रीसे प्रया लाभ है ? इस प्रकार देवपूजा, गुरुकी उपासना, दान देना, धर्मग्रंथोंका पठन-पाठन करना, आदि जितनी क्रियाएं हैं, वे सब भावपूर्वक करनेसेही सफल होती हैं। बिना भादोंके उन क्रियाओंसे जैसा चाहिए, वैसा फल नहीं मिलता, इसलिए सब क्रियाए भावपूर्वक ही होनी चाहिए ।
प्रश्न-- कामखन्लेन योग्रस्तः स कीदृशो वद में प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि जो पुरुष इस दुष्ट कामदेवके वशीभूत रहते हैं, वे कैसे कहलाते हैं ? उ. ग्रस्तोस्ति यः कामखलेन जीवः स्वानन्दसाम्राज्यविनाशकेन । वक्षः सकुण्ठश्चतुरोपि मूर्खः कोपी समान् भयवांश्च शूरः ॥
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(शान्ति सुधासिन्धु )
ज्येष्ठः कनिष्ठः सुजनोपि दुष्ट स्तीव्रोपि मन्दः प्रबलोप्यशक्तः । नीच कुलीनः विवशो वशः स्यात् बुद्ध्वेति तत्त्याग विधिविधेयः अर्थ अपने आत्मजन्य आनन्दका नाश करनेवाला यह कामदेव अत्यन्त दुष्ट है, जो पुरुष ऐमें इस कामदेवके वशीभूत हो जाता है, वह चतुर हो कर भी मूर्ख कहलाता है, तीव्र बुद्धिका हो कर भी कुंठित बुद्धिवाला कहलाता है, क्षमाको धारण करनेपर भी कोटी कहलाता है, शूरवीर हो कर भी भयभीत कहलाता है. सबसे बड़ा हो कर भी सबसे छोटा कहलाता है, सज्जन हो कर भी दुष्ट कहलाता है। तीव्र होकरभी मंद कहलाता है, बलवान होकरभी असमर्य कहलाता है, कुलीन हो कर भी नीच कहलाता है, और स्वाधीन हो कर भी पराधीन कहलाता है, यह समझकर इस कामदेवका त्याग करनाही मनसे अच्छा है ।
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भावार्थ - इस संसार में यह कामदेव सबकी बुद्धि भ्रष्ट कर देता हैं, सबको निर्लज्ज बना देता है, सबको महापापी बना देता है, और सबको अनेक प्रकारके महादुःख दिया करता है, रावण बहुत बडा प्रतापी राजा था. अर्द्ध चक्रवर्ती था, महाविद्वान् था और सर्वश्रेष्ठ देवभक्त था । तथापि केवल कामदेव के वशीभूत हो करही उसने सीताका हरण करनेका महानीच कार्य किया था । ऐसे बड़े कुलमें उत्पन्न हो कर ऐसा नीच कार्य करनाही आजतक उसकी निंदा करा रहा है। श्री रामचंद्र एक आदर्श महापुरुष राजा थे, अत्यन्त योद्धा थे, मोक्षगामी थे, और सर्वगुणसंपन्न थे, तथापि सीताका हरण होनेपर वे विव्हल हो गये । वृक्षोंसे भी सीताकी खबर पूछते फिरे, यह कामदेव के आधीनताका फल है, इस संसारमें हजारों लाखों योद्धाओंको जीतनेवाले अनेक शूर-वीर हैं, परंतु यथार्थ शूर-वीर वही कहलाता है, जो स्त्रियोंके कटाक्षसे कभी घायल नहीं होता. अर्थात् जो कामदेवके वशीभूत कभी नहीं होता। ऐसे शूर-वीर इस संसार में बहुत थोडे होते है, और जो होते हैं, वे फिर इस संसार में परिभ्रमण नहीं करते, फिर तो वे चरित्र धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
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प्रायः यह समस्त संसार कामदेवके वशीभूत है। यह कामदेव सत्रको निर्लज्ज बना देता है, इसीलिए यह मनुष्य अपनी लज्जा छोड़कर
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( शान्तिमुधासिन्धु )
न जाने करे. कुन मला है। इसके वशीभूत हुआ मनुष्य न माताको देखता है, बहिनको देखता है, न बेटीको देखता है, न पिना वा अन्य गुरुजनोंको देखता है । इन सबके रहते हुए भी वह अनेक प्रकारकी कुचेष्टाएं किया करता है, अनेक प्रकारके भंड वचन कहा करता है। वास्तवमें देखा जाय तो, यह कामदेव मनुष्यताको भी खो देता है । इसलिए वह मनुष्य नीच कृत्य करने लगत है । सब लोग उसको धिक्कार दिया करते हैं और ऐसा मनुष्य फिर कभी भी अपना आत्म-कल्याण नहीं कर सकता, इसलिए भव्यजीवोंको इस कामदेवका त्याग कर, आत्मगण चितवन करते रहना चाहिए। जिससे कि मीनही आत्माका कल्याण हो ।
प्रश्न - साधुसंगेन किं कि भो लभन्ते ये जना वद ?
अर्थ-- हे भगवान ! अब कृपाकर यह बतलाइयं कि साधुओंके ममागमसे मनुष्योंको किन-किन गुणोंकी प्राप्ति होती है ? उ. मुष्णाति दूरात्कलुषं व्यथादि पुष्णाति पुण्यं सुखदं क्षमादिम्
श्रेयोनुबध्नाति शिवप्रदं च सत्यार्थतत्वं विशदीकरोति ।। भस्मीकरोत्येव भवांकुराणि पूतं स्वराज्यं प्रकटीकरोति । ज्ञात्वा फलं साधुसमागमस्य संगं सुकार्य सुखवं स्वसिद्धये ।।
अर्थ- साधुओंका समागम करनेसे सब पाप दूर भाग जाते हैं, मव दुःख दूर भाग जाते हैं, पुण्यकी वृद्धि होती है, सुख देनेवाले क्षमा आदि गुणोंकी वृद्धि होती है, मोक्ष देने वाले कल्याणकी वृद्धि होती है। आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है, जन्म-मरणरूप संसारके सब अंकूर भस्म हो जाते हैं, आत्माका शुद्धतारूप पवित्र स्वराज्य प्रगट हो जाता है, इस प्रकार साधुओंके समागका फल समझ कर, अपने आत्माकी सिद्धिके लिए, साधुओंका समागम सदाकाल करते रहना चाहिए।
__ भावार्थ- साधुओंका समागम करनेसे, उनके दर्शन करनेसे, उनकी सेवा करनेसे तथा उनकी भक्ति करनेसे आत्माके सन्त्र पाप नष्ट हो जाते हैं, अनेक रोग दूर हो जाते हैं, और महापुण्यको प्राप्ति
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
होती हैं, साधु महात्मा महापवित्र होते हैं, वे अपने पापोंको नष्ट कर देते हैं, अशुभ कर्मोको नष्ट कर देते हैं, और अपने आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रगट कर लेते हैं। जिस प्रकार निर्मल दर्पण में अपना मुंह देखनेसे अपना मुंह स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार निर्मल साधुकोंके दर्शन करने से भी आत्मा अपना पवित्र हो जाता है । साधुओं के समागमसे, उनके उपदेश से यह आत्मा अपने समस्त पापोंका त्याग कर देता है, और चारित्र धारण कर आत्माका कल्याण कर लेता है । इसलिए भव्य जीवोंको सदाकाल साधुओं का समागम करते रहना चाहिए । प्रतिदिन साधुओं का समागम करनेसे किसी न किसी दिन मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है ।
प्रश्न - केवलं व्यवहारे यो मग्नः स वद कीदृश: ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो केवल व्यवहारमें ही लीन रहता है, वह कैसा है ?
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उ.- विपत्प्रकीर्णे भवदुःखपूर्ण द्वेषादिहेतौ व्यवहारकायें ।
सेव्ये सदा स्वात्मविमूढजन्तोर्जागर्तियः स्वात्म विचारशून्यः ॥ स एव पापी स च नेत्रहीनः स श्वभ्रगामी स च भाग्यहीनः । सुप्तास्ति शुद्धे सुख दे स्वभावे ज्ञात्येति तत्त्यागविधिविधेयः
अर्थ - यहां पर व्यवहार कार्यका अर्थ लौकिक कार्य है । ये लौकिक कार्य अनेक विपत्तियोंसे भरे हुए हैं, जन्म-मरणरूप संसारके दु:खोंसे भरे हुए हैं, राग द्वेषके कारण है, और आत्मा के स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी जीवही इनकी सेवा करते हैं । जो पुरुष अपने आत्माके स्वरूपका विचारभी नहीं कर सकता, ऐसा अज्ञानी पुरुषही इन व्यवहार कार्यों में सदाकाल जाग्रत रहता है। ऐसा पुरुष महापापी कहलाता है, नेत्रहीन कहलाता है, भाग्यहीन कहलाता है, नरकगामी कहलाता है, और वह सुख देनेवाले स्वभावकी प्रकृतिके लिए सदाकाल सोता साही रहता है । यही समझ कर इन व्यवहारकार्यों का त्याग कर देनाही सबसे अच्छा है ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- खेती व्यापार आदि जीविकाके साधन और पांचों इंद्रियोंके विषयसेवन करना, व्यवहार कार्य बालौकिक कार्य कहलाते हैं । इन जीविकाके साधन करने में बा इंद्रियोंके विषयसेवन करने में सदाकाल अनेक प्रकारको विपत्तियां आती रहती है, कभी इष्ट-त्रियोग होता है, कभी अनिष्टसंयोग होता है. कभी अनेक प्रकारके रोग होते हैं, कभी निर्धनता होती है, कभी राज्यकी ओरसे अनेक प्रकारकी आपत्तियां आ जाती है, कभी चोर सताते हैं, कभी दुष्ट सताते हैं, और कभी आकस्मिक आपत्तियां आ जाती हैं। इसी प्रकार इन कार्यों में रात-दिन महापाप उत्पन्न होते रहते हैं। जिनके कारण यह जीव नरकनिमोद आदिके महादुःख भोगा करता है, और अनंतकालतक इस मंसारमें परिभ्रमण किया करता है । ये व्यवहारकार्य सब राग द्वेषस उत्पन्न होते हैं, राग-द्वेष उत्पन्न करते रहते हैं । और उन राग-द्वेषके कारण महापाप उत्पन्न होता है। इसलिए इन व्यवहारकार्यो में आत्माकं स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी लोगही मग्न रहते हैं । जो लोग आत्माके यर्थाथ स्वरूपको समझते है, वे इन दुःख देनेवाले व्यवहार कार्यो में कभी नहीं फंसते, वे तो फिर इनका सर्वथा त्याग कर, आत्माके अनपम सुख में सदा लीन रहते हैं। जो लोग आत्मज्ञानसे सदा विमुख रहते हैं. वे ही लोग इन व्यवहारकार्योमें सावधान रहते हैं, तथा आत्माको मुख देनेवाले स्वभावमें फिर वे असावधान हो जाते हैं, सो जाते हैं। उस असावधानीमें आत्माके स्वरूपको न देखने के कारण वे नेत्रहीन कहलाते हैं । आत्माका स्वरूप अपना निजका स्वरूप है । जो मनुष्य अपनही पदार्थको नहीं देख सकता, उसे भला कौन पुरुष नेत्रहीन नहीं कह सकता । इस प्रकार वह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंमें लगे रहनेके कारण महापाप उत्पन्न करता रहता है, पापी होने के कारण उसके सदाकाल पापकर्मोकाही उदय बना रहता है, शुभ कमौका उदय नहीं होता, इसलिए वह भाग्यहीन कहलाता है, तथा पापोंकेही कारण वह नरकगामी होता है, यह समझकर भव्य-जीवोंको इन व्यवहार कार्योंका त्याग कर, आत्माका कल्याण करने के लिए आत्माके कार्यमें लगना चाहिए, सम्यग्दर्शन प्रगट कर, चारित्र धारण कर, मोक्ष प्राप्तकर लेना चाहिए । यही इस संसारमें सार हैं।
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( शान्तिसुधासिन्धु)
प्रश्न- बदात्र पंचमे काले सम्पति स्यान्मुनिर्न बा ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि अव पंचम कालम मुनि होते है वा नहीं ! उ. अद्यापि धीरो जिन लंगधारी, तत्त्वार्थवेदी भवबंधभेदी ।
निजात्मनिष्ठोऽखिलसंगमुक्तः, शुद्धोस्ति लोकेत्रमुनिःप्रवीरः स्वानन्दमूर्तेश्च यतेहि यस्यांघ्रिस्पर्शमात्रेण शिवप्रदेन । स्वर्मोक्षगामी भवतीति पूतो, भूमण्डलेस्मिन् स्थित भध्यवर्गः ज्ञात्वेति शंका भवदां विहाय, तत्पादसेवां च सदैव कृत्वा तेभ्योऽनदानं विधिना हि दत्त्वा, कुर्वन्तु भव्या सफलं नजन्म ।।
अर्थ- हे वत्स! आज इस कलिकाल पंचमकालमें भी भगवान अरहंतदेवके निग्रंथ लिंगको धारण करनेवाले, आत्मा आदि समस्त तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले, बन्धनोंको छिन्न भिन्न करनेवाले, अपनी आत्मामें लीन रहनवाले, समस्त परिग्रहोंसे रहित, अत्यंत शुद्ध और धीर-वीर मनि इस लोक में विद्यमान हैं । वे मनि आत्मजन्य आनंदकी मूर्ति होते हैं, और उनके चरणकमल मोक्ष देनेवाले होते हैं । उन चरण कमलोंका स्पर्शमात्र करनेस इस मंसारमें रहनेवाले समस्न भव्यजीव पवित्र हो जाते हैं, स्वर्गगामी हो जाते हैं. और मोक्षगामी होते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको संसारको बढानेवाली समस्त शंकाओंका त्यागकर, सदाकाल उनके चरण कमलोंकी सेवा करते रहना चाहिये और विधिपूर्वक उनको आहारदान देकर अपना जन्म सफल कर लेना चाहिए।
भावार्थ- यद्यपि यह पंचमकाल पापमय है, कलषतापूर्ण और स्वार्थपूर्ण है, तथापि परम वीतराग निर्मथ मुनि अबभी इस कालमें विहार करते हैं, और आगे पंचम कालके अन्त तक विहार करते रहेंगे। वे मुनि चतुर्थ कालके मुनियोंके समान धीर-वीर होते हैं, समस्त तत्त्वोंके जानकार होते हैं, समस्त परिग्रहोंसे रहित होते हैं, संसारके बंधनोंको और कर्मोके बंधनोंको नष्ट करनेवाले होते हैं, अपने आत्मामें लीन रहते हैं, अत्यन्त शुद्ध होते हैं, और परिग्रह वा उपसर्ग सहन करने में बा बत, उपवास करने में अत्यन्त बलवान् वा धीर-वीर होते हैं । यद्यपि
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( शान्तिसुधासिन्थ )
उनका संह्नन उत्कृष्ट संहनन नहीं होता, इस लिए वे निर्जन वनाम नहीं रह सकते. तथापि व्रत-उपवास करने में वा परिग्रह सहन करनेमें, वा उपसर्ग सहन करने में वे किमी प्रकारकी कमी नहीं करते । वे मुनि इंद्रियजन्य विषयोंके सर्वथा त्यागी होते हैं, और आत्मजन्य सच्चिदानंदकी मति होते हैं। उनके चरण कमल अत्यन्त पवित्र होते है, और उनमें भव्यजीवोंको मोक्ष प्राप्त करानकी शक्ति विद्यमान रहती है। इसलिए अनेक भव्यजीव सदाकाल उनकी सेवा-भक्ति किया करते है, और महापुण्यका उपार्जन कर, तथा सम्यग्दर्शन धारण कर मोक्षका यथार्थमार्ग धारण कर लेते हैं । बर्तमानमें बहतसे श्रावक वर्तमानके पनियोमें मांकित रहते हैं. उनकी शारण है, कि वर्तमानके मुनि अट्ठाईस मूलगुण धारण नहीं कर सकते । परंतु यह उनकी भूल है। वर्तमान में अनेक मुनियोंकद्वारा अट्ठाईस मूलगुण निर्दोष रोसिसे पालन किया जा रहा हैं, तथा साथमें उत्तरगुणभी पालन किया जा रहा है । वर्तमानके कितनेही आचार्य और मुनि घोर उपसगोंको सहन करते हैं, कठिन परिषहोंको सहन करते हैं, और कितनेही व्रत उपवास कर घोर तपश्चरण करते हैं। यदि उनकी भावना और अंतरंग परणामोंको देखा जाय तो, उनकी भावना सदा आत्मकल्याणमें लगी रहती है, अथवा समस्त भव्यजीवोंको मोक्षमार्गमें लगानेके लिए उनकी भावना रहती है । उनके परिणाम सदाकाल आत्म-चितवनमें लगे हैं, अथवा अन्य-जीवोंके कल्याण करने में लगे रहते हैं । यह सब देखकर बड़े-बडे राजा महाराजाभी उनकी सेवा-भक्ति करते हैं । और उनका उपदेश सुनकर अपने आत्माका हित करते हैं । इसलिए उन मुनियोंके विषय में किसी प्रकारकी शंका करना, अपने आत्माको बंचित करना है, अपने पुण्य कमानेके साधनको नष्ट करना है, और अपने आत्मकल्याणके समयको खो देना है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपनी समस्त शंकाएं दूर कर देनी चाहिए, और उन मुनियोंको सेवा-भक्ति कर तथा उनको आहारदान देकर, ग्रंथदान देकर, तथा जिस तरह बने, उनकी वैयावृत्य कर, पुण्य प्राप्त करना चाहिए, और अपना मनुष्यजन्म सफल कर लेना चाहिए । यही मनुष्य जन्मका सार है ?
प्रश्न- शोभा जनानां वद मे गुरो का?
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(शान्विसुधामिन्धु )
अर्थ- हे स्वामिन्! अव कृपाकर यह बतलाइए कि मनुष्यों की शोभा क्या है ?
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उ / शोभा जनानां प्रियसत्यवाणी वाण्याश्च शोभा गुरुदेव भक्तिः । भक्त्याविशोभा स्वपरात्मबोधा बांधस्य शोभा समता सुशान्तिः
अर्थ - इस संसार में मनुष्योंकी शोभा मधुर और सत्यवाणी बोलना है, वाणीको शोभा भगवान अरहन्त देवकी भक्ति करना है और निग्रंथ गुरुकी भक्ति करना है, तथा देवभक्ति और गुरुभक्तिकी शोभा स्वपरभदविज्ञान है, और स्वपरभेदविज्ञानकी शोभा, समता धारण करना और अपने आत्मामें शांति स्थापन करना है 1:
भावार्थ- बहुत से लोग अपनी शोभा बढानेके लिए अनेक प्रकारके बहुमूल्य वस्त्र पहनते हैं, बहुमूल्य आभूषण पहनते हैं, और केशर - चंदन आदि लगाकर अपनी शोभा बढाते हैं. परंतु जब वे कडवेयचन बोलते हैं, अथवा मिथ्यावचन बोलते हैं, तब उनकी वह सब शोश नष्ट हो जाती है. सबलोग उनको बुरा कहते हैं, और सबलोग उनको धिक्कार देते हैं, सत्य और मधुर भाषण करनेवालेको सत्र लोग आदरकी दृष्टि से देखते हैं, और सबलोग उसका विश्वास करते है । वास्तवमें देखा जाय तो सत्य भाषण करनाही मनुष्यकी मनुष्यता है, इसलिए प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवन में सत्य भाषणही करना चाहिए। इस प्रकार उस सत्य भाषण की शोभा भगवान अरहंतदेवकी भक्ति करने से, उनकी स्तुति करने से, वा उनकी पूजा करनेसे होती है, अथवा निग्रंथ वीतराग गुरुको स्तुति-भक्ति करनेसे होती है। जो मनुष्य सत्य भाषण करता हुआ भी देव और गुरुओंकी स्तुति नहीं करता, वह सत्य भाषणभी सफल नहीं माना जाता, सत्य भाषणकी सफलता देव, गुरुको स्तुति करनेमेंही है, तथा देव गुरुकी स्तुति वा भक्ति करनेकी शोभा, अपने आत्माका तथा अन्य जीवोंके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान है। जो पुरुष देव, गुरुकी भक्ति करता हुआ भी अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं समझता, तथा अन्य जीवोंके स्वरूपको अपने आत्माके समान नहीं समझता, उसकी देव, गुरु भक्ति वा स्तुति व्यर्थही समझनी चाहिए। इसका कारण यह है कि देवभक्ति वा गुरुसेवा आत्मज्ञानके लिएही की जाती हैं। देव
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(शान्तिसुधासिन्धु )
गुरु भक्ति करते हुए भी जिसको आत्मज्ञान प्रगट न हो, उसकी वह भक्ति सफल नहीं कही जा सकती, इसलिए देव - गुरु भक्ति करनाही आत्मज्ञान प्रगट करना मनुष्यका कर्तव्य है, तथा उस आत्मज्ञानकी जोभा समता और शांतिसे होती है। किसीसे मोहन करना, और सुख-दुःख वा हानि-लाभ, सबको समान मानना वा जीवन-मरणको समान मानना समता है, तथा क्रोधादि कषायोंका त्याग कर देना और आत्माको अपने आत्मा में लीन रखना शांति है। यह समता और शांति आत्मज्ञानका फल है । आत्मज्ञान उसीको समझना चाहिए, जिसके आत्मामें समता और शांति हो । यही समता और शांति मोक्षका कारण है, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको आत्मज्ञान प्राप्त कर लेना उसका कर्तव्य है । प्रश्न- चिन्ता स्वरूपं वद मेत्र देव ?
अर्थ-हे भगवान् ! अब कृपाकर मेरे लिए चिन्ताका स्वरूप कहिए । उ. धनस्य चिता प्रथम हि पश्चाद् गृहस्य नार्थाश्च सुसेवकस्य । तेषां च लाभोपि भवेत्सुपुण्यात् तथाप्यलाभात्तनयस्य चिन्ता । भवेत्सुपुण्याद्व र पुत्रलाभस्तथापि पापाद्धि सरोगदेहः । नीरोग होपि भवेत्सुपुण्यात् कन्याद्यलाभाद्धि पुनश्च चिन्ता । तासां च लाभोपि भवेत्सुपुण्याद् राज्याधलाभाद्धि पुनश्च चिन्ता तस्यापि लाभश्च भवेत्सुपुण्यात् तारुण्यहानेश्च पुनह चिन्ता । न स्याद्धि चिन्तान्त इतीह लोके तत्त्यागतो ह्येव भवेत्तदन्तः । ज्ञात्वेति तस्यागविधिविधेयो यतो भवेत्स्वात्मसुखं स्वराज्यम् ।
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अर्थ- देखो इस संसार में इस गृहस्थको सबसे पहले धनकी चिन्ता होती है, यदि पुण्योदयसे धन मिल जाता है, तो फिर घरकी चिन्ता होती है । यदि पुण्योदयसे घर भी बन जाय तो फिर स्त्रीके प्राप्त होनेकी चिन्ता होती है । यदि पुण्योदयसे स्त्रीकी भी प्राप्ति हो जाय, तो फिर सेवक मिलने की चिन्ता होती है। यदि विशेष पुण्यके उदयसे इन सबकी प्राप्ति हो जाय, तो फिर पुत्र न होनेकी चिन्ता बनी रहती है | यदि कदाचित् पुण्यके उदयसे पुत्र भी प्राप्त हो जाय और उसका शरीर नीरोग न हो तो उसके रोगको दूर करनेके लिए दिन रात चिन्ता बनी रहती है । यदि पुण्योदयसे उस पुत्रका शरीर
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भी नीरोग हो जाय, तो फिर कन्या आदि के न होने की चिन्ता बनी रहती है । यदि शुभकर्मके उदयसे कन्याएं भी हो जाय, तो राज्यादिके प्राप्त न होने की होती है। यति का पुण्य उदयसे राज्यकी प्राप्ति भी हो जाती है, तो फिर अपने तारुण्यके नष्ट होने की महाचिन्ता होती है। इस प्रकार मसारमें चिन्ताका कभी अन्त नहीं होता। यदि इस संसारमें चिन्ताका अन्त होता है, तो परिग्रहका त्याग कर देनेसेही होता है । इसलिए भव्यजीवोंको समस्त परिग्रहोका त्याग कर, चिन्ताओंका अंत कर देना चाहिए, जिससे कि आत्माका अनंतसुख और आत्माका शुद्धतारूप स्वराज्य प्राप्त हो जाय।
भावार्थ- इस संसारमें अनन्त पदार्थ भरे हुए है, और प्रत्येक जीवके साथ अनन्तानन्त पदार्थों का मोह लगा हुआ है, तथा जीवोंकी रांच्या अनन्ताजन्त है । यदि सब जीवोंका मोह इकठ्ठा किया जाय, और प्रत्येक जीवको मोहके लिए अलग-अलग पदार्थको बांट दिया जाय तो एक-एक जीवको मोहके भागमें प्रत्येक पदार्थका एक भागभी नहीं पडता है। फिर भला अनन्तानन्त जीवोंको मोहमें उत्पन्न हुई इच्छाओंकी पूति कैसे हो सकती है? इस संसारमें किसीभी जीव की इच्छाए कभी पूर्ण नहीं हो सकती, तथा इच्छाओंका पूर्ण न होनाही दुःख है। इस संसारमें सबसे अधिक विभूति चक्रवर्तीकी होती है, परन्तु यदि उसकीभी इच्छा न मिटे, तो उसेभी महा दुःखी समझाना चाहिए । सुभौम चक्रवर्तीने छहों खंड जीत लिए थे, परन्तु उसके किसी पहले भवके शत्रदेबने एक बहुत मीठा फल लाकर दिया, और चक्रवर्तीक पूछनेपर उसने किसी द्वीपका बह फल बतलाया। इस चक्रवर्तीकी तृष्णा और इच्छा बहुत अधिक थी, इसलिए वह फल लेनेकी इच्छासे और उस देशको जीतने की इच्छासे, उसके साथ चल पड़ा । जब वह बीच समुद्र में पहुंचा, तो देवने उस जहाजको इबानेका प्रयत्न किया, परन्तु चक्रवर्ती उस समय णमोकार मंत्रका स्मरण करने लगा, इसलिए वह जहाज डुब नहीं सका । जब देवनेभी यह बात जान ली, तब चक्रवर्ती में कहा कि-महाराज ! यदि आप णमोकार मंत्र लिखकर उमको पांवके अंगूठेसे मिटायेंगे, तो उस द्वीपमें पहुँच सकेंगे, नहीं तो नहीं । चक्रवर्तीको उस फलको खानेकी और उस द्वीपको जीतने की तीव्र इच्छा थी, इसलिए
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( शान्तिसुधासिन्धु )
उसने यह महापाप करना भी स्वीकार कर लिया। उस चक्रवर्तीने ज्योंही णमोकार मंत्र लिखकर पांवके अंगूठेमे मिटाया, त्योंही उस देवने वह जहाज डुबोकर अपने पहले भवकी शत्रुताका बदला ले लिया। चक्रवर्ती सुभौम उसी समय मर कर सातवें नरक में पहुंचा । यह उसकी तीव्र लालसाओंकाही फल है । इस संसार में जो जो लालसाएं पूर्ण नहीं होती उन्ही की चिंता रात-दिन बनी रहती है। ये चिन्ताएं समस्त शरीरको सुखा देती है । और रात-दिन संक्लेश परिणाम उत्पन्न किया करती है । यदि किसी पुरुषकी कोई चिता मिट जाती है, तो उसके लिए दो नई चिताएं उत्पन्न हो जाती है, यदि वे दोनों पूर्ण होती है, तो चार नई चिन्ताएं उत्पन्न होती है। इस प्रकार यह मनुष्य चिन्ताओंका पुतला बन जाता है, और शीघ्रही निर्बल होकर मरनेके सन्मुख हो जाता है। यदि इन चिन्ताओंके दूर करनेका कोई उपाय है. तो एकमात्र मोहका त्याग है । जो मनुष्य माहका त्याग कर, समस्त पदार्थोंको समान भावसे देखता है, सबमें समता धारण करता है, धनकी प्राप्ति तथा निर्धनतामें समानता धारण करता है, दुःख-सुखमें समता धारण करता है, जीवन-मरणमें समता धारण करता है, तथा किसीसे भी मोह वा किसी प्रकारका संबंध नहीं रखता, वह पुरुष समस्त चिन्ताओंसे मुक्त होकर महासुखी हो जाता है । फिर उसको आत्मासे उत्पन्न होनेवाला अनुपम सुख प्राप्त हो जाता है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मोहका त्याग, समस्त चिन्ताओंका त्याग कर देना चाहिए, और इस प्रकार सुखी होकर आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न- क्व नैव तिष्ठेद् वद मे मुरो को ?
अर्थ-- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें कहां-कहां नहीं रहना चाहिए ? उ.-यस्मिन् प्रदेशेऽक्षसुखप्रदेपि न शुद्धवृसिन मुनेनिवासः ।
न ह्यात्मबुद्धिर्न कृती न धर्मी न प्रेमभावो न च तत्त्वचर्चा || . . न मोक्षद :संपमशीललाभो न स्यात्सनीतिः सुख दश्च राजा । स्वप्नेपि तस्मिन्न वसेत्प्रदेशे मोक्षाथिभव्यः स्वरसं पिपासुः ॥
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। शान्तिसुधासिन्धु)
अर्थ- जो प्रदेश इंद्रियोंको सुख देनेवाला हो, तथापि जिस प्रदेशम शुद्ध चारित्रका पालन न हो सकता हो, जिसमें मनियोंका निवास न हो, जिसमें आत्माके कल्याण करनेवाली बुद्धि न हो, जिसमें आत्माका कल्याण करनेवाला कोई न रहता हो, जिसमें कोई धर्मात्मा न रहता हो, जिसमें कोई धर्मसे प्रेम न रखता हो, जिसमें तत्त्वोंकी चर्चा न की जाती हो, जिसमें मोक्ष देनेवाले मयम और शीलकी प्राप्ति न होनी ही, और जिसमें न्याय और नीतिका पालन करनेवाला, तथा सुख देनवाला राजा न हो, ऐसे देशमें अपने आत्मजन्य आनंदको पीनकी इच्छा करनेवाले और मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्यजीवोंको स्वप्नमेंभी कभी नहीं रहना चाहिए।
भावार्थ- यह मनुष्य जन्म मोक्ष प्राप्त करने के लिए और उसके कारणभत धर्मको साधन करने के लिए है। इंद्रियोंके सुख तो पश योनिमेंभी प्राप्त होते हैं, परंतु मोक्षकी प्राप्ति और उसके कारणभन धर्मका साधन पशु बोनिमें नहीं है । देव योनिमे इंद्रियोंके मुख सबसे अधिक हैं, परंतु मोक्षकी प्राप्ति और चारित्र धारण करने का माधन वहांभी नहीं है । एक मनुष्य पर्यायही मोक्ष की प्राप्ति और उसके कारणभूत धर्मका साधन हो सकता है, अन्य किसी पर्याय में नहीं। मनुष्य पर्याय में भी म्लेंच्छखंडोंमें मोक्षका कोई साधन नहीं हैं, क्योंकि आर्यखंड मेंही मोक्षके साधन हैं, आर्यखंडमेंही तीर्थकरोंका विहार होता है, और आर्यखंडमेंही शुद्ध चारित्र धारण किया जा सकता है । आर्यखंडमें शुद्रादिकोंको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती है, उच्च वर्णकी सज्जातिमें जन्म लेनेवाले मनुष्योंकोही मोक्षकी प्राप्ति होती है, तथा वे ही लोग मोक्षक साधनभूत चारित्रको धारण कर सकते हैं । इंद्रियमुख तो अनादिकालसे यह जीव भोगताही आ रहा है, और उसके लिए महा पाप करता हुआ परिभ्रमण करता आ रहा है, इस लिए बड़ी कठिनतासे प्राप्त होनेवाले इस मनुष्य पर्यायको पाकर इंद्रियोंके सुखोंकी लालसाका त्याग कर देना चाहिए और धर्मको धारण करने के लिये ऐमें स्थानमें ही रहना चाहिए, जहां धर्मके सब साधन हो, जहाँपर जिनालय हों, जैन शास्त्रोंके बिद्वान् हों, मुनियोंका विहार हो, समय, शील, चारित्र, नत, उपवास, प्रभावना आदिके साधन अधिक रूपमें मिलते हों, और
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( शान्तिसुधासिन्धु)
राजाभी धर्मात्मा हो। जहांपर धर्म के ये साधन न हों, वहांपर न तो कभी जाना चाहिए और न कभी रहना चाहिए । अधार्मिक देशसे तो बहुत दूर रहनाही अच्छा है । स्वग्न भी ऐसे देशमें रहने की लालसा नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न- कस्य समागमः स्वामिन् न कार्यों मे बद प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि किसकी संगति नहीं करनी चाहिए ? उ.-यस्मिन् हि जीये सुखदोन धर्मो, न्यायनीतिः परलोकचर्चा ।
न लोकलज्जा न च फर्मभीति, न त्यागभावो न कुलाविरक्षा ।। शास्त्रज्ञता वीर्घविचारता न, विज्ञानता नैव गुणज्ञतास्ति । समागमस्तस्य नराधमस्य, कार्यो न भव्यनिजसाधकश्च २५८
अर्थ - जो मनुष्य न ता सुख देनेबाले वर्भका पालन करता हो, न न्याय - नीतीका पालन करत हो, न परलोककी चर्चा करता हो, जिसको न तो लोकलज्जा हो, न कर्मों का डर हो, न पाप कार्यों के त्याग करनेके भाव हो, न अपने श्रेष्ठकुलकी, अथवा सज्जातित्वकी रक्षा करने के भाव हो, जो मनुष्य न तो जैन शास्त्रोका जानकार हो, न आगे-पीछे का विचार करनेवाला दूरदर्शी हो, न किसी विज्ञानको वा स्वपरभेदविज्ञानको धारण करता हो, और जो गुणोंका जानकार भी न हो, ऐसा मनुष्य नीचमनुष्य कहलाता है । अपने आत्माकी सिद्धि करनेवार भव्यपुरुषोंको ऐसे नोच मनुष्योंकी मंगति कभी नहीं करनी चाहिए।
भावार्थ - यह मनुष्य, जसे मनुष्योंकी संगति करता है वैसे ही इसके भाव हो जाते हैं। यदि यह मनुष्य, धर्मात्मा मनुष्योंकी संगतिम रहता है, तो धर्मात्मा बन जाता है, यदि जुवारियोंकी संगतिमें रहता है तो जुआ खेलना सीख जाता है, यदि चोरोंकी संगतिमें रहता है तो चोरी करना सीख जाता है, यदि मुनियोंके निवासमें रहता है तो संसारसे विरक्त होनेका प्रयत्न करता है, यदि कुटुबमें रहता है तो उनसे मोह बढ़ा लेता है, कहां तक कहा जाय ? यह अनुभूत निश्चित सिद्धात
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है कि यह मनुष्य जैसी संगतिमें रहता है, वैसा ही हो जाता है। इसलिए धर्मात्मा मनुष्योंको ऐसे ही मनुष्योंकी संगति में रहना चाहिए जो धर्मात्मा हों । धर्मात्माओं के साथ रहने से दिन-रात धर्मकी वृद्धि होती रहती है, और पुण्यका साधन बढता रहता है। न्यायवान् और नीतिवान् लोगोंकी संगति में रहनेसे इस मनुष्यको कभी दुःख नही पहुंच सकता, और न यह मनुष्य दूसरोंको दुःख देकर पाप उपार्जन कर सकता है। जो जो लोग रात-दिन परलोककी चर्चा करते रहते हैं. परलोकके दुःखोंसे डरते रहते हैं, उनकी संगति करनेसे यह मनुष्य अपना परलोक भी सुधार लेता है । इस संसारमें लोकलज्जा रखनेसेभी बहुतमे पाप छूट जाते हैं। मनुष्य लोकलज्जा छोड़ देते हैं, वे निर्लज्ज होकर अनेक प्रकारके दुष्कृत्य और पाप किया करते हैं। इसलिए निर्लज्ज लोगोंकी संगति कभी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार जो मनुष्य अशुभ कर्मोसे डरते रहते हैं, उनकी संगति करने से यह मनुष्य श्री अशुभ कर्मोंस डरता रहता है, तथा पुण्य कार्योंमेंही लग जाता है । अपने श्रेष्ठ कुल और सज्जातिकी रक्षा करना प्रत्येक धर्मात्मा मनुष्यका कर्तव्य है । श्रेष्ठकी रक्षा और सज्जातित्त्वको रक्षा, सदाचार पालन करने से होती है । व्यभिचार सेवन करनेसे वा धरजा, विधवा-विवाह या विजातीय विवाह करनेसे सज्जातित्व नष्ट हो जाता है । पश्चिमी सभ्यतासे रंगे हुए कुछ लोग इस विजातीय विवाहकोही अन्तर्जातीय विवाह कहते हैं, परन्तु यह मायाचारी है। ये जातियां अनादि कालमे चली आ रही हैं, तथा विवाहसम्बन्ध अपनी जातिमेंही होता है । विजाति में नहीं । विजातिकी कन्या लेनेसे वा विजातीय पुरुषको देने से भिन्न-भिन्न जातियां नहीं रह सकती, तथा भिन्न-भिन्न जातियां न रहनेसे किसी भी पापके लिए जातीय दंड नहीं हो सकता । जातीय दंड न होनेसे उच्छृंखलता और दुराचारकी वृद्धि होती है। इसलिए इस मनुष्यको कुल और जातिकी रक्षा करनेके लिए ऐसेही मनुष्योंकी संगतिमें रहना चाहिए, जो सदाचार पालन कर जाति और कुलकी रक्षा करते हों। इस प्रकार जो मनुष्य शास्त्रोंके जानकार हैं, उनकी संगति करनेसे शास्त्रोंकी चर्चाका आनंद आता है, और शास्त्रोंका ज्ञान बढता है | विचारशील मनुष्योंके पास बैठनेसे यह मनुष्य भी अपने
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। शानिमुभागिन्ध ।
हित-अहितका विचार कर सकता है । गुणी और गुणज्ञ मनुष्योंके पास बैठनेमें गुणोंकी वृद्धि होती है । ज्ञानी मनुष्योंके पास बैठनेसे ज्ञानको वृद्धि होती है, और स्वपरभेदविज्ञानको धारण करनेवाले मनुष्योंके पास बैठनेमे आत्माका कल्याण होता है, आत्माका ज्ञान होता है, और अनेक पापोंका त्याग होता है, इसलिए भव्यपुरुषोंको उत्तम धर्मात्मा मनुष्योंकी संगतिही बैठना चाहिए । निर्लज्ज, अधार्मिक, निर्गुणी, मूर्ख, अविचारी और धार्मिक संस्कारोंसे रहित मनुष्योंके समीप कभी नहीं बैठना चाहिए।
प्रश्न- केषां कदा परीक्षा स्याद्वद मे सिद्धये प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब मुझे यह बतलानेकी कृपा कीजिए कि किन-किन लोगोंकी कब-कब परीक्षा हो जाती है? उ.-प्रभोः परीक्षा गुणदोषभेदे स्मृतेः परीक्षा सदसद्विचारे ।
साधोः परीक्षादुपसर्गकाले नारी परीक्षापि विपत्प्रकोणे ॥
मुक्तेः परीक्षापि यथार्थमार्गेऽसुरक्षणे स्यान्नृपतेः परीक्षा । शास्त्रार्थकालेऽखिलशास्त्रिणः स्यात मुख्या परीक्षा सुलभान्यकाले
अर्थ- देवकी परीक्षा गुण और दोष के भेद करनेसे होती है, स्मृतिकी परीक्षा सत् और असत्के विचार करने में होती है, साधकी परीक्षा उपसर्गके समय होती है, स्त्रीकी परीक्षा विपत्ति के समयमं होती है, मोक्षकी परीक्षा यथार्थ मार्गपर चलनेसे होती है, राजाकी परीक्षा प्राणियोंकी रक्षा करने में होती है, और समस्त. शास्त्रीलोगोंकी परीक्षा शास्त्रार्थके समयमें होती है। यह सबकी मुख्य परीक्षाका समय बतलाया है । सरल परीक्षा किसी अन्य समय में भी हो सकती है।
भावार्थ- जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो उनको देव कहते हैं । जिनमें ये गुण न हों उनको देब कभी नहीं कह सकते हैं । जिनमें राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी प्रकारके विकार न हो तथा स्त्री, शस्त्र, अस्त्र, वस्त्र, आभषण आदि किसी प्रकारका परिग्रह न हो, उनको वीतराग कहते हैं । जो वीतराग होता है, वही सर्वज्ञ होता है । जो वीतराग नहीं होता वह कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । इस प्रकार जो वीतराग और सर्वज्ञ होता है, वहीं
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हितोपदेशी होता है, जो वीतराग और सर्वज्ञ नहीं होता वह कभी हितोपदेशी नहीं होता। इसलिए देवकी परीक्षा करनेके लिए वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये तीन गुण देखने चाहिए। जिनमें ये तीन गुण हों वही देव है । जिनमें ये तीनो गुण न हो, काम, क्रोध, आदि विकार हो, वा स्त्री, अस्त्र, शस्त्र वा वस्त्राभूषण परिग्रह हो, वा भूख, प्यास आदि दोष हो तो उनको देव कभी नहीं मानना चाहिए । देवकी परीक्षा इस प्रकार हो सकती है। इस प्रकार स्मतिकी परीक्षा सत् और असत्के विचार करने में होनी है । जो मनुष्य अपने हित और अहितका विचार नहीं कर सकते, अपने आत्माका कल्याण नहीं कर सकते, उनकी स्मृति बा बुद्धि असत् समझनी चाहिए । साधुकी परीक्षा उपसर्गके समय होती है । यदि कोई दुष्ट पुरुष किसी माधको गाली देता है, वा मारता है, तो उस समय समता धारण करना साधुकां काम है। यदि किसी समय कोई आकस्मिक आपत्ति आ जावे तो उस ममय भी साधुओंको समता और शांति धारण करना चाहिए 1 जो साधु किसी उपसर्गके समय अथवा आकस्मिक आपत्तिके समय व्यग्र हो जाता है. वा क्रोध करने लगता है, वह कभी साध नहीं हो सकता। अपने आत्माके ध्यानमें लीन रहनेवाले साधुके हृदयमें भारीसे भारी आपत्ति आनेपरभी कभी किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं हो सकता। इसमे यथार्थ साधकी परीक्षा हो सकती है। इस प्रकार स्त्री की परीक्षा विपतिके समय की जाती है। जो स्त्री विपत्तिके समयमें भी पतिकी सेवा करती है, वही स्त्री पतिपरायणा कहलाती है, अन्य नहीं । मक्तिकी परीक्षा उसके यथार्थ मार्गमें चलनेसे होती है । जो साधु कामादिक समस्त विकारोंसे रहित होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रको धारण कर लेता है, तथा अनुक्रमसे चारित्रकी पूर्णता करता हुआ वीतराग सर्वज्ञ हो जाता है, वही साधु मोक्ष प्राप्त कर सकता है । जो पुरुष साधु होकरभी परिग्रह धारण करता है, तथा आत्मज्ञानसे वंचित रहता है, वह साधु नहीं कहला सकता, ऐसे साधुको कभीभी मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती । कर्मोंका सर्वथा नाश होना मोक्ष है, तथा कर्मोंके नाश करने के ध्यान तपश्चरण आदि जितने साधन हैं, वे सब उसके मार्ग हैं। ऐसे साधनोंसेही मोक्ष की प्राप्तिका अनुमान किया
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जाता है । इस प्रकार राजाको परीक्षा प्राणियोंकी रक्षा करनेसे होती है । जो राजा अपनी प्रजाको दुःखी करता है, वा शिकार आदिके द्वारा निरपराध जीवोंको मारता है । वह राजा कभी श्रेष्ठ नहीं कहला सकता । राजा अपनी प्रजाका पिता कहलाता है, तथा प्रजा उसकी संतानके समान मानी जाती है । जिस प्रकार उसके राज्यमें रहनेवाले मनुष्य सब उसकी प्रजा कहलाते है, उस प्रकार राज्यमें रहनेवाले पशपक्षी वा जलचर जीवभी सब इसकी प्रजा कहलाती हैं । इसलिए जिस प्रकार पिता अपनी संतानका पालन-पोषण कर उनको सुखी रखता है, उस प्रकार राजाकोभी पशु, पक्षी, मनुष्य आदि समस्त प्रजाका पालन-पोषण करते हुए सुखी रखना चाहिए। जो राजा इस प्रकार अपनी प्रजाको सूखी रस्त्रता है, ब्रही राजा श्रेष्ठ कहलाता है, जो राजा अपनी प्रजा को दूर रखता है, कई मामा हाने योग्य कभी नहीं हो सकता । यह राजाकी परीक्षाका उपाय है । इस प्रकार शास्त्री लोगोंकी परीक्षा शास्त्रार्थ में होती है । शास्त्रार्थ करते समय जो शास्त्री दूसरे की असत युक्तियोंका खंडन कर दे, और अपनी सत्युक्तियोंका मंडन कर, पदार्थके यथार्थ स्वरूपको सिद्ध कर देवे, वहीं श्रेष्ठ शास्त्री कहलाता है। इसके लिए अनेक शास्त्रोंके पठन-पाठन करनेकी आवश्यकता होती है । जो शास्त्री अनेक प्रकारके अनेक शास्त्रोंका पठन-पाठन कर आत्मा आदि पदार्थोंके स्वरूको यथार्थ रीतिसे जानलेता है, और फिर धेष्ठ युक्तियोंके द्वारा पदार्थोके अयथार्थ स्वरूपका खंडन कर, अपने यथार्थ स्वरूपका मंडन करने में चतुर होता है, वही शास्त्री, श्रेष्ठ शास्त्री कहलाता है । जो शास्त्री थोडेसे खंडशास्त्रोंकों पढकर अपनी असत् युक्तियोंके द्वारा पदार्थोके अयथार्थ स्वरूपका मंडन करता है, वह शास्त्री कभी श्रेष्ठ नहीं कहला सकता । यह सब मुख्य परीक्षाका उपाय बतलाया है । अन्य सरल परीक्षाका उपाय चाहे जिस समय और चाहे जिस प्रकार किया जा सकता है।
प्रश्न- राजा पिता च पापी कः संसारे बद में गुरों?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें कौनसा राजा पापी कहलाता हैं, और कौनसा पिता पापी कहलाता है?
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उ. सद्धर्मसंस्कारकलादिकयरिहान्यलोके सुखशांतिदंश्च ।
संस्कारिता न प्रकृतिः प्रजा च येन स्वपुत्रो विमलक्रियाभिः ।। स एव पापी च पितापि माता राजापि पापी प्रमुखः प्रयोरः मात्वेति तद्दोषविनाशनार्थ संस्कारणीयस्तनयः प्रजापि २६२
अर्थ- जो माता पिता इस लोक और परलोक दोनों लोकोंम सुख और शांति देनेवाले धार्मिक संस्कारोंसे तथा अनेक प्रकारको कलाओंमे और निर्मल क्रियाओंसे अपने पुत्र-पौत्रोंका संस्कार नहीं करते, वे माता पिता महा पापी समझने चाहिए । इस प्रकार जो शूर-वीर और मुख्य राजा होकरभी इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें सुख और शांति देनेवाले धार्मिक संस्कारों तथा अनेक प्रकारकी विद्या वा कलाओंसे और निर्मल क्रियाओंसे अपनी स्वाभाविक प्रजाका संस्कार नहीं करता, वह राजाभी पापी समझना चाहिए । यही समझ कर संस्कार न होनेके दोषों को नाश करने के लिए माता पिताको अपने पुत्रका संस्कार करना चाहिए, और राजाको प्रजाका संस्कार करना चाहिए।
भावार्थ- जिस प्रकार हीरा आदि रत्नोंका संस्कार शाणपर रस्त्रकर किया जाता है, और संस्कार होनेपर उनका मल्य बढ़ जाता है, और चमक-दमक वा प्रभाव बढ़ जाता है, उस प्रकार मंतान वा प्रजाका संस्कार करनेसे उसकी योग्यता बढ़ जाती हैं, तथा जिस प्रकार अग्निके द्वारा कच्चे घडेका संस्कार किया जाता है, और संस्कार करनेलेही उसमें जलधारण आदि किया हो सकती है । यदि घडंका अग्निसंस्कार नहीं किया जाय तो फिर उसमें न तो जल भरा जा सकता है. और न वह किसी और काममें आ सकता है. इसी प्रकार प्रजा वा संतानभी संस्कारोंके होनेपरही चारों पुरुषार्थीका सेवन करने में तत्पर हो सकती है। यदि उनका संस्कार न किया जाय तो फिर उनसे कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं हो सकता। यह निश्चित सिद्धान्त है, कि जिसके संस्कार होते हैं, वही पुरुष चारों पुरुषार्थोका वा विशेष कर मोक्षपुरुषार्थका पात्र होता है । जिसके संस्कार नहीं होते वह किसीभी पुरुषार्थको सिद्ध नहीं कर सकता । देखो ! शूद्रोंके संस्कार नहीं होने, तथा स्त्रियोंके संस्कार नहीं होते, इसलिए उनमें कोईभी पुरुषार्थ सिद्ध
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नहीं हो सकता । स्त्रियां मोक्ष नो जा ही नहीं सकती. तथा कामका फल संतान है, वह स्त्रियों की कहलाती न हों, वह पुरुष की ही कहलाती है. इसलिए कामपुरुषार्थकी मुख्यता पुरुषकेही मानी जाती है । अर्थपुरुषार्थ स्त्रियोंस होता नहीं, वहभी मम्यतासे पुरुषोमेही सिद्ध किया जाता है, और धर्मपुरुषार्थमेंभी स्त्रिया सहायक मात्र हैं। दान देने में सहायक है, पूजा करने में सहायक हैं, वा अन्य समस्त धार्मिक कार्योम वे पुरुषकी सहायक मानी जाती हैं । इसलिए धर्मपुरुषार्थकी मुख्यताभी पुरुषोंकही कही जाती है। इस प्रकार शूद्रोंकेभी पुरुषार्थोकी सिद्धि नहीं होती, इसरो स्पष्ट सिद्ध हो जाता है, कि जिनके संस्कार होते हैं, वे ही पुरुषार्थीको सिद्ध कर सकते हैं। चारों पुरुषार्थोंम सब लोकिक कार्य भी आ जाते हैं,
और सब पारलौकिक कार्य भी आ जाते हैं, । इसलिए जिसके मंकार होते है, वे दोनों लोकोक कमांको सिद्ध कर लेता हैं । यज्ञोपवीत आदि धर्मशास्त्रों में कहे हए समस्त संस्कारोको करा देना, तथा विद्या-कला आदि सीखनेके लिए गुरुकुलमें भेज देना, माता-पिताका काम है । तथा लोगोंके धार्मिक कार्यों में किमी प्रकारका विघ्न न आने देना, धार्मिक कार्योका सब सुभीता कर देना, गुरुकुलोंका यथेष्ट प्रबन्ध करना तथा पठन-पाठन कला- योग धंदे आदि सबके साधन उपलब्ध कर देना, राजाका काम है। गर्भ में आतेही बालकके संस्कार प्रारम्भ हो जाते हैं। जैसे संस्कार होते हैं, वैसाही प्रभाव बालकपर पड़ता है, यदि संस्कार धामिक होते हैं, और पंचपरमेष्ठी के वाचक यथार्थ मंत्रोंसे किये जाते हैं, तो बालकपर धार्मिक प्रभाव पड़ता है, और वह बालक धर्मात्माही होता है, यदि संस्कार मिथ्यामंत्रोंके द्वारा किए जाते हैं, तो उनका प्रभाव उस चालकपर मिथ्यारूपही पड़ता है, और वह बालक मिथ्यादृष्टि होता है। यदि उस बालकके कोई किसी प्रकारके संस्कार नहीं होते तो वह बालक सब संस्कारोंसे रहित अबोध होता है । यदि दुराचार आदिके द्वारा निकृष्ट और नीचतापूर्ण संस्कार किए जाते हैं, तो वह बालक निकृष्ट और नीचहीं होता है, इसलिए प्रत्येक माता पिताको अपने संतानका धार्मिक संस्कार करना चाहिए । और प्रत्येक राजाको उन संस्कारों के साधन उपलब्ध कर देना चाहिए । जो माता, पिता अपने बालकोंका संस्कार नहीं करते, वे उस संतानके द्वारा होनेवाले अनेक पापोंके साधक बन जाते हैं, और इसलिए महापापी कहलाते हैं ।
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
प्रयन पाश्चात्य वायुना स्पृष्टः कीदृशो विद्यते नरः ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि जिस मनुष्यको पश्चिमी वायुका स्पर्श हो जाता है, वह कैसा होता है ।
उत्तर
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पाश्चात्ययुक्तः स्पृष्टाः सारणात्मक्षेत्रवारकः । पाश्चात्यकमकीर्णाश्च पाश्चात्यज्ञानयंचिताः ॥ २६३ ॥ प्रारम्भे भांति मूर्खास्तेऽन्ते निस्तेजाश्च दुःखिनः । ज्ञात्वेति बुद्धिर्वेषादिः कार्यो धर्मानुकूलकः ॥ २६४ ॥ अर्थ- जिन लोगोंको पश्चिमी वायुने स्पर्श कर लिया है, जिन्होंने पश्चिमी वेष धारण कर लिया है, जो पद-पदपर पश्चिमी लोगोंक अनुसार चलते हैं । और जो पश्चिमी ज्ञानसे ठगे गये हैं, ऐसे मूर्ख लोग प्रारम्भ में तो अच्छे जान पडते हैं, परंतु अंतमें जाकर प्रभाव रहित और दुखी हो जाते हैं । यही समझकर भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि और अपना वेष सब धर्मानुकूलही रखना चाहिए ।
भावार्थ - वर्तमान में परिचमके लोग किसी धर्मपर श्रद्धा नहीं रखते । वे लोग खाना-पीना और मौज उडानाही मनुष्यता समझते हैं, यही कारण है कि उनमें न तो किसी प्रकारका इंद्रिय दमन है, और न किसी प्रकारका विषयोंका त्याग है । वे लोग खाने-पीनेमें निरंकुश होते हैं, और सदाचारकी वासनातक उनके हृदय में नहीं रहती, विधवा-विवाहही इस बातका प्रत्यक्ष साक्षी है। उनके विवाहादिक संस्कारभी धर्मानुकूल नहीं होते, और ये सब उनके अधार्मिक होनेके कारण हैं । शौच शुद्धि, दंतधावन, स्नान आदि कोई भी क्रियाएं वहां नियमानुकूल नहीं होती। इसलिए देश धर्महीन कहलाता है । वहांका वेष, वहांके शीतपूर्ण देशके योग्य भलेही हो, परंतु उस वेषसे धार्मिक क्रियाएं कोई नहीं हो सकती । इसीलिए उस बेषको अधार्मिक कहा जाता है, उनका ज्ञान इतना मिथ्या है कि वह अपने आत्माका भी अनुभव नहीं कर सकता । यही कारण है कि वे लोग आत्मतत्वको भी नहीं मानते हैं । उनका लौकिकज्ञानभी इतना विपरीत है कि, वे मनुष्यों को भी परम्परासे बंदरोंकी संतान मानते हैं। मनुष्योंकी संतान मनुष्यही होती है, और बंदरोंकी संतान बंदरही होती है। इस अत्यंत
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
साधारण और रात-दिन देखी हुई बातको भी वे विपरीत मानते हैं । यह भारतवर्ष अनादिकालसे धर्मका प्राण माना गया है। इसके धार्मिकतत्त्व और धार्मिक क्रियाएं सब सर्वोत्कृष्ट और अचल है। पश्चिम रहनेवाली कुछ विद्वान् इस बातको स्वीकार करते हैं, तथापि परिश्रमी वायुमें रंगे हुए कुछ अज्ञानी लोग अपनी धार्मिक क्रियाओंको छोड़कर तथा अपने धार्मिकवेष वा श्रामिकज्ञानको छोड़कर उन्हीं पश्चिम लोगोके समान अधार्मिक क्रियाएं करने लगते हैं, अधार्मिक वेष धारण कर लेते हैं, और भोजन-पान आदिभी सब उन्हीं के समान करने लगते हैं । यद्यपि राज्य के प्रभावसे
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ही पहले वे कुछ प्रभावशाली दिखाई पड़ते हैं, परंतु अंत में उन्हें पछताना अवश्य पडता है, और दुःखी होना पडता है, इसलिए भव्यजीवोंको अपना वेष और अपने विचार सब धर्मानुकूलही रखने चाहिए, यही आत्मा कल्याणका यथार्थ - मार्ग है ।
प्रश्न क स्नेहकरणेनैव दुःखं नश्यति मे बद ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किस में अनुराग करनेसे अपना दुःख नष्ट होता है ?
उ. देवे हि चाष्टावदोषमुक्ते स्याद्वादशुद्धे सुखदे सुशास्त्र । स्वानम्बतुष्टे सुगुरौ ह्यसंगे स्नेहं तनोत्येव च तद्गुणार्थी २६५ स एव तत्पुण्यभवं सुखावि मुक्त्या स्वराज्यं लभते स्वसद्म । यस्तद्विरुद्धच करोति कार्यं प्राप्नोति दुःखं विषमं निगोदे || अर्थ अठारह दोषोंसे रहित वीतराग सर्वज्ञको देव कहते हैं, स्याद्वाद सिद्धांत से सुशोभित होनेवाले तथा सब जीवोंको सुख देनेवाले जिनप्रणीत शास्त्रोंको शास्त्र कहते हैं, और समस्त परिग्रहोंसे रहित तथा अपने आत्मजन्य आनंदमें मग्न रहनेवाले साधुको गुरु कहते हैं । जो भव्यपुरुष इन देव - शास्त्र - गुरुके वीतराग आदि गुणोंको धारण करनेकी इच्छा करता है, वह पुरुष यथार्थ देव शास्त्र - गुरुमें अनुराग करता है, तथा ऐसा पुरुष उस देव शास्त्र - गुरुके अनुरागसे उत्पन्न होनेवाले पुण्य से स्वर्गादिकोंके सुखोंको भोग कर अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यको प्राप्त हो जाता है, और अंत में अपने मोक्षस्थानमें जा
इन
·P
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
बिराजमान होता है, तथा जो पुरुष इसके विपरीत कार्य करता है. यथार्थ देवशास्त्र गुरुमें अनुराग नहीं रखता, वह पुरुष सदाकाल संसारमें परिभ्रण करता हुआ नरक निगोदके विषम दुःख सहन किया करता है ।
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भावार्थ - जिस प्रकार स्त्री-पुत्र आदि कुटुंबी लोगोंमें वा धनधान्यादिक बाह्य पदार्थोंमें अनुराग करनेसे अनेक प्रकारके महापाप करने पड़ते हैं, और उन पापों के कारण नरक निगोंदके दुःख सहन करने पडते हैं, उसी प्रकार भगवान अरहंत देवमें अनुराग करनेसे अनंत पुण्यकी वृद्धि होती हैं । इसका कारण यह है कि भगवान अरहंत हेत समस्त पापोंसे रहित हैं। पातक न हो जाने से उनका आत्मा अत्यंत निर्मल और शुद्ध हो जाता है। उनके अनंतचतुष्टय प्रगट हो जाते हैं, चौतीस अतिशय प्रगट हो जाते हैं, और आठ प्रातिहार्य प्रगट हो जाते हैं । इस प्रकार वे भगवान अपने कर्मोंको नष्ट कर अपने आत्माका यथार्थं कल्याण कर देते है । जो पुरुष इस प्रकार अपने पाप कर्मोंको नष्ट कर, आत्माका कल्याण करना चाहता है, और eringष्टय आदि आत्माके गुणोंको अपनेही आत्मामें प्रगट करना चाहता है, वह पुरुष भगवान अरहंत देवमें भक्ति वा अनुराग करना चाहता है। भगवान अरहंत देवके गुणोको बार-बार स्मरण करना भक्ति है, और उनको प्रगट करनेकी लालसा रखना अनुराग है । जो पुरुष अपने अनंतचतुष्टय प्रगट करने की लालसा से उन गुणोंको बार बार स्मरण करता है। और फिर उनको प्रगट करनेके लिए कोधादिक कषायोंको सर्वथा त्याग कर पूर्ण चारित्र धारण करता है. वह अवश्यही पाप कर्मोंको नष्ट कर आत्मजन्य सुख में मग्न हो जाता है। इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है। इस प्रकार उन भगवान अरहंत देवके गुणोको प्रगट करनेवाले और उन गुणोको प्रगट करनेके उपाय बतलानेवाले उन अरहंत देवके कहे हुए शास्त्र हैं । अथवा वीतराग निग्रंथ गुरु है | शास्त्रist faनयके साथ पढनेसे तथा गुरुकी सेवा करनेसे मोक्ष का यथार्थ मार्ग प्राप्त हो जाता है, और धीरे धीरे वह सेवा करनेवाला भव्यजीव अपने आत्माका कल्याण कर लेता है, इसलिए देव शास्त्र गुरुकी सेवा करनेसे स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति अवश्य होती है, जो पुरुष देव-शास्त्र-गुरुकी सेवा - भक्ति नहीं करता, केवल स्त्री-पुत्रादिक के
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
मोहमें लगा रहता है, वह पुरुष अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता हुआ अवश्यही नरक निगोदके महादुःख सहन किया करता है, इसलिए मध्यजीवोको देव - शास्त्र - गुरुमेंही अनुराग रखकर उनकी सेवा - भक्ति करते रहना चाहिए, यह आत्मकल्याणका सरल उपाय है।
प्रश्न- योस्ति सत्कर्मकार्ये भो निरुद्यमी स कीदृश: ?
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अर्थ -- हे भगवन ! अब कृपाकर यह बतलाईये की जो पुरुष श्रेष्ठ कार्य करनेमें निरुद्यमी होता है, वह कैसा गिना जाता है ? उ. निरुद्यमी स्यानरजन्म लब्ध्वा सत्कर्मकार्ये सुखदे सदा यः । स एव पापी चतुरोपि मूर्खः श्रीमान् दरिद्रः सुजनोपि दुष्टः ॥ सिद्धयं । ज्ञात्वेति भथ्यो ह्यलसं विहाय सत्कर्मकार्ये च भवोद्यमीत्वम् ॥
अर्थ -- जो पुरुष मनुष्य जन्म पाकरकेभी सुख देनेवाले श्रेष्ठ कार्य के करने में सदाकाल निरुद्यमी रहता है, उसे पापीही समझना चाहिए। वह पुरुष चतुर होकर भी मूर्ख माना जाता है, धनी होकरभी दरिद्री माना जाता है, और सज्जन होकर भी दुष्ट कहा जाता है। यह समझकर, हे भव्य ! तु प्रमादरूपी समुद्रको उल्लंघन करनेके लिए अपने आलसका त्याग कर, दान, पूजा, व्रत, उपवास आदि श्रेष्ठ कार्य करने में सदा उद्यमी बन
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भावार्थ - यह जीव इस संसार में अनादिकालसे परिभ्रमण करता चला आ रहा है, और चारों गतियोंके महादु:ख भोगता आ रहा है। इन चारों गतियों के परिभ्रमणमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना अत्यंत कठिन हैं, । यदि यह मनुष्यजन्म प्राप्त होकरभी व्यर्थ चला जाता है, तो फिर दूसरी बार उसका प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ हो जाता है। तथा यह भी निश्चित सिद्धांत है कि इस संसारमें मोक्ष प्राप्त करनेके जितने श्रेष्ठ साधन हैं, और पुण्य प्राप्त करनेके जितने श्रेष्ठ कार्य हैं, वे सब इस मनुष्यपर्याय में ही हो सकते हैं दूसरी कोई ऐसी पर्याय नहीं है जिसमें मोक्ष और पुण्यके पूर्ण साधन बन सकें। इसलिए मनुष्य जन्मको पा करके व्रत, उपवास वा दान, पूजा आदि श्रेष्ठ कार्यों में कभी आलस नहीं करना चाहिए, जो पुरुष अत्यंत दुर्लभ ऐसे मनुष्य जन्मको पा कर
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( शान्तिमुधासिन्धु)
पात्रदान वा जिनपूजा आदि कार्योमें उद्यम नहीं करते, उनके समान इस संसारमें अन्य कोई मूर्ख नही हो सकता । मनुष्यजन्मका फल धन, दान. पूजा आदिकद्वारा पुण्य उपार्जन करना है । जो पुरुष मनुष्यजन्म पा कर तथा श्रेष्ठ कूल, निरोग देह आदि पा करभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर. लेता, बा चारित्र धारण कर महापुण्य उपार्जन नहीं कर लेता, वह धनी होकरभी आगेके जन्मके लिए निर्धनही बना रहता है। इस प्रकार मनप्य जन्म पा कर स्वर्ग मोक्षके साधनभत प्रत उपवास करना, वा ब्रह्मचर्य धारण करना, चारित्र पालन करना सज्जनता है । जो पुरुष ऐसा नही करता जाता वह कभी सज्जन नहीं कहा । फीर तो उसे दुष्टही कहना चाहिए । इस लिए हे भव्य ! तू आलसको सर्वथा छोड, और सम्यक्चारित्र धारण कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए सदाकाल उद्यम करता रह। यही मनुष्य जन्मका सार है, और यही आत्मकल्याणका मार्ग है।
प्रश्न- स्वात्महितः कदा कार्यः स्वामिन् मे वद साम्प्रतम् ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस जीवको अपने आस्माका हित कब कर लेना चाहिए ? उ. कामाग्निकोपः प्रबलो न यावत् पापी प्रलोभो हुदि न प्रविष्टः
देहोस्ति यावत्सुदृढो निरोगी मृत्युस्तथा दूरतरोस्ति दुष्टः । तावत्प्रकुर्युः स्वहितं प्रयत्नात पूर्वोक्तदुष्टाः प्रबलाश्च न स्युः पश्चात शक्ताः किमपि स्वकृत्यं कर्तुं भवन्त्येव कदापि केपि ॥
अर्थ- जब तक यह कामदेवरूपी अग्नि और क्रोधरूपी कषायप्रबळ नहीं होता, जब तक यह तीव्र और महापापी लोभ हृदयमें प्रवेश नहीं करता, जब तक यह शरीर बलवान और निरोगी रहता है, तथा जब तक यह दुष्ट मृत्यु अत्यंत दूर बना रहता है, इस प्रकार ये ऊपर कहे हुए दुष्ट जब तक प्रबल नहीं होते, तब तकही इस जीवको प्रयत्न पूर्वक अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए। जब ये दुष्ट कामक्रोधादिक प्रबल हो जाते हैं, वा शरीर जर्जरित हो जाता है. अथवा मृत्यु समीप आ जाता है, तब इस संसारमें कोईभी जीव अपना आत्मकल्याण करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- ज्यों ज्यों विषय सेवन किए जाते है, त्यो त्यो उनकी तृष्णा बढ़ती ही जाती है। यदि उनसे अपना मन हटा लिया, वा उनका त्याग कर दिया जाय तो वह तृष्णा घट जाती है, बा नष्ट हो जाती है । इसलिए मनुष्योंको अपनी इस धारणाका त्याग कर देना चाहिए की हम लोग और थोडे दिन गृहस्थीमें रहले, फिर इनका त्यागकर आत्माका हित कर लेंगे, क्योंकी थोडे दिन और रहले, थोडे दिन और ठहर जाय, यही विचार करते-करते दिन पूरे हो जाते हैं, और यह जीव मृत्युके मुखम पड़कर परिभ्रमणमें लग जाता है। इसलिए इन विषयोंका त्याग पहलेसे ही कर देना चाहिए । पहलेसे त्याग करदेनेसे इनकी प्रबलता नहीं बढ सकती। इस प्रकार धन कमाते-कमाते लोभकी वृद्धि होती रहती है । वह लोभकी वृद्धि न हो उसके पहलेही आत्माके हित में लग जाना चाहिए । आत्माका हित करने के लिए वा व्रत उपवास करनेके लिए शरीरका बलशाली होना. और नीरोग होना अत्यावश्यक हैं । निर्बल शरीरसे प्रत उपवास करना कठिन हो जाता है। इसलिए जबतक शरीर नीरोगी और बलवान रहता है, तबतकही इस जीवको अपने आत्माका हित कर लेना चाहिए । वृद्धावस्था आनेपर फिर शरीर निबंल हो जाता है, और वृद्धावस्थामें अनेक रोग आकर घेर लेते हैं। इसलिए वृद्धावस्थाके पहलेही अपने आत्माका हित करना अत्यावश्यक है । इस संसारमें इस जीवकी आयु कब पूर्ण होती है, वा मरण कब होता है, यह किसीको मालुम नहीं होता । यह शरीर अत्यंत क्षण-भंगुर है | बेठे-बैठे, चलतेचलते, वा खडे-खडे, चाहे जब यह शरीर नष्ट हो जाता है, और मरण हो जाता है, वा आयु पूर्ण हो जाती है, यह समझकर मृत्यु होने के पहलेही अपने आत्माका कल्याण कर लेना श्रेयस्कर है । विषयोंकी तीव्रता होनेपर वा वृद्धावस्था प्राप्त होनेपर फिर यह जीव अपने आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकता ।
प्रश्न- मूर्तिः पूज्या कियत्कालं गुरो धात्वादिनिर्मिता ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि धातु वा पाषाण की बनी हुई भगवान जिनेंद्रदेवकी प्रतिमा इस जीवको कब तक पूजनी चाहिए ?
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( सान्निमुधासिन्ध)
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उ. भ्रान्तिप्रवे क्लेशकरे व्यथावे, गृहप्रपंचे विषयेऽपि यावत् । हर्षो विषावः क्रियते रचियस्तैरेव तत्पापविनाशनार्थम् ।। तायत्प्रपूज्या प्रतिमा प्रयत्नात् सदैव वन्द्या हृदि चिन्तनीया। यातीर्थयात्रा यजनप्रतिष्ठा, कार्या सवा वांच्छित्तदा स्तुतिश्च
गृहप्रपंचो विषयो यदा येवुःखपदस्त्यज्यत एव मोहः । स्वात्मैव तत्त्वात्प्रतिमास्ति पूज्या बन्यानिमान्यापि तवे ति नात्या।
अर्थ-इस संसारमें महा भ्रान्ति उत्पन्न करनेवाले, महाक्लेश उत्पन्न करनेवाले, और घोर दुःख देनेवाले घरके प्रांच में जब तक यह जीव हर्ष-विषाद करता रहता है. वा उनमें रुचि करता है, अथवा इन्द्रियोमे जब तक हर्ष-विषाद करता रहता है, वा रुचि करता रहता है, तब-तक उस गृहस्थिके प्रपंचोंसे उत्पन्न होनेवाले पापोंका नाश करने के लिए प्रतिमाका पूजन प्रयत्न पूर्वक करते रहना चाहिए । तथा सदाकाल उनकी बन्दना करनी चाहिए, और अपने हृदयमें चितवन करते रहना चाहिए, अथवा तीर्थयात्रा करते रहना चाहिए वा पूजा प्रतिष्ठा करते रहना चाहिए अथवा सदाकाल इच्छानुसार फल देनेवाले भगवान जिनेंद्रदेवकी स्तुती करने रहना चाहिए । परंतु जब यह जीव महादुःख देनेवाले घरके प्रपंचोंका त्याग करेगा, अथवा इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करेगा, और मोहका सर्वथा त्याग करेगा, उस समय उसका शुद्ध आत्माही प्रतिमाके समान पुज्य, बन्दनीय और अत्यंत मान्य माना जाता है । उस समय धातु, पाषाणकी प्रतिमाकी आवश्यकता नहीं रहती है ।
भावार्थ- धर्मके दो भेद हैं, एक गृहस्थधम और दूसरा मुनिश्रम । मुनिधर्म मोक्षका साक्षात् साधन है, और गृहस्थधर्म मोक्षकी परंपरा साधन है । गृहस्थधर्ममें जीविकाके साधनोंमें भी हिंसादिक पाप लगते रहते हैं । और चक्की, उखली, चूलि, बुहारी, आदिसे महापाप उत्पन्न होते रहते हैं। उन समस्त पापोंको नाश करनेके लिए भगवान जिनेंद्रदेवने देव पूजा, गुरूपास्ति, पात्रदान आदि गृहस्थोंका धर्म बतलाया है। गृहस्थ धर्म के जितने साधन है, उन सबमें देवपूजा मुख्य बतलाई है । देव पूजाभी दो प्रकारकी है, एक प्रत्यक्ष पूजा और दुसरी परोक्ष पूजा। समवशरणमें विराजमान भगवान अरहंत देवकी पूजा करना प्रत्यक्ष पूजा
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{ शान्तिसुधासिन्धु )
है, तथा उनके अभावमें उनके प्रतिमाकी पूजा करना परोक्षपूजा कहलाती है। प्रतिमाकी पूजा अभिषेक पूर्वकही होती है, और अभिषेक पंचामृताभिषेक सर्वोत्कृष्ट होता है। अभिषेकके अनंतर आव्हान, स्थापन सन्निधीकरण, पूजा और विसर्जनके भेदसे पूजाके पांच अंग कहलाते हैं । इनमेंसे पूजाके जितने अंग कम होते है, उतनीही फल में कमी हो जाती है । अथवा भगवान अरहंत देवकी वा उनके शरीरकी वा उनके प्रतिमाकी पूजा करना द्रव्यपुजा है। भगवान तीर्थंकर परमदेवके जहांजहां मोक्ष कल्याणक हए है, वहां-वहाकी पूजा करना, या की दम : करना क्षेत्रपूजा कहलाती है । तथा भगवान तीर्थंकर परमदेवके कल्याणक जिस-जिस समय हुए हैं, उसकी पूजा करना बा अष्टान्हिकाके दिनोंमें नंदीश्वर जिनालयोंकी पूजा करना कालपुजा है । इसके सिवाय विधान करना, प्रतिष्ठा करना, स्तुनि करना, प्रभावना अंगकी वृद्धि के लिए रथोत्सव करना, आदि सब पुजा कहलाती है । यह सब प्रकारकी पूजा पापोंका नाश करनेवाली है, और पुण्यको बहानेवाली है, इसलिए प्रत्येक गृहस्थको श्रावकोंको प्रतिदिन पूजा करना अत्यावश्यक है। समवशरणमें चैत्यवृक्षों के पीठपर, तथा मानस्तंभकी पीठपर, तथा और अनेक स्थानोपर भगवान जिनेंद्रदेवकी प्रतिमा विराजमान रहती है, और भव्य जीव, पहले उन प्रतिमाओंकी पूजन कर, फिर गंधकूटी में भगवानके दर्शन करने के लिए जाते हैं । उससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता कि गहस्यों के लिए जिनप्रतिमाका पूजन अत्यावश्यक है। जिन प्रतिमाका पूजन किए विना उनका गृहस्थसम्बन्धीपाप कभी नष्ट नहीं हो सकता। हां ! जो लोग अपने मोहका त्याग कर, गृहस्थ अवस्थाका त्याग कर देते हैं और निग्रंथ दीक्षा लेकर मनिव्रत धारण कर लेते हैं वेभी भगवान अरहंत देवकी प्रतिमाको नमस्कार करते हैं, और उनकी स्तुति करते हैं, परन्तु अष्टद्रव्यका अभाव होनेसे द्रव्यपूजा नहीं करते किंतु भावपूजा किया करते है, तथा जो मुनि आत्मध्यानमें लीन रहते हैं वे मुनि अपने आत्माकोही अत्यंत शुद्ध बनाकर उसे सिद्धोंके समान मान लेते हैं, और फिर उसीका ध्यान और स्तुति आदि किया करते हैं।
प्रश्न - मान्यतादिः कुतो देव नरपावें च तिष्ठति ?
अर्थ – हे देव ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस मनुष्यके पास मान्यता वा शांति आदि किस मारणसे ठहर सकती हैं ?
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( शान्तिसुधासिन्धु)
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उ. मान्यता वस्तुतो लोके जिनाज्ञापालनात्सदा ।
अधीता स्मरणाद्विधा शुचिता लोभनाशतः ॥ २७४ ।। स्थिरताक्षसुखत्यागाच्छान्तिः स्यात्मान्यबोधतः स्वरसास्वादनान्मुक्ति पार्वे दासीव सा वसेत् ॥ २७५ ।।
अर्थ- वास्तवम देखा जाय तो इस मंसार में भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका पालन करनेसे. अपनी मान्यता बढ़ती हूँ, अध्ययन की हुई विद्या स्मरण करनेसेही स्थिर ठहरतो है, इंद्रियोंके सुखोंका त्यागकर देनेसे स्थिरता, वा निश्चलता, निराकुलता बनी रहती है, अपने आत्माका ज्ञान होनेसे तथा अन्य पदार्थोंका ज्ञान होनेसे आत्मामे शांति बनी रहती है, और अपने आत्माका शुद्ध स्वरूप चितवन करनेसे वा उस शुद्ध स्वरुपका अनुभव करनेसे यह मुक्ति दासीके समाम अपने समीम बनी रहती है।
भावार्थ - बडप्पन प्राप्त होनेको मान्यता कहते है। यह मान्यता पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होती है, तथा पुण्यकर्मका बंध भगवान अरहंतदेवकी आज्ञाका पालन करनेसे होता है। भगवान अरहन्तदेव सर्वोत्कृष्ट परमात्मा हैं, इसलिए उनकी आज्ञाभी आत्माका सर्वोत्कृष्ट कल्याण करनेवाली कही जाती है। जो मनुष्य भगवान जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका पालन करता है वह अवश्य सर्वोत्कृष्ट पुण्यका बंध करता है, तथा उस पुण्यके उदयसे वह मनुष्य जगतमान्य और उत्कृष्ट बन जाता है। यहां तक कि वह स्वयं वीतराग सर्वश हो जाता है । इससे बढकर मान्यता और कहीं नही हो सकती । इस प्रकार अध्ययन की हुई विद्या स्मरण करनेसेही ठहरती है, यदि उस विद्याका बार-बार स्मरण न किया जाय तो वह विद्या नष्ट हो जाती है, इसलिए विद्याको स्थिर रखने के लिए बार-बार स्मरण करते रहना चाहिए तथा लोभके नाश होनेसेही पवित्रता ठहरती है। यहांपर पवित्रताका अर्थ आत्माकी पवित्रता है । यह आत्मा लोभके कारणही अनेक पापोंको उत्पन्न करता हुआ, अपने आत्माको मलिन और अपवित्र बना लेता है,
जब यह आत्मा 'अपने लोभको नष्ट कर देता है, तब उस लोभके नाश * होनेमे पापोंका अभाव हो जाता है, पापोंका अभाव होनेसे आत्माम
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पवित्रता आ जाती है। इस प्रकार इन्द्रियोंके सुख में लीन हुआ यह मनुष्य सदाकाल ब्याकुल और चंचल बना रहता है। जब यह मनुष्य इन्द्रियोंके मुखका त्याग कर देता है, तब उसकी व्याकुलता वा चंचलताभी नष्ट हो जाती है। और फिर यह आत्मा अपने स्वभावमें स्थित हो जाता है । जब यह आत्मा आपने अज्ञानके कारण सदा उद्धिग्न बना रहता है, अपनी अज्ञानताके कारण परपदार्थोसे मोह करने लगता है, और फिर उनके संयोग-वियोग होनेपर दुःखी होता है । जब इसका अज्ञान नष्ट हो जाता है, और यह आत्माके स्वरूपको तथा अन्य पदार्थके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है, तब फिर उनसे मोहका त्यागकर निराकुल वा शांत हो जात है, और वह शांति सदाकाल बनी रहती है । इस प्रकार अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपका अनुभव करने में मुक्तिभी दासीके समान सदाकाल पासही बनी रहती है । जो मनुष्य अपने आत्माका यथार्थ स्वरूपका अनुभव करता है वह अवश्यही मुक्त हो जाता है। गह समझकर भव्य जीवोंको भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका पालन करते रहना चाहिए, लोभका त्यागकर पवित्रता धारण करना चाहिए। इंद्रियसुखका त्याग कर निश्चल हो जाना चाहिए, आत्मज्ञान प्रकटकर आत्माको शांत बना लेना चाहिए, और आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभवकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए ।
प्रश्न- विभाति कामधेन्वादिः स्वलीनाय च कीदृशः ?
अर्थ-हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि मनिराज अपने आत्मामें लीन रहते हैं उनको सर्वोत्कृष्ट कामधेनु आदि दुर्लभ कैसे जान पड़ते हैं ?
उ. स्वानंदतप्ताय मुनीश्वराय देवेंद्र लक्ष्मीधरणेद्रसम्पत् ।
नरेंद्रराज्यं वरकामधेनुश्चिन्तामणिः कल्पतरोः वनादि २७६ सुभोगभूमिस्तृणद्विभाति तथा मनोवांछितभोजनादिः । कथैव साधारणवस्तुनः का लोके मुनीनां महिमायचित्यः
अर्थ- जो मनिराज सदाकाल अपने आत्मजन्य आनंदमें तृप्त बने रहते हैं, उनके लिए साधारण पदार्थों की तो बात ही क्या है, उनके लिए इन्द्रकी महाविभूतिभी तृणके समान जान पड़ती है, धरणेंद्रकी सम्पदाभी
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तृणके समान जान पड़ती है, चक्रवर्तीका साम्राज्यभी तृण के समान जान पड़ता है, श्रेष्ठ कामधेन भी तणके समान जान पडती है. नितामणिरत्नभी तृणके समान जान पडता है, कल्पवृक्षोंका बनभी तृणक समान जान पडता है, और उत्तम भोगभूमिभी तगक समान जान पड़ती है, और मनके अनकल बना हुआ भोजन-पानभी तणके समान जान पडता है, कहां तक कहा जाय, इस संसारमें मुनियोंकी महिमा अबझ्यह अचिंतनीय है.
__भावार्थ- इन्द्रकी विभूति बहत बडी विभूति है, और वह विशाल सुखका कारण है, उस इन्द्रकी अनेक देवियां, अनेक अप्सराएं और अनेक देव सदाकाल सेवामें उपस्थित रहते हैं। उसके यहां मैकडो कल्पवृक्ष होते है, जो इच्छानुसार फल देते हैं। इस प्रकार इन्द्रको सम्पत्तिचक्रवर्तीकी नौनिधि, चौदह रलरूप सम्पत्ति महासुख देनेवाली है, काम, धेनु, चितामणिरत्न और कल्पवृक्षोंका बन इच्छानुसार सुख देनवाला है, उत्तम भोगभूमिके मृखभी बहुत उत्तम है, और इच्छानुसार भोजनभी सबको अच्छा लगता है । यह एक-एक सामग्री महासुख देनेवाली है । यदि ये सब सम्पत्तियां एकसाथ मिल जाय तो फिर उन सुखका क्या पूछना है । वह सुख तो इस संसारमें सर्वोत्कृष्ट मुख होगा, परन्तु केवल अपने शुद्ध आरमासे उत्पन्न हुआ सुख, उस मंमारके सर्वोत्कृष्ट सुखसे भी अनंतगणा सुख होता है । इन्द्र. चक्रवर्ती आदिके जितने सूख हैं वे मन पराधीन हैं, वे सुख पूण्य कर्मके आधीन है, और बाह्य सामुग्रीके आधीन हैं । यदि इन दोनोमेसे किसी एकका अभाव हो जाता है, तो उस सुखका अभाव हो जाता है । इसके सिवाय वह मुख क्षणभंगुर है, अवश्य नष्ट होनेवाला है, परन्तु आत्मजन्य सुख न तो किसीके आधीन है और न कभी नष्ट होता है । वह सूख तो केवल अपनेही शुद्ध आत्मास प्राप्त होता है, और अनंतकालतक बरावर बना रहता है । इसलिए वे मुनिराज अपने आत्मजन्य सुखके सामने इन्द्र, चक्रवर्ती, कामधेनु आदिके सुखोंको तृणक समानही समझते हैं, और वास्तवमें वे सब सुख आत्मसुखके सामने तुणकेही समान हैं । इमीलिए आचार्य कहते हैं कि मुनियोंकी महिमाको इस संसार में कोई भी चितवन तक नहीं कर सकता, उनकी महिमा अचित्य है ।
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प्रश्न - अशक्तता च लज्जा क्व दर्शनीया न वा बद ?
अर्थ- भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस भव्यजीवको अपनी अशक्तता और अपनी लज्जा कहां दिखलानी चाहिए और कहां नहीं दिखलानी चाहिए ? उ. पापार्जने स्यान्यविघातके च निधे कुकृत्ये जनयंचने च ।
स्वात्मप्रशंसान्यविनिन्दनादौ निजागुणोद्योतन एव लज्जा वाच्छादने श्रेष्ठगु गस्य लोके प्रदर्शनीयाऽमतिता ह्यशक्तिः धर्मार्जने कर्मविनाशनादौ लज्जा न कार्या स्वपरोपकारे ॥
अर्थ- इस संसार में इस जीबको पापोंका संग्रह करने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, अपने आत्माका घात करने और अन्य जीवोंका घात करनेमें अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, निंदा करने योग्य नीच कार्योको करने में और अन्य जीवोंको ठगने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, अपनी प्रशंसा करने और अन्य जीवों की निंदा करने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए और अपने अवगण दिखलानेमेंभी लज्जा करनी चाहिए । इसके सिवाय श्रेष्ठ गुणों को आच्छादन करने में भी अपनी बुद्धिहीनता और असमर्थता दिखलानी चाहिए, परंतु धर्मका उपार्जन करने में, कर्माको नाश करने में, अपने आत्माका हित करने में और अन्य जीवोंका हित करने में कभी लज्जा और असमर्थता नहीं दिखलानी चाहिए।
___ भावार्थ- संसारमें जितने पापके काम हैं, उन सबमें अपनी असमर्थता और लज्जा दिखलानी चाहिए । इस मनुष्य में लज्जा एक ऐसा गुण है, कि जिसके होनेसे बहुतसे पाप अपनेआप छूट जाते हैं। लज्जालु मनुष्य अपने गुरुजनोंके सामने वा सर्वसाधरणकी जानकारीमें कोईभी बुरा काम नहीं कर सकता, इसलिए आचार्योने श्रेष्ठ श्रावकके लिए लज्जा एक गुण बतलाया है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पांच पाप तो है ही । इसके सिवाय दूसरोंको ठगना, मायाचारी करना, निदा करना आदि भी पापही कहलाते हैं । इनके करने में भी उत्तम श्रावकोंको लज्जा और असमर्थता दिखलाते रहना चाहिए। परन्तु
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आत्माका हित करनेमें, पाप्रदान देनेमें, जिनपूजन करनेमें, वन-उपवास करने में, और समाधिमरण धारण करने में कभी असमर्थता नहीं दिखलानी चाहिए, तथा इन कामों को करने कभी लगता नहीं करना चाहिए । इन कामोंको तो बडे उत्साहके साथ करना चाहिए।
प्रश्न - कीयादिप्राप्तिहेतुः कः तद्बोधाय प्रभो बद?
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कीति ऐश्वय आदि विभति और गुणोंका विशेष हेतु क्या है ? उ. ऐश्वर्यकीर्तेस्तपसः कृपायाः संवेगवैराग्यदयादिकस्य ।
औदार्यसौजन्यगुणादिकादेः ऋद्वेश्च सिद्धविनयाविकानाम् ॥ धैर्यस्य शान्तेः सुगतेः स्थितेश्च स्वराज्यलक्ष्म्याः परतंत्रहंत्र्याः प्राप्तेः सुहेतुः कथितं समर्थ विज्ञानमेकं मुनिनायकेन ।। २८१ ।।
अर्थ – ऐश्वर्य, कीति, तपश्चरण, दया, कृपा, संवेग, वैराग्य, औदार्य, सज्जनता, ऋद्धि, विनय, धैर्य, शान्ति, सुगति. स्थिति और परतंत्रताको हरण करनेवाली स्वराज्यरूपी लक्ष्मीका एक समर्थ हेतु आचार्योने एक विज्ञान अर्थात् स्त्रपरभेदविज्ञानही बतलाया है ।
__भावार्थ- ऊपर लिखी हुई विभूति और सब श्रेष्ठ गुण पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होते हैं, तथा पुण्यकर्मके कारणोंमें सबसे श्रेष्ठ कारण सम्यग्दर्शन है, और सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेपरही स्वपरभेदविजान प्रगट होता है । स्वपरभेद-विज्ञान प्रगट होनेसे यह आत्मा अपने आत्माके स्वरूपको जान लेता है, तथा राग, द्वेष, मोह, कर्म, पुद्गल आदि आत्मामे भिन्न पदार्थोंका स्वरूपभी समझने लगता है, इसलिए वह परपदार्थोंका त्यागकर तथा राग, द्वेष, मोह आदिका सर्वथा त्याग कर, अपने आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता रहता है । इस प्रकार वह दया, कृपा आदि गुणोंको प्रगट कर लेता है, उदारता, सज्जनता आदि गुणोंको प्रगट कर लेता है, और संवेग, वैराग्य गुणोंको धारण कर लेता है । संवेग वैराग्य गुणोंको धारण करनेके कारण तपश्चरण धारण करता है, और तपश्चरण धारण करने के कारण ऋद्धि-सिद्धि आदि गण प्रगट हो जाते हैं, आत्माको निश्चलता प्रगट हो जाती है, परलोकको गति सुधर जाती है, संसार-भर में उसकी कीर्ति फैल जाती है, और आत्माको अलौकिक
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विभूति प्राप्त हो जाती है। अंतमें इस स्वपरभेदविज्ञान के कारण परतन्त्रताको नाश करनेवाली मोक्षरूप स्वराज्य-लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है। इसलिए भव्यजीवोंको जिस प्रकार बने, उस प्रकार स्वपरभेदविज्ञान प्रगट कर लेना चाहिए। मोक्ष प्राप्त करनेका यह सबसे मुख्य कारण है।
प्रश्न- म्रियतेत्र बिना पुण्यरमुत्र कि करोति स: ?
अर्थ- है स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो मनुष्य इस लोकमें पूण्य उपार्जन नहीं करता, बिना पूण्य केही मर जाता है, वह परलोकमें क्या करता है ? उ, पुण्यं न कृत्वात्र सुखस्य मूलं यः कोपि जीवो म्रियते ह्यमुत्र
स एव को कुक्करवत्परस्य मुखं सदा पश्यति दीनबुद्धयाना ज्ञात्वेति भव्याः प्रविहाय पापं कुर्वन्तु पुण्यं खलु यत्र तत्र । यतः सुरक्षा भवतां भवेत्को ह्याचन्द्रसूर्य स्खलु विघ्नहीना ॥
अर्थ- इस संसारमें एक पुण्यही सुखका कारण है । जो पुरुष बिना पुण्य किए मर जाता है, वह परलोकमें कुत्ते के समान अत्यंत दीन होकर सदाकाल दरारोंका मुख देखता रहता है। यह समझकर भव्यजीवोंको पापकार्योंका त्याग कर देना चाहिए, और प्रत्येक स्थानपर पुण्यकार्य करते रहना चाहिए। ऐसा करनेसेही जब तक इस संसारमें सूर्य चंद्रमा विद्यमान हैं, तब तक बिना किमी विघ्नके भव्यजीवोंकी रक्षा हो सकती है।
भावार्थ- कर्म आठ हैं, उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म तो सर्वथा पापकर्म हैं, तथा वेदनीय, आयु नाम, गोत्र, इन चार कर्मोके शुभ-अशुभके भेदसे दो दो भेद हैं । वेदनीय कर्ममें सातावेदनीय पुण्य है, असातावेदनीय पाप है। शुभ आयु पुण्य है, अशुभ आयु पाप है । शुभ नामकर्म पुण्य है, अशुभ नामकर्म पाप है, तथा ऊंच गोत्र पूण्य है, और नीच गोत्र पाप है। इनमेंसे पुण्यकर्म सूख देनेवाले हैं और पापकर्म दुःख देनेवाले हैं । इस संसारम जितने कार्य हैं, वे भी सब पुण्य-पाप इन दो भागों मेंही बटे हुए हैं, यह मनुष्य प्रत्येक समयमें कुछ न कुछ करताही रहता है । वह या तो
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पुण्यकार्य करता रहता है, या पापकार्य करता रहता है । जिस प्रकार सेट लोग अपने वहीं खातेका हिसाब ठीक रखते हैं, और अपने हानिलाभका पूरा ध्यान रखते है, जहांतक बनता है, वहांतक हानि नहीं होने देते । इसप्रकार प्रत्येक भव्य जीवको अपने पुण्य-पापकाभी हिमान रखना चाहिए, और पाप अधिक न होने पाबे, इस बातका पूरा ध्यान रखना चाहिए । जीवोंकी हिंसा नहीं करना; दया पालन करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, अहान पान करता, अधिक लालसा नहीं रस्त्रना, रागद्वेष, मोह आदि विकारोंका त्याग कर देना, मद्य, मांस. मधुका त्याग कर देना, सप्त व्यसनोंका त्याग कर देना, किसी प्रकारका अन्याय नहीं करना, अभक्ष्य भक्षण नहीं करना, आदि सब पुण्यकार्य कहलाते हैं । इनके सिवाय प्रतिदिन जिनपूजन करना, पात्रदान देना, निग्रंथ गुरुकी उपासना करना, शास्त्रीको आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करना आदि सन्न पुण्यकार्य हैं, तथा इसके विपरीत सब कार्य पापकार्य है। जो मनुष्य पुण्यकार्योसे वंचित रहता है, वह पापकार्यही करता है, और फिर परलोकमें वह पराधीन होकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहता है । इसलिए इस जीवको पापोंसे बचनेके लिए और अपने आत्माको दुःखोंसे बचाने के लिए सदाकाल पूण्यकार्य करते रहना चाहिए. इसीसे जीवके सुख में कभी विघ्न नहीं हो सकता। फिर वह जीव सदामुखी रहता है।
प्रश्न- हानिः स्थाद्वा धनत्यागाद्धनवृद्धिगुरो बद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि धनको दानादिकमें खर्च करनेसे धनकी हानि होती है, अथवा वृद्धि होती है। उ. विद्यादिबुद्धः सरसश्च वाप्याः सुलब्धलक्ष्म्याश्च सदाऽव्ययेन
समूलहानिश्च जिनागमस्य व्ययात्समन्तात्परिवर्द्धते को २८४ ज्ञात्वेत्यवश्यं धनबुद्धिलक्ष्म्याः व्ययश्च कार्यो न च रक्षणीयः यतः सुबुद्धिश्च धनं सुविद्या धर्मोपि वर्द्धत सदैव लोके २८५
अर्थ-- इस संसारमें विद्या, बुद्धि, सरोवर, बाबडी, और प्राप्त हुई लक्ष्मीका व्यय न करनेसे उनकी सर्वथा हानि हो जाती है । इम
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प्रकार जैन सिद्धान्तके रहस्योंको न बतलाने से भी जैन सिद्धान्तोंकी हानि हो जाती है। तथा इनका यदि व्यय किया जाय तो संसारमें सदाकाल इनकी वृद्धि होती रहती । यह समझकर धन, बुद्धि, लक्ष्मी आदिका सदाकाल व्ययही करते रहना चाहिए। इनको भूमिमें गाडकर सुरक्षित नहीं रखना चाहिए । विद्या, बुद्धि, और वनका व्यय करनेसे इस संसारमें सदाकाल इनकी वृद्धि होती रहती है ।
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भावार्थ - विद्या और बुद्धि ये दोनोंही ज्यों-ज्यों खर्च किये जाने है, त्यों-त्यों बढ़ते हैं । यदि इनको खर्च न किया जाय तो ये दोनोंही घडही जाते है. या नष्ट हो जाते हैं। विद्याका खर्च उसका दान देना है, वा पढ़ाना है। विद्या पढ़ानेसे बढती है, और न पढानेसे घट जाती है. वा नष्ट हो जाती है । बुद्धिका खर्च परमार्थका बिचार है | परमार्थका विचार करनेसे वा आत्माके हित-अहितका विचार करने मे बुद्धि तीव्र हो जाती है, तथा परमार्थका विचार न करनेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, वा नष्ट हो जाती है। बडी-बडी बावडियोंका जल ज्यों-ज्यों खर्च किया जाता है, त्यों-त्यों जल बढता रहता है । यदि उनका जल खर्च न किया जाय तो वह सह जाता है, इसलिए विद्या, बुद्धि, वा जलका खर्च करनाही अच्छा है, बड़े-बड़े तालाबों का जलभी खर्च करनेसेही बढ़ता है । यदि तालाबोंका जल खर्च न किया जाय तो वह तालाब का जल सड जाता है, और बंद कर देना पडता है। इसलिए बड़े-बडे तालाब से नहरे निकालते हैं, वा अन्य किसी रीतिसे खर्च करते हैं । इसप्रकार लक्ष्मीभी कूएँके जलके समान रहती है, जितना खर्च करते रहा उतनाही बढता रहता है। इसका भी कारण यह है, कि यह लक्ष्मी पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होती है, जितना पुण्यकर्मीका उदय होता है, उतनीही लक्ष्मी बनी रहती है। लक्ष्मीका घटना बढना पुण्यकर्म के घटने बढने के आधीन है, सर्वके आधीन नहीं है । यदि खर्च न किया जाय तो उतनीही बनी रहती है, और यदि स्वर्च किया जाय तो उस पुण्यकर्मके उदयसे फिर वह जाती है । इसलिए लक्ष्मीको खर्च करनाही चाहिए। भगवान जिनेंद्रदेवकी पूजा-प्रतिष्ठामें खर्च करना, मुनिराजके रत्नत्रयकी वृद्धि करनेमें खर्च करना, प्रभावना अंग में खर्च करना, चारों प्रकारके दान देने में खर्च करना, दीन-दुखियोंके दुःख दुर
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करने में खर्च करना, श्रावकोंके रत्नत्रयकी वृद्धि करने में, वा वात्सल्यअंगके पालन करने में खर्च करना मोक्षमार्गको पुष्ट करनेवाली विद्याके दान देने में खर्च करना, तथा औरभी ऐसेही पुण्य कार्यों में खर्च करना, खर्च कहलाता है। केवल भोग-विलासोंमें खर्च करना लक्ष्मीका अपव्यय कहलाता है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवोंको विद्या, बुद्धि, धनका सदुपयोग करना चाहिए, पुण्य कार्यों में ही उनका खर्च करना चाहिए। ऐसा करने ही इनकी वृद्धि होती रहती है । जिनागमका पठन-पाठन करनेमे, वा प्रचार करनेसे जिनागमकी वृद्धि होती है । वर्तमान में बहुतमे लोग जिनागमका प्रचार तो करते हैं, परंतु उसका अपने किसी स्वार्थ के लिए वा मिथ्यात्व कर्म के तीन उदयमे विपरीत अर्थ लगाकर प्रचार करते हैं। उससे पुण्यकर्म की वृद्धि नहीं होती कितु तीन मिथ्यात्व कर्मोका बंध होता है। इसलिए जिनागमका प्रचार पूर्वाचार्योंकी परम्पराके अनुसारही करना चाहिए । उसका विपरीतसर्थ नहीं करना चाहिए । विपरीतअर्थ करनेसे महापापका बंध होता है । जिस प्रकार तीर्थकर परमदेव यथार्थमार्गका प्रचार करनेसे सर्व पूज्य होते हैं, उस प्रकार विपरीत अर्थ कर अयथार्थ मार्गका प्रचार करनेसे सबसे निकृष्ट अवस्था प्राप्त हो जाती है, अर्थात नरक वा निगोदके दुःख अवश्य भोगने पाइते हैं । इसलिए जिनागमका प्रचार यथार्थ रीतिसेही करना चाहिए । अयथार्थ रीतिसे कभी नहीं करना चाहिए।
प्रश्न- रथारूढा प्रतिश्राद्धा: भवन्ति मे न बा कद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि रथ, गाडी, मोटार, रेल आदि सथारियोंपर चलनेवाले श्रावक व्रती हो सकते हैं, वा नहीं ? उत्तर - प्रथमाधष्टमश्राद्धाः काले धर्मक्रियारताः ।
रथारुढाश्च सर्वत्र नमन्ति कार्यसिद्धये ।। २८६ ।। नवाद्यकादशनाद्धा ध्यानस्वाध्यापतत्पराः । चित्तवशंकरा वीरा याचनादोषभीरवः ॥ २८७ ।। सर्वरथं परित्यज्य जिनाज्ञाप्रतिपालकाः । धर्मार्थ धीधना यान्ति पादाभ्यां पुरतः पुरम् ॥ २८८ ।।
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अर्थ-- पहली प्रतिमासे लेकर आठवीं प्रतिभातकके श्रावक अपने नियत समयपर धर्मकार्योको किया करते हैं, और इसलिए, वे अपने कार्योकी सिद्धिके लिए किसीभी सवारीपर चढ़कर सर्वत्र भ्रमण किया करते हैं । परंतु नौवी प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमातकके श्रावक सदाकाल धर्मध्यान और स्वाध्यायमें तत्पर रहते हैं, बड़े बुद्धि मान होते हैं, भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन किया करते हैं, और अपने चित्तको वशमें रक्खा करते हैं। इसलिए वे महापुरुष याचना करनेके दोषसे भयभीत रहते हैं और सब प्रकारकी सवारियोंका, त्याग कर धर्मकार्यके लिए पैदलही एक गांवसे दूसरे गांवको जाया करते हैं ।
भावार्थ- जहां तक गृहस्थाश्रम है, वहतिक तो सवारीका त्याग नहीं होता है; क्योंकि गहस्थलोग अपने व्यापार आदिके लिए परदेशगमन करतेही हैं, । पद मिलन श्रावनोंको दूर भागी मापन कारः पडता है, तथापि वे ऐसे देश में नहीं जाते जहां धर्मकार्य न बन सके अथवा रत्नत्रयमें हानि पहंचने की संभावना हो, तथा ऐसेही सवारीमे जाते हैं, जिससे धर्मकी हानि न हो। इससे ऊपर की आठवी प्रतिमावाले श्रावक यद्यपि आरंभके त्यागी होते हैं, तथापि परिग्रहके त्यागी न होनेके कारण वे सवारीपर चढ़ सकते हैं । नौवी प्रतिमा परिग्रहका त्याग हो जाता है, इसलिए यहासे सवारीका त्याग हो जाता है । परिग्रहका त्याग हो जाने के कारण तथा आरंभकाभी त्याग हो जाने के कारण, वे श्रावक अपने व्यापार आदिके लिए गमन नहीं करते, किंतु धर्मकार्यकेही लिए गमन करते हैं, और पैदलही गमन करते हैं। वे श्रावक अपने परिग्रहका त्याग कर देते हैं, इललिए यदि वे सवारीपर चढना चाहें तो उन्हें याचनाही करनी पडेगी, तथा याचना करना उनके पदस्थके विरूद्ध है. इसलिए वे याचना करनेसे बहुत डरते हैं । इसके सिवाय वे ध्यान और स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं, इसलिए उन्हें चलने का कामभी बहुत थोडा पडता है । शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार वे एक गांवमें नहीं रह सकते । इसलिए एक गांवसे दूसरे गांव तक जाते हैं, फिर दो चार दिन धर्मोपदेश देकर दूसरे गांव में चले जाते हैं। वे त्यागी श्रावक अपनी इन्द्रियोंकोभी वशमें रखते हैं, तथा मनकोभी
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वशमें रखते हैं, इसलिए उनके हृदय में आने-जाने की कभी इच्छाभी नहीं होती है, इसलिए वे समस्त सवारियोंका त्याग कर देते हैं, और पैदलही गमन करते हैं । पैदल गमन करनेसे शुद्धि ठीक रीतिसे हो सकती है, और इसलिए अहिंसाव्रत ठीक रीतिसे पालन किया जाता है | अतएव नौवी, दसबी, ग्यारहवी प्रतिमावालोंको पैदलही गमन करना चाहिए, किसी सवारीपर चढ़कर नहीं जाना चाहिए | जीवास्तुष्यन्ति की क्व क्व माम्प्रतं मे वद प्रभो ?
प्रश्न
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें कौन-कौन जीव किस किस काममें संतुष्ट होते हैं ? उ. हृत्वा धनं चान्यजनस्य चौरास्तुष्यन्ति मूर्खाः कुकृति च कृत्या क्रीडामसारां शिशवोपि कृत्या तुध्यन्ति लब्ध्वा कृपणाः पराप्नम् कृत्वा हि धूर्ताः परपीडनादि तुष्यन्ति सन्तः स्वरसेऽन्य सिद्धौ । गतिविधिको सानाति तत्वं विरलास्ततश्च
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अर्थ- चोर लोग दूसरोंके धनको चुराकर संतुष्ट होते हैं, मूर्ख लोग किसी भी प्रकार के कुकर्मको करते हुए संतुष्ट होते हैं, वालक सब असार खेल कूदको करते हुएही संतुष्ट होते हैं, कृपण व कंजूष लोग दूसरोंके अन्नको खाकरही संतुष्ट होते | धूर्त लोम अन्य जीवोंको दुःख देकर संतुष्ट होते हैं, और सज्जन लोग या तो अपने आत्मजन्य आनंदम संतोष धारण करते है, अथवा अन्य जीवोंके सिद्ध होनेपर, वा अन्य जीवके किसी धर्म कार्यकी सिद्धि हो जानेपर संतोष धारण करते हैं । सो ठीक है इस संसार में अशुभ कर्मोकी गति बडीही विचित्र है । इस संसार में ऐसे मनुष्य बहुत ही थोडे है, जो पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जानते हों ।
भावार्थ- चोर लोग जबतक चोरी नहीं कर लेते, तबतक उन्हें कभी संतोष नहीं होता है । मूर्ख लोग जबतक कोई दुष्कृत्य नहीं कर लेते, जबतक किसीका काम नहीं बिगाड़ लेते, जबतक कोई अन्याय नहीं कर लेते, तबकत उन्हें संतोष नहीं होता है | बालक जवतक खेल-कूद नहीं कर लेते तबतक उन्हें कभी संतोष नहीं होता है, कंजूस लोग जबतक किसी दूसरेका अन्न नहीं खा लेते, जबतक अपने संग्रहमें एक दो पैसा नहीं डाल लेते, तबतक उन्हें संतोष नहीं होता हैं । धूर्त और नीच
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लोग जबतक किसीको दुःख नहीं दे लेते, जबतक कोई पाप नहीं कर लेते नबतक उन्हें संतोष नहीं होता है। इस प्रकार सज्जन लोगोंको अपने आत्मजन्य आनन्दमेंही संतोष होता है, अथवा अन्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगा देनसे संतोष होता है, दूसरों की कसिहि मानेपर संतोष होता है, अतएव भव्य जीवों को इसप्रकार अपने-अपने कर्मोका उदय समझ लेना चाहिए, और अशुभ कार्योंका त्याग कर, पुण्य कार्योंका सम्पादन करना चाहिए, अथवा आत्माका कल्याण करने के लिए अपने आत्मामें लीन होने का प्रयत्न करना चाहिए, यह मंसारका सार है, और सब असार है।
प्रश्न- पंचभूतं बिना जीवः क्वापि स्याम्मे न वा वद ?
अर्थ- हे भगवान ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचभूतमय शरीरके विना यह जीच कहीं अन्यत्र रहता है, वा नहीं ? उ. पुष्पे सुगंधश्च तिलेपि तेलं, रसोहि चेछो कनक शिलायाम्
काष्ठेपि वन्हिघुतमेव दुग्धे, निम्ने कटुत्वंच च विषं च सर्ये । सजीवदेहेस्ति तथात्मरामः सुखी च दुःखी सुजनः सदाहम् । रोगी विरोगी ह्यहमेव दुष्टो, ह्येवं ह्मबोधाद् हुदि मन्यमान संसारसिंधौ भ्रमतीह कोपि, स एव जीवोऽस्त्यवगम्य चवं । गम्यः स्वसंवेदनतः स शुद्धः स्यात्पंचभूतादिविकारबाह्यः २९३ ___ अर्थ- जिस प्रकार पुष्पमें सुगंध रहता है, तिलोंमें तैल रहता है, ईखमें रस रहता है, कनक-पाषाणमें सुवर्ण रहता है, लकडी में अग्नि रहती है, दूधमें घी रहता है, नीममें कड़वापन रहता है, और सर्पमें विष रहता है, उस प्रकार सजीव शरीरमें यह आत्मा रहता है। जो पुरुष अज्ञानी है, वह अपने अज्ञानके कारण यह समझता है. कि शरीरविशिष्ट में सुखी हूं, में ही दुःखी हैं, मैं ही सज्जन हूं, में ही रोगी हूं, में ही नीरोग हूं, और मैं ही दुष्ट हूं, इसप्रकार अपने अज्ञानके कारण मानता हुआ यह जीव संसाररूपी महासागरमें परिभ्रमण किया करता है । इस प्रकार मानता हुआ जो जीव इस संसारमें परिभ्रमण करता है उसको जीव समझना चाहिए। इस जीवका शुद्धस्वरूप पृथ्वी, जल, अग्नि,
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आकाश आदि पंचभूतोंके विकारसे सर्वथा भिन्न है। अथवा पंचभूतस्वरूप शरीरमेभी सर्वथा भिन्न है और उसका ज्ञान स्वसंवेदनसे होता है ।
भावार्थ- इस जीवके साथ अनादिकालसे कर्मोका सम्बन्ध लगा रहा है। इन कर्मो के निमित्तसेही यह जीव अनादिकालमें अराद्ध अवस्था धारण कर रहा है. और किसी न किसी शरीरमें रह रहा है । उन काँके उदयसेही इस जीवमें राग, द्वेष, मोह आदि विकार होता है । उन मोहादिक विकारोंके कारणही यह जीव जिस शरीरम रहता है, उमीको अपना वा अपने आत्माका स्वरूप मान लेता है, इसलिए वह शरीर सुखी होनेपर मैं सूखी हं, ऐसा मान लेता है, शरीर दुःखी होनेपर में दुखी हूं. ऐलान लत, पारी में कोई रोग होनेपर, में रोगी है ऐसा मान लेता है। शरीर नीरोग होनेपर मैं नीरोग ऐमा मान लेता है । इसप्रकार बह शरीरको अवस्थाको अपनी अवस्था मान लेता है, कभी-कभी वह आत्माके विकारोंकोभी अपनी अवस्था वा अपना स्वभाव मान लेता है, तथा इस कारण वह में सज्जन हूं, मैं दुःष्ट ह, में रोगी हूँ. मैं देषी हं, इसप्रकार अपने विकारोंकोही अपना स्वरूप मान लेता है, परंतु यह सब मानना उसका अज्ञान है, तथा इस अज्ञानकेही कारण यह जीव इस संसारमें परिभ्रमण करता आ रहा है। जब यह जीव अपने कर्मोके उदय मंद होनेपर तथा किमी वीतराग निग्रंथ गुरुका समागम होनेपर, अपने आत्मा स्वरूपको समझनेका प्रयत्न करता है, और काललब्धिके अनुसार दर्शन मोहनीय कर्मका क्षयोपशमादिक हो जाता है, तब जिस प्रकार बादलका थोडा भाग हट जानेपर सूर्यकी एक दो किरणेही संसारका समस्त अंधकार दूरकर पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित कर देती हैं, उस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्मके हट जानेसे आत्मासेही एक प्रकारका प्रकाश उत्पन्न होता है, इस प्रकाशको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस सम्यग्दर्शनरूप प्रकाशके प्रगट होतेही यह आत्मा, अपने आत्माका दर्शन करने लगता है, और उस समय स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, और फिर यह आत्मा अपने आत्माके स्वरूको पहचानने लगता है । उस समय वह परपदार्थोंकों हेय समझने लगता है, तथा शरीर और राग-द्वेष आदि विकारोंकोभी परपदार्थ समझकर उनका त्याग कर देता हैं । इसप्रकार
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विकारोंका त्याग हो जानेसे और शरीरसे ममत्व छट जानेसे फिर वह आत्मा शरीरमें रोगादिक हो जानेपर अपने आत्माको रोगी वा सुखी दुःस्त्री नहीं समझता । फिर तो यह अपने याला को भारतथि : भिन्न समझने लगता है, और फिर आत्माके समस्त विकारोंका त्यागकर अपने आत्माको शुद्ध बना लेता है, तदनंतर तपश्चरण और ध्यानके द्वारा समस्त कार्योंको नष्टकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह आत्माका सर्वोत्कृष्ट कल्याण है।
प्रश्न- कः पवित्रोस्ति जीवः को वद मे सिद्धये प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में कौनसा जीव पवित्र है ? उ. दीने दया धर्मरते च भक्तिः प्रातिर्गुरौप निस्ता च सौख्ये । सुसाम्यता सर्वतनी विचारे कार्पण्यता कर्मविवर्धने च ॥ २९४ ॥ सदैव वाण्या मृदुता च सत्यं विज्ञानता बन्धविभेवने च । स्वर्णोक्षमार्गे रुचिता च यस्य स एव चोक्तो भुवने पवित्रः ।। ____ अर्थ- जो मनुष्य दीन जीवोंपर दया धारण करता है, धर्मात्मा लोगोंमें भक्ति करता है, गुरु में प्रेम धारण करता है, इन्द्रियजन्य सुखोंमें निस्पृहता धारण करता है, समस्त प्राणियोंम तथा समस्त विचारोंमें समानता धारण करता है, कर्म-वन्धनोंको बढ़ाने में कृपणता धारण करता है, वाणीमें सदाकाल मीठापन और सत्यता धारण करता है, कर्मोको नष्ट करने में जो विज्ञानता धारण करता है, और जो स्वर्ग
और मोक्षमार्गमें रुचि धारण करता है, वही मनुष्य इस संसारमें पवित्र माना जाता है।
भावार्थ- इस जीवके साथ अनादिकालसे जो काँका समुदाय लगा हआ है, वही इस जीवको अपवित्र बना रहा है। कर्मोके उदय होनेसे इस जीवके परिणाम रागद्वेष वा मोहरूप परिणत हो जाते हैं। और राग-द्वेष वा मोहही इस आत्माको अपवित्र बना देता हैं । जब यह आत्मा कोके उदय मंद होनेपर सम्प्रग्दर्शन प्रगट कर लेता है, तथा सम्यग्दर्शन के प्रगट होने से यह जीव राग-द्वेष वा मोहका त्याग
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कर देता है, तब आत्मा पवित्र कहलाता है। यही कारण है कि जो स-यग्दर्श के विन्द हैं. ही सुद नशापाली पवित्रताके चिन्ह हैं। समस्त जीवोंकी दया पालन करना, तथा दीन दरिद्री जीवोंकी विशेषकर दया पालन करना सम्यग्दर्शनका चिन्ह है, और इसलिए यह पवित्रताका चिन्ह बतलाया है। धर्मात्मा पुरुषोंमें भक्ति व प्रेम होना सम्यग्दर्शनके वात्सल्यअंगका कार्य है । अतएव यह धर्मात्माओं में भक्ति व प्रेम होना पवित्रताका कारण आचार्योने बतलाया है। वीतराग निग्रंथ गुरुओंमें प्रेम होना तथा उन गुरुओंको तरणतारण मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करना, भक्ति करना, बयावृत्यकरना आदि सब सम्यग्दृष्टिका कार्य है । इसलिए यह गुरुमवा, गुरुभक्ति वा गुरुप्रेम आचार्योंने पवित्रताका चिन्ह बतलाया है । इस प्रकार इंद्रियजन्य मुखोंका त्याग कर देने से आत्मा पवित्र हो जाता है, इसलिए यह भी आत्माकी पवित्रताका कारण है। इसप्रकार समस्त जीवोंमें समानता धारण करना, दूसरे जीवोंके समस्त शुभ, अशुभ विचारोंमें समानता धारण करना, किसीसे राग बा द्वष नहीं करना, सम्यग्दर्शनका कार्य है, और आत्माकी पवित्रताका कार्य है । कर्मोको न बढ़ने देना, आस्रवके कारणोंको नष्ट कर देना, वा अशुभ कर्मोको नष्ट करते जाना सम्यग्दर्शनका कार्य है, और आत्माकी पवित्राका कार्य है। मधुर और सत्य भाषण करना आत्माकी पवित्रताकाही सूचक है 1 कर्मबंधोंका नाश करनेके लिए स्वपरभेदविज्ञानही प्रधान कारण है । आत्मा और अन्य पदार्थों का यथार्थज्ञान होनेमे यह आत्मा कर्मबंधनोंक कारणभूत राग-द्वेषका सर्वथा त्याग कर देता है, और फिर समता धारण कर कर्मोको नष्ट करता जाता है । इसप्रकार कर्माको नष्ट करने में स्वपरभेदविज्ञान कारण है, और इसलिए वह आत्माकी पवित्रताका चिन्ह है । इसप्रकार स्वर्ग-मोक्षके मार्गमें वा रत्नत्रयमें प्रेम धारण करना, रुचिपूर्वक उनका पालन करना, आत्माकी पवित्रताका विशेष चिन्ह है । रत्नत्रयका पालन करना और आत्मकी पवित्रताका होना इन दोनोंमें परस्पर अविनाभावी संबंध है । पवित्र आत्माही रत्नत्रयका पालन कर सकता है। और रत्नत्रयका पालन करनेसे आत्माकी पवित्रता
और अधिक बढ़ जाती है । इस प्रकार आचार्योंने ये सब पवित्र आत्माके चिन्ह बतलाए हैं । इनको धारण करना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है ।
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निनानुन्धुि
प्रश्न – जानहीना क्रिया देव सफला बिफला वद ?
अर्थ- हे स्वामिन ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि बिना ज्ञानके जो क्रिया की जाती है वह सफल होती है वा निष्फल होती हैं? उ. सुबोधहीना विफला क्रिया स्थात् निद्यास्ति चान्धादिगते समाना प्रोक्तं ततो बोधफलं चरित्रं विश्वासयोग्यं सुखशांतिमूलम् ॥ वृते यथा यश्च तथा करोति स्यातस्य पूजापि यशस्त्रिलोके । ततः क्रिया बोधयुता भवेयुर्यतो भवेन्मोक्षरमा स्वदासी ।।
अर्थ – जिस प्रकार कोई अंध मनष्य गमन करनकी क्रिया करता परंतु उसकी वह क्रिया निंदनीय और निष्फल कहलाती है उस प्रकार विना ज्ञानके जो क्रिया की जाती है, वह भी निष्फल और निंदनीयही कही जाती है, इसीलिए आचार्योंने सम्यग्ज्ञानका फल सम्यक्चारित्र बतलाया है । यह सम्यक्चारित्रही आत्मकल्याणके लिए विश्वासके योग्य है, ओर सुख तथा शांतिका मलकारण है । जिस प्रकार जो मनुष्य जैसा कहता है वैसा ही करता है, इसीलिए उसकी तीनों लोकों में पूजा होती है, और तीनों लोको में उसका यश फैल जाता है । अतएव आचार्योका उपदेश है कि माम्ब क्रियाएं ज्ञानसहितही होनी चाहिए जिससे कि मोक्षरूपी स्त्री अपनी दामी के समान बन जाय ।
भावार्थ - यहांपर ज्ञान शब्दसे आत्मज्ञान समझना चाहिए, इस संसारमें जितनी क्रियाएं कि जाती हैं उन सबसे कर्मोका बंध होता है, परंतु आत्मज्ञानके साथ-साथ जो क्रियाएं कि जाती हैं, वे सब शुभ वा अशुभ विचारपूर्वक की जाती है । आत्मज्ञानी पुरुष आत्माको दुःख देनेवाली अशभ क्रियाओंका त्याग कर देता है, और शुभ त्रिया--
ओंमें प्रवृत्ति करने लगता हैं । इस प्रकार वह सम्यग्ज्ञानी पुरुष पापक्रियाओका त्याग कर देता है और पापरहित क्रियाओंमें प्रवृत्ति करने लगता है, तथा पापरहित क्रियाओंमें प्रवृत्ति करनाही सम्यक्चारित्र कहलाता है। इसीलिए आचार्य महाराजने सम्यग्ज्ञानका फल सम्यकचारित्र बतलाया है । सम्यक चारित्रको पालन करनेवाला मनुष्य पापकार्योंका त्याग कर देता हैं, इसलिए वह विश्वासपूर्वक सुख और शांति प्राप्त कर लेता है, तथा अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसलिए
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( शान्तिमुधासिन्छ ।
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सम्यक्चारित्रको विश्वासके योग्य और सुख शांतिका मूलकारण बतलाया है । जो मनुष्य जैसा कहता है, वैसाही करता है. उसकी जो इस संसारमें पूजा-प्रशंसा होती है, उसका कारण यही है. कि उसकी क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है । ज्ञानपुर्वक क्रिया करनेसेही वह प्रशंसनीय मानी जाती है। जब साधारण ज्ञानपूर्वक क्रिया करनेवाला प्रशसनीय माना जाता हैं, तो फिर आत्माज्ञानी पूरुषकी क्रियाए अवश्यही मोक्ष प्राप्त करनेवाली होती हैं। इसलिए भव्य पुरुषोंको सबके पहले आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए, और फिर उस आत्मज्ञानके साथ-माथ ध्यान, तपश्चरण आदि मोक्ष प्राप्त कर देनेवाली क्रियाएं करनी चाहिए, आत्मकल्याणका यह एक सबसे उत्तम साधन है ।।
प्रश्न- विद्यादिः शोभते केन कृपाब्धे बद में गुरो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस समारम विद्या, धन आदिकी शोभा किस किससे होती है ? उत्तर - क्षमया शोमते विद्या कुलं शोलेन शोभते ।
गुणेन शोभते रूपं धनं त्यागेन शोभते ॥ २९८ ॥ सौम्येन शोभते लक्ष्मीः सुखं पुण्येन शोभते । नीत्यैव शोभते राज्यं पाणि दानेन शोभते ॥ २९९ ।। सत्येन शोभते कण्ठः कृायो व्रतेन शोभते । ज्ञात्वेति पूर्वकृत्यं हि कार्य स्वर्मोक्षहेतवे ॥ ३०० ।।
अर्थ- इस संसारमें विद्या क्षमासे सुशोभित होती है. कुल शीलसे सुशोभित होता है, रूपकी शोभा गुणोंसे होती है, धनकी शोभा त्याग बा दानसे होती है, लक्ष्मीकी शोभा शांत परिणाओंसे होती हैं, मुखकी शोभा पुण्यकार्य करनेसे होती है, राज्यको शोभा नीतिपूर्वक राज्य पालन करनेसे होती है, हाथ की शोभा दान देनेसे होती है, कंठको शोभा सत्य भाषण करनेसे होती है, और शरीरको शोभा व्रत करनेसे होती है, यह समझकर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करनेके लिए क्षमाशील आदि आत्मगुणोंको धारणकर विद्या-कुल आदिकी शोभा बढ़ानी चाहिए।
भावार्थ-- विद्या प्राप्त करके, क्रोध मान आदि कषायोंकी वृद्धि करना बुद्धिमत्ताका कार्य नहीं है । क्योंकि क्रोधादि कषायोंके उत्पत्र
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( शान्तिसुधासिन्धु )
होने से विद्याका सदुपयोग नहीं होता है । कषायोंकी तीव्रताके कारण यह मनुष्य उस विद्याका दुरुपयोग कर बैठता है । उस हिंसा बा मायाचारी आदि पाप कार्योम लगा देता है। क्षमावान् मनुष्य शांत नित्त होकर उस विद्याका परिशीलन करता है। फिर अपने आत्माके कल्याण करनेमें लगता है । यह विद्याकी शोभा है । इससे सिद्ध होता है, कि विद्याकी शोभा क्षमासेही होती है । इसप्रकार कुलकी शोभा शील पालन करने से होती है । जिस कुलमें शील पालन नहीं होता, व्यभिचार सेवन होता है, अथवा विधवाविवाह वा धरेजा होता है, वा देशाके समान विजानीय निकाह होता है, वह दुल न तो बढ़ सकता है, और न संसारमें बह प्रशंसनीय वा उनम माना जाता है । व्यभिचार सेवन करनेमे, अथवा धरेजा वा विजातीय विवाह करनेसे सज्जातिरत्न नष्ट हो जाता है, जिन कुलोंमें परम्परापूर्वक सदाचार चला आता है, धरेजा वा विजातीय विवाह नहीं होता बा व्यभिचार सेवन नहीं होता, उन कुलों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सज्जातिवाले कहलाते हैं । इसका भी कारण यह है कि कुल परम्परासे व्यभिचार सेवन न होमके कारण उनके रजोवीर्य में शुद्धता बनी रहती है । व्यभिचार सेवन करनेसे वा धरेजा विजातीय विवाहसे रजोवीर्यमें अशुद्धता आ जाती है, तथा रजोबीर्यमें अशद्धता होनसे सज्जातित्व अवश्य नष्ट हो जाता है। इसलिए कूलकी शोभा झील पालन करनेसेही होती है । यह निश्चित सिद्धांत है । इसप्रसार रूपकी शोभा गुणोंने होती है, सुंदर रूपबान होकरभी जो विद्या आदि गुणोंको धारण नहीं करता वह बगुलाके समान ऊपरसे अच्छा दिखलाई देनेवाला होता है । वह इसके समान प्रशंसनीय और सुशोभित नहीं हो सकता । इसलिए पकी शोभा गुणोंसेही मानी जाती है । धनकी शोभा त्यागसेही होती है । जो पुरुष धनी होकर दान नहीं देता वह मनुष्य कृपण कहलाता है, और फिर उसका मुंह देखनाभी कोई पसन्द नहीं करता । दान देनेसे इस लोकमें सर्वत्र कीर्ति फैल जाती है, दान देनेसे शत्रुभी अपना दास हो जाता है । दानसे इस लोकके भी सब काम सिद्ध हो जाते हैं, और परलोकभी सुधर जाता है। इसप्रकार लक्ष्मीकी शोभा सौम्यता वा शान्तिसे होती हैं। जो पुरुष लक्ष्मीको पा करके, उग्र परिणाम धारण करता है, वह अनेक आपत्तियोंमें फंस जाता हैं, तथा उसका सब धन इसी में नष्ट हो जाता हैं । जो पुरुष
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( शान्तिमुधासिन्ध }
पा करके शांत रहता है, सौम्यता धारण करता है, वह लक्ष्मीका सदुपयोग कर लेता है । फिर वह लक्ष्मीको श्रेष्ठ पुण्यकार्यों मेंही लगाता है । इसलिए लक्ष्मीकी शोभा सौम्यता धारण करनेसेही होती है। इस प्रकार सुखकी शोभा पुण्यकर्म करनेसेही होती है। सुखकी प्राप्ति पुण्यकर्मके उदयसे होती है । उस सुखकी प्राप्ति होकरभी जो आगेके लिए पुण्यकार्य नहीं करता, उसका वह सुख चिरकाल तक नहीं रह सकता, इसलिए सुखी जीवोंको सदाकाल सुखी रहने के लिए जिनपूजन, पात्रदान आदि पुण्यकार्य करते रहना चाहिए, इसमें सुखकी शोभा है । राज्यकी शोभा न्याय और नीतिके पालन करनेसे होती है। जो राजा न्याय और नीतिका पालन नहीं करता, उसका वह राज्य अवश्य नष्ट हो जाता है | अन्याय और अनीतिका आश्रय लेनेसे प्रजा दुःखी हो जाती है, तथा दुःखी होकर वह या तो राजाको राज सिंहासन मे उतार देती है, अथवा अन्य किसी प्रबल राजासे मिलकर उस राज्यको उसके आधीन करा देती है, इसलिए आचार्य महाराजने राज्यकी शोभा नीति और न्यायकेही अश्रित बतलाई है । हाथकी शोभा दान देनेमें है । दान देने से हाथ पवित्र हो जाते हैं, तथा हजारों प्राणी उन पवित्र हाथोंके दर्शन करने के लिए सदाकाल लालायित रहते है । जो लोग कई। कंकणोसे हाथोंकी शोभा मानते हैं, वे भूलते हैं, क्योंकि अनेक चोर, लुटेरे उन कडे वा कंकणोंके ग्राहक हो जाते हैं, और वे उस पहननेवालेको मारकर भी लेनेकी इच्छा कर लेते है, इसलिए हाथकी गोभा कडे कंकणोंसे नहीं है, किंतु दानसे है । जो लोग उस हाथसे दान लेते है, वे मनुष्य वा जीव उस हाथको सदाकाल सुखी देखनेकी इच्छा करते हैं। इस प्रकार कंठकी शोभा सत्य भाषण करनेमें होती है । सत्य भाषण करनेवाला मनुष्य सबके द्वारा विश्वसनीय और प्रशंसनीय गिना जाता है । असत्य भाषण करनेवाले मनुष्यका कोई विश्वास नहीं करता, वह निदनीय गिना जाता है, और परलोकमे भी दुःख पाता है, इसलिए कंलकी शोभा, सत्यभाषणसे है । हार आदि आभरणोंमे कंठकी शोभा नहीं होती । इसप्रकार शरीरकी शोभा व्रत उपवास वा तपश्चरण करनेसे होती है । वस्त्राभूषणोंसे नहीं व्रत उपवास वा तपश्चरण करने से शरीर पूज्य और देदीप्यमान हो जाता है। अतएव भव्यजीवोंको क्षमा, शील, दान आदि गुणोंके द्वारा अपनी विद्या, कुल वा धनकी शोभा
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बढानी चाहिए । यह मनुष्यका कर्तव्य है, और यह स्वर्ग मोक्षका कारण है। इतिश्री आचार्यवर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथे वस्तुस्वरूपवर्णनो नाम तृतीयोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्य श्रीकृथसागरविरचित श्रीशांतिसुधासिंधु नामके महाग्रंथकी 'धर्मरत्न' पं लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें वस्तु स्वरूपको वर्णन करनेवाला यह तीसरा अध्याय समाप्त हुआ।
चौथा अध्याय। हेयोपादेय स्वरूपका वर्णन
प्रश्न- क: स्वं सर्वत्र मन्यते ?
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौनसा मनुष्य अपने आपको सर्वत्र समझता है ? उत्तर - स्वानन्दतुष्टसाधुश्च नीतिनिष्ठः प्रजापतिः ।
तथा विद्वान क्षमाधारी श्रीमान् दाता रमा सती । ३०१ सत्यवादी स्पृहात्यागी कषायविषयोज्झितः।
यः स्वसम्बन्धहीनोपि स स्वं सर्वत्र मन्यते ॥ ३०२ ॥
अर्थ- अपने आत्मजन्य आनंदमें संतुष्ट रहनेवाले साधु यद्यपि किसीसे किसी प्रकारका संबंध नहीं रखते, तथापि वे अपनेको सर्वत्र समान समझते है। इस प्रकार न्याय और नीतिमें तत्पर रहनेवाला राजा, क्षमा धारण करनेवाला विद्वान, दान देनेवाला धनी, पतित्रता स्त्री, और कषाय विषयोंसे सर्वथा रहित तथा इच्छाओंसे सर्वथा रहित, सत्य भाषण करनेवाला महापुरुष, ये लोग किसीसे कुछ संबंध न रखने पर भी अपनेको सर्वत्र समान समझते हैं।
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भावार्थ- वीतराग निर्ग्रन्थ गुरु यद्यपि किसीसे कोई किसी प्रकारका संबंध नहीं रखते, सबसे समानभाव धारण करते हैं । तथापि वे अपनेको सर्वत्र समान समझते हैं, न तो उन्हें कहीं किसी शत्रुसे डर लगता है और न किसी भहसे किसीभी प्रकारको इच्छा रखते हैं । साधु तो जहां पहुंच जाते हैं, वहीं अपने आत्माका चितवन करने लगते हैं, वे साधु सिवाय अपने आत्माके और किसीसे कोई संबंध नहीं रखते। इसलिए वे गांव में वा नगरमें, अथवा जनमें सर्वत्र समता धारण करते हुए बिहार करते हैं । इस प्रकार नीति और न्यायमें तत्पर रहनेवाले राजाका कोई शत्रु नहीं होता, वह चाहे जहां आ-जा सकता है। क्षमा धारण करनेबाला विद्वान भी सर्वत्र आदरणीय होता है। इसलिए उसके आने-जानेका स्थान सर्वत्र समान रहता है। इस प्रकार दानी-धनी काभी सर्वत्र आदर होता है। दान देनेवालेको सब लोग मानते हैं । इसलिए बहुभी सर्वत्र समानरूपसे गमनागमन करता है। पतिव्रता स्त्रीका महत्व सर्वत्र विदित है, वह सर्वत्र महत्वशालिनी मानी जाती हैं। इसलिए वहभी सर्वत्र समानरूपसे आ-जा सकती है। इस प्रकार इच्छा और कषायविषयोंसें रहित सत्यवादी पुरुष सर्वत्र पूज्य माना जाता है, इसलिए किसीसे संबंध न रखनेपर भी प्रत्येक मनुष्य उनका आदर-सत्कार करता है, इसलिए बहमी सर्वत्र समानरूपसे विहार कर सकता है। अभिप्राय यह है कि, साधु, राजा, विद्वान, धनी, स्त्री आदि जितने पदस्थ मनुष्य है, यदि वे अपने कर्तव्यपालन करने में कभी नहीं चूकते हैं, तो फिर समस्त संसार उनका आदर करता है। उनका किसीकेसाथ संबंध होनेपरभी सब लोग उनकी पूजा प्रतिष्ठा करते हैं, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपना कर्तव्य पालन करनेमें कभी नहीं चूकना चाहिए ।
प्रश्न - विज्ञानादिसमा विद्यात्रान्यास्ति मे न वा वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में विज्ञान आदिके समान अन्य विद्याएं है वा नहीं ?
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उ.- क्षमासमं नास्ति तपोऽपरं च दयासमो नास्त्यपरो हि धर्मः । चिता समो नास्त्यपरच रोगो रसोऽपरो न स्वरसस्य तुल्यः ॥ सुखं न सम्यक्त्वसमं त्रिलोके विज्ञानतुल्या परा न विद्या । चारित्र तुल्येत्यपरा न शान्तिर्ज्ञात्वा तदर्थं सततं यतन्ताम् ।।
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अर्थ- इस संसारमें क्षमाके समान अन्य कोई तपश्चण नहीं है, दयाके समान अन्य कोई धर्म नहीं है, चिंताके समान अन्य कोई रोग नहीं है, अपने आत्मजन्य आनन्दरसके समान अन्य कोई रस नहीं है, सम्यक्दर्शनके समान तीनों लोकमें अन्य कोई सुख नहीं है, स्वपरभेदविज्ञानके समान अन्य कोई विद्या नहीं हैं, और सम्यकचारित्रके समान अन्य कोई शान्ति नहीं है । यही समझकर स्वपरभेदबिज्ञान, चारित्र और क्षमा, दया आदिके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए।
भावार्थ- इच्छाओंको रोकनेको तपश्सरण कहते हैं । क्षमा धारण करनेसेभी समस्त इच्छाओंका निरोध हो जाता है, इसलिए क्षमाको सबसे उत्तम तपाचरण नलागा हैं। धाँमें सबसे उत्तम धर्म दया है। इसलिए दयाको सबसे उत्तम धर्म बतलाया है। रोगोंमें सबसे प्रबल रोग चिता है, अन्य रोग नो पन कर नष्ट हो जाते है, वा उपचारसे नष्ट हो जाते हैं । परंतु चितारूपी रोग सहज नष्ट नहीं होता । यदि किसी कारणमे एक चिंता मिट जाती है, तो दुसरी दो चिताएं खडी हो जाती है, रोग बाहरसे दिखाई पड़ते हैं, परंतु चितारूपी रोग बाहरसे दिखाईधी नहीं पड़ता, और भीतर शरीरको जला देता है। इसलिए चिताको सबसे प्रबल रोग बतलाया है । इसप्रकार आत्मजन्य आनंदरस सबसे उत्तम रस कहलाता है । इस रसके प्राप्त होनेपर अनंतसुख प्राप्त हो जाता है। अन्य सब रस क्षणभुगर हैं, और यह रस सदाकाल रहनेवाला है। इसलिए इसको सबसे उत्तम रस बतलाया है । सम्यग्दर्शनको सबसे उत्तम सुख बतलाया है । इसका कारण यह है कि, सम्यग्दर्शन अनंतमुखोंका मूलकारण है । मोक्ष प्राप्तिका मूलकारण सम्यग्दर्शनहीं है। इसलिए सम्यग्दर्शनको सबसे उत्तम सुख बतलाया है । इसप्रकार स्वपरभेदविज्ञामही सबसे उत्तम बिद्या है। यह विज्ञान मोक्षका कारण है, इसके सिवाय अन्य सब विद्याएं संसारकी कारण हैं, इसलिए विद्याओमें सबसे उत्तम विद्या स्वपरभेदविज्ञान है । इसके समान अन्य एकभी विद्या नहीं है। इसप्रकार शांति त्यागमें है, चारित्रमें है. परिग्रहका त्याग कर देनेसे फिर किसी प्रकारकी चिताही नहीं रहती। फिर तो केवल आत्मजन्य आनंदका आस्वादन होता है। इसलिए भव्यजीवोंको चिताका त्याग कर, अन्य दया, क्षमा आदि आत्माके गुणोंको धारण करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए।
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प्रश्न- अब तिष्ठति गुरो देवो मूर्ख: क्वान्विष्यति प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि देव कहां रहता है, और मूर्व वा अज्ञान लोग उसे कहां ढूंडते हैं ? उ.यात्रादितीर्थे यजने न देहे देवो न काष्ठे न वने शिलायाम् ।
शैले श्मशाने भुवने न हम्य जले स्थले खे रजते न रत्ने ३५२ यथार्थदृष्टया यदि तिष्ठतीह, देवाधिदेने न च देवरूपे । देवः सदा तिष्ठति शुद्धबुद्धो मोहादिमुक्तेः प्रविलोकनीयः ।।
अर्थ- देव न तो किसी यात्रामें है, न किसी तीर्थमें, न किसी पूजामें है, न किसी शरीरमें है. न किसी लकडीमें है, न वनमें है. न किसी पत्थरमें है, न किसी पर्वतपर है. न किसी कमशानमे है, न किमी लोकम है, न किसी मकानमें है, न किसी जलमें है, न किसी स्थल में है. न आकाशमैं है, न चांदीमें है, और न किसी रत्नमें है । यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो देव इनमें किसीमें नहीं रहता। यदि रहता है, तो आत्मामें रहता है, अरहंतदेवके सिवाय देव कहलानेवाले अन्य किमीम नहीं रहता । वह देव कर्ममल-कलंकरहित अत्यंत शुद्ध है, और बुद्ध अर्थात् ज्ञानस्वरूप सर्वज्ञ है । वह ऐसा देव मोह, मद, बा कषायासे रहित, मनुष्योंके द्वाराही देखा जाता है ।
भावार्थ- जो अठारह दोषोंसे रहित वीतराग हो, जो समस्त पदार्थोको जाननेवाला ज्ञानमय सर्वज्ञ हो, और जो समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिए हितमय उपदेश देता हो, जसको देव कहते है, वह शुद्ध आत्मा अपनेही शुद्धरूप आत्मामें रहता है, अपने आत्माको छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता । जो लोग इस बातको नहीं समझते है वे उस देवको बनमें बूंडते है, पर्वतपर ढूंडते है. तथा और अनेक स्थानोंम दूंडते फिरते है, परंतू बह देव इन स्थानोंमें कहीं नहीं मिलता। जैसे देव पूज्य है, वैसेही तीर्थभी पूज्य हैं, और सब लोग जिस प्रकार देवकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार तीर्थोकी पूजा करते हैं। तथापि देव और तीर्थोंमें अंतर है । जिस प्रकार गुड मीठा है, परंतु उस गुडसे बने हुए आटके पूए उस गुडसे भी अधिक स्वादिष्ट और अधिक मीठे होते हैं। इस प्रकार भगवान अरहतदेव तो पूज्य है ही. इसमें तो किसी प्रकारका संदेह नहीं है, परंतु
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बे परमपूज्य अरहतदेव अपने पूज्य चरणोंको जहांपर रख देते हैं बह स्थानभी तीर्थ हो जाता है। अथवा भगवान के पंचकल्याणक स्थानोंकोभी तीर्थ कहते हैं। ये सब तीर्थस्थान उन भगवान अरहंत देवके स्पर्शमाअसेही अत्यंत पवित्र हो जाते है। इसका कारण यह है की भगवान अरहतदेवका आत्मा अत्यंत शद्ध एवं पवित्र और समस्त दोषोंसे रहित है। उस आत्माके संबंधसे उनका शरीरभी परम-पवित्र और पूज्य हो जाता है ।उस पवित्र और पूज्य शरीरके संबंधसे स्थानभी पूज्य हो जाता है। यद्यपि वह स्थान वा तीर्थ स्वयं देव नहीं है, तथापि देवके संबंधसे पूज्य और पवित्र अवश्य है।
देवका लक्षण ऊपर लिखा जा चुका है, उन परमदेवका दर्शन उन्ही महापुरुषोंको होता है, जो अपने मोहको नष्ट कर स्वयं पवित्र हो जाते हैं । जिनका मोहनीयकर्म नष्ट नहीं हुआ है, ऐसे जीव प्रायः उन भगवानके दर्शन करनेसे वंचित रहते हैं। इसलिए भगवान अरहंतदेयके दर्शन करने के लिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अपने मोहको नष्ट कर देना चाहिए, अथवा मोहनीयकर्म नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए । यह उसका कर्तव्य है ।।
प्रश्न- नरोपि पशुवद् भाति कीदृक् स वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि कौनसा मणुष्य, मनुष्य होकर भी पशुके समान माना जाता है ? उ. यो मांससेवी मधुमद्यपायी, वाऽभक्ष्यभक्षी विषयाभिलाषी । निये च नीचोच्चगहेपि भोजी, विद्याविहीनश्च विवेकशून्यः।। स्यादिहीनो जनवंचकः स, नरोपि लोके पशुतुल्यवृत्तिः। ज्ञात्वेति मुक्त्वा पशुतुल्यवृत्ति, कुर्वन्तुकार्य सुखदं पवित्रम् ॥
अर्थ- जो मनुष्य मांस सेवन करता है, शहद भक्षण करता है, मद्य पीता है, अथवा अन्य समस्त अभक्ष्य पदार्थोका भक्षण करता है, जो विषयोंमें तीन लालसा रखता है, जो निदनीय वा ऊंच, नीच सबके घरमें भोजन करता है, जो विद्या रहित है, विवेक रहित है, दया, क्षमा आदि उत्तम गुणोंसे रहित है, और जो लोगोंको ठगता फिरता है, वह मनुष्य, मनुष्य होकार भी इस संसारमें पशुओंके समान आचरणोंको धारण करनेवाला माना जाता है । यह समझकर पशुओंके समान
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| Ailतसुधागि
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आचरणोंको धारण करनेवाला माना जाता है, यही समझकर पशुओंके समान अचारणोंका त्याग कर देना चाहिए, और सुख देनेवाले पवित्र कार्य करते रहना चाहिए ।
भावार्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवको मनुष्य जन्म बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है, तथा यह मनुष्यपर्यायही एक ऐसी पर्याय है, जिसमें यह प्राणी विवेकपूर्वक अपना कार्य कर सकता है, अपने आत्माका कल्याण कर सकता है, और पापकर्मोसे बच सकता है। मद्य, मांस, मधुका सेवन करना महापाप कार्य है । जो गाय आदि उत्तम पशु कहलाते हैं. वे भी इस मद्य मांसादिकका सेवन नहीं करते । फिर भला मनुष्य होकर मद्य मांसादिकका सेवन किस प्रकार करना चाहिए । मनुष्य होकर मद्य मांसादिकका सेवन करना पशुओंमेभी अधिक निन्दनीय कार्य माना जाता है, इसलिए मद्य मांसादिकका त्याग कर देना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार सदाकाल विषयोंकी अभिलाषा रखना पशुओंसेभी बढकर निंद्य कार्य है। पशुभी सदाकाल इसमें नहीं लगे रहते । तिसपरभी वे विवेकहीन कहलाते हैं । यह मनुष्य विवेकी कहलाता है । विवेकी होकरभी सदाकाल विषयोंकी अभिलाषा करते रहना पशुवत्तिसे भी बढ़कर है, इस संसारमें अभक्ष्य भक्षण पशु भी नहीं करते, पशुओंके लिए जो अभक्ष्य होता है, उस वे इंधकरही छोड़ देते है, परन्तु यह मनुष्य विवेकी होकरभी सब कुछ खा जाना है, इसमें बढकर पशुओंसे भी अधिक निद्यपना और क्या हो सकता ? इस प्रकार ऊंच-नीच वा निन्दनीय आदि सब घरोंमें भोजन कर लेना वा मबके साथ भोजन कर लेना, पशओंसे भी अधिक निन्दनीय है। भोजन करना एकांत कर्तव्य है। यदि किसीके साथ करना पड़े तो समान वर्णका समान जातिका और समान धर्मवालेकेही साथ किया जाता है। अन्यके साथ नहीं । क्या कभी किसीने किसी सिंहको गीदडके साथ खाते देखा है ? फिर भला उच्च वर्ण, उच्च जाति और उच्च धर्मके हो करभी नीच जातियोंके साथ भोजन करना, सिंह आदि पशुओंसे भी अधिक निन्दनीय कर्तव्य है । इस प्रकार विवेकशून्य होना, दया रहित होना, विद्या रहित होना और लोगोंको ठगना आदि सब कार्य निन्दनीय हैं, और पशओंके समान है । पशु कभी किसीको नहीं ठगते हैं, परन्तु मनुष्य पशुओंकोभी ठगता है, और मनुष्यों को भी ठगता है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन
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( मानिसमा मधु
पशुओंके समान वा पशुओंसेभी अधिक निन्दनीय आचरणोंका त्याग कर देना चाहिए और दया, अमा, सदाचार आदि मनुष्योचित गुणोंको धारणकर अपने आत्माको पवित्र बना लेना चाहिए जिससे कि परलोक में श्रेष्ठ सूख की प्राप्ति हो।
प्रश्न- अध्यात्मविद्याया कः कः दास: स्याद्वद मे गुरो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि अध्यात्मविद्याकी जानकारीसे कौन - कौन पदार्थ अपने दास हो जाते है ? उ. चितामणिः कल्पतरः सुरेशो दासो नरेशोपि भवेत्फणीश । सुभोगभूमिवरकामधेनुः सुखप्रदो स्वर्गमही स्वदासी ।। ३०९ ।। अध्यात्मविद्याकृपया तथा स्यात् स्वानंवसाम्राज्यसुखं समीपम् ज्ञात्वेत्यविद्या प्रविहाय भव्यरच्यात्मविद्या हृवि धारणीया॥
अर्थ- इस अध्यात्म विद्याकी कृपासे चितामणि रत्न अपना दास बन जाता है, कल्पवृक्षभी दास बन जाता है, इन्द्रभी दास बन जाता है, राजाभी दास बन जाता है, और बरणीन्द्र बा नागेन्द्रभी दास बन जाता है, इस प्रकार उत्तम भोगभूमि और कामधेनुभी दास हो जाती है । तथा सुख देनेवाला स्वर्मभी दास बन जाता है, और आत्मजन्य साम्राज्यका अनंतसुख अपने समीप आ जाता है । यह समझकर भव्यजीवोंको अपनी अविद्याका त्याग कर देना चाहिए, और अध्यात्मविद्या अपन हृदयमें धारण कर लेना चाहिए।
भावार्थ- आत्माके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानको अध्यात्मविद्या कहते है। अथवा आत्माके शुद्ध स्वरूपके ज्ञानको अध्यात्मविद्या कहते हैं। जब यह जीव अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको समझ लेता है, और उसपर निश्चल श्रद्धान कर लेता है, फिर उस जीवको मोक्ष प्राप्त कर लेने में देर नहीं लगती। आत्माकं शुद्ध स्वरूपका ज्ञान होतेही वह आत्माके साथ लगे हुए रागद्वेष, मोह, आदि समस्त विकारोंका त्याग कर देता है। बाह्य परिग्रहोंको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनकाभी सर्वथा त्याग कर देता है, और फिर ध्यान तपश्चरणकद्वारा वह अपने आत्माके अनादि कालसे लगे हुए कर्मोको नष्ट करनेका प्रयत्ल करता है । इस प्रकार वह शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जिस समय वह अपने
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ध्यान तपश्चरणकेद्वारा कोको नष्ट करता हुआ लब्धियोंको प्राप्त होता है, उस समय इंद्रभी उसके चरणोंमें मस्तक झुकाता है। फिर भला चितामणि, कल्पवृक्ष, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, कामधेन, भोगभूमि, और स्वर्गकी तो बातही क्या है ? यह अध्यात्मविद्या केवलज्ञानको प्राप्त करा देती है, और इस प्रकार अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चारों अनंतचतुष्टयोंको प्राप्त कराकर उस जीवको जगत वंद्य बनाकर, तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान कर देती है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको सब काम छोड़कर इस अध्यात्मविद्याका अध्ययन करना चाहिए । यहांपर इतना और समझ लेना चाहिए, कि अध्यात्मविद्याका अध्ययन करनेवाला पुरुष ज्यों-ज्यों अध्यात्मविद्याका अध्ययन करता जाता है, त्या-त्यों व्यवहारचारित्रकी वृद्धि करता जाता है । इसका कारण यह है कि, यह व्यवहारचारित्र अध्यात्म विद्याकाही फल है। व्यवहारचारित्रसेही गुणस्थानोंको वृद्धि होती है, और व्यवहारचारित्रसेही कर्माका नाश होता है । जहांपर इस व्यवहारचारित्रकी पूर्णता होती है, वहींपर निश्चय चारित्रकी पूर्णता होकर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हैं । इसलिए जो लोग अध्यात्मविद्याका अध्ययन करते हुए व्यवहारचारित्रका त्याग कर देते हैं, वे दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर केवल पापोंकाही उपार्जन किया करते हैं । अतएव जिस विद्याकं पढ़नेमे व्यबहारचारित्र छूट जाय उसको अध्यात्मविद्या कभी नहीं कह सकते, जिस विद्याके अध्ययन करनेसे यह आत्मा व्यबहारचारित्र छोडकर अपने आत्मकल्याणसे ठगा जाय, उसे अध्यात्मविद्या कसे कह सकते हैं, उस तो फिर ठगविद्या कहना चाहिए, इसलिए जिस विद्याके अध्ययन करनेसे व्यवहारचारित्रकी वृद्धि और शुद्धि होती रहे उसीको अध्यात्मविद्या कहते हैं, और ऐसी अध्यात्मविद्यासेही समस्त सुखको सामग्री दामीके समान सदाकाल सामने खडी रहती है ।
प्रश्न - कौमूर्तकर्मणाऽमूर्ती जीवः सः बध्यते कथम् ?
अर्थ - भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जब यह जीव अमूर्त है तब, यह मूर्त काँसे किस प्रकार बंध जाता है ? उ. जीवो न सर्वथाऽमूर्तो रागद्वेषयुतो भुवि ।
यद्यमूर्तो भवेतहि बंधमोक्षविधिर्वृथा ।। ३११ ॥
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साधुश्रावकभेदोपि तथा दानार्चनादिकम् । पुण्यपापादिभेदश्च न स्यात्तत्त्वादिचिन्तनम् ।। ३१२ ॥ स्वयं कर्म करोत्सात्मा भुंक्ते सन् तन्मयस्तदा । तद्विना घटते नैव कर्ताकर्मादिकारकम् ॥ ३१३ ।। ततश्च मन्यते यावद् बद्धो जीवोस्ति कर्मणा। तावन्मूतॊ भवेत्पश्चामूर्तश्च निरंजनः ॥ ३१४ ॥
अर्थ-- इस संसारमें जो रागद्वेष आदि विकारोंको धारण करनेवाला जीव है, वह सर्वथा अमूर्त नहीं है । यदि राग-द्वेष विशिष्ट जीवको अमूर्त माना जाय, तो फिर बंध बऔर मोक्षाको व्यवस्था व्यर्थ माननी पडेगी, मुनि और श्रावकका भेदभी व्यर्थ मानना पड़ेगा, दान-पूजा-व्रतउपवास आदिभी सन्त्र व्यर्थ मानने पडेंगे. पुण्य-पापका भेदभी व्यर्थ मानना पडेगा. और तत्वोंका चितवनभी व्यर्थ मानना पडेगा । यह आत्मा स्वयं कोको करता है, और तन्मय होकर उनके फलोंको भोगता है । यदि ऐसा न माना जायगा, तो कर्ता-कर्म आदि किया कारकोंका सम्बन्धभी कभी नहीं बन सकेगा। इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि जबतक यह जीव कसे बंधा हुआ है, तबतक यह जीव मूर्त माना जाता है, और जब यह जीव अपने समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, तब यह जीव अमूर्त कहलाता है, और फिर वह कभीभी कर्मासे नहीं बंध सकता ।
भावार्थ – यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो आत्माका यथार्थ स्वरूप अमूर्त है, परंतु यह संसारी आत्मा अनादिकालसे सुवर्ण-पाषाणके समान विशिष्ट कर्मबंधन करता चला आ रहा है । जो आत्मा कर्मबंधन विशिष्ट होता है, बह व्यवहारनयसे मूर्त माना जाता है। जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाणमें शुद्ध मुवर्ण होता है परंतु वह अनादिकालस पाषाण-सहित चला आ रहा है। जिस प्रकार उस सुवर्ण-पाषाणको अग्नि में तपाकर शुद्ध कर लेते हैं, उसी प्रकार वह अनादिकालसे कर्मसहित चला आ रहा आत्मा ध्यान तपश्चरणके द्वारा कर्मोको नष्ट कर, शुद्ध अमूर्त बन जाता है, तथा शुद्ध अमूर्त होनेपर वह फिर कभीभी कर्मबंधनमें नहीं पड़ता । इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जो आत्मा अमूर्त और शुद्ध होता है, वह फिर कभीभी कर्मबंधनोंसे बद्ध
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नहीं होता। इसका कारण यह है कि कोका बंधन राग, द्वेष, मोह, काम, आदि विकारोंसे होता है, तथा राग, द्वेष, आदि विकार कर्मोके उदयसे होते हैं । जब यह आत्मा अपने समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है। तब न तो उसके कर्मोंका उदय हो सकता है, न राग द्वेष उत्पन्न हो सकता हैं. और न कर्मों का बंधन हो सकता है। इसलिए अमर्त आत्मा कभीभी कर्मबंधनवद्ध नहीं होता। यह निश्चित सिद्धांत है । परंतु यह संसारी आत्मा अनादिकालसे कर्मबंधनबद्ध चला आ रहा है, इसलिए व्यबहारनयसे मूर्त कहलाता है, ऐसा यह कथंचित् मूर्त आत्मा कर्मोंके बंधनोंसे बंधता रहता है। जो लोग इस आत्माको सर्वथा अमूर्त मानते हैं, वे भूल करते है । क्योंकि यदि मंसारी आत्माकोभी अमूर्त माना जायगा, तो फिर उसे मक्त जीवके समान शद्ध और राग-द्वेष रहित मानना पडेगा, क्योंकि यह निश्चित सिद्धांत है, कि जो जीव आत्मा सर्वथा अमूर्त होता है, वह शुद्ध और निर्दोष बा वीतरागही होता है, और ऐसा आत्मा फिर कर्मोसे कभी नहीं बंध सकता। इस प्रकार वह वीतराग, निर्दोष, और अत्यंत शुद्ध होता है, और मुक्त आत्माभी ऐसाही होता है, इसलिए वह सर्वथा अमूर्त आत्माही होता है, तथा मुक्त आत्माको फिर मुक्त होने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि बंधा हुआ आत्माही मक्त हो सकता है, जो बंधा हुआ नहीं है, वह नो मुक्तही है। इस प्रकार विचार करनेसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है, कि, यदि संसारी आत्माको सर्वथा अमत मान लिया जायगा तो, न तो कर्मबंधनकी व्यवस्था ठीक बन सकती है, और न मोक्ष होने की व्यवस्था ठीक बन सकती है, तथा जब बंध और मोक्षको व्यवस्थाही नहीं बन सकती, तो फिर मुनि और श्रावकोंका भेदभी नहीं बन सकता, न सामायिक, ध्यान, तपश्चरण वा दान, पूजन आदि व्यवस्था बन सकती है, न पुण्य-पापका भेद बन सकता है, और न तत्त्वोंका चितवन कर सकता है, क्योंकि कर्मबंधन और शरीर विशिष्ट आत्माही कर्मोंका बंध कर सकता है, वहीं मोक्षप्राप्तिके लिए अणुवत महावत धारण कर सकता है, वहीं आत्मा तत्त्वोंका चितवन कर सकता है,
और वही पुण्य व पापका आम्रय वा संवर कर सकता है । कोसे बंधा हुआ शरीर विशिष्ट आत्माही कर्मोको करता है, और वह आत्मा उन
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कर्मों के फलको भोगता है। इस प्रकार माननेसे कर्ता-कर्म आदि कारणोंका संबंध भी ठीक बंठ जाता है, यदि संसारी आत्मा को भी सर्वथा अमूर्त मान लिया जाता है, तो फिर अमूर्त आत्मा न तो कुछ कर सकता है, और न कर्मो का फल भोग सकता है। क्योंकि शरीरके द्वाराही कोई कार्य किया जाता है, और शरीरकेद्वारा कर्मोंका सुख-दुःखरूप फल भोगा जाता है, तथा शरीर विशिष्ट आत्मा कथंचित् मूर्तही होता है । इसलिए कथंचित् मूर्त संसारी आत्माही कमसे बंधता है, अमूर्त आत्मा कभी कमसे नहीं बंध सकता। यह निश्चित सिद्धांत है । प्रश्न- मोक्षाथिभिश्च कि कार्य सुखार्थं वद मे गुरो ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले धव्यपुरुषों को अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए क्या-क्या कार्य करना चाहिए
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उ. सुखात्मकं ज्ञानमयं पवित्रं मोक्ष प्रयातुं हृदि यश्च वांच्छेत् संसारमोहः प्रथमं च तेन त्याज्यस्तथा क्रोधरिपुः कुटुम्बः ॥ पश्चात्सदा चात्मनि चात्मने चात्मानं चिदानन्दमयं सुखार्थम् विलोकनं बोधनमेव कार्यं मूढक्रियां बाह्यविधि विहाय ॥ ३१६
अर्थ- जो मनुष्य अपने हृदय में अनंतसुखमय तथा अनंतज्ञानमय और अत्यन्त पवित्र ऐसे मोक्षस्थान में पहुंचना चाहता है, उसको सबसे पहले संसारके मोहका त्याग कर देना चाहिए. क्रोधरूपी शत्रुका त्याग कर देना चाहिए, और कुटुम्बका त्याग कर देना चाहिए। तदनंतर अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए तथा अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए अपनेही आत्मामें अपने चिदानन्दमय आत्माको देखना चाहिए, तथा अज्ञानी जीवोंके द्वारा होनेवाली क्रियाओं का त्याग कर, तथा समस्त बाह्य विधियोंका त्याग कर उसी चिदानंदमय आत्माका ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए ।
1
भावार्थ - इस संसारमें इस आत्माका सबसे प्रबल शत्रु मोहही है । इस मोहकेही कारण इस आत्माको नरक वा निगोद में जाना पड़ता है, तथा मोहकेही कारण समस्त पाप करने पडते हैं । जो शेठ लोग किसी अन्य के पुत्रको दलक लेते हैं, वे दत्तक लेने के अनंतरही उससे मोह
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(शान्ति सुधासिन्धु )
करने लगते हैं । दत्तक लेने के पहले वे उस बालकके लिए कुछ भी करनेके लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि दत्तक लेनेके पहले वे उससे कोई किसी प्रकारका मोह नहीं करते थे । दत्तक लेने और मोह करनेक अनन्तर वे शेठ लोग उस बालकके लिए सब कुछ करनेको तैयार हो जाते हैं। उसके लिए अनेक प्रकारके दुःख सहन करते हैं, अनेक प्रकार के पाप करते हैं, और अपना सब धन खर्च करने को तैयार हो जाते है । इससे सिद्ध होता है, कि समस्त पाप और दुःखोंका कारण एक मोहही है । जो लोग मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं. उन्हें सबसे पहले इस महिका त्याग कर देना चाहिए। मोहका त्याग कर देनेसे क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मत्सर, काम आदि आत्मा के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं, इसप्रकार मोका कर देते कुप हो जाता है । क्योंकि मोहकेही कारण कुटुम्बमें प्रेम होता है | मोहके छूट जाने से कुटुम्वका प्रेम अपने आप छूट जाता है। इस प्रकार जब यह आत्मा अपने मोहका त्याग कर देता है, तथा कषायादिक समस्त विकारोंका त्याग कर देता है, तब यह आत्मा शुद्ध हो जाता है । शुद्ध होनेके कारण अपनेही आत्माके द्वारा अपने शुद्ध आत्माका दर्शन करने लगता है, और शुद्ध आत्माका स्वरूप जानने लगता है । उस समय इसकी समस्त बाह्य क्रियाएं छूट जाती हैं, और यह आत्मा अपने आत्मामें लीन होकर अपने शुद्ध आत्माका चितवन करने लगता है । इस प्रकार अपने शुद्ध आत्मा चितवनके द्वारा यह आत्मा अपने समस्त कर्मो को नष्ट कर डालता है, और अनन्तसुख, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन और अनंत वीर्य इन अनंतचतुष्टयको प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको मोहका त्याग कर, मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए 1
प्रश्न- यदि जीवाः सदाकालं मोक्षं प्रयान्ति विश्वतः |
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सर्वं विश्वं भवेत्तर्हि जीवशून्यं भयंकरम् ।
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यदि ये संसारी जीव, इस संसारसे सदाकाल मोक्ष जाते रहेंगे तो फिर किसी न किसी दिन यह सब संसार समस्त जीवोंसे रहित होकर शून्य हो जायगा वा नहीं ?
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उत्तर
(शान्तिसुधा सिन्धु )
यथा यथा पदार्थाः स्युर्दुष्टा ज्ञातास्तथा तथा । जीवाः स्युश्चाक्षयानन्ताः प्रोक्ताः केवलिनेति कौ । ३१७| गतास्ततोपि मोक्षं च किंतु रिक्या मही न सा । अकृत्रिमपदार्थानां सूक्ष्मानां दूरवर्तिनाम् ॥ ३९८ ॥ स्याद्भावो न बुदध्वेति तत्त्वज्ञा भवभीरवः । विश्वरिक्तभयं त्यक्त्वा कुर्वन्तु मोक्षसाधनम् ।। ३१९ ॥
अर्थ- वीतराग केवली भगवान् अरहंतदेवने जो-जो पदार्थ जिसजिस रूपसे देखे हैं, वा जिस-जिस रूपसे जाने है, वे पदार्थ उसी उसी रूप मे बतलाये हैं । उनमे से जीव पदार्थोंकी संख्या अक्षय, अनंत, बतलाई हैं | अनादिकाल से लेकर आजतक अनंतानंतकाल व्यतीत हो चुका, और इस अनंतानंतकाल में जीव बराबर सदाकाल मोक्ष जाते रहे हैं, तथापि यह पृथ्वी आज तक जीवांने खाली नहीं है, इसलिए जो सूक्ष्म पदार्थ हैं, वा दूरवर्ती अकृत्रिम पदार्थ है, वा दूर कालवर्ती पदार्थ हैं, उनका कभी अभाव नहीं कहा जा सकता । अतएव संसारके दुःखोंसे भयभीत रहनेवाले और तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले भन्यजीवोंको इस संसारको खाली होनेके भयका त्याग कर देना चाहिए, और मोक्षके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
भावार्थ- भगवान् अरहंतदेव राग-द्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित वीतराग होते हैं, तथा चर, अचर, सूक्ष्म, स्थूल आदि समस्त पदार्थोंको जाननेवाले सर्वज्ञ होते हैं । जो-जो वीतराग सर्वज्ञ होते हैं, वे कभी भी पदार्थोंका मिथ्या स्वरूप नहीं कह सकते। जो राग-द्वेषको धारण करता है, वह अपने राग-द्वेष के कारण पदार्थोंका मिथ्या स्वरूप कह सकता है, तथा जो सर्वज्ञ नहीं होता वह भी अल्पज्ञ होने के कारण पदार्थोंका मिथ्यास्वरूप कह सकता है । परन्तु जो वीतराग होता है, सर्वज्ञ होता है, वह कभी भी पदार्थों का मिथ्यास्वरूप नहीं कह सकता, इसलिए भगवान् अरहंतदेवने जो कहा है, वह सर्वथा यथार्थ है । उसमें किसी प्रकारका अन्तर नहीं पड सकता । भगवान् अरहंतदेवने जीवोंकी संख्या अक्षय अनंत बतलाई है, इसलिए वह जीवोंकी संख्या कभी समाप्त नहीं हो सकती है। मान लीजिये कि किसीके पास दस करोड
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रूपए हैं, और इसीलिए वह करोडपति कहलाता है, यदि उसके पाससे ५) रु. प्रतिदिन निकाल लिए जाय, और वह जब तक जीवित रहे तत्र तक निकाले जांय, तो भी वह करोडपतिही बना रहेगा 1 यद्यपि रुपयोंममे दस बीस लाख रुपये कम हो जायगे, तथापि वह करोडपति अवश्य बना रहेगा । इसीप्रकार जीवोंकी संख्या अक्षय-अनन्त है, उसमेंसे बहुत जीब मोक्ष पहुंचते रहते हैं, तथापि उसकी अक्षय, अनन्त संख्यामें किसी प्रकारकी कमी नहीं हो सकती। इसके एक दो उदाहरण और देख लीजिये । आकाश अनंत है । यदि हम किसी एक स्थानको नियत स्थान मानलें, और उस स्थानमें हवाई जहाजके द्वारा पूर्व दिशाको और गमन करते जांय, तो क्या पूर्व दिशाका अंत आ सकता है ? यद्यपि जितना गमः। ते जाले हैं, उतना भानिय स्थानसे पूर्व दिशाकी ओरका भाग कम-कम होता जाता है, परंतु पूर्व दिशाका अंत नहीं आ सकता। यदि कोई मनुष्य उस दिशाका अंत मान ले, तो आकाश अनंत नहीं ठहरता है, तथा फिर उस अंतिम भागके आगे क्या है, सो बतलाना चाहिए, परंतु ये दोनोंही बातें असम्भव है, न तो आकाशका अंत आ सकता है, और न आकाशका अभाव होकर दूसरा पदार्थ रह सकता है, इसलिए जिस प्रकार आकाशके एक दिशाकी और गमन करते हुए, आकाशका बहुभाग घट जाता है, तथापि उसका अंत नहीं आता, उसी प्रकार उन जीवोंकी अक्षय अनंत संख्यामसे जो जीव मोक्ष चले जाते हैं, उतनी संख्या कम अवश्य हो जाती है. तथापि वह अक्षय अनंत संख्याही बनी रहती है । दूसरा उदाहरण-मनुष्य अपनी मातासेही उत्पन्न होता है, तथा उसकी माता अपनी मातासे उत्पन्न होती है, और उसकी माता, अपनी मातासे उत्पन्न होती है । इस प्रकारकी समस्त माताएं यदि कल्पनाशक्तिकेद्वारा एक स्थानपर इकटी कर ली जांय, और उसमें से फिर एक-एक घटाते जांय, वा अलग करते जाय, तो क्या उन माताओंका कभी अंत आ सकता है ? यदि कोई मनुष्य किसी माता तक गिनकर उसको अंतिम माता कहेगा, तो फिर यह प्रश्न सहज रीतिसे उत्पन्न हो जायगा कि वह अंतिम माता किससे उत्पन्न हुई थी, और फिर उसकी माता किससे उत्पन्न हुई थी? इस प्रचार विचार करनेसे उन माताओंका अंत कभी नहीं आ सकता । उसी प्रकार
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(शान्तिसुवासिन्धु )
मोक्ष जाते हुए भी जीवोंकी संख्या कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस संसारमें निगोदराशि अनंतानन्त भरी हुई है। एक सुईके अग्र भागपर वा उससे भी बहुत कम भागपर एक निगोदिया शरीर रहता है, और उस शरीर में अनंतानंत निगोदराशिके जीव रहते हैं, तथा इस प्रकारके rtain यह समस्त लोकाकाश भरा हुआ है । फिर भला उन जीवोंकी संख्या समाप्त कैसे हो सकती है । हां ! जितने जीव मोक्ष चले जाते हैं, उतने जीवोंकी संख्या संसारी जीवोंकी संख्या मेंसे कम अवश्य हो जाती है। परंतु वह कभी किसी कालमें भी समाप्त नही हो सकती । इसलिए संसार के दुःखोंसे डरनेवाले भव्यजीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए, इस संसार में बहुत से ऐसे पदार्थ हैं, जिनको हम नहीं देख सकते । राम-रावण आदिको हुए बहुत काल व्यतीत हो गया, मेरु पर्वत आदि अकृत्रिम पदार्थ बहुत दूर हैं, अथवा निगोदराशि बहुत सूक्ष्म है, इन सबको हम देख नहीं सकते, तथापि इनका अभाव सिद्ध नहीं हो मकता । यद्यपि हमने अपने दस-बीस पीढीके पहले लोग देखे नहीं है, तथापि उनका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए भगवान अरहंतदेवने जो कहा है, वह मिथ्या वा विपरीत नहीं हो सकता, यही समझकर उनके वचनोंपर अटल विश्वास रखना चाहिए, और समस्त संकल्प-विकल्पों का त्याग कर मोक्षमार्गको प्राप्त करनेमें लग जाना चाहिए । यही मनुष्यका कर्तव्य है ।
प्रश्न
कौ वदाभव्यजीवे स्यात्स्वरुचिः शर्मंदा नवा ?
२२०
-
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में अभव्य जीवोंको आत्माका कल्याण करनेवाली आत्मरुचि होती हैवा नहीं ?
उ. लोहे सुगंधश्च खले सुनीतिरिक्ष फलं लोभिनरे शुचित्वम् । स्वर्गेपि पीडा स्वसुखेपि दुःखं स्यादर्थीचता वर भोगभूम्याम् अग्नौ च शीतं गगनेपि पुष्पं मोक्षे ह्यशांतिर्नरके च शांतिः ॥ पूर्वोक्तरीतिश्च भवेत्तथापि स्वात्मानुभूतिनं भवेद्भथ्ये ।
अर्थ - यद्यपि लोहे में सुगंध नहीं होता, दुष्ट पुरुष नीति और न्यायका पासन नहीं कर सकता, ईखपर कभी भी फुल नहीं लग
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सकते, लोभी पुरुष कभी पवित्रता धारण नहीं कर सकते, स्वर्गमें कभी पीडा नहीं होती, आत्मजन्य सुख में कभी दुःख नहीं होता, उत्तम मोगभूमि कभीमानको चिन्ता नहीं होती, अग्निमें कभी शीतलता नहीं होती, आकाशमें कभी फूल नहीं लगता, मोक्ष में कभी अशान्ति नहीं होती, और नरकमें कभी शान्ति नहीं होती. तथापि यदि ये सब बातें हो जांय, लोहेमें सुगंधभी आ जाय, दुष्ट पुरुष नीनी और न्यायकाभी पालन करने लगे, ईव पर फलभी लग जांय, लोभी मनुष्यम पवित्रता भी आ जाय, स्वर्ग में भी पीडा होने लगे. आत्मजन्य मुखमभी दुःख मालूम होने लगे, उत्तम भोगभूमिमें भी धनकी चिंता करनी पडे, अग्निमें भी शीतलता आ जाय, और आकाशमभी पुप्प लग जाय, मोक्षम भी अशांति हो जाय, और नरक में भी शांति हो जाय, तथापि अभव्य जीवके स्वात्मानुभूति कभी किसी कालमें भी नहीं हो सकती ।
भावार्थ – जिसमें सम्यग्दर्शन प्रगट होनेकी योग्यता होती है उसको भव्य कहते हैं, और जिसमें सम्यग्दर्शन प्रगट होने की योग्यता न हो , उसको अभब्य कहते है । यह भव्यत्व और अभव्यत्व जीवका स्वभाव है। जैसे उबालनेसे कोई मंग गल जाती है, और कोई नहीं गलती, यद्यपि दोनोंही मूंग कहलाती हैं, तथापि एकका स्वभाव गल जानेका है, और एकका हजार प्रयत्न करनेंपरभी न गलने का है। इसी प्रकार कारणसामग्री मिलनेपर भव्यजीबको सम्यदर्शन प्रगट हो जाता है, सम्यग्दर्शनके साथही स्वात्मानुभूतिके होनेपर वह भव्य जीव सम्यक्त्रारित्र धारण कर मोक्षप्राप्त कर लेता है, परंतु अभव्य जीवका स्वभाव सम्यग्दर्शनको प्रगट करने की योग्यता नहीं रखता । यद्यपि वह सम्यग्दर्शन उस आत्माका एक गुण है और वह उस आत्मामें विद्यमान है, तथापि उस सम्यग्दर्शनको ढकनेवाले दर्शनमोहनीय कर्मको नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेना, उसके स्वभावसे बाहर है । इस संसारमें जिस-जिस पदार्थ के जो-जो स्वभाव हैं उनमें किसीका तर्क-वितर्क नहीं चल सकता । नीम कडबा क्यों है, ईख मीठा क्यों है, अग्नि गर्म क्यों है, इनका कोई कुछ उत्तर नहीं दे सकता, और न इनमें कोई किसी प्रकारका तर्क- वितर्क कर सकता है । इसी प्रकार भव्यत्व और अभव्यत्वभी भव्य और अभव्यजीवोंके स्वभाव हैं। इनमें किसीका कोई
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तर्क-वितर्क नहीं चल सकता, ऊपर बता चुके हैं कि अभव्य जीवोंका स्वभाव सम्यग्दर्शनको प्रगट न होने की योग्यता रखना है। इसलिए न तो कभी उसके सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है, और न कभी सम्यग्दर्शनके साथ प्रगट होनेवाली स्वात्मानुभूतिही प्रगट हो सकती है । इसलिए वह कभीभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, यद्यपि वह अभव्य जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, तथापि वह पुण्यकार्य करता हुआ सुखी रह सकता है । इसलिए पुण्य उपार्जन करना प्रत्येक जीवमात्रका कार्य है । इसमें किमीकोभी नहीं चूकना चाहिए। प्रश्न- गुरोराज्ञा विना शिष्यो यत्र कुत्रापि स्वेच्छया ।
यदि स्वपेत्तथा गच्छेद् वद मे कीदृशोस्ति सः । अर्थ- हे भगवन् ! अन्न' कृपा कर यह बतलाइए कि जो शिष्य अपने गुरुकी आज्ञाके बिना अपनी इच्छानुसार जहां कहीं सो जाता है, अथवा जहां कहीं चला जाता है, वह कैसा शिष्य कहलाता है । उ. गुगेराज्ञां विना शिष्यः स्वपूजाख्यातिहेतवे ।
स्वेच्छया यत्र कुत्रापि स्वपिति गच्छतीति यः ।। ३२३ ॥ स एव मार्गलोपी स्यात्स्वच्छन्दमार्गपोषकः । जैनधर्मविरोधी स मिथ्यामतप्रचारकः ॥ ३२३ ।। स्वयं पतेद् भवान्धौ स तथान्यान् पातयत्वलः । ज्ञात्वा गुरुविरोधीति तं त्यजेद् दूरतः सुधीः ॥ ३२४ ।।
अर्थ- जो शिष्य अपनी पूजा-प्रतिष्ठा बढाने के लिए, अपने गुरुकी आज्ञाके बिना अपनी इच्छानुसार चाहे जहां जाकर सो जाता है, वा चाहे जहां चला जाता है, उस शिष्यको मोक्षमार्गका लोप करनेवाला समझना चाहिए, मोक्षमार्गसे भिन्न किसी स्वतंत्र मार्गको पुष्टि करनेवाला समझना चाहिए, जैनधर्मका विरोधी समझना चाहिए, और मिथ्यामतका प्रचार करनेवाला समझना चाहिए। ऐसा दुष्ट शिष्य, इस संसाररूपी महासागर में स्वयं पडकर परिभ्रमण करता है, और अन्य जीवोंकोभी इस संसारसागरमें परिभ्रमण कराता है। बद्धिमानोंको ऐसे शिष्यका गुरुबिरोधी समझकर दूरसेही त्याग कर देना चाहिए ।
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भावार्थ- ब्रह्मचर्यप्रतको पूर्ण रीतिसे पालन करनेके लिये गुरुके समीपही शिष्योंको निवास करना चाहिए । गुरुके समीप रहनेसे ब्रह्मचर्यकाभी पालन होता है, और अन्य समस्त प्रतोंका पालन हो सकता है । दूसरी बात यह है कि, गुः स्मनायसही सब जोपोंके परम हितकारी हैं । फिर भला शिष्योंका कल्याण तो चाहतेही रहते हैं । यदि शिष्य गुरुके समीप रहता है, और सदाकाल उनकी आज्ञानुसार चलता है, तो फिर गुरुभी उसकी व्रतोंमें किसी प्रकारका दोष नहीं लगने देते। गुरु शिष्यका परम उपकार करते हैं, तथा शिष्यसे कुछ चाहतेभी नहीं। ऐसी अवस्थामें वह शिष्य उन गुरुको सेवासुश्रूषा कर सकता है, और उनकी आज्ञानुसार चलकर, उन्हें प्रसन्न कर सकता है। गर स्वयं मोक्षमार्गमें लगे रहते हैं, और शिष्यों को लगाते रहते हैं । अतएव अपने आत्माका कल्याण करने के लिएभी शिष्योंको उनकी आज्ञा में रहना अत्यावश्यक है । जो शिष्य ऐसे ग्रुओंकी आज्ञाको नहीं मानता है, उसे तो फिर मोक्षमार्गका लोप करनेवाला समझना चाहिए, गुरुका विरोधी और उच्खल समझना चाहिए, तथा मिथ्यामतका प्रचार करनेवाला समझना चाहिए । साधारण गृहोंका कोई लडका यदि माता-पिताकी आज्ञाके बिना कहीं बाहर जाकर सोता है. तो वहभी अयोग्य समझा जाता है, लोग उसके सदाचारमें संदेह करने लग जाते है, फिर भला गुरुकुलमें रहनेवाला आचार्योका शिष्य यदि मरकी आज्ञाके विना बाहर जाकर सो जाता है, वा अन्यत्र चला जाता है, तो फिर उसका ब्रह्मचर्य वा उसके व्रत निर्दोष रीतिसे कैसे पालन होते हैं, और वह शिष्य सुशिष्य कैसे कहलाता है ? ऐसा कुशिष्य तो उच्छृखल होकर मोक्षमार्गका वा जैनधर्मका लोप कर देता है । इसलिए ऐसे शिष्यका दूरसेही त्याग कर देना अच्छा है। किसी शिष्यका न होना अच्छा, परंतु ऐसे कुशिष्य का होना कभी कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न - रक्षति केवलं बंधून धनेन स कथं वद ?
अथै -- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए-कि जो पुरुष अपने धनसे केवल भाई बन्धुओंका ही रक्षण करता है वह कैसा है ? उ. धनेन धर्मस्य जिनालयस्य देवस्य शास्त्रस्य गुरोः क्षमाब्धेः ।
भक्त्या सुधर्मायतनाविकानां रक्षां न कृत्वा शिवसौल्यवानाम् ।
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धनेन भृत्यान् स्वकुटुंबवर्गान् यः केवलं रक्षति मोहबुद्धया। प्रत्यक्षमेव प्रतिमाति को स पशुश्च पापी नरकप्रवासी ३२६
अर्थ – पुण्यकर्मके उदयसे इस धनको पाकरके धर्मको रक्षा करना चाहिए, जिनालयकी रक्षा करना चाहिए, देवकी रक्षा करना चाहिए, शास्त्रकी रक्षा करनी चाहिए, और क्षमाके सागर ऐसे निग्रंथ गुरुओंकी सेवा कर, रक्षा करनी चाहिए । इस प्रकार पोक्षके सुख देनेबाले जितते श्रेष्ठ धर्मायतन है उनकी रक्षा भक्तिपूर्वक करना चाहिए जो पुरुष अपने धनसे इन धर्मायतनोंकी रक्षा नहीं करता और केवल मोहके वशीभूत होकर अपने सेवकोंकी बा अपने कुटुम्बकीही रक्षा करता है, वह इस संसारमें पशु, पापी और नरकगामी जान पड़ता है।
भावार्थ - यह धन पुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त होता है । वह पुण्य दो प्रकारका होता हैं, एक पुण्यानुबंधीपुण्य, और दूसरा पापानुबंधीं पुण्य । दान देना पुण्य कार्य है परंतु रत्नत्रयको धारण करनेवाले श्रेष्ठ पात्रोंको दान देनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है उसको पुपयानुबंधीपुण्य कहते है । ऐसे पुण्यके उदयसे जो धन प्राप्त होता हैं वह पुण्य कार्यमही लगता है, और आगेके लिए भी पुण्यकमोंका संपादन करता है। परंतु जो दान कुपात्रोंको दिया जाता है, उस दानसे होनेवाला पुण्य पापानुबंधीपुण्यकर्म होता है । उस पापानबंधी पुण्यकर्मके उपायसे जो धन प्राप्त होता है, वह पापकार्यमेंही लगता है। इसका कारण यह है कि श्रेष्ठ पात्रोको जो दान दिया जाता है, वह रत्नत्रयके साधनही लगता है। किसी मुनिको दिया हुआ आहारदान उनके तपश्चरण और ध्यानकी वृद्धि मेंहीं लगता है 1 इसलिए उस दानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उसके उदयसे होनेवाली धनादिक सामग्री आगामी कालके लिए भी श्रेष्ठ पुण्यको बढानेवाली होती है। ऐसे पुण्यकोही पुण्यानुबंधपुण्य कहते है, तथा कुपात्रको जो दान दिया जाता है उससे कषाय और विषयोंकी पुष्टि होती है । इसलिए उस दानसे जो धनादिक सामग्री प्राप्त होती हैं वह पापकार्यों मेंही लगती है या विषयकषायोंकी पुष्टि ही लगती है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि, धन प्राप्त करनेका फल धर्माय-- तनोंकी रक्ष करनाही है। धन पा करके प्रभावना अंगकी वृद्धि कर
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स्वयं
स्वयं पुण्य प्राप्त करना चाहिए, और अन्य हजारों मनुष्योंको गुण्य प्राप्न कराना चाहिए। भगवान् अरहंत देवकी जिन प्रतिमाका पंचामृताभिषेक कराकर वा वेदीप्रतिष्ठा, विम्ब प्रतिष्ठा अथवा रथोत्सव कराकर, पुण्य प्राप्त करना चाहिए और अन्य हजारों मनुष्योंको पुण्य प्राप्त कराना चाहिए। इन सब कामों को देखकर हजारों मनुष्य जयजयकार करते हैं, और पुण्य प्राप्त करते हैं। जो मनुष्य धन पा करकेभी ऐसे पुण्यकार्योंको नहीं करते हैं, और अपना सन धन केवल कुटुम्ब के पालनपोषण करनेमें, वा विषय कषायों में ही लगा देते हैं, वे महापापी गिने जाते हैं, पशुओंके समान अज्ञानी कहलाते हैं, और तीव्र मोहके कारण अथवा केवल पापही ज्यार्जन करनेको कारण अवश्य नरकगामी होते है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपना धन कंवल पुण्य काममेही खर्च करना चाहिए । जो लोग अपना सब धन पुण्यकामों में खर्च करना नहीं चाहते, उनको एक भाग धर्म में खर्च करना चाहिए और दूसरा भाग कुटुम्बके पोषण आदि व्यवहार कार्यों में खर्च करना चाहिए। साथ में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो धन कमाया जाय वह न्यायपूर्वकही कमाना चाहिए | अन्याय से आया हुआ धन कभी श्रेष्ठ कामोंमें नहीं
लग सकता ।
प्रश्न - वसति कौ धनं कस्य मे वद सिद्धये ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में यह धन किससे समीप रहता है ?
उ. यावद्धि येषां हृदि जैनधर्मस्तिष्ठेद्लभ्यो भुवि सारभूतः । तावद्धि सेषां सुखशान्तिदात्री तिष्ठेत्स्व पार्श्वेऽखिलराज्यलक्ष्मी भार्यादिबन्धुनिजबन्धुभावैदसोपि दासी तनयोपि तिष्ठेत् । ज्ञात्वेति धर्मो हृदि धारणीयः पूर्वोक्त लक्ष्मीश्च वसेत्स्व पावें ॥।
अर्थ- इस संसारमें यह जैनधर्म अलभ्य है, और सारभूत है, ऐसा यह जैनधर्म जिसके हृदयमें विराजमान रहता है, और जब तक विराजमान रहता हैं, तबतक उसके समीप सुख और शांतिको देनेवाली समस्त भूमण्डलकी राज्यलक्ष्मी अवश्य विद्यमान रहती हैं। इसके सिवाय उसके भाई बंधुभी अपने बंधुभावको धारण करते हुए अर्थात् उसका
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हित करते हुए उसके समीप रहते हैं, तथा दासी, पुत्र, आदि सब सुखकी सामग्नी उसके समीप रहती है। यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवको अपने हृदयमें इस पवित्र जनधर्मको धारण करना चाहिए जिससे कि ऊपर लिखी हुई समस्त सुखकी सामग्री सदाकाल उसके समीप बनी रहे।
भावार्थ- यह बात पहले बता चुके हैं, कि लक्ष्मी वा धनकी प्राप्ति पुण्य कर्मके उदयसे होती है, तथा पुण्य कर्मोमें सर्वोत्तम पुण्यकर्म सम्यग्दर्शनसे प्राप्त होता है, और वह सम्यग्दर्शन जनधर्मके धारण करनेसे वा यथार्थ देव शास्त्र गुरुके श्रद्धान करनेसेही होता है। इसलिए आचार्य महाराजने जैन धर्मके धारण करनेसेही धनादिककी प्राप्ति बतलाई है । यह जैनधर्म अहिंसामय धर्म है, और इसलिए समस्त जीवोंका कल्याण करनेवाला है। इसी कारण यह पवित्र है, मोक्ष प्राप्त करनेवाला है, और संसारके समस्त सुख देनेवाला है । ऐसा यह जैनधर्म बहुत बडे पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होता है। रात जैन धर्म नीनराग. सर्वज्ञ और हितोपदेशी ऐसे भगवान अरहंतदेवका कहा हआ है, ऐसे जैनधर्मको पा करभी जो भाग्यहीन पुरुष उसको छोड़ देते हैं, अथवा उसमें झूठ-मठके दोष लगाते हैं, अथवा उसके उद्देशोंको बदलकर सर्व साधारणमें उपदेश देते हैं, उन्हें महापापी समझना चाहिए । ऐसे लोग अकेलेही पापकर्म नहीं कमाते, किंतू अन्य लोगोंको उपदेश देकर उनसे भी पापकर्म कराते रहते हैं। इसलिए ऐसे मिथ्या उपदेश देनेवाले पुरुष महापापी कहलाते हैं । जहां पर ऐसे लोग उत्पन्न हो जाते हैं, वहांपर धनकी, जनको अवश्य हानि होती है। इसलिए ऐसे अलभ्य जैनधर्मको पा कर उसकी वृद्धि करने में, उसका यथार्थ प्रचार करने में कभी आलस नहीं करना चाहिए । जनधर्म धारणकर विशेष पुण्य प्राप्त कर लेना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- सद्धर्मवृद्धिहेतो भाष्या भाषा च कीदृशी?
अर्थ- हे स्वामिन् अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस श्रेष्ठ जैनधर्मकी वृद्धिके लिए कैसी भाषा बोलनी चाहिए ? उ. भव्येन धर्मस्थितिवृद्धिहेतोः सर्वेण सार्द्ध निजबंधुबुद्धया।
कार्या प्रवृत्तिः सुखदा पवित्रा भाषापि भाष्या मधुरा यथार्था।
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श्रीजैनधर्मे सुखशान्तिमूले श्रद्धा यतः स्यात्परधार्मिकाणाम् ॥ सत्यार्थधर्मेण विना न सिद्धिस्तत्सिद्धिहेतोः कथितं मयेति ॥ ___ अर्थ- प्रत्येक भव्यजीवको इस पवित्र जनधर्मको स्थिर करनेके लिए समस्त जीवोंके साथ अपने भाईबंधओंके समान प्रवृत्ति रखना चाहिए, सब जीवोंके साथ सुख देनेवाली पवित्र प्रवृत्ति रखना चाहिए, और उनके साथ मधुर भाषा और यथार्थ बोलना चाहिए । ऐसा करनेसेही सुख और शान्तिके मल कारण, ऐसे इस जैन ममं अन्य धर्मियों की श्रद्धा हो सकती है। इस संसारमें यथार्थ धर्मको धारण किए बिना किसीके आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती, अतएव प्रत्येक आत्माकी सिद्धिके लिएही मैंने यह निरूपण किया है ।
___ भावार्थ- प्रत्येक भव्वजीवको हित-मित भाषण करना चाहिए । जिस भाषणको करनेसे किसीभी जीबको बाधा न पहुंचे तथा जिस भाषणसे सब जीवोंकी आत्माओंका यथार्थ कल्याण हो, पूण्यकी प्राप्ती हो, पापोंका नाश हो, ऐसे भाषणको हितरूप भाषण कहते हैं, तथा जहांपर जितने भाषणकी आवश्यकता हो उतनाही भाषण करना, बिना प्रयोजनके अधिक भाषण न करना-मितभापण कहलाता है, । जो मनुष्य हित-मित भाषण करता है, और वहभी मीठे शब्दोम यथार्थ बात कहता है, उसका प्रभाव संसारके समस्त जीवोंपर पड़ता है। जनधर्म वैसे ही पवित्र और यथार्थ धर्म है, उसमेंभी यदि मिष्ट और यथार्थ भाषण करनेवाले मनुष्य हों, तो अन्य र्मियोंपर उस भाषाका गहरा प्रभाव पडता है, तथा उस प्रभावके कारण वे लोग इस पवित्र धर्मपर श्रद्धा करने लगते हैं। चार प्रकारके धर्मध्यान में एक अपाय-विचय नामका धर्मध्यान बतलाया है। उसकाभी अभिप्राय यही है कि, जो जीव यथार्थ धर्मसे विमुख हो रहे हैं, वे कब और किस प्रकार यथार्थ धर्मको धारण कर अपने आत्माका कल्याण करें। यदि यह अपाय-विचय नामके धर्मध्यानका मिष्ट और यथार्थ भाषण करनेसेही हो जाय, तो इससे बढकर और क्या बात हो सकती है, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मिष्ट और यथार्थ भाषण करना चाहिए, जिससे कि अनेक जीव यथार्थ धर्मको धारण कर अपने आत्माका कल्याण कर सकें । यही आचार्य महाराजका उपदेश है।
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प्रश्न- कि कि विचारणीयं को बद मे सिद्धथे प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस जीवको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए अपने हृदयमें क्या-क्या विचार करते रहना चाहिए? उ. मृत्युः कदा स्याद् भुवि बुध्यते न धनस्य नाशोपि तथात्मजानाम् भावो यथा स्याद्धि तयापि चायुः प्रबध्यते वै सुखदुःखवं च ३३१ ज्ञात्वेति शुद्धः सुखदः स्वभावः कार्यो यतः स्यात्सुखशान्तिलामः वायुन केषामपि बध्यते न न स्यात्तथा कर्मपराश्रयत्वम् ।३३२। ___ अर्थ- इस संसारमें मृत्यु कब होती है इस बातको हम लोग नहीं जान सकते हा प्रकार का नाम का होता है, वाम पौत्रादिकोंका नाग कब होता है, इस वातकोभी हम लोग नहीं जान सकते। यह जीव अपने शुभ वा अशुभ जसे परिणामोंको धारण करते हैं, वैसे ही सुख दुःख देनेवाले आयु कर्मका बंध करते हैं। इस प्रकार निरंतर विचार करते हए इस जीव को सूख देनेवाले अपने शुद्ध स्वभावका धारण करना चाहिए, जिससे कि सुख और शांतिकी प्राप्ति हो, आयुकर्मका कभी बंध न हो, और वह जीव कर्मोके आधीन न रहे ।
भावार्थ- इस जीवको अपना कल्याण करनेके लिए बारह भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिए। अपनी मृत्यको समीप जानकर संसार और विषय-कषायोंका त्याग कर, वैराग्य धारण करना चाहिए । परलोकके लिए आयुकर्मका बंध कब होता है, यह बात किसीको मालूम नहीं हो सकती । इसलिए परलोकके लिए शुभ आयुकर्मकाही बंध हो, अशुभ आयुकर्मका बंधन हो, इस बातका ध्यान रखते हुए, इस जीवको सदाकाल अपने परिणामोंको शुभ वा शुद्धही रखना चाहिए। यदि सदाकाल शुभ परिणाम रहेंगे तो शुभआयुकाही बंध होगा। यदि शुद्ध परिणाम होंगे तो आयकर्मका बंध होगाही नहीं । आयुकर्मका बंध न होनसे यह जीव अत्यंत शुद्ध और सर्वथा स्वतंत्र हो जाता है, सथा मोक्षमें विराजमान होकर सदाकाल आनंद सुखका अनुभव करता रहता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीयको प्रत्येक क्षण में अपने आत्माके कल्याण करनेका चितवन करते रहना चाहिए। मृत्युसे बचनेके लिए बैराम्य
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धारण कर, अपने परिणामोंको शद्ध बनानेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे फिर कभी आयुकर्मका बंध न हो, तथा कभी मृत्यु न हो, और यह जीव मोक्ष प्राप्त कर, सदाके लिए अनंत सुखी हो जाय ।
प्रश्न - सर्वकृत्यकरो जीवः स्याद्धान्यः कोपि मे बद?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कुपा कर यह बतलाइए कि समस्त कार्योको करनेवाला यह जीव ही है अथवा अन्य कोई है ? उ. पापं स्वयं ह्येव करोति जीवो लब्ध्वा कुसंगं च तथा प्रभुंक्ते
तथा स्वयं मुच्यत एवे बंधाद् भक्तया जिनं प्राप्य गुरुं पवित्रम्
यथा मतिः स्याद्वि तथा गतिश्च जिनागमे रोतिरियं प्रसिद्धा ज्ञात्वेति भव्यः स्वमतिश्च शुद्धा कार्या यतः स्यत्स्वसुखस्य लाः
अर्थ – यह जीव अपनी कुसंगतिको पाकर स्वयं पापकर्मोको करता है, और स्वयं उन कर्मोके फलको भोगता है । इस प्रकार अपनी भक्तिके द्वारा भगवान् जिनेंद्र देवको पाकर अथवा पवित्र निग्रंथ गरुको पाकर, उन कर्मबंधनोंसे स्ययं मुक्त हो जाता है । इस जिनागम में यही रीति और यहीं नीति प्रसिद्ध है कि, जिसको जैसी मति होती है उसको वैसीही गति होती है । यही समझकर भव्यजीवोंको अपनी मति वा बुद्धि सदा शुद्ध रखनी चाहिए जिससे कि शीघ्र ही आत्मसुखकी प्राप्ति हो जाय ।
भावार्थ - यह मनुष्य जैसी संगतिमें बैठता है वंसी ही बुद्धि बना लेता है, तथा जैसी बुद्धि बना लेता है वैसे ही कार्य करता है, और जैसे कार्य करता है, वैसा ही उनका फल भोगता है। यदि यह जीव कुसंगतिमें बैठता है तो इसकी बुद्धि कुबुद्धि हो जाती है और उस कुबुद्धिके कारण काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग, द्वेष, मायाचारी आदि अनेक प्रकारके विकार उत्पन्न किया करता है, तथा उन विकारोंके कारण अनेक प्रकारके महापाप उत्पन्न किया करता है। उन पापोंके कारण तीन अशुभ कर्मोंका बंध किया करता है, और उनके उदय होनेपर नरक निगोदके महादुःस्त्र भोगा करता है । इसीप्रकार जब यह जीव मुनि वा ब्रह्मचारी अथवा धर्मात्मा श्रावकोंकी संगतिमें बैठा करता है तब इसकी बुद्धि पापोंसे डरनेवाली हो जाती है। पाप कार्योसे डर कर वह सव
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विकारोंको और पापोंको छोड देता है, तथा दान पूजन आदि शुभ कार्यों में अपनी प्रवृति करने लगता है । इसप्रकार वह अशुभ भावोंका त्याग कर, शुभ भावोंकी प्रवृत्ति करने लगता है, और धीरे-धीरे शुभ भावोंकी प्रवृत्तिको हटाकर, शुद्ध भावोंको धारण करने लगता है। उन शुद्ध परिणामोंके साथ ध्यान और तपश्चरण धारण करता है, और फिर समस्त कर्मोको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिए समस्त भन्यजीवोंको अशुभ भावोंका त्याग कर, शुभ भाव धारण करना चाहिए । और फिर शुद्ध भावोंको धारण करनेका प्रयत्न करते रहना नाहिए । यही पोकायन है. और पायका कर्तव्य है।
प्रश्न- को ददाति सुखं दुःखं लीलेयं कस्य मे वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें मुख वा दुःख कौन देता है, तथा यह सुख वा दुःख देना किसकी लीला है। उ. मोहोद्भवः कर्मरिपुर्हठात्कौ राजानमेवापि करोति रकम् । रंक तथा राज्यपान्वितं च करोति मूढं चतुरं क्षणादि ३३५ श्रीमंतमेवाप्यपरं दरिद्रं करोत्ययोग्यं सुखिनं सुयोग्यम् । लीलास्त्यहो कर्मरिपोविचित्रा दृष्टान्यजन्तोश्च किलेशी न
अर्थ – मोहसे उत्पन्न हुआ मोहनीय कर्मरूपी शत्रु इस संसारमें र पूर्वक राजाको रंक बना देता है, किसी रंकको राज्य सिंहासनपर विठा देता है, अत्यंत अज्ञानी और मूर्ख मनष्यको क्षणभरमें चतुर बना देता है, अन्य किसी अत्यंत धनी मनुष्यको दरिद्री बना देता है, और किसी अयोग्य मनुष्य को सुखी और सुयोग्य बना देता है । यह विचित्र लीला कर्मरूपी शशुकोही है, अन्य किसी जीवकी ऐसी लीला कभी नहीं देखी जाती।
भावार्थ- यद्यपि सुख-दुःख देना वेदनीयकर्मका कार्य है, तथापि वेदनीयकर्म मोहनीयकर्मके रहते हुए ही सुख दुःख दे सकता है । यदि मोहनीयकर्म न हो, तो बेदनीयकर्म कुछ नहीं कर सकता इसीलिए सुख दुःख देनेवाला मुख्यतया मोहनीयकर्मको ही माना है। इस संसारमें जितने अशुभ कर्म हैं, उन सबसे प्रवल मोहनीयकर्मही है, इसलिए
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समस्त अशुभ कर्मोका राजा मोहनीयकर्मही है। इस मोहनीय कर्मके पचल सत्य सनाभी रंक हो जाता है, और यदि इस मोहनीयकर्मका मंद उदय हो जाय, तो कोई रंक भी राजसिंहासनपर विराजमान होता है । रामचंद्र जैसे पराक्रमी और त्रिखंडी राजाभी बनमें घूमते फिरे, यह अशुभ कर्मकीही प्रबलता है । इतने पराक्रमी कृष्ण अपने भाईके बाणसे निर्जन बनमें मारे गये, यह अशुभ कर्मकीही प्रबलता है । इसप्रकार परशुरामको मारनेवाला चक्रवर्ती राजा, रंकके समान भोजन करने के लिए आया था, परंतु शुभकर्मके प्रबल उदयसे जिस थालमें भोजन परोसा गया था, वह थालही चक्र बन गया था । कर्मोकी लीला बडोही विचित्र है। इन कर्मोकीही कृपासे श्रीमती अंजना जसी सतीको भी वन-बनमें फिरना पड़ा, और अनेक कप्ट सहने पड़े। इन कर्मोकीही कृपासे सती सीताको अग्निकूण्डमें प्रवेश करना पडा । अन्य साधारण जीवोंकी तो बातही क्या है, इन कर्मोकीही कृपासे भगवान् पार्श्वनाथको भी अनेक प्रकारके उपसर्ग सहन करने पडे । इसप्रकार शुभ कर्मोके उदयसे प्रद्युम्नकुमारको अनेक विद्याएं सिद्ध हो गई, शुभ कर्मोक उदयसंही लक्ष्मणको अमोघ शक्ति लगनेपर विशल्यादेवी अपने आप आ गई, और शुभ कमौकेही उदयसे विभीषण रामचंद्रसे आ मिला । आज जो मूर्ख कहलाता है, वही पुरुष शुभ कर्मका उदय होनेपर चतुर और धनी हो जाता है, और अयोग्य पुरुषभी शुभ कर्मके उदयसे सुयोग्य हो जाता है । कहां तक कहा जाय? इन कर्मोकी लीला बडी विचित्र है । जी कार्य कर्म कर सकते हैं, उसको अन्य कोई भी नहीं कर सकता । यह समझकर इन दृष्ट कर्मोको नाश करनेका प्रयल करते रहना चाहिए, जिससे कि मोक्ष के अनंतसूखकी प्राप्ति हो जाय । यही भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- लोके कस्य रिपुः कोस्ति वद मे शांतय प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपा कर यह बतलाइये कि इस संसारमें कौन किसका शत्रु है ? उ.मूर्खस्प शत्रुः प्रबलश्च विद्वान् लोकेस्ति मिक्षुः कृपणस्य शत्रुः चौरस्य शत्रुर्नपतिः सधैवाऽधर्मस्था शत्रुश्च निजात्मधर्मः ।।
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जारस्त्रियः शीलवती च शत्रुः दुष्टस्य शत्रु सुजनश्च तिर्यक् स्वर्गस्थ मोक्षो नरकस्य शत्रुः पूर्वोक्तरीतिश्च निसर्गतोस्ति
___ अर्थ- इस संसारमें मूर्ख मनुष्योंका प्रबल शत्रु विद्वान् होता है, कृपण मनुष्योंका शत्रु भिक्षुक होता है, चोरोंका शत्रु राजा होता है. अधर्मका शत्रु आत्माका स्वभाव होता है, व्यभिचारिणी स्त्रियों की शत्रु शीलवती स्त्रियां होती हैं, दुष्टोंका शत्रु सज्जन होता है, स्वर्गका शत्रु तिर्यंच है,
और नरकका शत्रु मोक्ष है । ये सव परस्पर एक दूसरेके स्वाभाविक शत्रु होते हैं।
भावार्थ- इस संसारमें बहनसी शत्रता तो किसी कर्तव्यसे बन जाती है, जैसे कोई पुरुष अपने स्वार्थके लिए किसीका धन दवा लेना चाहता है, तो उस अवस्थामें वह धनी वा उस भूमिका स्वामी उस स्वार्थीका शत्रु बन जाता है । यह कृत्रिम है । यदि वह स्वार्थी उस धनीका धन न दबाता वा भूमि न दबाता, तो उस स्वामीको उसके साथ मात्रुता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । प्रायः देखा जाता है, कि परस्परके मित्र भी वा भाईभी. वा पिता-पुत्र भी अपने अपने स्वार्थके कारण परस्पर शत्रु बन जाते हैं. परंतु यह सब शत्रुता किसी विशेष कारणसे बन जाती है। स्वाभाविक नहीं है। जिस प्रकार स्वाभाविक शत्रता चहे-बिल्लीकी होती है, वा भेड-भेडियोंकी होती है, उसी प्रकार मूर्ख और विद्वान्की स्वाभाविक शत्रुता होती है । मुर्ख पुरुष अज्ञानी होने के कारण ठीक मार्गसे नही चल सकता, परंतु विद्वान् पुरुष ठीक मार्गको ढूंढ निकालता है, और फिर उसीके अनुसार चलता है । यही उन दोनोंको शत्रुताका कारण हैं। भिक्षुक पेटके लिए कुछ मांगना चाहता है और कृपण पुरुष एक कौडीभी देना नहीं चाहता, बस यहीं दोनोंकी शत्रुताका कारण होता है । चोर चोरी करके प्रजाको दुःखी करना चाहता है, और राजा प्रजाका दुःख सहन नहीं कर सकता, इसलिए वह चोरको पकडकर उसे दंड देता है । यही उन दोनोंकी शत्रुताका कारण है । संसारमें जितने पाप है, वे सब अधर्मसे होते हैं, तथा आत्माके स्वभावसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, इसलिए धर्म और अधर्मकी शत्रता है 1 व्यभिचारिणी स्त्रियां अधर्म करती हैं, और शीलवती स्त्रियां अपने पतिव्रत धर्मपर दव रहती हैं, इसी धर्म-अधर्मके
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कारण उन दोनोंमें शत्रुता बनी रहती है। दुष्ट पुरुष सदाकाल अपनी दुष्टता करता रहता है, और सज्जन पुरुष अपनी सज्जनताको सदाकाल स्थिर रखते हैं । इस दुष्टता और सज्जनताके कारणही दोनों में शत्रुता बनी रहती है । स्वर्ग में सुखही सुख है, तिर्यच योनि में दुःखही दुःख है । स्वर्गका कारण पुण्यकार्य हैं, और तिर्यच योनिका कारण पापकार्य है । यही इन दोनोंकी परस्पर विरुद्धताका कारण है । नरककी प्राप्ति तीव्र पापकर्मो से होती हैं, और मोक्षकी प्राप्ति समस्त कर्मोक नाश होने से होती है । इसीलिए दोनोंमें तीव्र विरोध है । इस प्रकार इनमें जो विरोध वा शत्रुता है, वह सकारण है, और फिरभी स्वाभाविक है । यही समझकर मूर्खता कृपणता आदि दोषोंका त्याग कर देना चाहिए, और विद्वत्ता, उदारता, सज्जनता आदि श्रेष्ठ गुणों को धारण करना चाहिए । यही भव्यजीवोंका कर्तव्य है ।
प्रश्न- कस्य स्यात्कीदृशी शोभा कल्याणाय गुरो वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब मेरे कल्याण के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किसको शोभा किस किससे होती है । उत्तर (निर्गता धनाढ्यस्य नीतीभूपस्य भूषणम् ।
कुलस्य नम्रता शोभा विदुषामृजुता मता ॥ ३३९ ॥ धनस्य भूषणं दानं साधोः शांतिश्च भूषणम् । अंधस्य भूषणं विद्या क्षमा वीरस्य भूषणम् ॥ ३४० ॥ भूषणं तपसोऽवांच्छाहसा धर्मस्य भूषणम् । सम्यक्त्यभूषणं जन्तोर्ज्ञानं सम्यक्त्वभूषणम् ।। ३४१ ।। ज्ञानस्य भूषण वृत्तं मोक्षो वृत्तस्य भूषणम् 11 यतन्तां तत्त्वतो ज्ञात्या पूर्वोक्तधर्मसिद्धये ॥ ३४२ ॥
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अर्थ - धनाढयकी शोभा अभिमान न करना है, राजाकी शोधा नीतिसे राज्य पालन करना है, कुलकी शोभा नम्रता है, विद्वानोंकी शोभा सरलता है, धनकी शोभा दान देना है, साधूकी शोभा शांति है, अन्धेकी शोभा विद्या है, शूर-वीरको शोभा क्षमा धारण करना है, तपश्चरणकी शोभा किसी प्रकारकी इच्छा न करना है, धर्मको शोभा
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( शान्तिसुधा सिन्धु }
अहिंसा है, जीवोंकी शोभा सम्यक्ज्ञान प्राप्त करना है, सम्यग्दर्शनकी शोभा सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानकी शोभा सम्यक् चारित्र है, और सम्यक् चारित्रकी शोभा मोक्ष की प्राप्ति है । यह सब समझकर भव्य पुरुषोंको अपनी शोभा बनाने के लिए ऊपर लिखे धर्मोंको धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए । भावार्थ - धन प्राप्त होनेपर अभिमान आ ही जाता है । परन्तु वह अभिमान्य लोगोंको दृष्टिमा कहता है तथा बहुत से लोग उस अभिमानको गिराने के लिए उस धनीको नीचा दिखानेका प्रयत्न करते रहते है, जिससे उसका सब अभिमान चूर-चूर हो जाता है । यही समझकर प्रत्येक धनी पुरुषको अपने अभिमानका त्याग कर देना चाहिए | धन पा करके अभिमान न करना ही उस धनकी शोभा है । इसीप्रकार नीति और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करना राजाकी शोभा है, जो राजा नीति पूर्वक वा न्याय पूर्वक प्रजाका पालन नहीं करता, वह बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है। अन्याय और अनीतिके कारण उसकी प्रजा, उससे असंतुष्ट हो जाती है, और उपद्रव मचाकर उसे राज्यसिहासनसे उतार देती है । अथवा प्रजाको राजाका विरोधी समझ कर कोई शत्रू राजा उसको घेर लेता है, और युद्ध में उसको मारकर वा पकडकर उस राज्यपर अपना अधिकार जमा लेता है । यही समझ कर प्रत्येक राजाको न्याय और नीतिसेही राज्यका पालन करते रहना चाहिए। इसी में राजाकी शोभा है। कुलकी शोभा नम्रता है, जो पुरुष उत्तम कुलमें उत्पन्न होता हैं, वह नम्रही होता है । जिस प्रकार फल लगनेपर वृक्ष नम्र हो जाते हैं, उसीप्रकार उत्तम कुलके मनुष्य सदा नम्री बने रहते हैं । इसीप्रकार विद्वानोंकी शोभा सरलतासे है । जो विद्वान् विद्वान् होकर भी मायाचारी करता है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है, और इसीलिए वह यथार्थ विद्वान् नहीं कहा जा सकता। विद्याका फलही सरलता हैं शोभा सरलता है, धनकी शोभा दान देनेसे होती है । दानसे कीर्ति बढती है, दान देने से शत्रुभी अपने आधीन हो जाता है, तथा संसारके समस्त कार्य दान देनेसे सिद्ध हो जाते हैं । जो लोग धन पा कर भी दान नहीं देते, उनका धन ईट पत्थरोंके समान यों ही व्यर्थ पड़ा रहता हैं, और अन्तमें वह दूसरोंका हो जाता है। इसलिए श्रम पा करके
। इसीलिए विद्वान्की
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दान देकर अपनी कीर्ति और शोभा अवश्य बढा लेनी चाहिए | साधु पुरुषों की शोभा शान्ति है । जो पुरुष साधू होकर भी अपने क्रोधादिक कषायोंको तीव्र रखता है, वह पुरुष साधारण गृहस्थोंसे भी बुरा समझा जाता है । आत्माका कल्याण शान्तिसेही हो सकता हूं, तथा आत्माका कल्याण करने के लिएही साधु अवस्था धारण की जाती है। इसलिए साधु महात्माओं क्रोधादिक कपायोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और शान्ति धारण कर आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए । इसीमें उनकी शोभा है । अन्धा पुरुष अशोभन हो जाता है । परन्तु यदि वह विद्वान है तो वह अशोभनताभी उसका आभूषण कहलाता है । इमी प्रकार शूर-वीर पुरुषोंकी शोभा क्षमा है, शूर-वीर पुरुष बिनाकारण युद्ध नहीं करते, यदि कारणवश उन्हें युद्ध करना पडता है, तो शत्रुको जीतकर उसे पकड़ लेते हैं, और फिर उसको अपने आधीन कर, उसको क्षमा कर देते है, उसका राज्य लौटा देते हैं, और उसको उसके राज्यसिंहासनपर बिठा देते हैं, इसमें उनकी शोभा और कीर्ति बढती है । तपश्चरणकी शोभा इच्छाओंको नाश होना है। जिन पुरुषों की लालसाए नष्ट नहीं होती, उनका तपश्चरण करना सर्वथा व्यर्थ हो जाता है । इसका भी कारण यह है कि इच्छाओंको रोकलेनाही तपश्चरण कहलाता है । यदि तपस्वी होकरभी इच्छाओंका अभाव न हुआ तो वह तपस्वी अनेक प्रकारके पापोंको उत्पन्न करता रहता है, परंतु तपश्चरण पापको नाश करनेके लिए धारण किया जाता है। इसलिए इच्छाओंका नाश कर लेनाही तपश्चरणकी शोभा है। धर्मको शोभा अहिंसा है । इस संसार में सबसे बडा पाप हिंसा है। झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि अन्य सब पाप हिंसा के अंतर्गत हैं, क्योंकि झूठ, चोरी, आदि सबमें हिंसा होती है। इस प्रकार हिंसा करना महा-पापमय कहलाती है. यदि वही हिंसा किसी धर्मके नामपर की जाय तो उसके समान अन्य कोईभी चोर और वज्रसम पाप नहीं हो सकता । इसलिए धर्मकी शोभा अहिंसासेही होती है । इसी प्रकार जीवकी शोभा सम्यग्दर्शन है | सम्यग्दर्शन आत्माकाही एक गुण है, जो अनादि काल से कम से ढक रहा है । उस सम्यग्दर्शनरूप गुणको ढकनेवाले मोहनीयकर्मको नष्ट कर, उस गुणको प्रगट कर लेना इस जीवके लिए शोभाका परम स्थान हो जाता है । विना सम्यग्दर्शनके यह जीव अपने
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स्वरुपको भी नहीं जान सकता और अंधेरे में पड़े रहने के समान चारों गतियों में परिभ्रमण किया करता है। इसलिए अपनी शोभा बढ़ाने के लिए और अपना गौरव प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, तथा सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेपर सम्यग्ज्ञान बढानेका प्रयत्न करना चाहिए और सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि कर सम्यक् चारित्रको बढाना चाहिए। क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनोंही मोक्षके कारण है। मोक्ष प्राप्त कर
नाही इनकी शोभा है, और यही जीवका सर्वोत्कृष्ट परम कर्तव्य है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको रत्नत्रय धारण कर, मोक्ष प्राप्त कर लेने को सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए, यही भव्य जीवका कर्तव्य है । वर्धते साधुतादिः का कस्य संगेन मे वद ?
प्रश्न
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में साधुता वा दुष्टता आदि गुण वा अवगुण किस-किसकी संगति से बढते हैं ? उत्तर दुष्टता दुष्टसंगाद्धि नीचता नोचसंगतः ।
पापिता पापिसंगाच्च क्रूरता क्रूरसंगतः ॥ ३४३ ॥ साधुता साधुसंगात् स्याद्दातुत्वं दानिसंगत वक्तृता वक्तृसंगाच्च ध्यानिता ध्यानिसंगतः ।। ३४४ ॥ वीरता वीरसंगाद्धि धीरता धोरसंगतः । यथार्हन्नामसंस्काराच्छिलापि देवतायते ।। ३४५ ॥ संसर्गाज्जायते कि कि न वेद्मि भुवनत्रये । ज्ञात्वेति योग्यसंगश्च कार्यो मोक्षाथिभिस्ततः ॥ ३४६ ॥
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अर्थ संसार में दुष्टता दुष्ट पुरुषोंकी संगति में बैठनेसे आ जाती है, नीचता नीच लोगोंकी संगतिमें बैठनेसे आ जाती हूँ, पापीपता पापी लोगों के संसर्गमे आ जाती है, क्रूरता क्रूर लोगोंकी संगतिसे आ जाती है, साधुपना साधुओंकी संगति से आता है, दानीपत्रा दानी - योंके संगसे आ जाता है, वक्तृत्त्वता वक्तृत्त्ववालोंके संगति से आ जाती है, ध्यानकी प्राप्ति ध्यान करनेवालोंकी संगतिसे होती है, वीरता वीर पुरुषों की संगति से आती है, और धीरता धीर-वीर पुरुषोंकी संगतिसे आती है । जिस प्रकार किसी पाषाणकी मूर्ति बनाकर उसका नाम
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(शान्तिसुधासिन्धु )
किसी भी अरहंत नामपर रख दिया जाता है, और फिर उसपर अरहंतदेव के सब संस्कार कर दिए जाते हैं, तब वह पाषाणकी मूर्तिही दे जाती है । उसी प्रकार संस्कार वा संसर्गसे समस्त गुण आ जाते हैं, और समस्त अवगुण आ जाते है । इन लोगों में संसर्गके कारण क्या-क्या गुण वा अवगुण प्राप्त होते हैं, इस बातको हम लोगभी नहीं जान सकते । यही समझकर मोक्ष की इच्छा करनेवाले भव्यजीवोंको नीच और दुष्ट संगतियोंका त्याग कर देना चाहिए, और श्रीर-वीर साधु पुरुषोंकी संगति करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
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भावार्थ - जो पुरुष जुआरियोंकी संगतिमें बैठता है, वह जुआरी अवश्य हो जाता है, जो चोरोंकी संगतिमें बैठता है, वह चोर हो जाता है, जो शिकारियोंकी संगतिमें बैठता है, वह शिकारी हो जाता है, जो मायाचारियोंकी संगतिमें बैठता है, वह मायाचारी हो जाता है, जो हिसकोकी वा घातकों की संगति में बैठता है, वह हिंसक वा घातक हो जाता है। जो क्रूर वधकोंकी संगतिमें रहता है, वह क्रूर वा वधक बन जाता है । जो पुरुष प्रतिदिन साधुओं की सेवा सुश्रुशा करता है, उसके परिणाम अवश्य शान्त हो जाते हैं। साधुओंके समीप रहनेसे वह साधुओं जैसी क्रियाएं करने लगता है, वह धीरे-धीरे पापोंका त्याग कर देता है, और पुण्यकार्यों को बढाता रहता है । इस प्रकार वह धीरे-धीरे साधु बन जाता है। इसी प्रकार दानी पुरुष के पास रहने से उसमें उदारता था जाती है। दानके गुण और लाभ उसके हृदय में समा जाते हैं, और फिर वह स्वयंभी दान देनेके लिए तत्पर हो जाता है, और अच्छा दानी वन जाता है, उत्तम भाषण देनेवाले वक्ता लोगोंकी संगति करनेसे वह चतुर पुरुष भाषण देनेकी शैली, उसके नियम, उपनियम, उदाहरण, युक्तियां, भाषाका चढ़ाव - उतार, वाक्यरचना, क्रियाकारकमंबंध, वर्णन करनेकी क्षमता वा दक्षता आदि सब गुणों को मीस लेता है तथा भाषण सुनते-सुनते वह वैसेही शब्द कहने लगता है, वैसेही उदाहरण देने लगता है, और वही शैली सीख लेता है । इस प्रकार वह थोडेही दिनोंमें एक अच्छा वक्ता बन जाता है । इसीप्रकार ध्यान करनेवाले मुनिराजोंकी सेवा सुश्रूशा करनेसे वा उनके समीप रहनेसे ध्यानके आसन समझ लेता है, शरीर
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किस प्रकार निश्चल रक्खा जाता है, और ध्यानमें क्या-क्या क्रियाएं करनी पडती है, यह सब जान लेता है । तद्नंतर वह समयानुसार ध्यान करनेकी रीति, ध्यानके विषय, मनको एकाग्र करनेके साधन आदि ध्यानके समस्त विषयोंको पूछ-पूछकर जान लेता है । तदनंतर यह उनके साथ ध्यान करने लगता है, और धीर पुरुपोंके साथ रहकर धीरता धारण कर लेता है, और ध्यानी बन जाता है । इमी प्रकार यह मनुष्य बीर पुरुषों के साथ रहकर धीरता धारण कर लेता है । यह सब संसर्ग और संस्कारोंका फल है । जिस प्रकार किसी खानिमें से नियमानसार पत्थर निकालते हैं, नियमानुसार उसकी मूर्ति बनाते हैं, और फिर उसमें देव होनेवाले सब संस्कार करते हैं । यद्यपि वह खानिसे निकला पत्थर देव नहीं था, मूर्ति बननेपरभी वह देव नहीं था, किंतु उसपर देबके संस्कार हो जानेसे वह देव हो जाता है, और देवके समानही पूज्य माना जाता है। जिस प्रकार खानिमेंसे निकला हुआ हीरा अंगूठी में जड़ने योग्य नहीं होता, और न उतना मूल्यवान होता है, किंतु शाणपर रखकर जब उसका संस्कार किया जाता है, तब वह बहुत अधिक मूल्यवान हो जाता है, और अंगूठी में जडने योग्य हो जाता है यदि मिट्टीके घडेका अग्नि संस्कार न किया जाय, तो उससे जल धारण ( उसमें जल भरना ) आदि कोई भी क्रिया नहीं कर सकते । अग्नि संस्कारके होनेपरही उससे जलधारण आदि क्रिया हो सकती है। इस संसारमें संस्कारोंका वा संसर्गका अपूर्व महात्म्य है । यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवको अपना योग्य संसर्ग रखना चाहिए और योग्य संस्कारपूर्वक रहना चाहिए, जिससे कि यह जीव आत्माके श्रेष्ठ गुणोंको धारण कर, शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर ले ।
प्रश्न - धर्मेंविना धन जीवाः लभन्ते मे न वा प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि ये जीव विना धर्म के धन प्राप्त कर सकते हैं वा नहीं ? उ. वृष्टिर्न दृष्टास्ति यिना हि मेघव॒क्षो न दृष्टश्च विना सुबीजेः 'छाया न दृष्टास्ति बिना सुछत्रैःपुत्रो न दृष्टो जनविना हि ॥
न जन्म दृष्टं मरनविना च कीतिर्न वृष्टा वर विद्यया को। । शान्तिर्न दृष्टास्ति बिना विवेकःपौ न दृष्टश्च विना सुतैलेः॥
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दिनं न दृष्टंरविणा विना हि, ज्योत्स्ना न दृष्टा शशिना विनाच स्दात्मानुभूत्या हि बिना न मोक्षः तथा धनं नैव विना सुधमः
अर्थ – इस संसारमें बिना बादलोंकी वर्षा नहीं होती, बिना बछे बीजके वक्ष नहीं होता, बिना छत्रके छाया नहीं होती, बिना पिताके पुत्र नहीं होता, बिना मरणके जन्म नहीं होता, बिना श्रेठ विद्याके कीर्ति नहीं होती, बिना विवेकके शांति नहीं होती, बिना तेलके दीपक नहीं जलता, बिना सूर्यके दिन नहीं होता, बिना चंद्रमाके चांदनी नहीं होती, और विना स्वात्मान भव मोक्षको प्राप्ति नहीं होतो । उसी प्रकार बिना श्रेष्ठ धर्मके धनकी प्राप्तिभी कभी नहीं होती।
भावार्थ-- धनकी प्राप्ति पुण्यकर्मके उदयमे होती है। बिना पुण्यकर्मके उदय के धनकी प्राप्ति कभी नहीं होती, तथा पुण्य की प्राप्ति श्रेष्ठ धर्म धारण करनेसे होती है, बिना धर्मके आज-तक कभी किसीको पुण्यकी प्राप्ति नहीं हुई है, और न कभी हो सकती है। इस बातको सब लोग जानते हैं, दान देने से धन मिलता है, अथवा भगवन जिनेंद्रदेवकी पूजा करनेसे धनको प्राप्ति होती है । भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा करना और पात्रदान देना, ये दोनोंही कार्य गृहस्थोंके लिए सर्वोत्तम धार्मिक कार्य हैं । ये ही पुण्यके साधन है, और ये ही धन बा लक्ष्मीकी प्राप्तिके कारण है । यदि बास्तवमें देखा जाय तो पात्रदान और जिनपूजन इन दोनोंही कार्यों में अभिरुचि होना सम्यग्दर्शनका कार्य है, तथा सम्यकदर्शनके समान अन्य कोई कार्य पुण्य उपार्जन करनेवाला नहीं है, इसलिए जिस प्रकार मेघोंके होनेपरही वर्षा होती है, बीजके होनेपरही वृक्ष होते है, छत्रके होनेपर छाया अवश्य होती है, पिता कहलानेपर पुत्र अवश्य होता है, मरनेके अनन्तर इस जीवका जन्म अवश्य होता हैं, श्रेष्ठ विद्यासे कीति अवश्य फैलती है, विवेक होनेपर शांति अवश्य होती है, तेल होनेपर दीपक अवश्य जलता है, सूर्य के होनेपर दिन अवश्य कहलाता है, चंद्रमाके होनेपर चांदनी अवश्य होती है और स्वात्मानुभूति होनेपर मोक्षको प्राप्ति अवश्य होती है, उसी प्रकार पात्रदान वा जिनपूजन आदि धर्मके धारण करनेसे धनकी प्राप्ति अवश्य होती है, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको धनादिक सुखकी सामग्री प्राप्त करने के लिए धर्मको अवश्य धारण करना चाहिए।
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( शान्तिसुश्वासिन्धु )
प्रश्न- ब्राह्मणादिचतुर्वर्णचिन्हं मे वद कीदृशम् ?
अर्थ- अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय. वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णोके क्या-क्या चिन्ह है ? उ.- स ब्राह्मणो ब्रह्म च यः सुवेत्ति, ब्रवीति वा धर्मविधि जनाय
क्षात्रः प्रजानां सुखदः स एव, यः कर्मश जयति स्वशक्त्या स एव वैश्योपि मनःकृति यः, पुण्यं सदा तोलयतीति पापम् धर्माय द्रन्याय सदेति निद्या, त्रिवर्गसेवां कुरुते स शूद्रः ॥
अर्थ-- जो पुरुष ब्रह्म वा आत्माके शुद्ध स्वरूपको अच्छी तरह जानता है. उसको ब्राह्मण कहते हैं, अथवा जो भब्य श्रावकोक लिए धर्म विधिका निरूपण करता है, उसको ब्राह्मण कहते हैं। जो प्रजाको सुख दे. उसको क्षत्रिय कहते हैं, अथवा जो अपनी आत्मशक्तिके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंको जीत ले, उसको क्षत्रिय कहते हैं । जो अपने मनके परिणामोंको वा पूण्य-पापको सदाका लता है, उसका वैश्य महती हैं, और जो धमके लिए बा द्रव्य उपार्जनके लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इन तीनों वों की सेवा करता रहे, उसको शूद्र कहते हैं।
भावार्थ - इस संसारमें कर्मभूमिमें अनादिकालसे क्षत्रिय, वैश्य शूद्र ये तीन वर्ण चले आते हैं, विदेह क्षेत्र की कर्मभूमिमें भी सदाकाल तीन ही वर्ण रहते हैं। इस हंडावसपिणी कालमें जब भोगभूमिका समय व्यतीत होकर, कर्मभूमि प्रारंभ हुई थी तब भगवान् ऋषभदेवने विदेह क्षेत्रके समान यहां भी तीन ही वर्ण स्थापन किये थे, परंतु उनकी दीक्षा हो जानेपर उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने जब छहो खंड जीत लिए थे तब अपने अपार धनको दान देनेकी उनकी इच्छा हुई थी। उस समय क्षत्रिय वर्णमेसे जो व्रती श्रावक थे, उनकी परीक्षा करके उनको ब्राह्मणवर्णकी दीक्षा दी थी, अर्थात् यह ब्राह्मण वर्ण महाराज भरतने बनाया था। इस संसारमें दान लेनेयोग्य सुयोग पात्रही होते हैं, उन पात्रोंक तीन भेद होते हैं, समस्त पापोंका त्याग करनेवाले तथा पांच महाव्रत, तीन गप्ति, पांच समिति आदि पूर्ण चारित्रको पालन करनेवाले मुनिराज उत्तम पात्र कहलाते हैं । इन मुनिराजोंमें भी आचार्य, उपाध्याय साधुके भेदसे तीन भेद होते हैं। एस प्रकार अणुन त, गुणवत, शिक्षावत
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
आदि श्रावकोंके व्रतोंका पालन करनेवाले व्रती - श्रावक मध्यमपात्र कहलाते हैं । इन मध्यमपात्रोंमें जो विशेष व्रती होते हैं, जिनको दाल देने योग्य समझकर भरतने ब्राह्मण संज्ञा दी थी, जो यजय - याजन करने काही मुख्य काम करते हैं. धर्मविधि कराना जिनका मुख्य कर्तव्य है, सिवाय इसके जिनकी और कोई जीविका नहीं है, उनको ब्राह्मण कहते हैं, ये ब्राह्मण मध्यमपाय कहलाते है, तथा सम्यदृष्टि श्रीक जघन्यपात्र कहलाते हैं। इसप्रकार ब्राह्मणोंका लक्षण बतलाया है ।
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ब्राह्मण शब्द ब्रह्म शब्द से बना है, ब्रह्म शब्दका अर्थ आत्मा है, जो आत्माके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है. वह अपने आत्माका कल्याण शीघ्रही कर लेता है । जिस प्रकार भगवान अरहंतदेव अपन आत्माका कल्याण कर लेनेके कारण पूज्य कहलाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणभी अपने आत्माके कल्याण में लगे रहते हैं, तथा अन्य धावकोंको आत्मकल्याण में लगाते रहते हैं, इसलिए वे ब्राह्मणभी मान्य और पूज्य कहलाते हैं । इसप्रकार जो प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, प्रजाको सुख पहुंचाते हैं, सब प्रकारके उपद्रवोंसे प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, परराष्ट्र से प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, और अपने प्रजाके व्यापार आदिको बढाते रहते हैं, उनको क्षत्रिय कहते हैं अथवा जो कर्मरूपी शत्रुओंको जीतकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उनकोभी यथार्थ क्षत्रिय कहते हैं । वास्तव में क्षत्रियका अर्थ शूर-वीर होता है, और शूर-वीर वही कहलाता है, जो सबसे प्रबल कर्म - शत्रुओंको जीत ले, अर्थात् कर्मीको नष्ट कर मोन प्राप्त कर ले | योद्धाओंको जीतनेवाले बहुत थोडे मिलते हैं. इसलिए कर्मों को जीतनेवालेही यथार्थं क्षत्रिय कहलाते हैं। इसप्रकार जो पुण्यपापको सदाकाल तोलता रहे, कभी पापका बोझ अधिक न होने दे, अथवा जो मनके परिणामोंको सदा तोलता रहे, अशुभ परिणाम न होने दे. शुभ परिणाममेंही सदाकाल अपनी प्रवृत्ति रक्स्वे, उसको वैश्य कहते हैं, जिसप्रकार वैश्य अपना हिसाब बराबर रखता है, उसमें घाटा नही होने देता, उसीप्रकार जो अपने मन-वचन-कायसे पाप कार्योंको नहीं होने देता. सदा पुण्य कार्यमेंही लगा रहता है, उसको वैश्य कहते हैं । इस प्रकार जो धर्म के लिए ब्राह्मणादिकों की सेवा करते हैं, तथा जीविकाक्रे लिए भी क्षत्रिय वैश्योंकी सेवा करता रहता है। मेवा करनाही जिसकी मुख्य जीविका है, उसको शूद्र कहते हैं ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- यहांपर इतना और समझ लेना चाहिए कि ये वर्ण जीविकाके हिसाबसे निर्माण होते हैं, तथा जातिया अनादि कालसे चली आती है । विवाह सम्बन्ध अपनी-अपनी जातिमें होता है, और जीविका वर्णानुसार होती है। वर्णके साथ विवाहका कोई मम्बन्ध नहीं है । जिस समय महाराज भरतने क्षत्रियों मे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की थी, उससे पहले जाति व्यवस्था नियत थी । ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करते समय
काही र राना गतः के ग अहिंसाब्रतको धारण करने वाले व्रती थे, उनकोही ब्राह्मण संज्ञा ही थी, उसमें जातियोंका कोई ध्यान नहीं रखना गया था। इसलिए उन ब्राह्मणोंमें क्षत्रिययोंकी कितनी ही जातियां आ गई तथा उन्हीं जातियोंका मेष भाग क्षत्रिय वर्णमही बना रहा था । इस प्रकार एकही जातिके लोग ब्राह्मण वर्णम भी आ गये थे, और क्षत्रियवर्ण में भी बने रहे थे, तथा एकही जाति होनेक कारण उन दोनों वर्गों में विवाह-सम्बन्ध बना रहा था । इसीप्रकार जब भगवान वृषभदेवने वर्ण व्यवस्था नियत की थी-तब अनादि कालसे चले आये एक-एक जातिके लोगोंमें से कुछ भाग वैश्य वर्णमें रह गया था और कुछ भाग क्षत्रिय वर्णमें जा मिला था तथा एकही जाति होने के कारण उन दोनों में विवाह सम्बन्ध बना रहा था । इसप्रकार जातिव्यवस्था भित्र है, और वर्ण व्यवस्था भिन्न है । विवाहादिक जातिव्यवस्थाके आधीन है, और जीविका वर्णव्यवस्थाके आधीन है।
प्रश्न- अन्तविशुद्धिहीनाश्च जना मे वद कीदृशाः ?
अर्थ-- अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो लोग अन्तरंग विशुद्धिको धारण नहीं करते वे कैसे हैं। उ. अन्तविशुद्धिः खलु यस्य बाह्मा शुद्धिर्भवेत् सौख्यफरा यतार्था अन्तविशुद्धिःप्रथमं च कार्या स्याद्वाह्यशुद्धिश्च यथाक्रमेण ।। ये केपि मूढा गमयन्ति कालं अन्तविशुद्धया हि विना वराकाः वथैव तेषां च भवेद्विचारः क्रियाकलापो विफलं नजन्म ॥ ___ अर्थ- जो पुरुरु अन्तरंग शुद्धिको धारण कर लेता है, उसके सुख देनेवाली और यथार्थ बायविशुद्धि अपनेआप हो जाती है । इसलिए प्रत्येक भन्यजीवको सबसे पहले अन्तरंग विशुद्धि धारण करनी चाहिए जिससे यथाक्रमसे ब्राह्मविशद्धिभी पूर्ण हो जाय । जो मूर्ख और नीच
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मनुष्य अपने अन्तरंगको बिना विशुद्ध किये अपना समय व्यतीत कर देते हैं, उनके सब विचार व्यर्थ हो जाते हैं, उनकी सब क्रियायें निष्फल हो जाती हैं, और उनका मनुष्य जन्म निष्फल हो जाता है ।
भावार्थ- काम, क्रोध, मानो आदि विकारोंका त्याग कर देना अन्तरंग शुद्धि कहलाती है, तथा शरीरको शुद्ध रखना, वचनको शुद्ध रखना, क्षेत्रको शुद्ध रखना, द्रव्यको शुद्ध रखना आदि बाह्य शुद्धि कहलाती हैं । इनमें से अन्तरंग शुद्धिके होनेपर बाह्य शुद्धि अवश्य होती है, परंतु बाह्य शुद्धि के होते हुए अन्तरंग शुद्धि हो भी सकती है. और नहीं भी हो सकती है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अन्तरंग शुद्ध धारण करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए | अन्तरंग शृद्धिको धारण करनेसे आत्मा पवित्र होता है, आत्माकं पवित्र होने में अशुभ कर्मोका बंध नहीं होता, केवल शुभकर्मीका बंध होता रहता है, तथा कषायोंकी तीव्रता न होनेसे उन बंधकी स्थितिभी बहुत कम पडती है । इसप्रकार अन्तरंग शुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषके कर्मोंका समुदाय बहुत कम रह जाता है, तथा उस बचे हुए कर्मोके समुदायको भी वह पुरुष अपने ध्यान तपश्चणके द्वारा बहुत शीघ्र नष्ट कर देता है। और इसप्रकार वह बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अन्तरंग शुद्धि धारण करनी चाहिए । काम क्रोधादिक समस्त विकारोंका त्याग कर आत्माको शुद्ध और पवित्र बना लेना चाहिए। ऐसा करनेसेही मनुष्य जन्म सफल होता है, समस्त क्रियाए सफल होती हैं, और शुभ परिणामभी सफल होते हैं। जो लोग अन्तरंग में तो तीव्र कषाय रखते हैं, परन्तु दुसरोंको ठगनेके लिए उपरसे कपायोंका अभाव दिखलाते हैं, वे लोग दूसरोंको जितना ठगते हैं, उससे बहुत अधिक अपने आत्माको ठगते हैं। क्योंकि तीव्र कषाय होते हुए भी अपने आत्मामें कषायोंका अभाव दिखलाना तीव्र मायाचारी है, और उस तीव्र मायाचारीका फल निगोद में जा पड़ना है । अतएव मायाचारी में न पड़कर यथार्थ दृष्टिसे अपने कषायों का त्याग कर देना प्रत्येक भव्यजीवका कर्त्तव्य है, और यही मोक्षका साधन है ।
प्रश्न - बाह्यान्तः शुद्धिचिन्हं कि वद मे शर्मंद प्रभो ?
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( शान्तिमुधासिन्धु )
___ अर्थ- हे कल्याण करनेवाले भगान् ! 5. कृष कर दास और अंतरंगशुद्धिका लक्षण बतलाइए? उ.- त्यागेन कोपाविचतुष्टयानां मिथ्यात्वहास्यादिविमोहकानाम् अन्तर्विशुद्धिः सुखदा सदैव क्षेत्रादिवास्तुत्यजनेन बाह्या ३५४
अर्थ- कोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति शोक, भय, जगप्सा, स्त्रीवेद, पंवेद, नपंसकवेद और मोहादि कषायनोकषायोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे सुख देनेवाली अंतरंगशुद्धि होती है, तथा खेत, मकान, सोना, चांदी आदि बाद्य परिग्रहका सर्वथा त्याग कर देनेसे बाह्यशुद्धि होती है।
भावार्थ- चौदह प्रकारके अंतरंग परिग्रहोंका त्याग कर देना अंतरंगशुद्धि है, और दश प्रकार के बाह्य परिग्रहोंका त्याग कर देना, बाह्यशुद्ध कहलाती है। इस संसारमें जितने पाप होते हैं, वे सब इन परिग्रहोंसेही होते हैं । जो मनुष्य इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देता है, उसका आत्मा पवित्र हो जाता है, और शरीरभी पवित्र हो जाता है। दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे आगामी कालमें आनेवाले सब कर्म रुक जाते हैं, और शेष कर्म ध्यानादिकके द्वारा नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अनरंग और बाह्यशुद्धिको धारण करनेवाला पुरुष शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको दोनों प्रकारकी शुद्धियां धारणकर शीघ्रही अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए । यही मनुष्य जन्म प्राप्त करनेका मुख्य फल है।
प्रश्न- कोऽधर्मो बास्ति तद्धारी वद मे सिद्धये विभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब मेरा कल्याण करनेके लिए अधर्मका स्वरूप कहिए और अधर्मको धारण करनेवालेका स्वरूप कहिए ? उ.- त्यक्त्वा स्वधर्म परधर्ममेव गृहाति यः कोपि विवेकशून्याः स एव लोके चतुरोपि मूों धीरोपि भीरुः परमार्थवृष्टया ।। दुःखप्रयः क्रोधचतुष्टयः को प्रोक्त प्रमोहः परधर्म एव । समस्तसंतापविकारहेतुः ज्ञात्वेति न स्यात्परधर्मधारी॥३५६ ।।
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ- जो कोई विवेक रहित मनुष्य अपने आत्माका यथार्थ धर्म वा स्वभावको छोडकर मुद्गलादिक परपदार्थोंके धर्मको स्वीकार कर लेता है, वह पुरुष इस संसार में परमार्थ दृष्टिसे चतुर होकर भी मूर्ख कहलाता है । अथवा धीर-वीर होकर भी भयभीत वा डरपोक कहलाता है । इस संसार में सब प्रकारके दुःख देनेवाले, सब प्रकारके संताप तथा विकार उत्पन करनेवाले कोध, मान, माया, लोभ और मोह परधर्म कहलाते हैं। इसप्रकार परधर्मका स्वरूप समझकर परधर्मको कभी धारण नहीं करना चाहिए ।
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भावार्थ- जीवके दो भेद हैं. एक संसारी और दूसरा मुक्त | जो अपने-अपने कर्मोके उदयसे संसार में परिभ्रमण करनेवाला जीव है. उसको संसारी जीव कहते हैं, तथा जो जीव अपने समस्त कर्मोंको नष्ट कर अपने आत्माको अत्यंत शुद्ध बनाकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है. उसकी मुक्त जीव कहते हैं। मुक्त श्रीवास्वभाव आत्माला शिवाव निजधर्म कहलाता है, और मंसारी जीवोंका स्वभावविभाव वा आत्माका परधर्म कहलाता है । इसका कारण यह है कि जो स्वभाव विना किसी दूसरे के निमित्त केवल आत्मा शुद्ध स्वरूप उत्पन्न होता है, उसकोही स्वभाव कहते हैं, तथा जो भाव दूसरे पदार्थोंके निमित्तमे आत्मा अशुद्ध स्वरूपमें उत्पन्न होता है, उसको विभाव वा परधर्म कहते हैं । जैसे स्फटिककी जो सफेद आभा दिखलाई पडती है, वह उसकी निजकी आभा है, परंतु यदि उस स्फटिकके पीछे लाल रंगका कोई पदार्थ रख देते है, तो उस स्फटिककी आभा लाल दिखलाई पडती है। यदि उस स्फटिकके पीछे पीले रंगका कोई पदार्थ रख देते हैं, तो उस स्फटिककी आभा पीली दिखाई देने लगती है। इसप्रकार उस स्फटिककी जो लाल व पीली आभा है, वह स्फटिककी आभा नहीं हैं, किंतु उस स्फटिकसे सर्वथा भिन्न ऐसे उस लाल वा पोले पदार्थकी आभा है, इसलिए वह आभा दूसरेकी मामा कहलाती है। इसप्रकार शुद्ध आत्माका स्वभाव, स्वभाव वा स्वधर्म कहलाता है और अशुद्ध आत्माका स्वभाव विभाव वा परधर्म कहलाता है । इसका भी कारण यह है, कि अशुद्ध आत्माका स्वभाव क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, काम आदि विकार कहलाते हैं, वे सब विकार कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होते हैं ।
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जिस आत्मामें कर्मोंका उदय नहीं होता, उस आत्मामें क्रोधादिक विकार कभी उत्पन्न नहीं हो सकते । क्रोधादिक विकार जब उत्पन्न होंगे, तब बमोदो उदयसेहो हो । इसलिए वे विकार भारभाव नहीं कला सकते। यदि वे विकार आत्माके कहलाने लगे तो शुद्ध आत्मामभी उत्पन्न होने चाहिए । परंतु शुद्ध आत्मा में वा कर्म रहित आत्माम ये विकार उत्पन्न नहीं होते । वे विकार कर्मोके उदयसेही होते हैं, इसलिए वे विकार कर्मोकेही कहलाते हैं। कर्म पांदगलिक हैं, इसलिए उन विकारोंकोभी पोद्गलिक कहते हैं । परपदार्थको ग्रहण करना अपराध कहलाता है, इसलिए क्रोधादिक परधर्मोंको धारण करनेवाला जीव इस संसारमें अपराधी गिना जाता है, और अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहता है। इसलिए क्रोधादिक परधर्मको कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। इनका सर्वथा त्याग कर आत्मा के निज स्वभाव में लीन होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे कि यह आत्मा निराकुल होकर सुखी हो जाय ।
प्रश्न- कस्मै जीवाय कः स्वामिन्न रोचते वदाधुना?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि किस-किस जीवको क्या-क्या अच्छा नहीं लगता? उ.-सुरक्तपाय च पयो द्रुणाय श्वधस्य वै गामिन एवं वृत्तम् । पतिःकुपल्यै किरये खराय न रोचते मोदक एव मिष्टः ॥ भोगः सरोगाय खलाय नीतिः शुनेन सपिर्बधिराय गीतम् । न रोचतेऽर्कः किल कौशिकाय तथैव मूर्खाय निजात्मधर्मः ॥ ___ अर्थ- जिस प्रकार जोंक और बीछूको दूध अच्छा नहीं लगता, नरकगामी पुरुषको सम्यकचारित्र अच्छा नहीं लगता, कुपत्नी बा व्यभिचारिणी स्त्रीको पति अच्छा नहीं लगता शुकर, और गधेको मीठ लड्डु अच्छे नहीं लगते, रोगी पुरुषको भोग अच्छे नहीं लगते, दुष्ट पुरुषको न्याय और नीति अच्छी नहीं लगती, कुत्तेको धी अच्छा नहीं लगता, बहरेको गीत अच्छे नहीं लगते और उलकको सुर्य अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार मुर्ख पुरुषको अपने आत्मा का स्वभाव अच्छा नहीं लगता।
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भावार्थ- जोंकको चाहे दधपरही लगा दिया जाय तो भी वह दूध छोड दती है, और खूनही पीती है, बीछूभी दूध छोड़ देता है। इसप्रकार नरकगामी पुरुषको पापही अच्छे लगते हैं, पापोंका त्याग वा सम्यक्त्रारित्रको वह कभी धारण नहीं कर सकता । व्यभिचारिणी स्त्रीको अपना जार पुरुषही अच्छा लगता है, यदि अपना पति सुंदर, गुणवान हो, तो भी अच्छा नहीं लगता। सुअर और गधेको लड्ड अच्छे नहीं लगते, उनको तो रेपर चरनाही अच्छा लगता है। रोगी पुरुषको भोग कभी अच्छे नहीं लग सकते । दुष्ट पुरुषोंको न्याय व नीति कभी अच्छी नहीं लगती, उनको तो अन्याय और उपद्रवही अच्छे लगते हैं । इसप्रकार कुत्ता घीको अच्छा नहीं समझता, बहिरा पुरुष गीत-बाजेको अच्छा नहीं समझता, और उल्लूको सूर्य अच्छा नहीं लगता. उल्लको तो रातही अच्छी लगती है । इस प्रकार आत्माके स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी पुरुषको आत्माका शुद्ध स्वरूप कभी अच्छा नहीं लगता । उसको क्रोधादिक कषायही अच्छ लग सकते हैं, इसलिए प्रत्येक भन्यजीवको अपने आत्माके स्वरूपको समझनेका प्रयत्ल करना चाहिए. जिससे कि शीघ्रही अपना अज्ञान नष्ट होकर आत्माका कल्याण हो ।
प्रश्न- 'भ्रमत्ययं गुरो जीवः किमर्थं संसृतौ वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यह जीव इस संसारमें किस कारणसे परिभ्रमण करता है ? उत्तर - जिम्हायोनिप्रसंगेनाष्टांगुलमानकेन च ।
शूरो वीरश्च धीरोपि शक्तोपि चतुरोपि च ॥ ३५९ ॥ धर्म स्थर्मोक्षदं त्यक्त्वा करोति भवदां कृत्रिम् । ततस्तन्मोचनार्थ भो सबुद्धि हृदि धारय ।। ३६० ॥
अर्थ- यद्यपि इस संसारमें पांचों इंद्रियोंके विषय दुःख देनेवाले और संसारमें परिभ्रमण कराने वाले हैं, तथापि इन पांचों इंद्रियों में से जिव्हा इंद्रिय और योनि बा लिंग इंद्रिय ये दो इंद्रियां बहत प्रबल हैं। यद्यपि दोनों इंद्रियां चार-चार अंगुलकी है,तथापि इन दोनों इंद्रियोंकेही कारण शूरवीर, धीरबीर, समर्थ और चतूर मनुष्य भी स्वर्ग मोक्ष देनेवाले धर्मका त्याग कर देता है, और जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाले
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कार्य किया करता है। इसलिए हे भव्य ! अब तू इन इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करनेके लिए अपने हृदय में सद्बुद्धि धारण कर ।
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भावार्थ - यद्यपि पांचों इंद्रियोंके विषय अत्यंत प्रवल हैं और इनके विषयों में फंसकर यह प्राणी अपने जीवनतककोभी गवां देता है, देखो स्पर्शनेन्द्रियके विषयके वशीभूत होकर हाथी अपनी स्वतंत्रता खो देता है, तथा भूख प्यास आदिको वेदना सहन करता हुआ जन्मभर के लिए परतंत्र हो जाता है, रसना इंद्रियके वशीभूत होकर मछली अपना कंठ छिपाकर मर जाती है, प्राण इंद्रियके वशीभूत होकर भ्रमर कमलमें दबकर मर जाता है, चक्षु इंद्रिय के वशीभूत होकर पतंगा दीपकमें जलकर मर जाता है, और कर्मेद्रियके वशीभूत होकर हिरण अपना जीवन गवां देता है । इसप्रकार एक-एक इंद्रियके वशीभूत होकर भी अनेक प्राणी महादुःख पाते हैं, परंतु जो लोग पांचों इंद्रियोंके वशीभूत हो जाते हैं, उनकी क्या दशा होती होगी इस बातको सर्वजही जान सकते हैं, यद्यपि यह मनुष्य पांचों इंद्रियोंके वशीभूत होता है, तथापि चार अंगुल जिव्हा इंद्रियके कारण यह मनुष्य अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता रहता है । जिव्हा इंद्रियके कारण यह मनुष्य अनेक प्रकारके अभक्ष्य भक्षण करता है, मद्य, मांस, मधुका सेवन करता है, बड, पीपर, गूलर आदि अनेक जीवोंसे भरे हुए फलोंको भक्षण करता है, आलू, रतालू, शकरकन्द, मूली, गाजर आदि कितने ही प्रकारके कन्दमूलों को भक्षण करता है, और न जाने क्या-क्या पदार्थ व किस-किस हाथके बने हुए पदार्थ भक्षण कर जाता है। इन अभक्ष्य पदार्थोंके भक्षण करनेसे अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, उससे महापाप उत्पन्न होता है । इसके सिवाय अभक्ष्य भक्षण करनेवालोंको लालसाएं सदाकाल बढती हैं। उन लालसाओं के कारण वह तीव्र अशुभ कर्मोंका बंध करता है, और उनके उदय होनेपर महादुःख भोगा करता है । इसप्रकार स्पर्शनेन्द्रिय वा लिंगेन्द्रियके कारण यह जीव अनेक प्रकारके अनर्थ करता रहता है, इसी इंद्रियके वशीभूत होकर वह बेश्यासेवन करता है, परस्त्री सेवन करता है, और जाने क्या-क्या अनर्थ और अन्याय करता है। इतना सब करनेपर भी उसकी तृष्णा दिन-रात बढ़ती रहती है, और तीव्र अशुभ कर्मो का बंध करती हुई महादुःख दिया करती है । वेद्यासेवन करनेवाला
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पुरुष अपने सूतक पातकको कभी बंद नहीं कर सकता। वेश्या मेदन करनेवाला तथा परस्त्रीसेवन करनेवाला पुरुष स्थान-स्थानपर अपमान रहन करता है, स्थान-स्थानपर मार खाता है, और कभी-कभी अपना जीवनभी गवां देता है । इसलिए ये दोनों इंद्रियां यद्यपि बहुत छोटी हैं. तथापि नरक निगोदके महादुःख देनेवाली हैं। इसलिए हे भव्य ! अब तु भी इन इंद्रियों विषयोंका सर्वथा त्याग कर, और अपने हृदय में श्रेष्ठ बुद्धि धारण कर, अपने आत्माका कल्याण कर । यही प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है ।
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प्रश्न- कियत्कालं भवेत् क्रोधः कस्य जन्तोर्वद क्रमात् ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि किम किम जीवका क्रोध कितने-कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - कार्यवशात्क्षणं क्रोधो मुनीनां दुःखदो भवेत् ।
व्रतिनां पक्षमात्रोव्रतिनां मासषड्युतः ।। ३६१ ॥ मिथ्यात्वमूढजन्तूनां चिरं तिष्ठेद् भवप्रदः । ज्ञात्वेति पूर्ववृत्तान्तं क्रोधः कार्यो न दुःखदः ॥ ३६२ ।। बंधहेतुर्भवेन्मोह: क्रोध एव प्रमाणतः ।
ततो हेयः सदा निद्यः प्राणधाती प्रतिक्षणम् ॥ ३६३ ॥ अर्थ - इस संसारमें दुःख देनेवाला यह क्रोध मुनियोंके किसी विशेष कारणसेही होता है, और वह क्षणभरही ठहरता है। इसीप्रकार व्रती श्रावकों का क्रोध पन्द्रह दिन तक ठहरता है, अव्रती श्रावकों का को छह महीने तक ठहता है, और जन्म मरणरूप संसारको बढानेवाला मिथ्या दृष्टियों का क्रोध चिरकाल तक ठहरता है। यही समझकर भव्यजीवोंको दुःख देनेवाला यह कोध कभी नहीं करना चाहिए। इस संसारम तीव्र अशुभकमौका बंध करनेवाला मोह, तथा क्रोधही है, और यह मोह वा कोही प्रतिक्षणमें आत्माका घात करनेवाला है, और अत्यन्त निद्य है, इसलिए इन क्रोध और मोह दोनोंकाही त्याग कर देना चाहिए ।
भावार्थ - क्रोध के चार भेद है, अनंतानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण कोष, प्रध्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध । अनंतानधी
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शोध मिथ्यादष्टियोंको होता है, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध अबनी श्रावकोंको होता है, प्रत्याख्यानावरण क्रोध व्रती श्रावकोंको होता है, और मंज्वलन क्रोध मुनियों को होता हैं । अनंतानुबंधी क्रोध पत्थरकी रेखाके समान बहुत दिन तक रहनेवाला होता है । अप्रत्याग्थ्यानाबरण श्रोध हलकी रेखाके समान ह महीने बक रहनेवाला होता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध गाडीकी लकीरके समान पन्द्रह दिन तक रहनेवाला होता है, और संज्वलन क्रोध पानीकी लकीरके समान क्षणमें नष्ट हो जानेवाला होता है। मुनि लोग कभी क्रोध नहीं करते। यदि किमी विशेष कारणसे उन्हें क्रोध आ जाता है, तो वह क्षणभरही ठहरता है । क्षणभरके बाद अवश्य नष्ट हो जाता है, क्योंकि वह संज्वलन क्रोधही होता है । उसकी स्थिति भी पानी की लकीरके समान क्षणभर है । इसप्रकार प्रती श्रावकोंका झोध पन्द्रह दिन ठहरता है, अव्रती सम्यग्दृष्टीका क्रोध छह महीने तक ठहरता है, और मिथ्यादृष्टीका क्रोध अनंतकाल तक ठहरता है । यही सब समझकर क्रोधका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यह क्रोध परजीवोंका तो घात करताही है, किंतु अपने आत्माका भी घात करता है। यही समझकर इसका त्याग करना कल्याणकारी है।
प्रश्न- कस्यास्तित्वाद् गुगे ब्रूहि सर्व विश्वो बशीभवेत् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किसके होनेसे यह समस्त संसार अपने बशमें हो जाता है ? उत्तर - करुणा शांतिदा शक्तिः भक्तिश्च भवनाशिनी ।
धीरता चोद्यमः शांतिः शौर्य च दक्षता शुचिः॥३६४॥ तत्त्वज्ञतात्मबुद्धिः स्यान्मिथः मैत्री सुखप्रदा। इत्यादि भावना यत्र तत्र विश्वो वशी भवेत् ॥ ३६५॥
अर्थ- करुणा, शांति देनेवाली शक्ति, संसारका नाश करनेवाली भक्ति, धीरता, उद्यम, शांति, शूरता. चतुरता, पवित्रता, तत्त्वज्ञता, आत्मबुद्धि, सुख देनेवाली परम्परकी मित्रता आदि भावनाएं जहां-जहां रहती हैं, वहांपर यह समस्त संसार अपने वश में हो जाता है।
भावार्थ- करुणा दयाको कहते हैं । जहां पर समस्त जीवोंपर दया धारण की जाती है, वहांपर समस्त जीव अपने वश में हो जाते हैं । यह
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दया गुण समस्त जीवोंका कल्याण करनेवाला है, और इसीलिए सब जीव अपने आधीन हो जाते हैं । शक्तिके आधीन भी सब जीव हो जाने हैं. यदि वह शक्ति शांति उत्पन्न करनेवाली हो, तो फिर उसके बाहर कोई जीव हो ही नहीं सकता । भगवान् अरहंत देवमें अनंत शक्ति होती है, और वह समस्त जीवोंको शांति उत्पन्न करनेवाली होती है। इसीलिए भगवान् अरहंत देवकी आज्ञाके विरुद्ध इंद्रादिक देवभो नहीं चल सकते हैं, किंतु इंद्रादिक देव सदाकाल उनकी भक्ति में लगे रहते है, इससे सिद्ध होता है कि शांति उत्पन्न करनेवाली शक्तिभी समस्त संसारको बश करनेवाली होती है। देव शास्त्र गुरुकी भक्ति जन्म मरणरूप मंसारको नाश करनेवाली होतो है। जहां देव शास्त्र गुरुको अचल भक्ति होती है, वापर शत्रु अपने वश में हो जाते हैं। इसका उदाहरण स्वामी समनभद्रकी भक्ति है। जिस समय स्वामी समंतभद्रको भस्मकच्याधि हो गई थी, और वे बनारस जाकर वहांके राजा शिवकोटिके शिवमंदिर में पुजारी बनकर रहे, शिबके लिए आया हुआ सब अन्न भक्षण कर जाते थे, इसके पहले पूजारियोंने किसी तरह यह बात जान ली थी और राजाको सब समाचार कह दिया था । उस समय राजाने समंतभद्रसे कहा था कि, हम इस अपराध के बदले और कुछ नहीं चाहते, केवल हमारे सामने महादेवको एक बार नमस्कार कर लो । यदि तुम महादेवको नमस्कार न करोगे तो तुमको कठोर दंड दिया जायगा। उस समय स्वामी समंतभद्रने बड़े आत्मगौरबके साथ कहा था कि, में नमस्कार तो कर लंगा, परंतु तुम्हारा यह महादेव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता। मेरे नमस्कारसे वह फट जायगा । इसपर राजाने कहा था कि अच्छा महादेवको फट जाने दो, परंतु तुम नमस्कार अवश्य करो । स्वामी समंद्रभने इस बातको स्वीकार कर लिया और उस महादेवको लोहेकी मोटी जंजीरोंसे जकडवा दिया। स्वामी समंतभदको अपनी देवभक्तिपर अटल विश्वास था और इसीलिए उन्होंने ऐसा किया । तदनंतर समस्त राजा-प्रजाके सामने वे स्वयंभस्तोत्रकी रचना करने लगे। स्वयंभूस्तोत्र में चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति है. और एक-एक तीर्थकरकी स्तुति में पांच-पांच या दस-दस श्लोक हैं। इस प्रकार स्तुति करते-करते उन्होंने सात तीर्थंकरोंकी स्तुति कर डाली परंतु इतने श्लोकोंमें नमस्कार वाचक कोई शब्द नहीं आया । जब उन्होंने भगवान चंद्रप्रभूको स्तुति करता
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प्रारंभ किया और पहलेही श्लोक में वंदना करनेवाला शब्द आया, उसी समय वह महादेवकी मूर्ति फट गई, और उसमें से भगवान चंद्रप्रभकी चतुर्मुखी प्रतिमा प्रगट हो गई। यह देवभक्तिका उमडता हुआ महा सागर कितना अगाध है, यह ऊपर लिखी घटनासे मालूम होता है । यह देवभक्तिका अतिशय देखकर महाराज शिवकोटिके परिणाम बदल गये थे और उन्होंने वितीक्षा लेकर आराधनासार नामके महाग्रंथ की रचना की थी। जिस देव शास्त्र गुरुकी भक्ति से बडे-बडे देव भी वश हो जाते हैं, उस भक्ति से समस्त संसार वश हो जाय, इसमें आश्चर्य ही क्या है | इसप्रकार धीरता, उद्यम, शांति, शौर्य, चतुरता, पवित्रता, तत्त्वज्ञता, आत्म बुद्धि, परस्परमंत्री आदि आत्माके बहुतसे ऐसे गुण हैं, जिसके आधीन यह समस्त संसार हो जाता है। अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन गुणोंको धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए जिससे यह समस्त संसार भी वशमें हो जाय और मोक्ष भी अपने आप प्राप्त हो जाय । प्रश्न ये
परान् तोषणार्थं की यतन्ते वद कीदृशाः ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो लोग अन्य सब जीवोंको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करते रहते हैं वे कैसे हैं ? उ. जीवो न दृष्टोऽखिलतोषकारी, हेतुस्तथा न प्रबलो ह्यसूनाम् । तथापि ये तोषयितुं यतन्ते, ते मूर्ख मुख्याः प्रतिभान्त्यनाथाः ॥ भक्त्येकजीवे सति तोषितेऽन्ययः करोति कोपं खलु निन्दतीह । शात्वेति पूर्वोक्तविधि तथैव, चिन्ता च मुक्त्वाऽखिलजन्तुशान्तेः । निजात्मसिद्धि परिणामशुद्धि, कुर्वन्तु नित्यं स्वरसस्य पानम् । निम्वन्तु कुप्यन्तु नमन्तु कोपि तथापि धीरा न चलन्तु धर्मात् अर्थ इस संसार में कोई भी ऐसा जीव दिखाई नहीं पड़ सकता जो समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेवाला हो । क्योंकि समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेवाला कोई प्रबल हेतु नहीं है, तथापि जो जीव समस्त
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१ बनारस में अब भी महादेवका एक मंदिर फटे महादेवक नामसे प्रसिद्ध है |
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जीवोंको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करते हैं वे मखों में मुख्य कहलाते हैं, और अनापसे जान पड़ते हैं। इसका भी कारण यह है कि अत्यन्त भक्तिके द्वारा किसी एक जीवको संतुष्ट करता है, तो अन्य जीव उसपर क्रोध करते हैं अथवा उसकी निंदा करते है । इस प्रकार ऊपर लिखी नीतिको समझकर समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेकी चिताका त्याग कर देना चाहिए, तथा अपने आत्माकी सिद्धि, अपने परिणामोंकी गद्धि और अपने आत्मरसका. वा अपने आत्मजन्य आनंदरसका पान सदाकाल करते रहना चाहिए । ऐसे करते रहने पर चाहे कोई निदा करे, चाहे कोई क्रोध करे, और चाहे कोई नमस्कार करे, तथापि धीरवीर पुरुषोंको अपने धर्मसे कभी चलायमान नहीं होना चाहिए।
भावार्थ- इस संसारमें सभी तरहके मनप्य हैं । कितनेही सज्जन हैं, और कितनही दुर्जन हैं। कितनेही मूर्ख हैं, और कितनही विद्वान् है। कितनेही धनी हैं, और कितनेही निर्धन हैं । यदि कोई पुरुष सज्जनोंको संतृष्ट करता है तो दुर्जन मष्ट हो जाता है। यदि कोई किसी विद्वानको संतुष्ट करता है, तो मूर्ख रुष्ट हो जाता है। यदि कोई किसी निर्धनको संतुष्ट करता है, तो धनी रुष्ट हो जाता है, तथा इस घमारमें ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे सज्जन-दुर्जन दोनों संतुष्ट होजाय अथवा धनी-निर्घनी दोनो संतुष्ट हो जाम अथवा विद्वान-मूर्ख दोनों संतुष्ट हो जाय। क्योंकि जिस कार्यसे विद्वान् संतुष्ट होते हैं उससे मूर्ख कभी संतुष्ट नहीं हो सकते जिससे सज्जन संतुष्ट होते हैं उसीसे दुर्जन लोग कभी संतुष्ट नहीं हो सकते । इस प्रकार विचार करनेसे यही मालूम होता है कि इस संसारमें कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे सभी लोग संतुष्ट हो जाय । इसलिए सबको संतुष्ट रखनेका प्रयत्न करना भर्खता है। प्रत्येक भव्यजीवको संतुष्ट करने की चिंता छोड देनी चाहिए । तथा अपने आत्माका कल्याण करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने आत्माका कल्याण करने के लिए अपने परिणामोंको शुद्ध रखना चाहिए, समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिए, और शुद्ध परिणामोंसे अपने शुद्ध आत्माका ध्यान कर आत्मजन्य आनंदका स्वाद ले लेना चाहिए । यही मोक्षका उपाय है। भव्यजीवको यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कोई अपनी निंदा करे वा प्रशंसा करे अथवा क्रोध करे अथवा कृपा रक्त्रे परंतु अपने आत्मधर्नमे कभी चलायमान नहीं होना चाहिए, यही भाजीवका मुख्य कर्तव्य है।
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प्रश्न- स्वात्मरसेन शून्यो यः स बद मेऽस्ति कीदृश: ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर मेरे लिये बतलाइए कि जो मनुष्य अपने आत्मजन्य आनंद रसका स्वाद नहीं लेता वह कैसा है ? उ. कौ यो यदि स्यात्स्वरसेन रिक्तः स ध्यान लोगोपि बकप्रमाणः मासोपवासेन तोपि भोगी सुसत्यवक्ता नृतभाषको हि ॥ बने निवासीत्यपि हयवासी सन्तोषशीलोपि सदाभिलावी । स्यादुद्ब्रह्मचारी मिथुनाभिलाषी ज्ञात्वेति न स्यात्स्वरसेन रिक्तः
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अर्थ संसारको अनंद रसका आस्वाद नहीं करता, वह यदि ध्यान में तत्पर रहता है, तो भी बगुलावे समान समझा जाता है । यदि वह महीने दो महीनेका उपवास धारण करता है, तो भी वह भोग करनेवालाही माना जाता है । यदि वह सत्यभाषण करता है, तो भी वह मिथ्याभाषण करनेवालाही माना जाता है, यदि वह बनमें रहता है, तो भी घरमें रहनेवालेके समान गृहस्थही कहलाता है। यदि वह संतोष धारण करता है, तो भी कह अभिलाषीही कहलाता है, और यदि वह ब्रह्मचारी है, तो भी वह मैथुन सेवन करनेकी इच्छा करनेवालाही कहलाता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने अत्मजन्य आनंदरसका आस्वाद लेनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, आत्मजन्य आनंद रससे शून्य कभी नहीं रहना चाहिए।
भावार्थ - ध्यान करना, तपश्चरण करना, उपवास करना, सत्यभाषण करना, बनमें निवास करना, संतोष धारण करना और ब्रह्मचर्य पालन करना आदि जितने मोक्षके साधन हैं वे सब आत्माकी सिद्धिके लिए किये जाते हैं आत्माकी सिद्धि आत्माको शुद्ध कर लेनेसे होती है, और जब यह आत्मा शुद्ध हो जाता है, तब ही इस जीवको आत्मजन्य आनंदकी प्राप्ति हो जाती है । जो पुरुष ध्यान करता हुआ भी आत्मजन्य आनंदका आस्वादन नहीं करता वह बगुला के समान ही समझा जाता है । बगला भी ध्यान करता है, परंतु उसे आत्माका आनंदरस प्राप्त नहीं होता । इसीप्रकार आत्मानंद रससे रहित ध्यानी पुरुष को समझना चाहिए । उपवास भी काय और कषायोंको नष्ट करनेके लिए किया जाता हैं, जब
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कायका ममत्व नष्ट हो जाता है, और कषाय नष्ट हो जाते हैं, तब चिदानंदरसका आस्वादन आनाही चाहिए। यदि उपवास करते हुएभी चिदानंद रसकी प्राप्ति नहीं होती है । तो समझना चाहिए कि उसकी कषायें वा ममत्वभी नष्ट नहीं हई है, और इसलिए वह उपवास केवल लंघन गिना जाता है । इसप्रकार ब्रह्मचर्यका पालन, सत्य-भाषण, संतोष-धारण आदि सब कार्य चिदानंद रसके लिएही किए जाते हैं। इसलिए आत्मजन्य आनंदरसका आस्वादन करनाही आत्मका कल्याण है । मोक्षमेंभी यही सुख है । अतएव भन्यजीवोंको सबसे पहले इसीके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
प्रश्न - स्यात्केन हेतुना लोक श्रेष्ठवस्तुसमागम: ?
अर्थ -- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में उत्तम पदार्थोंका समागम-प्राप्ति किस कारणसे होती है ? उ. गृहं सदा मंगल कार्ययुक्तं, पुत्रोपि विद्या रमनी सुरक्तः । भार्या सुशीला गृहकार्यदक्षा, दानार्चनार्थ च धनं यथेष्टम् ॥ स्वकारतुष्टः परबारमुक्तः, स्वाज्ञानुकूलोऽखि लमित्रवर्गः । पूर्वोक्तभावस्य सुवस्तुनः को, समागमः स्याद् वरपुण्यभाजाम
अर्थ – इस संसारमें सदाकाल मंगल कार्योंसे सुशोभित रहनेवाले घरकी प्राप्ति उत्तम पुण्यवान पुरुषोंकोही होती है। सदाकाल विद्यारूपी ललनामें लीन रहनेवाले पुत्रकी प्राप्ति भी उनम पुण्यवान पुरुषोंकोही होती है। घरके कामोंमें अत्यन्त चतुर और शीलवती स्त्रीको प्राप्ति उत्तम पूण्यवानोंकोही होती है। दान पूजा आदि धर्मके साधनोंके लिए यथेष्ट धनकी प्राप्तिभी पुण्यवान पुरुषोंकोही होती है । स्वदारसंतोषव्रतको धारण करनेवाले, परस्त्रीका सर्वथा त्याग करनेवाले और अपनी आज्ञाके अनुकल चलनेवाले मित्रवर्गोंकी प्राप्तिभी पूण्यान पुरुषोंकोही होती है । इसप्रकार ऊपर जितने पदार्थ बतलाये हैं, अथवा इस संसारमें जो-जो उत्तम पदार्थ हैं, उन सबकी प्राप्ति पुण्यवान् पुरुषोंकोही होती है ।
__भावार्थ -- इस संसारमें गृहस्थ लोगोंके लिए पुत्र, स्त्री, धन, घर और मित्रवर्गही सुखकी सामग्री गिनी जाती है। वह मुक्की सब
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सामग्री पुण्यकर्मके उदयसेही होती है। जिस पुरुष के जितने पुण्यकर्मका उदय होता है उतनेही सुखकी सामग्री उसको प्राप्त होती है। पुण्यकर्मका सबसे अधिक उदय चक्रवर्तीको होता है, इसलिए चक्रवर्तीको सबसे उत्तम संपत्तियां प्राप्त होती हैं। इस संसार में पुत्र, स्त्री, धन आदिकी प्राप्ति होना सरल है, प्रायः सबकेही होते हैं, घरभी सव गृहस्थों को होता है। धनभी सबको होता है और पुत्र-स्त्रीभी प्रायः सबको होती है, परंतु पात्रदान और जिनपूजामें काम आनेवाला धन विरोंकोही होता है । दान और जिनपूजनके काम में आनेवाला धन बीजके समान समझा जाता है। जैसे एक बीजको बोनेमे उस वृक्षपर सैकडों फल लगते हैं, उसीप्रकार पात्रदान और जिनपूजनके काम आनेवालाधन अनंत विभूतिका कारण होता है। वास्तवमें देखा जाय तो ऐसाही धन महापुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त होता है । जो धन पापकार्यों में लगता है वह नरक - निगोद में डुबानेवाला होता है, इसलिए उस धनका कारण श्रेष्ठ पुण्य नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार जो स्त्री सुशीला नहीं होती वह स्वयं नरकमें जाती है और घरके किरानेही लोगोंको इसी लोकमें अनेक दुःख देकर नरक ले जाती है इसलिए ऐसी स्त्रीसे स्त्रीका का न होनाही अच्छा है । जो सुशील स्त्री होती है, वह स्वयं पुण्य उपार्जन करती है, और रानी चेलनाके समान अपने पतिको वा घरके अन्य लोगों को भी अपने आत्माके कल्याणमें लगा देती है। इसलिए ऐसी स्त्री श्रेष्ठ पुण्य कर्मके उदयसेही प्राप्त होती हूँ । घरमें सब गृहस्थ रहते है, परंतु घर वही धन्य गिना जाता है, जिससे बहार के लिए मुनियोंके चरणकमल सुशोभित होते है, अथवा जिसमें पूजा प्रतिष्ठा सदाकाल होती रहती है ऐसा घर बहुत बड़े पुण्यकर्मके उदयसेही प्राप्त होता है । इसप्रकार पुत्रभी कुपुत्र होते हैं, जो माता पिताको दुःख पहुंचाते हुए स्वयं नरक जाते हैं, और माता - पिताकोभी ले जाते हैं । ऐसे पुत्रोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता । जो पुत्र विद्वान् होते हैं और सगरचक्रवर्तीके पुत्रोंके समान आत्मकल्याण में लग जाते हैं, ऐसे पुत्रही श्रेष्ठ पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होते हैं । तीर्थकरके माता-पिता महा पुण्यवान् गिने जाते हैं। इंद्र और इंद्रायणी दोनोंही उनकी सेवा करते है । इसका एकमात्र कारण उनसे तीर्थकर जैसे संसारभरको उद्धार
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प्रश्न- शीघ्रं नयति जीवः कः कस्यवद् मे गुरो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कौनमा जीव किसके समान अत्यंत शोध नष्ट हो जाता है ?
उ. धनं ददाति ह्यविचार्य चाति, यो वाऽसहायो च कषायकीर्णः स्याच्छ्रिगामी सकलप्रदेशे, कुकार्यकर्ता विषयाभिलाषी ॥ मिथ्याभिमानी मदनेन मत्तो, वा केवलं वैरविरोधधारो | विरुद्धवेषी ममकारकारी, प्रध्वंसते कीटकवत् स शीघ्रम् ॥
अर्थ- जो पुरुष बिना विचार कियेही चाहे जिसको धन दे देता है, जो बिना कुछ विचार कियेही भोजन कर लेता है, जिसका एंगे संसार में कोई सहायक नहीं है, जो तीव्र कषायोंको धारण करता है, जो बिना देखे सर्वत्र शीघ्रताके साथ चलता है, जो सदाकाल कुकर्म वा अशुभ कार्य करता रहता है, जो सदाकाल विषय सेवनकी इच्छा करता रहता है, जो मिथ्या अभिमान धारण करता है, जो कामदेवके वशीभूत होकर सदाकाल उन्मत्त बना रहता है, जो सदाकाल वैर-विरोध धारण करता रहता है, जो अपना वेष और भूषा विरुद्ध रखता है, और जो तीव्र ममत्व धारण करता है वह पुरुष कीड़े मकोडोंके समान शीघ्रही नष्ट हो जाता है ।
भावार्थ- प्रथम तो कीड़े-मकडोंकी आयुही बहुत कम होती है, दूसरे उनकी मृत्युके साधन प्रतिसमय बने रहते हैं । मार्ग में चलते हुए किसीका पैर पड जाता है तो भी उनकी मृत्यु हो जाती है। इनके सिवाय
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मोर आदि कितनेही जीव उनके स्वाभाविक शत्र होते हैं। इसलिए उन कोडे-मकोड़ोंका अपनी छोटीसी आयुपर्यंत भी बचे रहना अत्यंत कठिन होता है । इसी प्रकार जो पुरुष बिना विचार किये चाहे जिसको धन दे देता है, वह अपनी मृत्यही खरीद लेता है। महाराज जीवंधरके पिताने विना कुछ विचार कियही अपने राज्यका सब प्रबंध अपना मंत्री काष्ठांगारको दे दिया था । उनका कडबा फल बहत शीग्रही राजाको भागना पडा था । दूष्ट काष्ठांगारने राज्यका सब प्रबंध लेकर सज्जन आदमियोंको राज्यसे अलग कर दिया था, और फिर अपनी सब सेना लेकर राजभवन घेर लिया था। यद्यपि राजाने बाहर आकर युद्ध किया था, परंतु ऐसे राज्यसे विरक्त होकर उसने समाधि धारण कर ली थी। इतना होनेपरभी उस दुष्ट काष्ठांगारने उस राजाको मार दिया था । इसलिए बिना विचार किये धनका देनाभी मत्यका कारण है । इमीप्रकार विना विचार किये भोजन करनाभी मृत्युका कारण है। विचार पूर्वक भोजन करनेसे स्वास्थ्य ठीक रहता है, विना विचार किए भोजन करनेस स्वास्थ्य बिगड जाता है और कभी-कभी विषेला कोई पदार्थ भोजनमें आ जानेसे मृत्यूभी होती है । अतएव विना विचारे भोजन करना मृत्युका कारण है 1 इस संसारमें जिस पुरुषका कोई सहायक नहीं है उसकी समय मेंही मत्य हो जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। न जाने कब कोई आकस्मिक आपत्ति आती है, और यह जीत्र मर जाता है । इसलिए सहायकका न होनाभी मृत्युका कारण है । यद्यपि मुनिराजभी बनोंमें अकेले रहते हैं । तथापि उनका श्रेष्ठ धर्म और तपश्चरणही उनका प्रबल सहायक होता है । जो जीव तीव्र कषायी होता है, वह दूसरे किसी तीव्र कषायों के द्वारा अवश्य मारा जाता है अथवा तीव्र कषायके कारण कभी-कभी वह स्वयं अपना घात कर लेता है। इसलिए तीब कषायका होना मृत्युका कारण है । जो पुरुष ऊंचे-नीचे सब स्थानोंमें शीघ्र गमन करता है, वह कभी किमी गड्ढे में गिर जाता है,
और कभी ठोकर खाकर गिर जाता है और मर जाता है । इसीलिए शीघ्रगमनभी मृत्युका कारण है, जो जीव कुकर्म करता रहता है उसके लिए एक-दो नहीं किंतु पैकडों मृत्यु के कारण मिल जाते हैं, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, जुआ, चोरी आदि कुकर्म करनेवालोंके परस्परभी एक
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इसरेके मर हो जाते , और रात कर्मचारीभी शत्र हो जाते हैं । इमीप्रकार विषयाभिलाषी पुरुष न जाने किन-किन पदार्थोंका सेवन करते हैं और विपरीत योग मिलनेसे मर जाते हैं । मिथ्या अभिमान करने वालोंके छोटे लोकभी नीचा दिखा देते है, अथवा मार देते हैं। कामदेवके वशीभूत हुए उन्मत्त लोग न जाने कहां मारे जाते हैं. कभीकभी तो उनका शरीरतक नहीं मिलता है । इमीप्रकार सबके साथ बैर-विरोध रखनेवाले पुरुषभी शीघ्र मारे जाते हैं, विराद्ध वेष धारण करनेवाले कभी-कभी धोखेमेही मारे जाते है, और अत्यंत तीन ममत्व कारनेवाले कंजूस लोग या तो चोर डाकुओंसे मारे जाते हैं, अथवा किमी कारणसे वे स्वयं मरे जाते हैं । इसलिए ऊपर लिख समस्त कार्योका त्याग कर विचार पूर्वक आगमके अनुकूल सबकाम करने चाहिए जिससे कि अपने आत्माका कल्याण हो । यही भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न – कथं मो क्रियते स्वामिन् वद मे गुणसंग्रहः ?
अर्थ -- हे स्वामिन् ! अब मेरे लिए कृपाकर यह बतलाइए कि गुणोंका संग्रह किसप्रकार किया जाता है ? उ.-- प्रपूर्यले को जल बिन्दुपाताद् यथा समुद्रश्च नवी तडागः । त्यजन गधर्म च भजन स्वधर्म, मृण्हन गुणान् वावगुणांस्त्यजन हि जीवस्तथायं सुगुणेन पूर्णो, भवत्यवश्यं क्रमतः प्रपूज्यः । ज्ञात्वेति मुक्त्वा विषमप्रदोषात, गृण्हन्तु भव्याः सुख दान् गुणान् हि
अर्थ - इस संसारमें जिसप्रकार जलकी एक-एक बूंदसे बडे-बडे समुद्र भर जाते हैं, नदियां भर जाती हैं और बडे-बडे सरोवर भर जाते हैं, उसी प्रकार जब यह जीव अधर्मका त्याग कर देता है, तथा अपने आत्माके स्वभावरूप दयाधर्मको धारण कर लेता है । और अपने समस्त अवगुणोंका त्याग कर देता है, और अपने आत्माके श्रेष्ठ गुणोंको धारण कर लेता है, उस समय यह जीव अवश्य अपने समस्त श्रेष्ठ गणोंसे परिपूर्ण हो जाता है, और फिर यह जीव तीनों लोकोंके द्वारा पुज्य हो जाता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने विषम दोषोंका त्याग कर देना चाहिए और सुम्ब देनेवाले श्रेष्ठ गुणोंको ग्रहण करते रहना चाहिए ।
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भावार्थ - गुणोंका संग्रह एक-एक गुणके ग्रहण करनेसे होता है, जो मनुष्य सबसे पहले अवगुणोंका त्याग कर देता है और फिर एकएक गुणको ग्रहण करता जाता है, वह किसी न किसी दिन अवश्य पूर्णगणी हो जाता है । गणोंको ग्रहण करनेके लिए अवगुणोंका त्याग कर देना परमावश्क है । इसके साथ यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि यहांपर गुण शब्दसे आत्माके गुण ग्रहण करने चाहिए। तथा आत्माके गुण और आत्माका धर्म सदा साथ रहनेवाले है । जहां-जहां आत्माका धर्म रहता हैं, वहीं आत्माके गण रहते हैं और जहां-जहां मात्माके गण रहते हैं, वहां-वहां आत्माका धर्म अवश्य रहता है। अतएव गुणोंका संग्रह करनेके लिए अधर्म का त्याग करना और धर्मका ग्रहण करना अनिवार्य है । जो मनुष्य अधर्मका त्याग नहीं कर सकता वह पुरुष अवगणोंका त्यागभी नहीं कर सकता। तथा विना अधर्म और अवगुणोंका त्याग किए धर्म वा गुणोंका संग्रह कभी नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अधर्म और अवगुणोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिय और फिर एक-एक गुणका संग्रह करते रहना चाहिए । जिरा प्रकार एक-एक बूंद बरसते हुए पानीमे नदी, समुद्र परोबर आदि सव भर जाते हैं, उसी प्रकार एक-एक गुण ग्रहण करनेसेही समस्त गुण पूर्ण हो जाते हैं। गणोंको संग्रह करने का सबसे सरल उपाय यही है । ___ प्रश्न - किमर्थं जीवनं स्वामिन् वद मे भुवनेऽधुना?
अर्थ – हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस मंसारमें यह जीवन किसलिए धारण किया जाता है ? उ.-जीयन्ति ये के स्वापरात्मसिद्धय, सदा यतन्ते स्वपरात्मशुद्धध। त एव जीवन्ति यथार्थदृष्टया, तदन्यजीवाश्च धतासुतुल्याः॥ मन्ये मनुष्या अपि राक्षसास्ते, सन्त्यत्र लोके पशवश्च शुद्धाः । ज्ञात्वेति जीवन्तु सदात्मशुद्धय, ततः परेषां सुखशान्तिहेतोः॥
अर्थ -- जो जीव इस संसारमें अपने आत्माकी शुद्धि और सिद्धि करनेके लिए तथा अन्य जीवोंकी शुद्धि और सिद्धि करने के लिए जिवित रहते हैं, वे ही जीव यथार्थ दृष्टिमे जीवित रहते हैं। उनके सिवाय अन्य जो जीव हैं उनको मृतकके समान समझना चाहिए। ऐसे मनुष्योंको हम लोग राक्षसोंके समान समझते है । ऐसे मनुष्योंकी अपेक्षा तो बहुतमे
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पशु भी शुद्ध होते हैं । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिए और अन्य जीवोंको मुख और शांति प्राप्त कराने के लिएही जीवित रहना चाहिए।
भावार्थ - इस मंसारमें अनन्त पर्यायें धारण करनी पड़ती हैं परन्तु मनुष्यपर्यायही एक ऐसी पर्याय है कि जिसमें यह जीव मोक्ष प्राणिकर, उपाय ! सतत : अ.. बाले जीवोंमे मोक्षकी प्राप्तिका उपाय करवा सकता है। काम, क्रोध, मोह, मद, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि समस्त विकारोंका त्याग कर तथा बाह्यपरिग्रहका त्याग करके, जो मनुष्य अपने आत्माको शद्ध कर लेता है, वही मनुष्य दूसरे जीवोके आत्माओंको शुद्ध कर सकता है, जो स्वयं कृतकृत्य होता है वही मनुष्य दूसरोंको कृतकृत्य होनेका उपदेश कर सकता है । तथा उसीका प्रभाव पड़ सकता है, दूसरेका नहीं। अतएव मनुष्य जन्मकी सार्थकता अपने आत्माको शुद्ध कर लेना और फिर अन्य जीवों को कल्याणका मार्ग बता देनाही है, और ऐसे लोगोंकाही जीवन सार्थक है. । जो जीव मनुष्य जन्म पाकरके भी अपने आत्माका कल्याण नहीं करते, केवल भोग-विलासमेंही अपना जीवन बिता देते हैं, उनको मृतकके. समानही समझना चाहिए । भोग-विलासमे लगे रहने के कारण वे रात-दिन अनेक प्रकारके महापार उत्पन्न करते हैं, इसीलिए ऐसे मनुष्य राक्षसके समान कहलाते हैं, राक्षसभी पाप करता है, और ऐसे मनुष्यभी रात-दिन पाप करते हैं, इसलिए दोनों समान माने जाते हैं । इस संसारमें बहुत से पशुभी पापोंका त्याग कर देते हैं, वा मांसादिकका सेवन नहीं करते । इसलिए रात-दिन पापमें लग रहनेवाले मनुष्योंकी अपेक्षा उन पशुओंकोभी उत्तम समझना चाहिए ।
अतएव मनुष्यजन्म पाकरके समस्त पापोंका त्याग कर; आत्माको शुद्ध • कर लेना और फिर अन्य जीवोंको कल्याणका मार्ग बतानाही प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है और वह प्रत्येक भव्यजीवको करना चाहिए ।
प्रश्न- भोगे यथा मतिर्दक्षा धर्म भवति कि न सा ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यह मनुष्योंकी बुद्धि जैसी भोगोपभोगोंके सेवन करने में चतुर होती है, उसी प्रकार धर्मके धारण करने में चतुर क्यो नहीं होती?
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उ.- धनार्जने बन्धुजने कलत्रे भोगोपभोगे विषवद् व्ययादे । यथा मतिः कार्यकरी च वक्षा मिथ्याविरोधे भवतीति शक्ता। तथा स्वधर्मे स्वपरोपकारे मिथ्यात्वमोहादिविनाशने हि । स्यात्तहि चानन्दपदप्रदात्री स्वर्मोक्षलक्ष्मीः सुखदा स्वदासी ।
अर्थ- इस मनुष्यकी बुद्धि जिस प्रकार धन संग्रह करनेमें चतुर होती है, भाई-बंधुओंके मोहमें चतुर होती है, वा स्त्रीके मोहमें चतुर होती है, अथवा विषके समान महादुःख देनेवाले भोगोपभोगोंके सेवन करने में चतुर होती है, वा इन समस्त कार्योंके संपादन करनमें चतुर होती है, और एक दूसरेके साथ विरोध करनेमें समर्थ होती हैं, उसी प्रकार यदि यह हि माते आपको प्रहारने में लग जाण अथवा अपने आत्माके कल्याण करने में, वा अन्य जीवोंके कल्याण करने में लग जाय, अथवा मिध्यान मोह आदि आत्माके विकारोंके नाश करने में लग जाय तो फिर सच्चिदानंद पदको देनेवाली तथा अनंत सुखको देनेवाली स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मी अवश्यही अपनी दासी बन जाती है।
भावार्थ- यह जीव इस संसारमें अनादि कालसे परिभ्रमण करता चला आ रहा है। अनादि कालमेही भोगादिभोगोंमें लगा हुआ है, अनादि कालसेंही स्त्री, पुत्र वा परिग्रहके संग्रहमें लगा हुआ है, और अनादि कालसेही परस्पर वैर-विरोधमें लगा हुआ है । अतएव उसे अनादि कालसे इन सब कर्माका अभ्यास हो रहा है । यह सब मिथ्यात्वकर्मके उदयका कार्य है । मिथ्यात्वकर्म के उदयसे इस जीवकी बुद्धि मिथ्या हो जाती है, और इसलिए वह संसारके भोगोंमेंही लगी रहती है जब यह जीव किसी वीतराग निर्ग्रय गरुके सदुपदेशसे अपने मोह और मिथ्यात्वको मंद कर देता है, और आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझने लगता है, तब यह जीव मोह और मिथ्यालको नष्ट करने का प्रयत्न करता है । काललब्धिके अनुसार जब यह जीव अपने मोह और मिथ्यात्वको नष्ट कर देता है, तब आत्माके स्वरूपको प्रगट कर देनेवाला सम्यक्दर्शन प्रगट हो जाता है । सम्यग्दर्शन प्रगट होते ही स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है। स्वपरभेदविज्ञानसे यह जीव अपने आश्माके यथार्थ स्वरूपको जानकर उसको प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। उसके लिए वह समस्त विकारोंका त्याग कर देता है, और ध्यान तपश्चरणके द्वारा मोक्ष प्राप्त कर
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लेता है । इससे सिद्ध होता है कि मिथ्यात्व कर्मके उदयसेही इस जीवकी बुद्धि धर्मधारण करनेकी ओर नहीं झकती। मिथ्यात्व कर्मको नष्ट कर देपर सवस्यही धर्मकार्य में लग जाती है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको सबसे पहले अपने मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिए, और फिर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर, मोह तथा कषायोंका सर्वथा त्याग कर, तथा समस्त परिग्रहोंका त्याग कर, ध्यान तपश्चरणके द्वारा समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही मनष्य जीवनका यथार्थ
प्रश्न – धर्मिणोऽधर्मिणाश्चिन्हें विद्यते कीदृशं वद ?
अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि धर्मात्माका चिन्ह क्या है और अधार्मिक पुरुषका चिन्ह क्या है ? उ.- यः स्यात्मशुद्धय॑ च करोति धर्म ब्रतोपवासं च जपंतपश्च
स एवं धर्मो भुवने यथार्थोऽभिमानशून्यो गुणदोषवेदी ।। ख्यात्याविहेतोश्च करोति धर्म ध्यानोपवासं खलु यश्च वानम् स एव नीचो जनवंचकः स्यात् पापी विधर्मो न च शंकनीयः
अर्थ- जो पुरुष अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिए धर्मको धारण करता है, वा व्रत-उपवास करता है अथवा जप वा तप करता है, वही पुरुष इस संसारमें अभिमानरहित और गुणदोषोंका जाननेवाला यथार्थ धर्मात्मा कहलाता है । परंतु जो पुरुष अपनी प्रसिद्धिके लिए वा द्रव्य उपार्जन करने के लिए धर्म धारण करता है, वा ध्यान करता है, उपवास करता है, अथवा दान देता है उस पुरुषको नीच लोगोंको गनेवाला पापी और अधर्मात्मा समझना चाहिए । इसमें किसी प्रकारकी शंका नहीं है।
भावार्थ - इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए जीवको, जो सबसे उत्तम मोक्ष स्थानमें ले जाकर विराजमान कर, देता है उसको धर्म कहते है। धर्मकी इस व्याख्यासे यह बात सिद्ध हो जाती है कि मोक्ष प्राप्त करनेके जितने साधन हैं उन सबको धर्म कहते हैं, तथा उस धर्मको अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने के साधनोंको जो धारण करता है उसको धर्मात्मा कहते हैं। मोक्षकी प्राप्ति आठों कर्मोका नाश करनेसे होती है, तथा कर्मोके उदयमे
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ही इस जीवके काम कोधादिक विकार उत्पन्न होते हैं। जब इस जीवके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, तव यह आत्मा अत्यंत शुद्ध हो जाता है। इस आत्माका कर्मरहित हो जानाही मोक्ष कहलाता है । इसलिए आचार्य महाराज कहते हैं कि जो पुरुष अपने आत्माको अत्यंत शुद्ध करनेके लिए अर्थात् मोक्ष प्राप्त करनेके लिए उसके साधनभूत धर्मको धारण करता है, व्रत-उपवास करता है. तपश्चरण करता है, बारह भावनाओंका चितवन करता है, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोका पालन करता है, वा रत्नत्रयको पूर्ण करनेका प्रयत्न करता है उसको धर्मात्मा कहते हैं । जो पुरुष इससे विपरीत चलता है, केवल अपनी प्रसिद्धि के लिए ध्यान वा उपवास करता है, वा द्रव्य उपार्जन करनेके लिए वेष बनाकर ध्यान -उपवास करता है उसको नीच, ठग और अधर्मात्मा समझना चाहिए। ऐसा पुरुष मायाचारी होनेके कारण अनंतकालतक निगोदके दुःख भोगता रहता है। इसलिए किसी भी भव्यजीवको धार्मिक कार्यों में कभी भी मायाचारी नहीं करनी चाहिए। धर्मका धारण तो आत्माकी शुद्धताके लिएही है । अथवा जो आत्माकी शुद्धताके लिए : किया जाता है उसी को धर्म कहते हैं इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं हूँ ।
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प्रश्न नरो भूत्वा नृणां कुत्यं न करोति स कीदृश: ?
अर्थ - भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मनुष्य होकर भी जो मनुष्यों का कर्तव्यपालन नहीं करता वह कैसा मनुष्य है । उ.- मानापमानो निजलाभपूजात्यक्तो न मोहो मदनः प्रमादः । ध्याता न देवो पठिता न विद्या कृतो न धर्मोऽखिलसौख्यदाता तेन प्रमूढेन नृजम्मरत्नं प्रक्षिप्यते सिंधुजले झपारे ॥ ततो नरो वापि स नारकोव प्रत्यक्षमेव प्रतिभात्यभागी । ३८४
अर्थ - जिस मनुष्यने मनुष्यपर्याय पाकरभी मान-अपमानके बिचारका त्याग नहीं किया, अपना लाभ और अपनी प्रतिष्ठाके विचा रका त्याग नहीं किया, जिसने न तो मोहक त्याग किया, न कामसेव नका त्याग किया, न प्रसादका त्याग किया, न भगवान् अरहंत देवका यान किया, न अध्यात्म विद्याका पठन-पाठन किया और न समस्त
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राखोंको देनेवाले धर्मको धारण किया, उस अनानी मनप्यने मनष्यजन्मरूपी रत्नको पा करकेभी इस संसाररूपी महासागरके अगाध जलमें फेक दिया, इसलिए वह अभागी मनुष्य प्रत्यक्ष नारकीके समान जान पडता है।
भावार्थ- इस जीवके साथ जब-तक यह प्रबल मोह लगा रहता है, तब-तक उन मोहले उदयसेही सदाकाल मान वा अपमानका ध्यान रक्षा करता है तथा उसी मोहके कारण अपने लाभ और प्रतिष्ठा आदिका ध्यान रक्खा करता है । अमुक मनुष्य मझसे ऊंचा न हो जाय, अमुक मनुष्यको मझसे अधिक लाभ न हो जाय, अमुक मनुष्यकी प्रतिष्ठा क्यों अधिक हो गई. मेरी क्यों नहीं हुई, इस प्रकारके मानअपमानका ध्यान, वा लाभ, बा, प्रतिष्ठाका ध्यान, तीव्र मोहक के उदयसे होता है, यदि मोहकर्मका नाश होकर सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाय, तो यह मनुष्य आत्माके यथार्थ स्वरूपको जान लेने के कारण मोहके समस्त विकारोंको आत्मासे भिन्न समझने लगता है, और फिर उन समस्त विकागेको त्यागकर अत्यंत शुद्ध बनानेका प्रयत्न करता है । उस समय वह मनुष्यपर्यायके जितने कर्तव्य है. उन सबका पालन करता है। काम, श्रोध, मोह, प्रमाद आदि सत्र विकारोंका त्याग कर, अध्यात्म विद्याके अध्ययन करने में लग जाता है, और अनंत सुखको देनेवाले आत्माके स्वभावरूप धर्मको धारण कर लेता है । यही मनुष्य जन्मका सर्वोत्तम कर्तव्य है, परंतु जो मनुष्य ऐसा नहीं करता वह अज्ञानी कहलाता है, और रत्नके समान इस बहुमूल्य बड़ी कठिनतामे प्राप्त होने योग्य मनाय जन्मको भोगोपभोगोंके द्वारा संसार सागर में डुबो देता है। ऐसा मनुष्य कभीभी योग्य मनुष्य नहीं कहलाता है, किंतु भाग्यहीन और अज्ञानी कहलाता है। तथा नारकीके समान महादुःखी होता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मनुष्यपर्याय पा करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए, और फिर मोहादिक समस्त विकारोंका त्याग कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए । यही मनुष्पपर्यायका कर्तव्य है।
प्रश्न- कः कुशलोस्ति जीवः को वद मे सिद्धेचे प्रभो ?
अर्थ- हे भगवान् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें सबसे अधिक कुशल मनुष्य कौन है?
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लब्ध्वा धनं झटिति यो विकृति न याति । लिप्तो व तत्र विषयां परित्यमानः ॥t ताभिर्हतो न सततं ललनातोपि । जातो न तस्य वशगः समाश्रितोपि ॥ ३८५ ।। ग्रस्तच नैव भुवने भुवनस्थितोपि । चारित्रमोहवशगोपि ततोतिदूरः ॥ धर्मार्थ कार्यनिरतोपि निजे निमग्नः । पूर्वोक्तकार्यकुशलो विरलोस्ति वीरः ॥ ३८६ ॥
अर्थ- जो पुरुष धन पा करके भी अपने हृदयमें शीघ्र ही विकारभाव धारण नहीं कर लेता है, जो विषयों का सेवन करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता, निरन्तर स्त्रियोंके साथ क्रीडा करता हुआ भी उनसे ताडित नहीं होता, अर्थात् उनके वशीभूत नहीं होता, जो समयके अनुसार कार्य करता हुआ भी उसके आधीन नहीं होता, संसार में रहता हुआ भी जो संसारमें लीन नहीं होता, जो चारित्रमोहनीय कर्मके वशीभूत होकरभी उससे अत्यंत दूर रहता है, और जो धर्मको वृद्धिके लिए अनेक कार्य करता हुआ भी सदाकाल अपने आत्मामें लीन रहता है । इसप्रकार इन सब कमको करनेवाला पुरुष सबसे अधिक कुशल कहलाता है । ऐसा शूर-वीर कुशल पुरुष इस संसार में विरलाही होता है ।
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उत्तर
—
भावार्थ प्रायः धन या करके सब पुरुष मदोन्मत्त हो जाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो यह धनही समस्त अनर्थोकी जड़ है । प्रायः धनी पुरुषही सब प्रकारके अन्याय और अनर्थ करते हुए देखे जाते हैं, तथा अनेक प्रकारके अभक्ष्य भक्षण करते हुए देखे जाते हैं, इसलिए ऐसे धनको पा करकेभी जो पुरुष अपने हृदयमें किसी प्रकारके विकार धारण नहीं करता, उसी मनुष्यको अत्यंत कुशल कहना चाहिए, और इन्द्रियोंके विषयों को सेवन करनेवाले पुरुष उन विषयोंमें लीन हो जाते हैं और फिर अपने आत्माका स्वरूप सर्वथा भूल जाते है, इसलिए इंद्रियोंके विषयोंमें लीन न होनाही कुशलता है, जो पुरुष सदाकाल स्त्रियों में क्रीडा करते रहते हैं, वे पुरुष प्रायः उन्ही के वशीभूत हो जाते हैं। स्त्रियोंमें वशीभूत होकर फिर वे अनेक प्रकारके अनर्थ
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करते हैं, और अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न कर नरक-निगोदके दुःख भोगते हैं, इसलिए स्त्रियोंके वशीभूत न होनाही कुशलता है। जो समयके अनुसार चलते हैं वे समयके प्रवाहमें बहकर अपने आत्माका स्वरूप और अपने आत्माका कल्याण करना भूल जाते हैं । यह उनकी अज्ञानता है। जो पुरुष समयके अनुसार अन्य सब काम करते हुएभी आत्माका कल्याण करना नहीं भूलते, समयके प्रवाह में नहीं बहते उन्हींको कुशल पुरुष समझना चाहिए, जो पुरुष संसारमें रहता हुआभी सांसारिक कार्योमें लोन नहीं होता, चक्रवर्ती महाराज भरतके समान जो छडों खंडोका राज्य करता हुआभी उसमें कभी लिप्त नहीं होता, जो इतने बड़े साम्राज्यका पालन करते हुए भी सदाकाल अपने आत्माम लीन रहता है, वही महापुरुष कुशल गिना जाता है, जो पुरुष चारित्रमोहनीयकमक वशीभूत होता हुआभी चारित्रमोहनीयकर्मसे दूर रहता है, अर्थात जो संज्वलन वा प्रत्याख्यानावरण कषायके वशीभूत होता हुआभी अप्रत्याख्यानावरण और अनंतानबंधी कषायसे अत्यंत दूर रहता है, तथा धीरे-धीरे उस प्रत्याख्यानावरण या संज्वलनका भी त्याग कर देता है, ऐसा पुरुष सबसे अधिक कुशल गिना जाता है। इसीप्रकार जो पात्रदान, जिनपूजन आदि धार्मिक कार्योको करता हुआभी अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन रहता है, वही पुरुष कुशल कहलाता है । ऐसे-ऐसे कुशलपुरुष इस संसारमें बहुत थोडे होते हैं, और ऐसे कुशलपुरुषही आत्माका कल्याण कर लेते हैं। अतएव प्रत्येक भव्यजीबको ऐसाही कुमाल बनकर आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न- कौ धर्माचरणेन स्यात्कि कि मे वद भो गुरो ?
अर्थ-हे गुरो! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस संसारमें धर्मरूप आचरण धारण करनेसे किस-किस पदार्थ की प्राप्ति होती है ?
उ.-दूर सदा दूरतरोस्ति यश्च, स एव सर्वोपि भवेत्समीपः । सुदुर्लभो यःसुलभः स एवाऽसाध्यःससाध्योऽप्यवशो वशी स्यात् सुदुःखदः को सुखदास एव, दुष्टोपि शिष्टौ हि रिपुः सखा स्यात् सोपि माला हि विषं सुधा स्यात् पत्नीव धर्माचरणेन लक्ष्मीः
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अर्थ - धर्मका आचरण करनेसे जो पदार्थ दूर वा अत्यंत दूर होते हैं, वे भी सब पदार्थ अपने समीप आ जाते हैं, जो पदार्थ अत्यंत दुर्लभ होते हैं वे भी सुलभ हो जाते हैं, जो पदार्थ असाध्य होते हैं वे भी साध्य हो जाते हैं, जो पदार्थ 'किसीके या नहीं होते हैं ने भी वश में हो जाते हैं। जो पदार्थ दुःख देनेवाले होते हैं वे भी सुख देनेवाले हो जाते हैं, जो दुष्ट होते हैं वे भी सज्जन हो जाते हैं, शत्रु मित्र हो जाते हैं, सर्प माला बन जाती है, विष अमृत हो जाता है, और लक्ष्मी पत्नी के समान हो जाती है।
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भावार्थ - धर्म सेवन करनेका फल अत्यंत विचित्र होता है, उसको कोई चितवनभी नहीं कर सकता। देखो ! से सुदर्शनको शूलीपर चढाया था, तथापि धर्मके प्रसादसे वह शूली भी सिंहासन बन गई। सती सीताने जब अग्निकुंड में प्रवेश किया था, तब सब लोग हाहाकार करने लगे थे, परंतु धर्मके प्रसादसे वह अग्निकुंड भी कमलोंसे सुशोभित सरोवर बन गया था । सोमा सतीने जब नमोकार मंत्र पढकर में से सर्प निकालने के लिए हात डाला था, तब वह सर्प धर्मके प्रसाद मेही माला बन गया था। पर्व के दिन जब राजपुत्र वारिषेण श्मशान में ध्यान धारण किए विराजमान थे तब कोई चोर, चुराया हुआ हार उनके आगे डाल गया था। चोरका पीछा करनेवाले पहरेदारने जब वारिषेणके आगे पड़ा हुआ हार देखा, तो उसने उसी समय राजासे कहा राजाने उसी समय चांडालको भेजकर उसको मारने की आज्ञा दी । चांडालने ज्यों ही तलवार मारी, त्यों ही वह तलवार पुष्पमाला बनकर वारिषेणके गलेमें पड गई । उसी समय वहींपर राजा आया और वह छिपा हुआ चोरभी सामने आया | चोरने हार चुरानेका सब अपराध स्वीकार कर लिया तत्र राजानें अपने पुत्र से क्षमा मांगी। परंतु इस कृत्य को देखकर पुत्रने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि में इस आपत्तिमे बच जाऊंगा तो दीक्षा धारण कर लूंगा । उस प्रतिज्ञाके अनुसार राजपुत्र वारिषेणने जिनदीक्षा धारण कर ली। यह सब धर्मका ही प्रभाव था, धर्मकेही प्रसादसे आचार्य मानतुंगके बंधन कट गये थे, और धर्मकेही प्रसादसे मुनिराज श्रीवादिराजका कोढ़ी शरीर सुवर्णमय हो गया था। कहांतक कहा जाय इस धर्माचरणकी अद्भुत महिमा है। जो में उक एक फूल की पंखड़ी लेकर भगवान् महावीर स्वामीकी पूजा करने चला था, किंतु मार्ग मेंही हाथी के
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(न्तसुधासिन)
परके नीचे दब कर मर गया था, और उसी समय उत्तम देदीप्यमान् देव हआ था, वह देव उमी समय भगवान् महावीर स्वामीकी पूजा करनेके लिए समवशरणमें आया था, और भगवान् महावीर स्वामीकी पूजा करनेका महात्म्य सब लोगोंके लिए उसने प्रगट कर दिखाया था । अतएव भव्यजीवोंको सदाकाल धर्मका सेवन करते रहना चाहिए ।
प्रश्न- को नरजन्मयोग्योस्ति बद मे साम्प्रतं गुरो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अव कृपाकर यह बतलाइए कि मनुष्यजन्म प्राप्त करने के योग्य कौनसा जीव समझा जाता है ? उत्तर- को यःसदा परगुणस्तवनेतिदक्षः ।
निःस्वार्थतः स्वगुणनिंदन एव धीरः । सिद्धथै निजस्य निजदोषविलोकनारिः । ज्ञानी स एव परदोषविलोकने वा ॥ सत्यार्थदेवगुरुशास्त्रविविधाता। सन्तोषशान्तिनिलये सततं निवासी ॥ पूर्वोक्तकार्यनिरतो नरजन्मयोग्यो । यस्तद्विना पशुसमः प्रतिभाति मत्तः ॥
अर्थ- जो पुरुष इस संसारमें दूसरेके गुणोंकी स्तुति करने में अत्यंत चतुर होता है, जो बिना किसी स्वार्थके अपने गुणोंकी निंदा करनेम शूर-बीर होता है, जो अपने आत्माकी सिद्धिके लिए अपने दोषोंकों देखने में भी शत्रका काम करता है, जो दूसरोंके दोषोंको देखनमें ज्ञानी बन जाता है, जो यथार्थ देव-शास्त्र-गुरुकी पूजा, सेवा आदि विधियोंका विधान करता रहता है, और जो संतोष तथा शांतिके स्थानमेंही सदाकाल निवास करता है । इसप्रकार जो ऊपर लिखे हए कार्योंमें तल्लिन रहता है, वही मनुष्यजन्म प्राप्त करनेका अधिकारी माना जाता है। जो पुरुष ऊपर लिखें कार्योमें अपनी अभिरुचि नहीं रखता है. वह मदोन्मन पुरुष पशुके समान कहलाता है।
भावार्थ- जो पुरुष मनुष्यपर्याय पा करकेभी दूसरोंके गुणोंको प्रशंसनीय नहीं समझना वह गुणज्ञ नहीं कहलाता । फिर तो उसे
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( यान्तिसुधा सिन्धु )
दोषोंकोही ग्रहण करनेवाला समझना चाहिए। दोषोंको ग्रहण करना मनुष्यता की योग्यताके बाहर है । इसीलिए गुणोंकी स्तुति करना और गुणोंको ग्रहण करना मनुष्यता के योग्य हैं । इसीप्रकार अपने गुणोंकी प्रशंसा करनाभी मनुष्यता के बाहर है । इसलिए अपने गुणों की प्रशंसा न करना, वा अपने गुणोंकी निंदा करना, मनुष्यताका योग्य कर्तव्य है, अपने दोषों को देखनेके लिए जो शत्रुका काम करता है, अर्थात् जिसप्रकार हमारा शत्रु हमारे दोषों को देखा करता है, उसीप्रकार जो स्वयं अपने दोषों को देखा करता है, और फिर उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, वही मनुष्यजन्म के कर्तव्यको पालन करता है । इसीप्रकार जो पुरुष दूसरोंके दोष देखने में ज्ञानी बन जाता है, अर्थात् ज्ञानी पुरुष जिसप्रकार दूसरोंके दोषोंको देखता हुआ भी न देखनेके समान बन जाता है, उसी प्रकार जो मनुष्य दूसरोंके दोषोंको देखता हुआ भी नहीं देखने के समान आचरण करता है, वह मनुष्य अवश्यही मनुष्यजन्मके योग्य माना जाता है। इसीप्रकार जो पुरुष भगवान् अरहंत देवकीही पूजा करता है, उनके कहे हुए शास्त्रही आत्माका कल्याण करनेवाला समझता हैं, और वीतराग निग्रंथ गुरुकोही अपना गुरु मानकर उनकी सेवा - भक्ति करता है, वही पुरुष अपना मनुष्यजन्मका कर्तव्य पालन करता है, तथा जो पुरुष संतोष और शांतिकेही स्थान में रहता है, अन्य कलवों स्थानोंको सर्वथा त्याग देता है, अथवा जो आत्माके शुद्ध स्वरूप में ही निवास करता है, वही मनुष्य, मनुष्यजन्मके कर्तव्यको पालन करता है। इसलिए ऊपर लिखे कर्तव्यको पालन करनेवाले मनुष्यही मनुष्यजन्मको प्राप्त करने के अधिकारी माने जाते हैं । अतएव भव्यजीवको इनका पालन अवश्य करते रहना चाहिए। जो पुरुष इनका पालन नहीं करता वह पशुओं के समान आत्मज्ञानमे सर्वथा रहित कहलाता है ।
ܘ܀
प्रश्न- कथं स्यात्स्वात्मतृप्त्यादिः वद मे शमंद भों?
अर्थ- हे कल्याण करनेवाले स्वामिन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि आत्माकी तृप्ति वा शुद्धि किस प्रकार हो सकती हैं ? उत्तर - स्वरसपानतस्तृप्तिर्न तु दुग्धादिपानतः ।
लोभत्यागेन शुद्धिः स्यान्न तु स्नानेन केवलम् ॥ ३९१॥
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स्यात्स्वात्मध्यानतः सिद्धिस्तपसा न च केवलम् । स्थात्मनिवासतः शान्तिन गृहवनवासतः ।। ३९२ ।। परवस्तुपरित्यागान्मुक्ति नान्न केवलम् । ज्ञात्वेति ममतां त्यक्त्वा कुर्वन्तु शर्मदं विधिम् ॥३९३॥
अर्थ- इस मंसारमें अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाले आनंदके अनुपमरलसेही आत्माकी तृप्ति होती है । दूध वा शर्बत आदिके पीनेसे आत्माकी तप्ति कभी नहीं होती। लोभका त्याग कर देनेसेही आत्माकी शुद्धि होती है, केवल स्नान कर लेने मात्र आत्माकी शुद्धि कभी नहीं होती। इसीलिए अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करने मेहो आत्माकी सिद्धि होती है, केवल तपश्चरण कर लेन मात्रसे आत्माको सिद्धि कभी नही होती। अपने आत्मामें निवास करनेमे, वा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन होनेसे आत्माको अनंत शांतिकी प्राप्ति होती है, घरमें वा बनमें रहने से आत्माको शांति की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। इसीलिए परपदार्थों का त्याग कर देनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, मिथ्याजानसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं होती। यही समझकर सवमे पहले ममत्वका त्याग कर देना चाहिए और कल्याण करनेवाली ध्यानादिकी विधि करना चाहिए।
भावार्थ- मूर्त पदार्थसे मूर्त पदार्थकीही तृप्ति होती है, मूर्त पदार्यमे अमर्त पदार्थकी तप्ति कभी नहीं हो सकती । दुध आदि जितने दिखनेवाले पदार्थ हैं वे मूर्त हैं, उनसे मूर्त शरीरही तृप्त हो सकता है, दुध आदि मूर्त पदार्थोंसे अमूर्त आत्मा कभी तृप्त नहीं हो सकता । यदि अमूर्त आत्माकी तृप्ति होती है, तो अमूर्त आत्माके आनन्वरससेही आत्माकी तृप्ति होती है। दूध पीनेसे थोड़ी देर बादही फिर भूख लग जाती है, परंतु आत्मजन्य आनंदरसमें तृप्त होनेपर फिर कभीभी उसकी लालसा नहीं होती। वास्तव में देखा जाय तो तप्ति इसीको कहते है। इसी प्रकार शुद्धि उसीको कहते हैं, जिससे फिर कभी अशुद्धि न हो । आत्मामें ऐमी शुद्धि लोभादिक समस्त कपायोंका त्याग कर देनेसेही होती है। स्नान करने से आत्माको यथार्थ शद्धि नहीं होती । इसीप्रकार आत्माकी सिद्धि वा ध्यानकी प्राप्ति केवल तपश्चरणसे नहीं होती, कित अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करनेसे होती है। जिस तपश्चरणमें आत्माले शुद्ध
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( शान्तिसुधासिन्धु )
स्वरूपका ध्यान किया जाता है उसीको तपश्चरण कहते हैं। जिस तपश्चरणमें आत्माका चितवन नहीं होता उसको तपश्चरण कभी नहीं कह सकते, और न ऐसे तपश्चरणसे आत्माकी सिद्धि होती है । इसप्रकार न तो घर में रहने से शांति प्राप्त होती है, और न बन में रहनेसे शांति प्राप्त होती है, किंतु यथार्थ शांतिकी प्राप्ति अपने आत्माके शुद्धस्वरूपम लीन होनेसे होती हैं। इसकाभी कारण यह है कि आत्माके शुद्धस्वरूपम लीन होनेसे निराकुलता प्राप्त होती है, और निराकुलताकोही शांति कहते हैं । वह निराकुलता घर वा बनमें रहनेसे कभी नहीं होती। इसी प्रकार गोरानी प्रालि सा पार्योग गर्दा लाग कर देनेसे होती है । केवल उन पदार्थों को जान लेने मात्रसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं होती । मोक्ष शब्दका अर्थ छूटना है । यह जीव अनादिकालसे कर्मोसे बंध रहा है, उन समस्त कर्मोका नाश हो जानाही मोक्ष है । इसीलिए आचार्य महाराजने परपदार्थोके परित्याग करनेसेही मोक्षकी प्राप्ति बतलाई है, उन कर्मोका स्वरूप जान लेने मात्रसे वे कर्म नाष्ट नहीं होते, किंतु ध्यानके द्वारा काँका नाश किया जाता है, इसलिए कर्माका नाश होना ही मोक्ष है। केवल उनको जान लेना मोक्ष नहीं है । यही सब समत करके प्रत्येक भव्यजीवको परपदार्थोंके ममत्वका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । और समस्त कर्मों का नाश कर आत्माका कल्याण करके-- मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए । यही भव्यजीवका कत्तंव्य है ।
द्रश्न - कस्य वृद्धिः कलो काले तथा हानिर्भवेद् वद ? __ अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस कलिकालमें किस-किसकी तो वृद्धि होती है। और किस-किसकी हानी होती है ? उ. काले फलो केतवता पशुत्वं निर्लज्जता दाम्भिकता व्यथादा ।
सुदुष्टता वाऽमतिता विशेषात् प्रबर्द्धते लोभकषायतापि ३९४ धर्मज्ञता स्वात्मविचारतापि कारुण्यता कोमलता नरत्वम् । सत्साधुता वीर्घविचारतापि प्रतिक्षणं नश्यति चैव नृणाम् ॥
अर्थ-- इस कलिकालमें छल-कपट, पशुपना, निलंज्जता, दुःख देनेवाले अनेक प्रकारके ढोंग, दुष्टता, निर्बुद्धिपना और विशेषकर लोभ कषायता बढती जाती है तथा धर्मज्ञता, अपने आत्माका विचार करना,
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करुणा, कोमलता, मनष्यपना, सज्जनता और दीर्घ विचार करना आदि मनुष्यों के गुण सब नष्ट होते जाते हैं ।
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भावार्थं इस कलिकालमें छल-कपट बहुत बढ़ गया है, वर्तमान कालके मनुष्य कहते कुछ हैं, और करते कुछ हैं, उपरसे बहुत अच्छीअच्छी मीठी बाते बनाते हैं, अपनेही स्वार्थ में दूसरोंका उपकार दिखलाते हैं, और अन्तमें सबका गला घोंटकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं । इसीप्रकार पशुपना बढता जाता है । मनुष्योचित सदाचार छूटता जाता है और पशुओंके समान असदाचारता बढ़ती जाती है। मक्षअभक्षका कुल विचार नहीं रहा है। पशुओंके समान रात-दिन खाते रहते हैं, और चाहे जो खाते हैं। पशु तो खाने योग्य पदार्थको सूंघ लेता है । यदि वह खाने योग्य नहीं हुआ तो उसे वह छोड़ देता है । परन्तु वर्तमानके मनुष्य कुछ नहीं देखते, चाहे जहां जो कुछ मिलता है, सब खा जाते हैं। यह पशुओं से भी बढकर पशुपना है। निर्लज्जताका कुछ ठिकाना नहीं रहा है। चाहे जिस जातिकी और चाहे जिसकी स्त्रीको अपनी स्त्री बना लेते हैं, और फिर बहुरूपियोंके समान चाहे जैसा वेष बनाकर बाजार भी उस स्त्रीको साथ लिए फिरते हैं। खड़े होकर पेशाब करना आदि सब निर्लज्जताकेही साधन इक्कठे हो रहे हैं, और उन्हीं को इस कलिकालके मनुष्य अपनाते जाते हैं । इसीप्रकार इस कलिकालमें दांभिकता वा ढोंगभी खूब बढ गयें हैं। अनेक त्यागी ब्रह्मचारी अपनी लालसाएं पूर्ण करने के लिएही त्यागी ब्रह्मचारी बन गये हैं, अनेक ब्रह्मचारी पैसा कमानेके लिए ब्रह्मचारी बन गये हैं। जो रातभर भद्यमांसमय औषधियां खाते रहते हैं, वे भी ब्रह्मचारी कहलाते हैं, और विधवा-विवाह, वा घरेजाके पुरोहितभी ब्रह्मचारी कहलाते हैं। शास्त्री और विद्वान् कहलानेवालेभी शास्त्रोंका विपरीत अर्थ लगाकर अपना स्वार्थं सिद्ध कर रहे हैं, जैनी कहलाकर भी जिनवाणीका खंडन कर रहे हैं। कहांतक कहा जाय ? दांभिकता और दुष्टता बहुत बढ़ गई है । वर्तमान में दुष्ट लोग अपनी दुष्टता के कारण अपना आतंक जमा लेते हैं, और शिष्ट लोग किसी एकांत में पडे-पडे सडते रहते हैं। लोभ, कषाय और निर्बुद्धता इतनी बढ़ गई है कि, जिसका कुछ ठिकाना नहीं हैं । लोभ, कषायकें वशीभूत होकर लोग चाहे जैसा हिंसामय व्यापार कर
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लेते हैं । न कुछ विचार रहा है, और न संतोष रहा है। जहां देखो वहां दुर्गुणही बढते जाते हैं। लोग धर्मकार्यों को छोडते जा रहे हैं, परंतु वे अपने उन लोगोंको ठीकही समझते हैं, और धर्मकार्योंको ढोंग बतलाते हैं, मेरा मात्मा कैसा है, उसका स्वरूप क्या है, उसके सांसारिक दुःख कैसे दूर हो सकते हैं, कल्याण होता है। इत्यादि विचार सर्वथा नष्ट हो गये हैं । इन्हीं सब विचारोंके नष्ट होनेसे करुणा और कोमलताभी नष्ट हो गई है, और मनुष्यपना तथा सज्जनता भी नष्ट हो गई है. मैं जो यह काम करता हूं इसका क्या फल होगा, अच्छा फल होगा या बुरा फल होगा, इससे मुझे सुख मिलेगा वा दुःख मिलेंगा इस प्रकारका विचार सर्वथा नष्ट होता है । कोईभी अयोग्य वा स्वार्थी मनुष्य जो कुछ कह देता है, उसी कामको बिना कुछ सोने विचारे करने लग जाते हैं । इसीप्रकार सब लोग दुःखी हो रहे हैं । परस्पर वात्सल्यभाव नष्ट हो गया है और लोगोंके हृदय में स्वार्थ और दुर्भावनाओंने घर कर लिया है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माका हिताहित देखकर धर्मानुकूल काम करना चाहिए, कलिकालकी वायुमें नहीं बह जाना चाहिए । वायुमे बह जाना मच्छर वा पतंगों का काम है, मनुष्यों का काम नहीं है ।
स्यात्केन हेतुना सिद्धिः स्वात्मनो वद मे गुरो ?
प्रश्न
अर्थ -- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर मेरे लिए यह बतलाइए कि अपने आत्माकी सिद्धि किन-किन कारणोंसे होती है ? उत्तर - वांच्छादिनाशतो नृणा वनितासंगत्यागतः । गृहसंसर्गदूराद्वा सन्तोशर्धर्यतो ध्रुवम् ।। ३९६ ॥ रागद्वेषविनाशाद्धि सर्वसंकल्पनाशतः । हेयोपादेयबोधात्स्यात्सिद्धिः स्वानन्ददशिनी ॥ ३१७ ॥ ज्ञात्येति तत्त्वतस्तत्त्वं पूर्वोक्तधर्मसिद्धये ।
यतन्तां यत्नतो भव्याः संसारबंधभेदिनः ॥ ३९८ ॥
m
अर्थ - इस संसार में मनुष्यों को अपने आत्माकी सिद्धि, वांछा, इच्छा या लालसाओं का नाश कर देनेसे होती है, स्त्रीसमागमका त्याग कर देने से होता है, घरका, सबका संबंध छोड देने से आत्माकी सिद्धि होती है ।
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संतोष तथा धैर्य धारण करनेसे आत्माकी सिद्धि होती है, राग-द्वेपका त्याग कर देने से आत्माकी सिद्धि होती है, सब प्रकार के संकल्प - विकल्पोंका त्याग कर देनेसे आत्माकी सिद्धि होती है, और हेय तथा उपादेयका ज्ञान होनेसे आत्मजन्य आनंदको प्रकट करनेवाली आत्मा की सिद्धि होती है । अतएव अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझकर अपने आत्माकी सिद्धि करनेके लिए रागद्वेषादिका सर्वथा त्याग कर हेयोपादेयका ज्ञान प्राप्त करनेके बंधनोंको नाश करनेवाले भव्यजीवोंको सदाकाल अपनी समस्त शक्ति लगाकर प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
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भावार्थ - यह संसारी आत्मा अनादिकालसे इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है, तथा उस परिभ्रमणका कारण राग-द्वेष है, वा स्त्री घरका संबंध, वा अनेक प्रकारके संकल्प-विकल्प हैं। यही जीव इन राग-द्वेषके कारण, वा अनेक प्रकारकी लालसाओंके कारण अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न किया करता है, और अनेक प्रकारके अशुभ कर्मोंका बंध किया करता है, तथा उस कर्मबंध के कारण फिर इस संसार में परिभ्रमण किया करता है। घर-गृहस्थी में रहता हुआ यह मनुष्य अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता है, व्यापार में अनेक प्रकारके पाप करता है, भोगपभोगोंकी सामग्री इकट्ठी करने में अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता है, तथा उन पापोंकेही कारण अशुभ कर्मोंका बंध करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कभी नरकमें जाता है, कभी निगोदके दुःख भोगता है, कभी पशुओं में जन्म लेता है, और कभी देव वा मनुष्य होता है । इसप्रकार यह जीव सदाकाल दुःख भोगा करता है, । यदि यह जीव अपने आत्माको इन दुःखोंसे बचकर सदाके लिए सुखी बनाना चाहता है, और आत्माकी सिद्धि या मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहता है, तो उसको सबसे पहले समस्त इच्छाओंका नाश कर तपश्चरण धारण कर लेना चाहिए, स्त्रीसमागम और घर के समस्त संबंधों का त्याग कम महाव्रत धारण कर लेने चाहिए, राग द्वेषका त्याग कर, वीतराग अवस्था धारण कर लेनी चाहिए, और संकल्प-विकल्पोंका त्याग कर, मन और इंद्रियों को अपने वश में कर लेना चाहिए। तदनंतर संतोष और धैर्य धारण कर हेयोपादेयका विचार करना चाहिए। जो हेय अर्थात् त्याग करने योग्य हैं, उन सबका त्याग कर देना चाहिए, और जो उपादेय वा ग्रहण करने
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योग्य हैं, उनको ग्रहण कर लेना चाहिए। आत्माका शुद्ध स्वरूप ग्रहण करने योग्य है, और उसके सिवाय अन्य समस्त पदार्थ, वा आत्माके विकार सब त्याग करने योग्य हैं। इसीप्रकार तत्त्वोंका स्वरूप समझकर आत्मजन्य अनंत आनंदको प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक भव्यजीवको प्रयत्न करते रहना चाहिए । आत्मजन्य अनंत आनंदके प्राप्त होनेपरही इस जीवका संसार परिभ्रमण, वा कर्मोंका बंधन नष्ट हो सकता है । संसार और कर्मबंधनों के नाशका अन्य कोई उपाय नहीं है ।
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प्रश्न - काले कलौ मुनिः कुत्र निवसेन्मे वद प्रभो ?
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस कलिकालमें मुनि लोग कहां-कहां निवास करते हैं ?
उ.
- ग्रामे नगर्यां विपिने श्मशाने गिरौ गुहायां निलये जिनानाम् नदीतटेऽहं निवसामि नित्यं त्यक्त्लेति निद्यं कुदुराग्रहादिम् । द्रादिभावं स्थबलं च बुद्ध्वा यदा यथा यत्रच योग्यता स्यात् त्यक्त्वा प्रमोहं निवसेद्धि तत्र निःस्वार्थबुढया स्वपरात्मसिद्धयै
अर्थ प्रत्येक मुनिको सबसे पहले द्रव्य-क्षेत्र -काल- भावका प्रभाव देख लेना चाहिए, और फिर अपना बल वा अबल देख लेना चाहिए । यह सब समझ कर अपने रहरनेके लिए तथा अपने आत्माका कल्याण, और अन्य भव्यजीवोंका कल्याण करनेके लिए जहां योग्यता मिल जाय वहीं रहना चाहिए, किसी भी स्थानके रहने में अपना कोई स्वार्थ नहीं देखना चाहिए, तथा किसी प्रकारका दुराग्रह नहीं करना चाहिए । वहां रहने की और स्वपरकल्याणकी योग्यता यदि किसी गांव में मिल जाय, तो वहां रहना चाहिए, यदि किसी सूने मकान में ऐसी योग्यता मिल जाय, तो वहां रहना चाहिए। यदि किसी श्मशान में ऐसी योग्यता मिले तो वहां रहना चाहिए। यदि किसी पर्वतपर वा किसी गुफा में ऐसी योग्यता मिले तो वहां रहना चाहिए और यदि किसी वनमें वा जिनालय में ऐसी योग्यता मिले तो वहां रहना चाहिए | स्वपर कल्याणकी योग्यता जहां मिलती हो वहीं पर अपना स्वार्थ वा मोहका त्याग कर निवास कर लेना चाहिए ।
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भावार्थ- जब यह मनुष्य भोगोपभोगोंपे वा इंद्रियोंसे और संसारसे विरक्त हो जाता है, तब यह जीव अपने सब मोह और ममत्वका स्याग कर मनिदीक्षा धारण करता है । मुनि होनेपर यह मनष्य अपने गुरुसे शिक्षा प्राप्त करता रहता है, और उनकी आज्ञानसार सम्यकचारित्रका पालन करता है। वह मनुष्य अपने घरकी मुखसामग्रीका त्याग कर, आत्मकल्याण करनेके लिएही मनिदीक्षा धारण करता है, इसलिए वह अपने आत्मकल्याणका सदैव ध्यान रखता है । उसके मोहका त्याग हो ही जाता है, और रागद्वेषका सर्वथा त्याग कर देनेके कारण वह वीतराग हो ही जाता है । इसलिए वह मुनिदीक्षा लेनेके अनन्तर चाहे तो वह किसी नगर में रहे, वा किमो गांव में निवास करे, अथवा किसी वनम निवास करे, उसके लिए मब स्थान समान होते हैं। मनिलोग तो अपने आत्मासेही विशेष प्रयोजन रखते हैं फिर वे न तो राजमहलकी सुन्दरता देखते हैं, और न बन की स्वाभाविक शोभा देखते हैं। उनके लिए जैसा राजभवन बंसा पर्वत, त्रा बन । बे मुनिराज न तो बनमें रहनेका दुराग्रह करते हैं । और न गांव बा नगर में रहनेका दुराग्रह करते हैं। जहां उनको तपश्चरण करने की योग्य सामग्री मिल जाती है, वहीं रह जाते हैं। हां पहले के समय में और कलिकालके समयमें शारीरिक शक्तिका अंतर अवश्य है, पहले के संहनन अच्छे सुदृढ थे। अब इस कालम संहनन सदृढ नहीं है, पहले अनेक मुनि एका-एक, दो-दो महिनेका उपवास धारण कर बनमही रहते थे। यह बात अब नहीं हो सकती । यद्यपि वे मुनिराज मोह ममत्वसे रहित हैं, तथापि संहननकी हीनता होनेके कारण वे मनिराज इसप्रकार महीने दो महीनेका उपवास धारण कर, बनमें नहीं रह सकते । इसलिए वर्तमान कालमें मुनिराज गांव वा नगरके निकटही निवास करते हैं। पहले के कितनही मुनिराज किमी जिनालय मेंही वर्षायोग धारण करते थे, तथा वर्षायोग पूर्ण होने पर फिर किसी दूसरे जिनालयमें चले जाते थे । शास्त्रों में इनके अनेक उदाहरण हैं , इसलिए मोह और ममत्वका त्याग करने वाले मुनि अपने स्वपरकल्याणकी योग्यता देख कर बनमें, नगरमें, गांव में जिनालयम, वा पर्वतपर गुफामें वा वनमें चाहे जहां रह सकते हैं।
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प्रश्न – केवलं जनबृद्धच ये यतन्ते ते च कीदृशाः?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो लोग केवल जनसंख्या बढाने के लिए यत्न करते हैं ये कैसे है ? उत्तर - केवलं जनवद्धय को यतन्ते यावदेव ये।
नाचारो नरता तेषां तावसिद्धिन कामदा ॥ ४०१ ॥ ज्ञात्वेति कुमति त्यक्त्वा यतन्तां धर्मवृद्धये। सद्वस्त्वन्वेषणार्थ वा मोक्षसिद्धिर्भवेद्यतः ॥ ४०२॥
अर्थ- इस मंसारमें जो लोग जबतक केवल जनसंख्याकी वृद्धिके लिए प्रयत्न करते हैं, तबतक उनके न तो आचार-विचार रहते हैं, न मनुष्यता रहती है, और न इच्छावोंको पूर्ण करनेवाली आत्माको सिद्धिही होती है। यही समझकर जनसंख्याकी वृद्धि की कुबुद्धिका त्याग कर देना चाहिए, और धर्मकी वृद्धिके लिए अथवा श्रेष्ठ पदार्थों के अन्वेषणके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिएजिससे निगीनही मोक्षणी सिल हो जाम।
भावार्थ-जो लोग जनसंख्याकी वृद्धि करना चाहते हैं, वे वास्तवमें जनसंख्या बढाना नहीं चाहते, किंतु अपनी दुर्वासनाएं पूर्ण करना चाहते हैं। संसार में बेकारी बढ़ रही है, लोगोंको पेटभर अन्न कठिनतासे मिलता है, लाखो-करोडों मनुष्य विना खायें सो जाते हैं, और यही सब कृत्य देखकर कुछ लोग संताननिग्रहका प्रश्न खडा कर देते हैं। ऐसी अवस्थामें जनसंख्याको बृद्धिकी बात कहना केवल दुर्वासनाको पूर्ण करनेका बहाना बनाना है। शास्त्रानुकल विवाहके अनन्तर होनेवाली सन्तानको तो कोई रोकताही नहीं है, परंतु शास्त्रोंकी आज्ञानुसार विधवाओंके सन्तानका होना अवश्य स्का हआ है, और जनसंख्याको वद्धि के बहानेसे इसीको वे लोग प्रचलित करना चाहते हैं। विधवाओंसे संतान उत्पन्न करना महा निर्लज्जताका और महापापका काम है । ऐसे महापापका उपदेश देना स्वयं पतित होनेकी अपेक्षाभी महापाप है । स्वयंपतित होनेवाला मनुष्य नरक जाय, वा न जाय, किंतु पतित होनेका उपदेश देनेवाला मनुष्य राजा वसूके समान अवश्य नरक जाता है । ऐसे मनुष्य के न तो कोई आचार-विचार रहता है, न मनुष्यपना रहता है, और न वह किसीभी सांसारिक कार्यकी भी सिद्धी कर सकता है। इसलिए मसमझदार नुष्योंकी
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अपनी इस नरकके दुःख देने वाली महा-कुबद्धिका त्याग कर देना चाहिए, और धर्मकी वृद्धि के लिए वा मोक्षके समान उत्तम पदार्थोकी खोजके लिए प्रयत्न करना चाहिए । धर्मकी वृद्धि करनेसे वा मोक्षकी बा मोक्षके कारणोंकी खोज करनेसे मोक्षकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है, प्रत्येक भव्यजीवको पापोंसे डरते रहना चाहिए पापोंकी वा महापापोंकी ब्रद्धि हो ऐसा उपदेश कभी नहीं देना चाहिए। प्रत्येक भव्य जीवको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिये । यही मनुष्यपर्यायका यथार्थ फल है ।
प्रश्न - यावत्साम्राज्यलोभोस्ति सिद्धिर्नु णां भवेन्नवा ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें जब तक किसी मनुष्यको साम्राज्य का लोभ विद्यमान है तब तक उसके आत्माकी सिद्धि होती है वा नहीं ? उ.- साम्राज्यवादी भुलि गावडेव साम्राज्यलोभ भयवं त्यजेन्न । तावन सिद्धिन निजात्मचर्घा स्नेहोपि न स्याद्धि मिथो जनानाम् ज्ञात्वेति भूपाः परमार्थहेतुं साम्राज्यलोभेन भवां च हानिम् । त्यक्त्वा यतन्तां यतिवर्गतुल्या निःस्वार्थबुद्धयाऽखिलविश्वसिद्ध
अर्थ-- इस संसारमें साम्राज्यको इच्छा करनेवाला मनुष्य जब तक महाभय उत्पन्न करनेवाले साम्राज्य के लोभका त्याग नहीं कर देना है, तबतक न तो आत्माकी सिद्धि हो सकती है, न आत्मतत्वकी चर्चा हो सकती है, और न लोगोंमें परस्पर स्नेह बढ़ सकता है, इसलिए समस्त राजाओंको परमार्थकी सिद्धिके कारणोंको समझ लेना चाहिए । तथा साम्राज्यके लोभसे होनेवाली हानियोंको समझकर साम्राज्यके लोभका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, और फिर मुनियोंके समुदाय के समान बिना अपने किसी स्वार्थके समस्त संसारके जीबोका कल्याण करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।
भावार्थ- साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करने पड़ते हैं । साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक महायुद्ध करने पडते है । युद्धोंमें कितनी निर्दयतापूर्वक हिसा होती है, इस बातको सब लोग जानते हैं। इसके सिवाय साम्राज्यकी इच्छा करनेसे अनेक प्रकारके
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छल-कपट करने पड़ते हैं। कूटनीतिका बर्तन करना पडता है, और न जाने कितने जीवोंका विध्वंस करना पडता है। जिसप्रकार कोई एक मनुष्य वा राजा साम्राज्यकी इच्छा करता है, उसी प्रकार अन्य लोग वा अन्य राजाभी साम्राज्यको इच्छा करते हैं । ऐसी अवस्था में वे सब परस्पर एक दूसरेके शत्रु बन जाते हैं । उसमेंसे प्रत्येक मनुष्य वा राजा दूसरोंको मारना चाहता है, दूसरोंका देश छीनना चाहता है, और दूसरों की प्रजाको लूटना चाहता है । इसप्रकार साम्राज्यके लोभसे हानी भी बहुत अधिक होती है। कभी-कभी ऐसे राजाकी प्रजाभी बहुत दुःखी हो जाती है, और फिर बह अनेक प्रकार के उपद्रव मचाती रहती है, तथा कभी-कभी वह प्रजा उस राजाको सिंहासन से उतार देती है, बा मार देती है. इन सब झंझटों से उसके परिणाम कभी निराकुल नहीं हो सकते। इसलिए वह पुरुष न तो कभी धर्मसेवन कर सकता है, न अपने आचार-विचार श्रेष्ठ रख सकता है, न कभी आत्मतत्त्वकी चर्चा कर सकता है, और न अन्य कोई भी पारमार्थिक कार्य कर सकता है। इसप्रकार वह आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकता । अतएव इन सब बातोंको समझ कर साम्राज्यकी लिप्साका त्याग कर देना चाहिए, और मुनिलोग जिसप्रकार बिना अपने किसी स्वार्थ के समस्त संसारका कल्याण चाहते हैं उसी प्रकार राजाओं को भी बिना किसी स्वार्थ के समस्त संसार के कल्याणकी इच्छा करनी चाहिए। मनुष्यपर्याय पा करके अपना आत्मकल्याण कर लेना राजाओंका परम कर्तव्य है । यह राज्यका लोभही नरकका कारण है, इसलिए इसका त्याग कर देना और जिनदीक्षा लेकर ध्यान तपश्चरण कर आत्मकल्याण कर लेना प्रत्येक भव्यजीवका कर्त्तव्य है ।
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प्रश्न - भ्रमन्ति के भवारण्ये वद में सिद्ध गुरो ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसाररूपी महासागर में कौन-कौन जीव परिभ्रमण करते है ?
उ.
धर्माधर्म न ये ज्ञात्वा वस्तुयाथात्म्यलक्षणम् । स्वस्वधर्मप्रचारार्थं यतन्ते केवलं शठाः ॥ ४०५ ॥ तद्दोषाते भवारण्ये भ्रमत्याचन्द्रतारकम् । धर्माधर्मं ततो ज्ञात्वा गृहन्तु सिद्ध्ये सदा ॥ ४०६ ॥
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अर्थ- जो अज्ञानी लोग धर्म-अधर्मका स्वरूप तो जानते नहीं और पदार्थीका यथार्थ लक्षण जानते नहीं, केवल अपने-अपने धर्म के प्रचारके लिएही प्रयत्न किया करते है। अतएव इसी महादोषके कारण वे लोग इस संसाररुपी महा सागरमें जबतक सूर्य तारा और चन्द्रमा विद्यमान रहते हैं तबतक परिभ्रमण किया करते हैं । इसलिए भव्यजीवोंको सबसे पहले धर्म-अधर्मका स्वरूप जानना चाहिए, और फिर जो यथार्थ धर्म हो, उसको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए धारण करना चाहिए।
भावार्थ- इस संसारमें बहतसे लोग ऐसे हैं, जो न तो धर्मका म्वरूप समझते है,न अधर्मका स्वरूप समझते हैं, और न जीच वा अजीव आदिके यथार्थ नरूपकोही समयते नोभी ने अपने-अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए प्रयत्न करते हैं। संसारमें अनेक धर्म है, कितनेही धर्म मांसभक्षणको उचित समझते हैं, कितनेही धर्म मद्यपानको उचित समझने है, कितनेही धर्म मधुसेवनकोभी उचित बतलाते है, कितनेही धर्म पशुओंकी बलि देना उचित बतलाते हैं, कितनेही धर्म पशुओंका होम करना ठीक समझते हैं, कितनेही धर्म मूर्तिपूजाका निषेध करते हैं, कितनेही धर्म रात्रिभोजनको ठीक समझते हैं, कितनेही धर्म पदाथोंको सर्वथा नित्य मानते हैं, कितनेही धर्म पदार्थोंको सर्वथा अनित्य मानते हैं, कितनेही इस समस्त संसारका कारणभूत एक अमूर्त ईश्वरकोही मानते हैं, पंचभूतको संसारका कारण मानते हैं. कोई धर्म विज्ञानकोही संसारका कारण मानता है, कोई इस संसारको मिथ्या समझता है, कोई धर्म ज्ञानादिक गणोंके अभाव होनेको मोक्षकी प्राप्ति मानता है, और कोई धर्म मरने के बादही मोक्षकी प्राप्ति मान लेता है कहां तक कहां जाय इस संसार में अनेक धर्म हैं, और वे सब परस्पर विरुद्ध हैं, यह निश्चित सिद्धांत है कि परस्पर विरुद्धता धारण करनेवाले अनेक धर्मोमें कोई एकही धर्म यथार्थ धर्म हो सकता है। सब धर्म यथार्थधर्म नहीं हो सकते, परंतु सब धर्मवाले अपने-अपने धर्मका प्रचार करते हैं, यह केवल उनकी अज्ञानता है । यदि उन्हे धर्म-अधर्मकी पहिचान होती, तो वे अवश्यही यथार्थ धर्मको ग्रहणकर उसीका प्रचार करते, परंतु वे अजानी है, उन्हे, आत्मा ज्ञान नहीं है इसीलिए इस संसारमें सदाकाल परिभ्रमण किया करते है,
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अतएव सबसे पहले धर्म-अधर्मका स्वरूप जानना चाहिए। फिर अपने आत्मको सिद्ध करने के लिए यथार्थ धर्मकोही ग्रहण करना चाहिए । यथार्थ धर्म धारण करनेसेही यह जीव संसारके दुःखोंसे छूट सकता है, अन्यथा जिस प्रकार अनादिकालसे इस संसारमें परिभ्रमण करता आया है, उसी प्रकार अनंतकालतक इसी संसारमें परिभ्रमण करता रहेगा, और महादुःख भोगता रहेगा।
प्रश्न- कलौ काले नरा कीदृग्भवन्ति वद मे प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब मेरे लिए यह बतलानेकी कृपा किजिए कि इस कलिकालमें मनुष्य कैसे होते हैं ? उत्तर - प्रायः काले कलौ जोवाः नृरूपं धारयन्त्यपि ।
कुर्वन्ति पशुवत्कार्य त्यक्त्या लज्जाभयादिकम् ॥ ४०६।। ततो मूढा भवाब्धौ ते निश्चयेन पतन्त्यधः । मतिः स्याद् यादृशी येषां तेषां स्यात्तादृशी गतिः ॥ अस्याः रीतेः प्रसिद्धाया विशेषो न मयोच्यते । ज्ञात्वेति स्वमतिः शुद्धा कार्या स्याच्छर्मदा गतिः ४०९ अर्थ- इस कलिकालमें बहुतो जीव मनुष्यपर्याय धारण करकेभी लज्जा और-भय आदिका त्याग कर प्रायःपशुओंके समान कार्य किया करते है, इसलिए वे अज्ञानी जीव इस संसाररूपी महासागरमें परिभ्रमण करनेके लिए अवश्यही नरक-निगोद आदि नीची गतियोंमें पडते है । सो ठिकही है, संसारमें यह रीती प्रसिद्ध है, की जिन जीवोंकी जैसी बुद्धि होती हैं, वैसीही गति होती है । इसीलिए हमने यहांपर इसका विशेष वर्णन नहीं किया है। यही समझकर भव्यजीवोंको अपनी बुद्धि शुद्ध कर लेनी चाहिए, जिससे कि आत्मकल्याण करनेवाली शुभगति प्राप्त हो।
भावार्थ- इस संसारमें जो जैसा करता है, वह वसाही फल पाता है । जो मनुष्यों जैसा कार्य करता है, वह मनुष्यों सा फल पाता हैं, और जो पशओंके समान काम करता है, वह पशुओंजैसा फल पाता है। मनुष्यपर्याय पा करके पापोंका त्याग कर, आत्मकल्याण कर लेना मनुष्योचित कार्य है, तथा मनुष्यपर्याय पा करके पाप कार्योमेंही लगे
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रहना, अनेक प्रकारके छल-कपट कर जीविका करना, सदाचारका कुछ ध्यान न रखना, अपना भेष-भूषागा-दंगा बनाना, खई-खर्ड पेशाब करना आदि सब कार्य पशुओंके समान कार्य कहलाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो लज्जा और पापोंका भय मनुष्यका एक भूषण है । संसारमें ऐसे बहुतसे पाप है, जो लज्जा और भयसे छूट जाते है । जहाँ लज्जा और भय छूट जाता है, वहींपर अनेक प्रकारके पाप होते हैं। इस कलिकालमें प्रायः लज्जा और भय छूट गया है, तथा स्वतंत्रताकी वायुमें बह जानेके कारण सब लोग निर्लज्ज हो गये हैं, इसीलिए न तो वे धर्म करते हैं, न माता-पिता आदि गुरुजनोंके सामने नम्रता धारण करते है, और न आर्ष संस्कारोंका कुछ ध्यान रखते है । इन्हीं सब कारणोंसे वे लोग संसारमें पडे-पड़े सदाकाल महादुःख भोगा करते हैं। यह सब समझकर प्रत्येक मनुष्यको सबसे पहले अपनी बुद्धि शुद्ध कर लेनी चाहिए । शुद्ध बुद्धिके होनेपरही मनुष्य धार्मिक क्रियाओंकोभी करता है, आर्ष संस्कारोंकाभी ध्यान रखता है, और नम्रताभी धारण करता है। इन सब कारणोंसे वह अपने आत्मकल्याण कर लेता है, और स्वर्गादिक उत्तम गतियोंको प्राप्त होता है ।
प्रश्न - लोके ब्रह्मा शिवो विष्णु: कोस्तीह मे प्रभो वद ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस संसारमें कौन ब्रह्मा है और कौन विष्णु है। उ. ब्रह्मास्ति चात्मैव शुभाशुभादेः कर्तृत्वयोगाद् भुवने प्रसिद्धः तन्नाशकत्वात् समयं च लब्ध्वा स्यात्मैव चोक्तो हि महेश्वरोपि।। स्वात्मात्मना चात्मनि चात्मने वै हनन्यभक्त्या सुखदायकत्वात् स्वात्मैव विष्णुः परमार्थदृष्ट्या ततश्च बंद्योपि स एव पूज्यः ।
अर्थ- इस संसारमें यह आत्माही शुभाशुभ कर्मोको करता है, इसलिए यह आत्माही ब्रह्माके नामसे प्रसिद्ध है, तथा समय पाकर अर्थात काललब्धिके निमित्तसे यह आत्माही उन शुभाशुभ कर्मोको नाश करता है, इसलिए यह आत्माही महेश्वर वा महादेव कहलाता है। इसीप्रकार यही आत्मा अपने आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें अपनेही आत्माके लिए अनन्य भक्ति धारण कर सुख देता है, इसलिए परमार्थ
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दृष्टि से यही आत्मा विष्णु कहलाता है । इसप्रकार यही आत्मा ब्रह्मा है, यही माहेश्वर है और यही विष्णु है, इसलिए यह आत्माही वन्दनीय और पूज्य है ।
भावार्थ - इस संसार में बहुत से लोग ब्रह्माको सृष्टिका कर्ता मानते हैं, महादेवको इस सृष्टिका नाश करनेवाला वा प्रलय करनेवाला मानते हैं, और विष्णुको उनकी रक्षा करनेवाला मानते हैं। परन्तु विचार करनेसे यह बात ठीक नहीं बैठती है। क्योंकि उनकी सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, और महादेव तीनोंही ईश्वर हैं। इसलिए ईश्वर ही जगत्कर्ता हो जाता है, ईश्वरही नाश करनेवाला हो जाता है, और ईश्वरही रक्षक बन जाता है । परंतु यह बात बन नहीं सकती है । क्योंकि जो जिसको उत्पन्न करता है वह उसका नाश नहीं कर सकता । दूसरी बात यह है कि ईश्वर निराकार है । जो निराकार होता है वह किसीभी क्रियाको नहीं कर सकता । क्रिया साकार पदार्थसेही हो सकती है, तथा जो कर्ता होता है उसको क्रिया अवश्य करनी पडती है । विना क्रिया कोईभी कर्ता नहीं हो सकता, तथा निराकारके कोई क्रिया हो नही सकती । इसलिए निराकार ईश्वर कभी किसीका कर्ता नहीं हो सकता | जब इस सृष्टिका कर्ता ईश्वर नहीं है तो फिर कौन है ? यही बात इस श्लोक में दिखलाते हैं। ऊपरके कथनसे यह बात सिद्ध हो जाती है, कि जिसमें क्रिया हो सकती हैं, वही इस सृष्टिका कर्ता हो सकता है क्रिया दो पदार्थों में दिखाई पडती है, एक जीवमें और दूसरे पुद्गलमें । जीवमें जो क्रिया दिखाई पडती है वह संसारी सशरीर जीव मेंही दिखाई पडती है । इसलिए इस सृष्टिका कर्ता एक तो सशरीर जीव है। सशरीर जीवही पुत्र-पौत्रादिक उत्पन्न करता है, खेती-व्यापार करता है, मकान - भवन बनाता है, वस्त्र बनाता है, और संसारके आवश्यकता के समस्त पदार्थ बनाता है। इसलिए यह सशरीर जीवही इस सृष्टिका कर्ता कहा जाता है। इसके सिवाय शुभाशुभ कर्मोंको यह सशरीर जीवही करता है, तथा यही जीव उनका फल भोगता है । इस जीवको जो शुभाशुभ सामग्री प्राप्त होती है, वहमी अपने किए हुए कर्मो के उदयसेही होती है । इसलिए भी यही सशरीर जीव इस सृष्टिका कर्ता माना जाता है। अतएव कहना चाहिए कि यह आत्माही सृष्टिका कर्ता होनेके कारण ब्रह्मा कहलाता है ।
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यहांपर इतनी बात और समझलेना चाहिए कि जिसप्रकार सक्रिय होनेके कारण सशरीर आत्मा कर्ता माना जाता है, उसीप्रकार सक्रिय होने के कारण पुद्गलभी सृष्टिका कर्ता माना जाता है। वायु पुद्गल हैं, और अपनेआप बहती है. बिजली पुदगल हूँ बहुभी अपनेअप जलती है, शब्द पुद्गल है यहभी अपने आप चलता है। इससे सिद्ध होता है कि पुद्गलमें भी क्रिया है, तथा जहां क्रिया होती है वहीं कर्तृत्व अवश्य होता है । यही कारण है कि बिजली बहुत कार्य करती है, अग्नि और पानीसे उत्पन्न हुई भाफ बहुत से कार्य करती हैं, और वायुभी बहुत से कार्य करती है। सुबर्ण के खान की मिट्टी अपनीही मट्टीको सोनेका रूप दे देती है, चांदी खानकी मिट्टी अपनेही परमाणुओंको चांदी बना देती है। इसीप्रकार पर्वतकी मिट्टी वा पत्यरकी खानोंकी मिट्टी पत्थर बन जाती है । इसलिए उन सबका कर्तृत्व उस-उस स्थानकी मिट्टी से सिद्ध होता है। पानी, मिट्टी, सर्दी-गर्मी सब पुद्गल हैं, परंतु उनसे घास वा अनेक प्रकारके कीडे -
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कोडे उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए उनका कर्तुत्व पानी, मिट्टी, सर्दीगर्मीकोही माना जाता है, इसप्रकार विचार करने से पुद्गलमें भी क्रिया सिद्ध होती है, इसलिए उस पुद्गलमें कथंचित् सृष्टिकर्तृत्व मान जाता है ।
जिसप्रकार यह सशरीर आत्मा क्रियाविशिष्ट होनेकेकारण कर्ता कहलाता है, और इसीलिए ब्रह्मा कहलाता है, उसीप्रकार यही सशरीर आत्मा उस सृष्टिका नाश करनेवाला महादेव कहलाता है । क्योंकि जिन शुभ वा अशुभ कर्मो को यह करता है, उन्हीं कर्मोका वह फल भोगकर नष्ट करता है । अथवा मोक्ष प्राप्त करनेके लिए उद्यम करता हुआ यह आत्मा अपने ध्यान तपश्चरणके द्वारा उन समस्त कर्मोका नाश कर देता है, इसलिए वही आत्मा अपनी कर्मरुपी सृष्टिका नाश करनेके कारण महादेव कहलाता है। इसके सिवाय जिस मकानको बनाता है, उसको गिराता भी हैं। जिस खेतीको बोता है उसको काटताभी है। जिस द्रव्यको कमाता है उसको खर्चभी करता है, इन्ही सब कार - णोंसे वह सशरीर आत्मा महादेव कहलाता है । इसप्रकार यही आत्मा ब्रह्मा सिद्ध होता है, यही आत्मा महादेव सिद्ध होता है, और यही आत्मा विष्णु सिद्ध होता है, क्योंकी जिसप्रकार विष्णु इस सृष्टिको सुख देनेवाला माना जाता है, उसीप्रकार यह आत्माभी अपने आत्माके सुखके लिए
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सदाकाल प्रयल करता रहता है। वह आत्मा अपने आत्माको कभी दुखी नहीं देखना चाहता। इसके सिवाय यह आत्मा अपने आत्माको मोभसुख प्राप्त करनेके लिए वा मोक्षका अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए अपनेही आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें प्रयत्न करता रहता है, और प्रयत्न करते-करते उस अनंत सुख को प्राप्त कर लेता है। इसलिएभी यह आत्मा अपने आत्माको सुख देनेके कारण विष्णु कहलाता हैं। अतएव परमार्थदष्टिसे देखा जाय तो यह आत्माही ब्रह्मा है, यही आत्मा विष्णु है, और यही आत्मा महादेव है । इसलिए यह आत्माही बंदनीय और पूज्य माना जाता है।
प्रदन - उपादेयो भवेत्स्वामिन् को हेयो वद मे भबि ? ___ अर्थ-है स्वामिन् ! अब कृयाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस मंसार में उपादेय अर्थात ग्रहण करने योग्य क्या है और हेय अर्थात त्याग करने योग्य क्या है ? उ. दृग्बोधचारित्रमयो ममात्मा ध्यानादिगम्यो व्यवहारतः सः। चिन्मात्रमूर्तिः परमार्थतश्योपादेय एवास्ति ततः समन्तात् ॥ तदन्यएवास्ति ततः पदार्थः सर्वोपि हेयश्चिदचित्स्वभावो । स्वानन्दसाम्राज्यपदे स्थितस्य यथास्ति हेयश्च परप्रदेशः ४१३
अर्थ – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रसे सुशोभित होनेवाला यह मेरा आत्माही मेरे लिए उपादेय है । यह रत्नत्रयसे सुशोभित होनेवाला मेरा आत्मा ध्यानादिके द्वारा जाना जाता है, और व्यवहार दृष्टिसे चैतन्यस्वरूप है। ऐसा यह मेरा आत्मा परमार्थ दष्टिसे सब ओरसे उपादेय है, तथा जिसप्रकार अपने आत्मजन्य आनंदके साम्राज्य सिंहासनपर विराजमान होनेवाले आत्माके लिए अन्य समस्त प्रदेश हेय गिने जाते हैं, उसी प्रकार उम रत्नत्रयम्प मेरे आत्मासे भिन्न जितने चैतन्य बाजडरूप पदार्थ हैं, वे सब हेय गिने जाते हैं।
भावार्थ-- इस आत्माको यथार्थ अनंत सुखकी प्राप्ति मोक्ष अवस्था में होती है, मोक्ष अवस्थामें केवल रत्नत्रय स्वरूप आत्माही रहता है,
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रत्नत्रय स्वरूप आत्माके सिवाय जितने क्रोध, मान, माया, लोभ काम, मद, मत्सर, मोह, राग, द्वेष आदि विकार हैं, वे सब नष्ट हो जाते हैं, तथा शरीर नष्ट हो जाता है, इसके सिवाय संसारके समस्त अन्य पदार्थ इस संसारमेंही रह जाते हैं। शुद्ध आत्माकेसाथ कोई नहीं रहता, इसलिए रत्नत्रय स्वरूप आत्माही उपादेय है, और शेष चैतन्य स्वरूप वा अचेतन जितने पदार्थ हैं, वे सब हेय वा त्याग करने योग्य है, यही समझकर प्रत्यक आत्माको अपनं आत्माम रत्नत्रय प्रगट करनेका उपाय करना चाहिए, सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिए, फिर सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि करना चाहिए, और राग, द्वेष, मोह आदि समस्त विकारोंका त्याग कर पूर्ण सम्यनचारित्र धारण करना चाहिए । इसप्रकार सम्यकचारित्रकी वृद्धि करते-करते जब पूर्ण चारित्र हो जाता है, उसी प्रकार इस आत्माको मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उस समय यह आत्मा समस्त कर्मोसे रहित होकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है, तथा ऐसा शुद्ध आत्माही उपादेय कहलाता है। ऐसे रत्नत्रयस्वरूप आत्माके सिवाय अन्य जितने भी पदार्थ है, सम हेय वा त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि मुक्तावस्थामें बेसब आत्मासे भिन्न हो जाते हैं. इसलिए एंसे शुद्ध आत्माकी प्राप्तिके लिएही प्रयत्न करना चाहिए, अन्य सरको छोड देनेका प्रयत्न करना चाहिए, यही संसारमें सार है, और बाकी सब असार हैं।
आगे ग्रंथकर्ता आचार्य इन हेयोपादेयके स्वरूपको कहनेवाले इस अध्यायके निरूपण करनेका अभिप्राय बतलाते हैं।
एवमाचार्यवर्येण धीमता कुंथुसिंधुना । नृणां चातुर्यवृद्ध च स्वपरसिद्धये तथा ॥ ४१४ ॥ यथावत्सुखदं प्रोक्तं हेयोपादेवलक्षणम् ।
युष्मभ्यं रोचते यद् यत् कुरुत तद्धि तत्सदा ॥ ४१५ ॥ अर्थ-इस प्रकार महविद्वान् आचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरने मनुष्योंका चातुर्य बढाने के लिए, अपने आत्मकल्याण करनेके लिए, और अन्य जीवोंका कल्याण करने के लिए यह सुख देनेवाला, और यथार्थ स्वरूपको कहनेवाला, हेयोपादेय तत्त्वका निरूपण करनेवाला यह चौथा अध्याय निरूपण किया है, इस अध्याय में सब हेयोपादेय तत्वोंका स्वरूप बतलाया है,
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दुःख देनेवाले वा सुख देनेवाले पदार्थका निरूपण किया है, तथा मनुष्योंके कर्तव्य बतलाए हैं। इनमेंसे जिसको जो अच्छा लगे, जिससे आत्मकल्याण हो वही काम सदाकाल करते रहना चाहिए। इति श्रीआचार्यवर्य श्रीकुन्थुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथ
हेयोपादेय स्वरूपवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः इस प्रकार आचार्यययं श्रीकुन्थुसागरविरचित श्रीशान्तिसिंधु नामके महाग्रंथकी 'धर्मरत्न' पं. लालाराम शास्त्रीकृत हिंदी भाषाटीकामें हेयोपादेयके स्वरूपका वर्णन
करनेवाला यह चौथा अध्याय समाप्त हुआ।
पांचवां अध्याय !
- शांतिका उपदेश - शांतिप्रदं भ्रान्तिहरं च नत्वा श्रीशांतिनाथं क्रियतेऽथ शान्त्य । श्रीसूरिणा शान्त्युपदेश एव श्रीकुंथुनाम्नात्मरतेन नृभ्यः।४१६॥
अर्थ- संसारके समस्त जीवोंको शांति प्रदान करनेवाले और अशांतिको हरण करनेवाले ऐसे भगवान शांतिनाथको नमस्कार करके संसारभरमें शांति प्राप्त होने की कामनासे अपने आत्मामें लीन रहनेवाले आचार्यवर्य श्रीकुंयुसागर महाराज मनुष्योंके लिए शांतिका उपदेश देश देते हैं।
प्रश्न – किमर्थं क्रियते स्वामिन् वद दानार्चनादिकम् ?
अर्थ- स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि इस संसारमें पात्रदान वा जिनपूजन आदि धार्मिक कार्य किसलिए किए जाते हैं ।
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उ.-शान्त्यर्थमेवं हि जपस्तपश्च व्रतोपवासोपि समो दमादिः ।
स्वाध्यायमौनार्थनदानधर्मः सुखप्रदो ध्यानविधिः पवित्रः॥ क्षमाकृपाधैर्यदयाप्रचारः स्वर्मोक्षदा स्यात्ममतिः स्वचर्चा। तत्त्वोपदेशो विकृते विरागः स्वास्तिक्यबुद्धिः परलोकवार्ता॥ बिम्बप्रतिष्ठा गुरुदेवसेवासन्मानसत्कारनतिः स्तुतिश्च । निजात्मशुद्धिः क्रियते च भक्तिः ज्ञात्वेति नित्यं यततां तदर्थम् ।
अर्थ- इस संसारमें जो जप वा तपश्चरण किया जाता है, अथवा व्रत-उपवास किये जाते हैं, रामता धारण की जाती है, वा इंद्रियदमन किया जाता है, स्वाध्याय किया जाता है, मौन धारण किया जाता है। भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा की जाती है, पात्रदान दिया जाता है, वा धर्मसाधन किया जाता है, सुख पाक्षि यान किया जाता है, क्षमा, कृपा, धीरता, दया आदि आत्माके गुणोंका प्रचार किया जाता हैं, स्वर्ग-मोक्ष देनेवाली अपने आत्माकी बुद्धि अपने आत्मामें लीन की जाती है, वा आत्मतत्वकी चर्चा की जाती है, तत्त्वोंका उपदेश दिया जाता है, राग-द्वेश आदि विकारोंका त्याग किया जाता है, अपने आत्मामें आस्तिक्य बुद्धि रक्खी जाती है, परलोककी चर्चा की जाती है. बिम्वप्रतिष्ठा की जाती है,वा निग्य गुरुकी सेवा, सन्मान आदर-सत्कार किया जाता है, उनको नमस्कार किया जाता है, वा उनकी स्तुति की जाती है, अपने आत्माकी शुद्धि की जाती है, बा भगवान जिनेंददेवकी भक्ति की जाती है, यह सब अपने आत्मामें शांति प्राप्त करने के लिए की जाती है । यहि समझकर शांति प्राप्त करनेके लिए जप, तप, आदि करने के लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए।
भावार्थ-- जप करने में आत्माको निराकुलताकी प्राप्ति होती है, तथा निराकुलताही शांति है। ध्यान और तपश्चरण करने में भी मंसारके सब झंझट छुट जाते हैं, और आत्मा निराकुल हो जाता है। व्रत करनेक दिन सब सांसारिक व्यापारोंका त्याग कर, भगवान जिनेद्रदेवके गणों में मन लगाया जाता है, वा स्वाध्यायमें मन लगाया जाता है, इसलिए व्रत करने में भी शांति प्राप्त होती है। उपवास के दिन संसारके समस्त आरंभ वा व्यापारका त्याग कर जिनालय में निवास किया जाता है।
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वहांपर भगवान् जिनेंद्रदेवके शांतमुद्राका दर्शन करनेसेही परम शांति प्राप्त होती है । समता धारण करना शांतिका विशेष कारण है, क्योंकि रागद्वेषके कार्योसे आकुलता होती है, तथा समतामें रागद्वेषका सर्वथा त्याग कर दिया जाता है. इसलिए समतामें सर्वथा शांति प्राप्त होती है। इंन्द्रियदमन में भी परम शान्ति प्राप्त होती है । क्योंकि लालसाही दुःखका कारण है, और इन्द्रियदमनमें लालसाका त्याग हो जाता है। इसलिए इंद्रियदमन करनेसे शांति अवश्य प्राप्त होती है। स्वाध्याय करने में मन-वचन-काय तीनोंही तत्वचर्चा में लग जाते हैं, वा आत्माके स्वरूप में लग जाते हैं । इसलिए वहां भी शांतिकी प्राप्ति अवश्य होती है । मौन धारण करने में भी बहतसी आकुलता मिट जाती है. और शांति प्राप्त हो जाती है । भगवान् जिनेंद्रदेवका पूजन करने में सबसे अधिक निराकुलता वा आनंद प्राप्त होता है, इसलिए उतनी देरतक उत्तम शांति प्राप्त हो जाती है। पात्रदान देने में निग्रंथ गुरुके दर्शन होते हैं। उनके दर्शनसे तथा उनकी सेवासे परमआनंद और शांति प्राप्त होती है। धर्मसाधनमेंभी सब आकुलताएं नष्ट होकर शांति प्राप्त होती है। ध्यानमें आत्मजन्य आनंद प्राप्त होता है । और परम शांति प्राप्त होती है । क्षमा, कृपा: दया, धीरता, वीरता, आदि आत्माके गुणोंमें सदा शांति प्राप्त होती है । आत्मामें लीन होनेसे मोक्ष प्राप्त होनेतककी शांति प्राप्त होती है । आत्मतत्वकी चर्चा वा तत्त्वोंके उपदेश देने में वा, परलोककी चर्चा करने में, आत्माके स्वरूपका बोध होता है. और आत्माके स्वरूपका बोध होनेसे परम शांति प्राप्त होती है। रागद्वेष आदि विकारोंका त्याग कर देनेसे, आत्मा आत्म-गणोंमें लीन होता है, इसलिए यहभी परम शांतिका कारण है। विम्बप्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा कराने में वा तेरहद्वीपविधान आदि अनेक प्रकारके विधान कराने में हजारों मनुष्यों के आत्मामे आनंद और शांति प्राप्त होती है, तथा महापुण्य प्राप्त होता है । भगवान् वीतराग निग्रंथ गुरु परम शांतिकी मूर्ति है, इसलिए उनकी सेवा-भक्ति करनेसे, उनको नमस्कार, वा उनकी स्तुति करनेसे परम शान्ति प्राप्त होती है। पहले अनेक राजा, महाराजा वीतराग गुरुओंके दर्शन करनेमात्रसे संसारसे विरक्त होकर जिनदीक्षा
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धारण कर लेते थे । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इन सब गुणोंको धारण कर, अपने आत्मामें शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । और फिर उस परम शांतिके द्वारा कर्मोको नष्ट कर, मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए।
प्रश्न- कुर्वतोपि तपोध्यान न स्याच्छान्तिः स कीदृशः ?
अर्थ- जो पुरुष ध्यान और तपश्चरण करता रहता है, फिरभी उसको शांतिकी प्राप्ति नहीं होती, उस मनुष्यको कैसा समझना चाहिए। उ. व्रतोपवासं च तपो जपं च स्वाध्यायमोनार्चनदानधर्मम् । पूजां प्रतिष्ठा विविधां सुयात्रां तत्त्वप्रचारं च परोपकारम् ॥ नित्यं प्रकुर्वन्नपि पुण्यकार्य यदि स्वचिते न दधाति शान्तिम् । स्यातहि तस्येति वृथैव जन्म व्यर्थ यथान्नं लवणेन हीनम् ॥
अर्थ-जो पुरुष व्रत वा उपवास करता है, तपश्चरण वा जप करता है, स्वाध्याय करता है, मौन धारण करता है, जिनपूजन करता है, दान करता है, धर्म धारण करता है, प्रतिष्ठा करता है, अनेक प्रकारको यात्राएं करता है, तत्त्वोंका प्रचार करता है और परोपकार करता है, इसप्रकार जो पुरुष प्रति दिन पुण्य कार्य करता है, फिरभी उसके हृदयम शांति प्राप्त नहीं होती। जिस प्रकार लवणके विना अन्न अरूचिकर लगता है, उसी प्रकारक उसका जन्मही व्यर्थ है, यह समझना चाहिए।
भावार्थ- ऊपरके इलोकमें यह बात अच्छी तरह बताई जा चुकी है, कि व्रत उपवास आदि पुण्य कार्य करनेसे आत्माको अत्यंत शांति प्राप्त होती है, तथापि जो पुरुष इन सब पुण्य कार्योको करता हुआभी अपने हृदय में शांति धारण नहीं करता, वह पुरुष वास्तव में इन पुण्य कार्योको नहीं करता, अथवा उसका मन-वचन-काय इन पुण्यकार्यों में नहीं लगता,। क्योंकि इन सब पुण्यकार्योंमें मनके लगनेपर शांतिकी प्राप्ती होना अनिवार्य है, यदि शांति प्राप्त नहीं होती है तो समझना चाहिए, कि उसका मन नहीं लगा है। मन लगाए बिना कोई काम सफल नहीं हो सकता, इसीलिए मन लगाए बिना ऐसे पुण्यकार्यों को करना, अपने जन्मको व्यर्थ खोना है । अतएव अपनी शक्तिके अनुमार
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.......-...----.........-....-. जितनेभी पुण्यकार्य किए जाय, उन सबमें मन-वचन-काय तीनोंही लगना चाहिए, क्योंकि जहाँपर मन-वचन-काय तीनोंही किसी पुण्यकार्य में लग जाते हैं, वहांपर निराकुलता आती है, और निराकुलता आनेसे शांति प्राप्त हो जाती है ।
प्रश्न- पंचाक्षरोधहेतुः को वद मे भगवन् प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! हे प्रभो ! अब कृपाकर मेरे लिए पांचोइंद्रियोंका निरोध करनेका हेतु बतलाइए ? उ. शान्त्यर्थमेव क्रियते प्रमोदात् पंचाक्षरोधः सुखदः सदैव । मानापमानोपि विमुच्यते च भयंकरः क्रोधचतुष्टयादिः॥४२२ एतत्प्रकुर्वन्नपि नैव शान्तिश्चेतस्य लोके विफलः प्रयत्नः । सुनीतिहीनस्य यथा नृपस्य ज्ञात्वेति शान्तिहृदि धारणीया॥
अर्थ- इस संसार में जो सदाकाल मुख देनेवाले पांचोंइंद्रियोंवा निरोध किया जाता है, वह आत्मामें गांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है, और हर्षपूर्वक किया जाता है । इसके सिवाय मान-अपमानका त्याग कर दिया जाता है। और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों भयंकर कषायोंका त्याग कर दिया जाता है । यदि इन सब कार्योको करते हुए भी शांति प्राप्त न हो तो, जिसप्रकार श्रेष्ठ नीतिको पालन न करनेवाले राजाका सन्न प्रयत्न निष्फल हो जाता है, उसीतकार उन इंद्रियोंका निरोध करनेवालेकाभी प्रयत्न निष्फल समझना चाहिए।
भावार्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच इंद्रियां कहलाती हैं । स्पर्शन इंद्रियका विषय स्पर्श करना है, रसना इंद्वियका विषय रस ग्रहण करना है, प्राण इंद्रियका विषय सूचना है, नेत्र इंद्रियका विषय देखना है, श्रोत्र इंद्रियका विषय शब्द सुनना है । इनके सिवाय मनभी इंद्रिय कहलाता है, और वह सब इंद्रियोंके विषय ग्रहण करने में सहायक होता है, तथा समस्त तत्त्वोंको ग्रहण करनेरूप अपने स्वतंत्र विषयको ग्रहण करता है। ये इंद्रियां जब सब अपने-अपने विषयोंमें लीन रहती हैं, तब यह आत्मा अपने स्वरूपको भूलकर इन्हीमें मोहित हो जाता है,तथा इन्हीं इंद्रियोंके विषयोंको संग्रह करने में लगा रहता है। उस समय वह कषायोंको मी तीवना धारण करता है और मान-अपमानकोभी सहन
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करता है, यह सब मोहनीय कर्मके उदयका तीव्र फल समझना चाहिए । जब यह आत्मा उस मोहनीय कर्मको शान्त कर लेता है, वा उसको नष्ट कर देता है, तब यह आत्मा अपने स्वरूपको पहचानने लगता है। अपने आत्माके स्वरूपको पहचानकर यह आत्मा उन इंद्रियोंको अपने आत्मकल्याणका शत्रु समझने लगता है, और धीरे-धीरे प्रयत्न करता हुआ सुन इंद्रियोंके विषयोंको रोकता है, जब वह इंद्रियोंके विषयों का निरोध कर लेता है, तब उसके कषायोंकी तीव्रताभी हट जाती है, और मानअपमानका ध्यान भी हट जाता है। उस समय उस आत्माको पूर्ण शान्ति प्राप्त हो जाती है । कपायोंकी तीव्रता ही शांतिको बाधक होती है, वह कषायोंकी तीव्रता इंद्रियों का निरोध करने से अपनेआप हट जाती है । यदि इन्द्रियोंका निरोध करते हुएभी शांति प्राप्त नहीं होती, तो समझना चाहिए कि उस पुरुषकी लालसाएही नही घटी हैं। लालसाओंके न घटनेमेही शांति प्राप्त नहीं होती । अतएव जो पुरुष इंद्रियोंका निरोध करता हुआ भी लालसाओंको नहीं घटाता, और शांति धारण नहीं करता तबतक उसका सब प्रयत्न निष्फल समझना चाहिए । इसलिए प्रत्येक मध्यजीवको अपनी लालसाएं घटाकरही इंद्रियोंका निरोच करना चाहिए, जिससे कि आत्मामें पूर्ण शांति प्राप्त हो।
प्रश्न- स्नेहादित्यागत: स्वामिन् को लाभो वद मे भुवि ? ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में स्नेहादिका त्याग करनेसे क्या-क्या लाभ होता है ? उ.-स्नेहप्रसंगादिविवर्जनेन प्रीतिप्रमोदादिविसर्जनेन ।
द्वेषप्रदोषादिविमोचनेन निजान्यजन्तोर्ममताद्य भावात् ॥ निजात्मरूपा सुखदातिशुद्धा सर्वात्मदेशे शशिनि प्रभेव । शान्तिर्भवेत्सर्वविकारहवीं ज्ञात्वेति कार्यः कथितः प्रयोगः॥
अर्थ- जिसप्रकार बादलोंके हट जानेसे समस्त मतापोंको दूर करनेवाली चंद्रमाकी चांदनी फैल कर, चंद्रमाकी शोभा बढाती है. तथा संसारमें शांति उत्पन्न करती है, उमीप्रकार समस्त स्नेहका त्याग कर देने से, प्रीति वा प्रमोदका त्याग कर देने से, रागद्वेष आदि दोषोंका त्याग कर देनेसे, तथा अपने ऋटम्बी लोगोंसे, तथा अन्य समस्त जीवोंमे
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( शान्तिसुधासिन्ध )
ममत्वका त्याग कर देनेसे समस्त विकारोंको दूर करनेवाली, अत्यंत शुद्ध महासुख देनेवाली, और अपने आत्माके समस्त प्रदेशोंमें शांति उत्पन्न हो जाती है । अतएय समस्त भव्यजीवोंको अपने आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए रागद्वेष, मोह, स्नेह, आदि सब विकारोंका त्याग कर देना चाहिए ।
भावार्थ - इस संसार में रागद्वेष और मोह ये तीनोंही विकार आकुलता और दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं । राग वा स्नेह करनेसे ये लोग कितने व्याकुल होते हैं, यह बात अनुभव करनेसे स्वयं मालूम हो जाती है। जब किसीका कोई पूत्र रोगी हो जाता है, तब स्नेहसे कारण माता गिता कितने व्याकुल होते हैं, तथा उसके मर जानेपर कितने दुःखी होते हैं, यह बात किसीसे छिपी हुई नहीं है । इस प्रकार जब जब अपना कोई शत्रु हानी पहचाता है , तब हम लोग कितने व्याकुल होते हैं, तथा उससे बचनेके लिए और उसको नीचा दिखानेके लिए कितना प्रयत्न करते हैं। इन सब कामोके लिए हजारों रुपये खर्च कर देते हैं, तथा जन्मभर दुःख भोगना पड़ता है। ऐसी व्याकुलतामें और दुःख में कभी शांति उत्पन्न नहीं हो सकती । स्नेह और मोहने कारण ज्यों-ज्यों लालसाएं बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों व्याकुलता बढती जाती है, तथा व्याकुलतामें दुःख होताही है । इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए स्नेह, रागद्वेष, मोह, आदि समस्त विकारोंका त्याग कर देना चाहिए । इन विकारोंका त्याग करनेसे व्याकुलता नष्ट हो जाती है, और व्याकुलताके नष्ट होनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त हो जाती है। उस परम शांतिके प्राप्त होनेसे अन्य सत्र विकार नष्ट हो जाते हैं, और फिर यह आत्मा अपने आत्मस्वभावकेद्वारा समस्त कर्मों को नष्ट कर अविनश्वर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यही आत्माके कल्याणका सर्वोत्कृष्ट उपाय है।
प्रश्न – आलोचनादिकानां कोऽभिप्रायो बद में प्रभो ? :
अर्थ- हे प्रभो ! अब मेरे लिए कृपाकर यह बतलाइए कि आलोचना आदि करनेका क्या अभिप्राय है ? आलोचनादिक किसलिए की जाती है ?
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(शान्तिसुधासिन्धु )
उ.- स्थाद् यस्य दोषश्च यथा प्रमादात्तथैव भक्त्या सुगुरोः समक्षम् आलोचनादिः क्रियते च भक्तिः मनोवचः कायकृतादिभेदैः श्रद्धान्वितैः कैतवहीन बुद्धचा शान्त्यर्थमेवं सुखदं विधानम् । तद्धीनयोगोपि वृथेति निद्यो निर्जीवदेहस्य सुगंधलेपः ॥
अर्थ - जिस मनुष्यके जिस प्रमादके कारण जैसा दोप लगा हो उसको उसी प्रकार भक्तिपूर्वक गुरुके सामने कहना तथा मन, वचन, काय, और कृतकारित अनुमोदनासे लगे दोषोका गुरुके सामने भक्तिपूर्वक आलोचना करना, आलोचना कहलाती है। यह आलोचना श्रद्धापूर्वक और विना किसी छल-कपटके की जाती है तथा यह सुख देनेवाली विधि केवल आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए की जाती है। जिस आलोचनामें श्रद्धा न हो, वा छल-कपट पूवर्क की गई हो वह, आलोचना व्यर्थ वा निन्दनीय कहलाती है, और जीवरहित मृतक शरीरपर सुगंधित लेपके ममान मानी जाती है ।
भावार्थ- चार विकथा, चार कषाय, पांचों इंद्रियोंके विषय, स्नेह् और निद्रा ये पंद्रह प्रमाद कहलाते हैं । उन्हीको परस्पर गुणा करने से अस्सी भेद हो जाते हैं । इन्हीं प्रमादोंके कारण दोष लगा करते हैं । जिस जीवको जिस प्रसादके कारण दोष लगा हो, वा मनसे, वचनसे, कायसे, कृतकारितअनुमोदना से दोष लगा हो, उस दोषको ज्यों का त्यों गुरुके समीप कहना चाहिए । दोष कहते समय किसी प्रकारका छलकपट नहीं रहना चाहिए। गुरुके ऊपर तथा आलोचना में श्रद्धा होनी आलोचना चाहिए, और गुरुके सामने भक्तिपूर्वक आलोचना करनी चाहिए, करने से मन, वचन, कायकी सरलता प्रगट होती है । मन, वचन, कायकी सरलता प्रगट होनेसे तथा उस दोषके लिए बार-बार पश्चाताप करनेसे और आगामी कालके लिए उस दोषसे सावधान रहने से और गुरुकी आज्ञानुसार उसका प्रायश्चित लेनेसे वह दोष नष्ट हो जाता है । उस दोष के नष्ट होनेसे आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है, और आत्मा में निर्मलता उत्पन्न होनेसे आत्मामें शांति प्रगट होती है। इस प्रकार आलोचनाका फल आत्मामें शांति प्रगट होना है। शास्त्रों में आलोचनाके दश दोष बतलाए हैं । आलोचना करते समय उन दश दोषोंकाभी त्याग कर देना चाहिए। जो लोग आलोचना करते समय, न तो दश
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
दीपका त्याग करते हैं, न छल कपटका त्याग करते हैं, न गुरुपर बा आलोचनापर श्रद्धा रखते हैं, और न गुरुकी भक्ति करते हैं, ऐसी आलोचना करना व्यर्थ है। जिसप्रकार मृतक शरीरपर किया हुआ सुगंधित लेप प्रशंसनीय नहीं गिना जाता । उसी प्रकार दोषसहित की हुई आलोचना प्रशंसनीय नहीं गिनी जाती । अतएव चाहे गृहस्थ व्रती हो, चाहे साधु हो, चाहे त्यागी, ब्रह्मचारी हो, सबको अपने आत्मा में शांति प्राप्त करनेके लिए अपने-अपने दोषोंकी निर्दोष आलोचना करनी चाहिए। कर्मोके भारसे हलका होने का यह विशेष साधन है ।
पश्न शोकभयमदत्यागात्कस्य लाभो भवेद्वद ?
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भय.
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि शोक, जुगुप्सा, मद आदिके त्याग करनेसे किस-किसको लाभ होता है ? उ.- शोकभय स्पृहाद्वेषक्लेशकालुष्यनाशतः ।
हास्यरतिर तित्यागाज्जुगुप्सामान मोचनात् ॥ ४२८ ॥ सर्वजीये भवेच्छान्तिर्तृत्वेपि मोक्षसौख्यदा ।
तद्विना भाति न त्यागो यथा वीरः क्षमां विना ।।४२९ ।।
अर्थ - शोक, भय, स्पृहा, द्वेष, क्लेश, कलुषता, हास्य, अरति रति, जुगुप्सा, मान आदि समस्त विकारोंका त्याग करनेसे समस्त जीवोंको शांति प्राप्त होती है, तथा मनुष्यपर्याय में मोक्षका अनन्तसुख देनेवाली शांति प्राप्त होती है। जिसप्रकार क्षमा गुणके विना वीर पुरुष शोभायमान नहीं होता, उसीप्रकार शांतिके विना इन सब विका का त्यागभी शोभायमान नहीं होता ।
भावार्थ - शोक, भय, जुगुप्सा आदि विकारोंके कारण सब जीवोंको दुःख पहुंचता है । इसका कारण यह है कि संसार के समस्त जीव राग-द्वेष आदि विकारोंसे भरपूर हो रहे हैं। यदि किसी एक atani शोक होता है, और उससे बह महादुःखी होता है, तो उसको देख कर बा सुनकर अन्य जीव भी अवश्य दुःखी होते हैं। जो जीव रागद्वेष आदि विकारोंसे रहित होते हैं, उन्हींको दुःख नहीं होता । शेष सब जीवोंको दुःख होता है । यदि इन विकारोंका त्याग कर दिया जाय । और यह मनुष्य सर्वथा निर्विकार हो जाय, तो उस जीवकोभी अपूर्व
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( शान्तिमुधासिन्धु )
शांति प्राप्त होती है, और उसकी शांति प्राप्त होनेसे अन्य समस्त जीवोंको शांति प्राप्त होती है । मुनिराज निर्विकार होते हैं, उनको शोक, जुगुप्सा आदि कोई दोष नहीं होते, इसलिए उनके दर्शन करनेमात्रसे सब जीवोंको शांति प्राप्त होती है 1 बे मनि स्वयं परम शांत होते है इसलिए उनके दर्शनसे समस्त जीवोंको शांति प्राप्त होती है, तथा बह शांति यहां तक बढ़ती है कि सिंह, व्याघ्न आदि कर जीवभी उन परम शांत भनियों के सामने पहुंचकर अपनी करता छोड़ देते हैं । और गांति धारण कर लेता है। यदि यह जीव मनुष्यपर्याय पा करके, तथा सज्जातित्व उच्च गोत्र आदि पा करके, इन सब विकारोंका त्याग कर देता हैं, तो उसको मोक्ष सुखको प्राति होकर सदाकाल के लिए अनंत शांति प्राप्त हो जाती है, तथा ऐसे मुक्त जीवोंकी भक्तिकर, तथा अनुकरण कर अनेक जीव विकारोंका त्याग कर, और मोक्ष प्राप्त कर परम शांत बन जाते है । इसप्रकार इन विकारोंके त्यागका फल शांति है। जो पुरुप विकारोंका तो त्याग कर देते हैं, परन्तु जिनके हृदयमें विकारोंका त्याग करने पर भी शांति प्राप्त नहीं होती, ऐसे जीवोंका वह विकारोंका त्याग सुशोभित नहीं होता अथवा यों कहना चाहिए कि उनका वह विकारोंका स्याग मिथ्या है, वा मायापूर्ण है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है कि, वह अपने आत्मा परम शांति प्राप्त करनेके लिए इन सब विकारोंका त्याग करे और परम शांति प्राप्त कर अपने आत्माका कल्याण करे ।
प्रश्न - समाधिसाधनं स्वामिन् किमर्य क्रियते वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइये कि समाधिमरणका साधन किस लिए किया जाता है ?
उ.-स्निग्धान्नं त्यज्यते चादौ पानादिः सेव्यते क्रमात् । स्निग्धपानमपि त्यक्त्वा खरपानं हि सेव्यते ॥ ४३०॥ खरपानमपि त्यक्त्वोपवासः क्रियतेऽमल: इत्यादि साधनं शान्त्यै केवलं क्रियते सदा ॥४३१॥ तद्विना लंघनं मन्ये वरिद्राणां क्रियासमः । निष्फलो दुःखदो चयं प्रोक्तो विश्वहिताय हि ॥ ४३२।।
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। शान्तिमुनिन्धु )
अर्थ- समाधिमरण धारण करनेके लिए सबसे पहले कषायोंका त्याग किया जाता है। तदनन्तर कायका त्याग करने के लिए सबसे पहले सचिक्कण अन्नका त्याग किया जाता है, और सचिक्कण पान वा दुधका त्याग करके केवल गर्म जलका सेवन किया जाता है,
और फिर गर्म जलकाभी त्याग कर, निर्मल और निर्दोष उपवास किया जाता है । यह सब समाधिमरणका साधन केवल आत्मामही शांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है । यदि समाधिमरणका यह सब साधन करते हुएभी आत्मामें शांति प्राप्त न हो, तो फिर दरिद्र पुरुषोंके लंघनके समान, उन सब साधनको लंघनही समझना चाहिए। जिनकार दारद्रोका लंघन निष्फल और दुःख देनेवाला होता है, उसीप्रकार शांति के विना उन समाधिमरणके साधनको निष्फल और दुःख देनेवाला लंघन समझना चाहिए। ऐसा आचार्य कुंथुसागरने समस्त संसारके हितके लिए निरूपण किया है।
भावार्थ- ध्यानपूर्वक शरीरका त्याग वारनेको समाधिमरण कहते हैं । यह समाधिमरण शरीरके अन्त होने पहले धारण किया जाता है, जब श्रावक वा साधु यह समझ लेते हैं, कि अब यह शरीर टिक नहीं सकता, तब वे समाधिमरण धारण करनेका प्रयत्न करते हैं । यदि कोई ऐसा समय आ जाता है कि, जिसमें प्राण जानेका सन्देह रहता है, तो उस समय वे समयकी मर्यादा नियत कर, आहारादिकका त्याग करते हैं । जिस प्रकार किसी घर में अग्नि लग जानेपर, उस अग्निको बुझनेका प्रयत्न किया जाता है, और जहांतक बनता है, वह अग्नि बुझादी जाती है। यदि वह अग्नि बुझती दिखाई नहीं देती, तो फिर उससे बहुमूल्य पदार्थ निकाल लिए जाते हैं, और उस घरको छोड दिया जाता है. उमीप्रकार जब श्रावक वा साव इस शरीरमें कुछ उपद्रव देखते हैं, कोई रोग देखते हैं, तो उसके शमन करने का उपाय करते हैं । रोगोंको शमन करनेके लिए धावक लोग प्रयत्न करते हैं, और साध लोग विशेष प्रयत्न नहीं करते । वे शरीरका ममत्व भी छोड़ देते हैं, इसलिए बे उसको हेय ही समझते हैं । श्रावक लोक जब यह निश्चय कर लेते है, वा साधु लोगोंकोभी जव यह निश्चय हो जाता है कि, अब यह शरीर टिक नहीं सकता, तब वे अपने रत्नत्रय आदि निधियोंको लेकर उस शरीरका त्याग कर देते हैं।
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(शान्तिसुधासिन्धु )
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समाधिमरण धारण करने की लालसा पहलेसेही होनी चाहिए । और पहलेसेही इसके लिए विशेष प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। विना अभ्यास किए समाधिमरण धारण करना कठिन हो जाता है । इसके लिए पहलेसेही आहार और कषायादिके त्याग करनेका अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि अन्तसमयमें आहार और कषायादिक त्याग कर देनाही समाधिमरण है । समाधिमरणमें राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, भय, जुगुप्सा, रति, अरति आदि सब विकारोंको त्यागकर भगवान जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंमें, बा उनके गणोंमें मन लगाना चाहिए । अथवा शास्त्ररूपी अमृतका पानकर, अपने मनको पवित्र करना चाहिए। फिर अनुक्रमसे आहारका त्याग कर, दूध रखना चाहिए, और गर्म पानीकाभी त्याग कर, अपनी शक्ति के अनुसार वापस धारण करना चाहिए । इस प्रकार कषायादिके समस्त विकागका त्याग कर, और चारों प्रकारके आहारका त्याग कर, जो पत्र नमस्कार मंत्रका जप करते हुए, शरीरका त्याग करता है, उसको समाधिमरण कहते हैं। समाधिमरण धारण करते समय न तो जीवित रहनेकी आशा रखनी चाहिए, न शीघ्र मर जानेकी आशा रखनी चाहिए, न मरनेमे डरना चाहिए, न मित्रोंका स्मरण करना चाहिए, और आगामी कालक लिए भोगोंकी इच्छा नहीं करनी चाहिए । इसीको समाधिमरण कहते हैं। यह समाधिमरण केवल आत्मामें परम शान्ति प्राप्त करनेक लिएही धारण किया जाता है, क्योंकि जहां कषायादिक विकारोंका त्याग हो जाता है, वहांपर आत्मामें शांति अपने आप आ जाती है, तथा आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रतिभासित होने लगता है। यदि ऐसा उत्तम समाधिमरण धारण करते हुएभी शांति न हो, तो फिर उसको व्यर्थही समझना चाहिए । स्वर्गादिकके सुख देनेवाला यह समाधिमरणही है, और मोक्ष प्राप्त करानेवालाभी यही समाधिमरण है। इसलिए भव्यजीवको इसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए।
प्रश्न- सप्तव्यसनत्यागेनालभ्यां को लभते नरः ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि सप्त व्यसनका त्याग करनेसे इस मनुष्यको कौन-कौनमे अलभ्य पदार्थों की प्राति होती है ?
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( शान्तिसुधामिन्ध )
उत्तर-धूतादि व्यसनस्यैव त्यागाद्देहस्य त्यागवत् ।
भयसप्तकवातुश्च सप्तश्वभ्रप्रदायिनः ।। ४३३ ।। अलब्धाऽपूर्वशांतिः स्यात्स्वात्मनि शाश्वती सदा । दुष्टपक्षपरित्यागाच्छान्तिर्विश्वेऽखिले यथा ॥ ३३४ ॥
अर्थ - जिस प्रकार दुष्ट पक्षका सर्वथा त्याग करनेसे समस्त संसारमें शांति हो जाती है, अथवा जिस प्रकार इस शरीरका सर्वथा त्याग कर देने से, इस शुद्ध आत्मामें निरन्तर रहनेवाली शांति प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार सातों नरकोंके दुःख देनेवाले, और सातों भयोंको उत्पन्न करनेवाले, और सातों व्यसनोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे इस आत्मामें परम शांति प्राप्त हो जाती है।
भावार्थ- जूआ खेलना, मांस भक्षण करना, मद्यपान करना, बेट्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, और परस्त्री सेवन करना, ये सात व्यसन कहलाते हैं। ये सातोही व्यसन महादुःख देनेवाले और तीव्र आकुलता उत्पन्न करनेवाले हैं। इनमें जुआ सब व्यसनोंका राजा है । जूआ खेलनेवाला यदि हार जाता है, तो महादुःस्त्री होता हैं, तथा हार जान के कारण चोरी करता है। यदि वह जीत जाता है, तो फिर और खलनेकी तीव्र आकुलता धारण करता है और वेश्या सेवन, परस्त्री सेबन, मद्यपान आदि अन्य अनेक प्रकारके अनर्थ करता है । जुआरी लोग अपना सब धन हार जाते हैं, और स्त्रीपुत्र तकको खो जाते हैं। इस जुआकेही कारण पांडवोने महादुःख उठाया था, इसलिए इस जूएका त्याग कर देनेसे आत्मशांति प्राप्त होती है । मांस भक्षण महापापका कारण है। किमी जीवको मारेबिना मांस उत्पन्न नहीं होता, तथा जिसका मांस होता है, उसमें उसी जातिके अनेक जीन्न प्रतिसमयमें उत्पन्न होते रहते हैं, तथा मांसके सार्श करने मात्र से वे सब मर जाते हैं। इसके सिवाय मांस भक्षण करनेसे सत्र इंद्रिया उत्तेजित रहती हैं, और फिर अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न करते हैं । इसलिए ऐसे इस मांस-भक्षणका त्याग कर देनेसे आत्मा में भारी शांति उत्पन्न होती है । मद्यमान करनेसे आत्मा बेहोश हो जाता है और बेहोश होकर अनेक प्रकारके पाप और अनर्थ करता है । इसके
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(शान्तिसुधाधु )
सिवाय मद्य अनेक जीवोंका कलेवर होता है, और उसमें प्रतिक्षण अनेक जीव उत्पन्न होते रहते है, इसलिए ऐसे मद्यका त्याग कर देनेसे आत्मामें महाशांति उत्पन्न होती है । वेश्या सेवन अनेक अनर्थोंको जड है, वेश्या मद्य-मांसका सेवन करती है, उसके मुंहसे मुंह लगाना महापाप है, वेश्यासेवन करनेवालेका सूतक - पातक कभी नष्ट नहीं हो सकता, और वेश्या सेवन करनेवालेके कोई उत्तम विचार नहीं हो सकते । इसलिए ऐसे वेश्यासेवका त्याग करना सुख और शांति दोनोंका कारण है । शिकार खेलना संकल्पी हिंसा है । हिरण आदि वनके जीव किसीका कुछ नहीं बिगाडते, केवल घास खाकर रहते है, ऐसे निरपराधी जीवों को जानबूझकर या धोखा देखकर भारना सबसे बड़ा पाप है। ऐसे पो बचने के लिए तथा आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए विकारका त्याग करना आवश्यक है। चोरी करना दूसरेकी हत्या करना है, क्योंकि जिसकी चोरी होती है, वह यही कहकर सोता है कि जीते जी तो हमारी चोरी कोई नहीं कर सकता। इससे साबित होता है कि गृहस्थलोग अपने धनको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानते हैं। ऐसे धनको जो चुरा लेता है, वह उसके प्राणोंकोही हर लेता हूं ऐसा समझना चाहिए। चोरी करनेवाला महापाप उत्पन्न करता है और पकड़ा जाता है, तो महादु:ख पाता है । इसलिए इसका त्याग कर देनेसे महाशांति उत्पन्न होती है । परस्त्री सेवन करने में बड़ी आकुलता रहती है, तथा उस स्त्रीके घरवाले उसके शत्रु बन जाते हैं । कभी-कभी तो परस्त्री सेवन करनेवाले उस स्त्रीके कारणही मारे जाते हैं । इसलिए ऐसे परस्त्रीका त्याग करना महाशांतिका कारण है। इस प्रकार सातों व्यसनों का त्याग कर देनेसे आत्मशांति और सुख प्राप्त होता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीवोंको इन व्यसनोंका त्याग कर देना चाहिए ।
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प्रश्न - जन्मजरादिजं दुःखं किमर्थं मुच्यते प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अव कृपाकर यह बतलाइए कि जन्म- जरा आदिसे उत्पन्न होनेवाले दुःखों का त्याग क्यों किया जाता है ? उत्तर - गर्वजं गर्भजं दुःखं क्रोधजं मानभंगजम् ।
मायालोमादिजं घोरं भ्रान्तिजं मर्मभेदजम् ॥ ४३५ ॥
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( गान्तिसुधासिन्धु )
जन्मृत्युजरादुःखमन्यदुःख प्रमुच्यते।। शान्त्यर्थमेव हर्षोपि ख्यातिपूजादिलाभजः ॥ ४३६॥ तहिना केवलं मन्ये नटवद् वेषमोचनम् । ज्ञात्वेत्यात्महि वास्त्याज्याः शांतिर्भवेद् यथा॥४३७॥
अर्थ- इस संसारमें अनेक दुःख हैं, कितनेही दुःख अभिमानसे होते हैं, कितनेही दुःख गर्वसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख क्रोधसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मानभंग होनेसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मायाचारिसे होते है, कितनेही दुःख लोभसे होते हैं, कितनेही घोर दुःख भ्रांतिसे उत्पन्न होते हैं, कितनेही दुःख मर्मच्छेदनसे होते हैं, कितनेही दुःख जन्मसे होते हैं, कितनेही दुःख मरणसे होते हैं, कितनेही दुःस्ल बुढापेसे होते हैं, और कितनेही दुःख अन्य अनेक प्रकारसे उत्पन्न होते हैं। इन सब दुःखोंका त्याग केबल आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है। इसके सिवाय अपनी प्रसिद्धता, तथा पूजा प्रतिष्ठा, आदिसे उत्पन्न होनेवाले हर्षोंका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है। यदि इन समस्त दुःखोका त्याग करनेपरभी आत्मामें शांति उत्पन्न न हो तो, फिर उन सब दुःखोंके त्यागको, नटके वेषके त्यागके समान समझना चाहिए। अतएव अपने आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए अपने आत्माके शुद्धस्वरूपसे भिन्न जितने विभावभाव है, उन सबका त्याग करना चाहिए।
भावार्थ- संसारमें जितने दुःख हैं, चाहे वे ऊपर लिखे हुए हो, वा इनसे मिन्न अन्य अनेक प्रकारचे दु:ख हो, उन सब दुःखोसे आकुलता उत्पन्न होती है। जहां आकूलता होती है वहां कभी शांति नहीं हो सकती। शांति आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति होने में होती है, तथा आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति इन समस्त दुःनोंके त्यागसे होती हैं, तथा राग, द्वेष, क्रोध, काम, आदि समस्त विकारोका त्याग करनेसे होता है। अतएवं समस्त भव्यजीवोंको दुःखोका त्याग कर, शांति प्राप्त करनी चाहिए। दुःखोंका त्याग समता धारण करनेसे होता है। जिसके हृदयमें सुख-दुःख दोनोमें समता होती है, वह पुरुष कभीभी किसीभी दुःखमें संक्लेश परिणाम धारण नहीं करता, तथा संक्लेश परिणामोंके न होनेसे शांति प्राप्त होती है । शांति प्राप्त करने का यह सबसे उत्तम उपाय है।
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
• कीदृशं मन्यते सौख्यं धनबंधुसुतोद्भवम् ?
प्रश्न-
ܕܘܕ
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि धन, भाई, बंधु, वा पुत्रादिकों से उत्पन्न होनेवाला सुख कौनसा सुख माना जाता है ? उ.- राज्योभयं नाकभवं नरोत्थं संन्योद्भवं कामपिशाचजातम् ।
आदौ प्रियं प्राणहरं फलांते क्षोद्भवं बंधुकलत्रजातम् ॥४३८ सत्यार्थशांतेश्च विनाशकत्वात् पुत्रोद्भव सांख्यमपीह दुःखम् । तत्त्वार्थवेदीति सुमन्यमानः सच्छान्तिहेतोर्यतते प्रवीरः ॥ ४३९ ॥ सच्छान्तिहीनस्य पराश्रितस्य सर्वं वृथा त्यागविधेविधानम् । यथा ह्यनुष्ठानमपीह सर्व विज्ञानदीनस्य भुनेर्वृथा स्यात् ४४०
अर्थ - इस संसार में चाहे राज्यसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होनेवाले मुख हो, चाहे सेनासे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे कामदेवरूपी पिशाच्चसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे भाई, बंधु, वा स्त्री, आदिसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, और चाहे पुत्रपौत्र आदिसे उत्पन्न होनेवाले सुख हों। ये सब प्रकारके सुख पहले तो अच्छे जान पड़ते हैं, परंतु अन्त में ये सब सुख प्राणोंका नाश करनेवाले हैं, और आत्मासे उत्पन्न होनेवाले यथार्थ शांतिका नाश करनेवाले हैं। इसलिए यथार्थं तत्त्वोंको जानेवाले, यथार्थ शूर वीर महापुरुष इन सब सुखोंको दुःखही मानते हैं, और इसीलिए वे महापुरुष, आत्मासे उत्पन्न होनेवाले परम शांतिको प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करते रहते हैं । जिस प्रकार आत्मज्ञानसेरहित मुनियोंके लिए ध्यान तपश्चरण आदि सव अनुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार जिस पुरुषके हृदय में परम शांति प्राप्त नहीं होती, और जो इन्द्रियोंके वा घर- -गृहस्थीकेही सदा आधीन रहता है, उसके त्याग करनेकी वा विधि व्यर्थं समझी जाती है ।
भावार्थ- संसारके जितने सुख हैं वे सब पराधीन है, और अन्तमें दु:ख देनेवाले है | जिसप्रकार कुत्ता हड्डी चाटता है, हड्डी चाटते समय उसके मुख से जो रुधिर निकलता है, उसीको वह हड्डीसे उत्पन्न होनेवाला रुधिर मानकर, उसके चाटने में सुख मानता है । वास्तव में देखा जाय तो
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( शान्तिमुधासिन्धु )
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वह सुखसा जान पडता है, परंतु अन्तमें सब मुंह छिल जानेसे महादुखी होता है, अथवा जिसप्रकार यह मनुष्य दाद खुजानेमें सूख मानता है। परंतु अन्तमें यह उस दादके खुजानेसे महादुःखी होता है। उसीप्रकार इस संसारमें जितने सुख है, वे सब पहले सेवन करते समय बहुत अच्छे जान पडते है, परंतु अन्त में उन सुखोंमे सदा दुःखीही होता है । सांसारिक सुख कहने को तो सुख है, परंतु समस्त सुख आत्माको परम शांतिको नष्ट करनेवाला है। इसीलिए आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले, तथा आत्माके अनंतसुखका स्वरूप समझनेवासे भव्यपुरुष, उसे दुःख ही मानते है, इसके सिवाय संसारके जितने सुख है, वे सब पाप उत्पन्न करनेवाले है, राज्य करने में महापाप होता है, इंद्रियों के विषयसेवन करने में महापाप उत्पन्न होता है, कामसेवनमें महापाप होता है. पुत्र-पौत्रोंके पालनपोषणमें महापाप होता है, और घर-गृहस्थी में, व्यापारादिकसे वा रसोई बनाने, पानी भरने, आदि कार्योंसे सर्वदा पाप उत्पन्न होता रहता है । उन सब पापोंके उदयसे अनेक प्रकारके दुःख इसी जन्ममें भोगने पड़ते है, और परलोकमें नरकनिगोद आदिके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार यदि विचार किया जाय तो भी ये सांसारिक सुख महादुःखके कारण है । अतएव आत्मामें परमशांति और आत्मजन्य यथार्थ सुख प्राप्त करने के लिए, इन सांसारिक समस्त सुखोंका त्याग करकेभी परम शांति प्राप्त नहीं करते, उनका वह सब त्याग व्यर्थ समझना चाहिए। जिसप्रकार आत्मज्ञानसे सर्वथा रहित मुनिका ध्यान, तपश्चरण आदि सब व्यर्थ समझा जाता है, उसी प्रकार शांतिरहित भव्यजीवका इंद्रियादिके विषयोका त्यागभी व्यर्थही समझा जाता है । अतएव इन सांसारिक समस्त मुखोंका त्याग कर,परम शांति प्राप्त कर लेना भव्यजीवका मुख्य कर्तव्य है, और यही आत्माके परम कल्याणका साधन हैं ।
प्रश्न- इन्द्रादिसौख्यमेवापि कि हेय मन्यते गुरो?
अर्थ- हे गुरो ! अब कृणकर यह बतलाइए कि इंद्र आदिके सुखभी इस संसारमें हेय वा त्याग करने योग्य क्यों माने जाते हैं ? उ.- शान्त्या बिहीनं सततं सुदृष्टिश्चिन्तामणेः कल्पतरोः प्रजानम्।
सुकामधेनोश्च सुभोगभूम्याः नरेन्द्रदेवेन्द्रफणीन्द्रजातम् ।।
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( शान्तिसुधासिन्धु)
पंचाक्षसन्तोषकरं ह्यपीह सुखं च हेयं हृदि मन्यते वै । यथा चकोरः खलु चंद्रहीनो ज्ञात्वेति शांतिहृदि धारणीया ।
अर्थ-जिसप्रकार चकोर पक्षी चंद्रमाके बिना अपने समस्त सुखोंको हेय बा त्याग करने योग्य समझता है । उमीप्रकार सम्यग्दृष्टी पुरुषभी आत्मामें परम शांति धारण किए बिना चिंतामणि रत्नसे उत्पन्न होनेवाले सुखोंको, श्रेष्ठ कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखोंको, उत्तम भोगभूमिमे उत्पन्न होनेवाले सुखोंको, महाराज नबसी, इंद्र, छल आदिके मुखोंको, पांच इंद्रियोंको मंतुष्ट करनेवाले सूखोंकोभी अपने हृदयमें हेय बा त्याग करने योग्य समझता है । यही समझकर ममस्त भव्यजीवोंको अपने हृदय में परम शांति धारण करनी चाहिए।
भावार्थ- यदि बास्तबमें देखा जाय तो जिसमें किसी प्रकारकी आकुलता न हो, उसीको सुख कहते हैं । जिस सुखके होनेमें आकुलता बनी रहे वा नवीन-नवीन आकुलताएं उत्पन्न होती रहे. उन मुखोंको कभी उत्तम और यथार्थ सूख नहीं कह सकते । आत्म शांतिमही निराकुलता प्राप्त होती है । जहां-जहां आत्मामें शांति है, वहां-वह परमसुख प्राप्त होता है, तथा जहां शांति नहीं है, वहां कभी सुख प्रान्त नहीं हो सकता। इसलिए शांतिकेबिना चाहे कंमेही उत्तमसे उत्तम सुख हो, वे सब दुःखही होते हैं, और सम्यग्दृष्टी पुरुष सदाकाल उनको दुःखही मानता है । इसका भी कारण यह है की, सम्यग्दृष्टी पुरुषको अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता है, तथा उसके हृदयम स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है। इन्हीं सब कारणोंसे वह सम्यग्दृष्टी पुरुष अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपसे भिन्न, अन्य समस्त पदार्थोंका त्याग कर देता है, समस्त विभावभावोंका त्याग कर देता है, और इंद्रियजन्य समस्त सुखोंका त्याग कर देता है। इन सबका त्याग कर वह अपने आत्माक शुद्ध स्वरूपमें लीन होनेका प्रयत्न करता है। आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन होनेसे, उसे परमशांति प्राप्त होती है, और वह उस परमशांतिसे, परमसुख प्राप्त कर लेता है । अतएव समस्त भव्य जीवोंको अपने आत्मामें परमशांति प्राप्त कर, अनंतसूख प्राप्त कर लेना चाहिए । यही आत्माका परम कल्याण है।
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आगे इसी विषयको विशेष रीतिसे दिखलाते हैंइष्टानिष्टाविसंयोगाज्जातं दुःखं सुखं सदा । सत्यशांतिगवेष्येव मन्यते सदृशं द्वयम् ॥ ४४३ ॥ ज्ञानचक्षुर्विनिर्मुक्तो मूढो हि सुखदुःखम् । यथाम्बु लभते वर्ण तत्परिणमते स्वयम् ।। ४४४ ॥
अर्थ-इस संसारमें इष्ट पदार्थोके वियोगसे, तथा अनिष्ट पदार्थों के संयोगसे महादुःख उत्पन्न होता है, तथा इष्ट पदार्थोंसे, और अनिष्ट पदार्थोके वियोगसे सुख माना जाना है, परंतु सत्य और शांतिको ठूतनेवाले महापुरुष, उन सुख वा दुःख दोनोंको समान मानते हैं । जिसप्रकार पानीका सफेद वर्ण होता है, परंतु उसमें लाल, पीला, नीला, आदि जैसा वर्ण डाल दिया जाय बैसाही वर्ण उसका हो जाता है। उसीप्रकार आत्माके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानरूपी नेत्रोंसे रहित है, ऐसे मूढ पुरुष, इष्ट वियोग बा अनिष्ट संयोगसे उत्पन्न होनेवाले दुःखोंको दुःख मान लेते है, और इष्ट संयोग वा अनिष्ट वियोगसे होनेवाले सुखोंको सुख मान लेता है ।
भावार्थ- यथार्थ शांतिकी प्राप्ति आत्माके शुद्ध स्वरूप में होती है । जिस पुरुषको उस आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती उसको वह यथार्थ शांतिकी प्राप्ति कभी नहीं होती, तथा जिस पुरुषको यथार्थ शांतिकी प्राप्ति नहीं होती, अथवा आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, वह अज्ञानी जीव धनकी प्राप्ति, वा पुत्र-पौत्रादि प्राप्तिको सुख मान लेता है, और रोगादिककी प्राप्तिको दुःख मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो, पुत्र-पौत्रादिककी प्राप्ति वा रोगादिककी प्राप्ति आत्माके स्वरूपसे सर्वथा भित्र है, और इसलिए वह सुख वा दुःख क्षणिक हैं, तथा पराधीन है, कर्मोके उदयसे प्राप्त होते है। इसलिए समता धारण करनेवाले वा आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले सम्यग्दृष्टी श्रावक वा मुनि दोनोंही उन समस्त इंद्रियजन्य सुखों वा दुखोंको समान समझते है । वे इष्ट बियोगादिकसे उत्पन्न होनेवाले दुःखको दुःख नहीं समझते, और इष्ट संयोगादिकसे उत्पन्न होनेवाले सुखको सुस्त नहीं समझते। वे जिसप्रकार सुखमें अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं। उसीप्रकार दुःख में भी अपने आश्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं ।
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इसप्रकार के सुख-दुःख दोनोंको अनुभव न करते हुए परम शांति धारण करते हैं। यही मोक्षका साधन है, और यही आत्माके कल्याणका उपाय है ।
प्रश्न- यदि न मन्यते दुःखं सुखं तहि कथं भुवि ?
अर्थ- इस संसारमें यदि दुःखको न माना जाय तो न सही परंतु सुम्ब क्यों नहीं माना जा सकता ? सुखको तो सुख मानना चाहिए ? उत्तर-इष्टवस्तुभवं कार्य दृष्ट्वेति मन्यते सुखम् ।
तथानिष्टाविजं कार्य दुःखं दृष्ट्वेति मन्यते ॥ ४४५ ॥ वस्तुतों दुःखदं सर्वमिष्टानिष्टादिवस्तुजम् । यथेह बन्धहेतुत्वाद् हेमायःश्रृंखले समे ॥ ४४६ ।।
अर्थ- इस कामें द्वारा पदार्थोंसे बना होनेवाले कार्योको देखकर सुख मान लेते हैं, तथा अनिष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाले कार्योंको देखकर दुःख मान लेते हैं। परंतु वास्तवमें देखा जाय तो चाहे कोई कार्य इष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाला हो, और घाहे अनिष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाला हो, दोनों प्रकारके कार्य दुःख देनेवाले होते है, जैसे बांधने के लिए संकल होती है वह चाहे सोनेकी हो या लोहेकी हो, दोनोंही संकलोंसे मनुष्य बांधा जाता है, बांधने के लिए दोनों समान है।
भावार्थ- जिसप्रकार यह मनुष्य लोहेकी संकलोसे बांधा जाता हैं, उसीप्रकार सोनेकी संकलसेभी बांधा जाता है । मनुष्यको बांधने के लिए जैसी सोनेकी संकल काम देती है, उसीप्रकार लोहेकी संकल काम देती है। इसीप्रकार जिसप्रकार अनिष्ट पदाथोंके संयोगसे उत्पन्न होने. वाले कार्य दुःख देनेवाले होते हैं, उसीप्रकार इष्ट पदार्थोके संयोगस उत्पन्न होनेवाले कार्यभी दुःख देनेवाले होते हैं। इसका कारण यह है कि, जिसप्रकार अनिष्ट पदार्थोके संयोगोसे उत्पन्न होनेवाले दुःखोंसे आकुलता उत्पन्न होती है, और आत्मजन्य सुख शांतिका घात होता है, उसीतकार इष्ट पदार्थोके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सुखोसेभी आकुलता उत्पन्न होती है, और आत्मजन्य सुखशांतिका घात होता है । इसलिए जिस प्रकार दुःख दुःख देनेवाले हैं, उसीतकार सूखभी दुःखही देनेवाले हैं, आकुलता उत्पन्न होनेके, व सुख शांतिका घात करनेके कारण, सुख-दुख
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
दोनोंही समान माने जाते है । अतएव प्रत्येक भव्यजियको सुख-दुख दोनोंको समान मानकर अपने हृदय में समता तथा सुख और शांति धारण करनी चाहिए। आत्माके कल्याणका सबसे अच्छा उपाय यही है ।
प्रश्न- मोहः संगस्तथा स्वामिन् किमर्थ त्यज्यते स्पृहा ?
अर्थ- हे स्वामिन्! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मोहपरिग्रह या स्पृहाका त्याग किसलिए किया जाता है ?
उत्तर - शान्त्यर्थमेव मोहादिस्त्यज्यते हि परिग्रहः ।
यदि न त्यज्यते सर्वस्तहि त्याज्यः क्रमेण वै ॥ ४४७ ॥ अन्तकाले तु भव्येन त्याज्यैव च हठात्स्पृहा । एवं नो चेद् वृथोद्योगः शरन्मेघध्वनेः समः ॥ ४४८ ॥
अर्थ - इस संसार में आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए मोह वा परिग्रहका त्याग किया जाता है, यदि उस मोह वा परिग्रहका त्याग पूर्ण रीतिसे न हो सके तो फिर उनका त्याग अनुक्रमसे करना चाहिए । तथा अन्तकालमें भव्यजीवों को अपनी समस्त इच्छाओंका वा लालसाओंका त्याग कर देना चाहिए। यदि वह भव्यजीव इन सबका त्याग कर, शांति धारण नहीं करता है, तो फिर शरद ऋतुके मेघोंकी गर्जना के समान उनका सब उद्योग व्यर्थही समझना चाहिए ।
भावार्थ- मोह परिग्रह और लालसाएंही इस संसार में दुःख देनेवाली है। संसार में जितने दुःख हैं, वे सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं । तथा जितनी आकुलताएं हैं, वे सब इन्हींसे उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हीं तीनोंका त्याग करनेसेही परम शांति प्राप्त होती है। उस परमशांतिकी प्राप्ति करनेके लिए प्रत्येक भव्यजीवोंको इन तीनोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। जो भव्यजीव इन तीनोका सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, उनको धीरे-धीरे अनुक्रमसे त्याग करना चाहिए, और इसप्रकार त्याग करते-करते अन्तकाल में समाधिमरणके समय इन तीनोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इन सबका त्याग करते हुएभी यदि आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर उनका वह सब त्याग व्यर्थ समझना चाहिए । जिसप्रकार शरद ऋतुके बादल गरजते रहते है, परंतु बरसते नहीं, तथा
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बरसे बिना उन बादलोंका गरजना व्यर्थ है, उसीप्रकार परम शांनि प्राप्त किए बिना मोहादिकका त्याग करना व्यर्थ है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवोंको मोह, परिग्रह. और लालसाओंका त्याग कर परम शांति धारण करनी चाहिए । यही शांति आत्माके परम सुखका कारण है।
प्रश्न- निदारतवाटिकान शयः दिपजन्ति गुरो वद ?
अर्थ- हे गुगे ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि भव्य जीव निदा वा स्तुति आदिका त्याग क्यों करते हैं ? उत्तर-स्वात्मस्तवादिकं मलात्परनिन्दादिकं तथा।
मृत्युकालभवं दुःखं व्याध्यादिभसंवो भयः ॥ ४४९ ।। इहामुत्रधनेच्छादिस्त्यज्यते सत्यशान्तये । न भाति तद्विना कोपि दयाहीनो व्रती यथा ॥४५० ।।
अर्थ- इस संसारमें यथार्थ शांति प्राप्त करनेके लिए अपनी प्रशंमा बा स्तुति करनेका सर्वथा त्याग किया जाता है, दूसरोंकी निंदा आदिका त्याग किया जाता है, मरण समयमें होनेवाले दुःखोंका त्याग किया जाता है, रोगादिसे उत्पन्न होनेवाले भयोका त्याग किया जाता है, और इस लोक तथा परलोकके लिए धनादिकी इच्छाका त्याग किया जाता है । जिस प्रकार दयाके बिना कोई व्रती पुरुष शोभायमान नहीं होता, उसी प्रकार यथार्थ शांतिके बिना स्तुति या निदादिकका त्यागभी सुगोभित नहीं होता।
भावार्थ-तीन अभिमानके कारण दुसरेकी निंदा की जाती है, और अपनी प्रशंसा की जाती है, मोहके कारण अंतकाल में दुःख होता है, वा रोगादिकका भय होता है, और लोभके कारण धनादिकी इच्छा होती है । अभिमान, लोभ वा मोह ये तीनोंही महादूःख देनेवाले हैं, आत्माम आकुलता उत्पन्न करनेवाले हैं, और आत्माको परमशांतिका घात करनेबाले हैं। इच्छा करनेसे धनकी प्राप्ति नहीं होती ! धनकी प्रापिल तो लाभान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे होती है। अनएव धन की इच्छा करनेसे आत्माकी शांति वा सुखका घात होता है, इसलिए उस आत्मसुख और शांतिको स्थिर रखने के लिए इच्छाओंका त्याग कर देना परमावश्यक है । इसीप्रकार मोह पद-पदपर दुःख पहुंचाता रहता है । यह प्राणी मोहके कारणही चारों गतियोंम परिभ्रमण करता है, और
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नरकनिगोदादिके दुःख भोगता रहता है । इसलिए सुख और शांति प्राप्त करने के लिए इस मोहका सर्वथा त्याग कर देनाही उचित है । मोहका त्याग हो जानेसे दुःख वा भय अपने आप छूट जाते हैं। दूसरोंकी निंदा, अपनी प्रशंसा करनेसेभी अपना अभिमान सर्वत्र व्याप्त नहीं होता । कभी-कभी तो परनिंदा वा आत्म-प्रशंसा करनेसे बहुत नीचा देखना पडता है, और बहुत दुःख होता है, ऐसी अवस्थामें आत्मसुख वा शांति कभी प्राप्त नहीं होती । इसलिए आत्माको सुख और शांति प्राप्त करनेके लिए परनिंदा वा आत्म-प्रशंसाका त्याग करनाही आवश्यक है। इसप्रकार इन विकारोंका त्याग करनेसे आत्मसुख और शांति प्राप्त होती है । इनका त्याग करकेभी जीनको शांति प्राप्त नहीं होती उनका वास्तविक वह त्याग, त्याग नहीं समझा जाता । व्रत पालन करनेवाला पुरुष यदि निर्दयी हो, तो उसका व्रतपालन करना व्यर्थ है, उसी प्रकार शांतिके बिना इन विकारोंका त्यागभी सर्वथा व्यर्थ है । इसलिए इन विकारोंका त्यागकर परम शांति धारण करना प्रत्येक भव्य जीवका कर्तव्य है
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प्रश्न- पालितस्य व्रतादेः स्यात्कि फलं मे गुरो वद ?
अर्थ -- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में व्रतोंके पालन करने से क्या फल प्राप्त होता हैं ?
उत्तर- ज्ञातस्य स्वात्मतत्त्वस्य त्यक्तस्य विषयस्य वा । पालितस्य व्रतस्थापि पठितस्य श्रुतस्य च ॥। ४५१ ॥ मृत्युकाले फलं तेषां शांतिरेव निजात्मनि । तद्विना केवलं मन्ये शुकपठनवद् वृथा ।। ४५२ ।।
अर्थ- अपने आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूपको जानना, समस्त इंद्रियोंके विकारोंका त्याग करना, व्रतोंका पालन करना, और अरहंतप्रणीत श्रुतज्ञानका अभ्यास करनेका फल समाविमरणके समय अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करना है। यदि आत्मतत्त्वका स्वरूप जानकर भी विषयोंका त्याग करकेभी, व्रतोंका पालन करकेभी, और जिनप्रणीत शास्त्रोंका अभ्यास करकेभी यदि समाधिमरणके समय अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर वह आत्मा के स्वरूपका जानना,
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विषयोंका त्याग करना, व्रतोंका पालन करना, और जैन शास्त्रोंका अभ्यास करना, आदि सब तोतेको दढनेके समान व्यर्थही समझना चाहिए।
भावार्थ- आत्मतत्वके यथार्थ स्वरूपको जान करके आत्मा में शांतिका प्राप्त होना अनिवार्य है ! क्योंकि आत्माले यथार्थ स्वरूपकी जानकारीके साथ-साथ स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, तथा स्वपरभेद विज्ञानके प्रगट होतेही यह आत्मा क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद, काम, आदि समस्त विकारोंको तथा समस्त परिग्रहको पर समझकर उनका त्याग करनेका प्रयत्न करता है, और केवल आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । धीरे-धीरे वह संसारसे विरक्त होकर, उन समस्त विकारोंका त्याग कर देता है, और आत्मामें लीन होनेका अभ्यास कर लेता है। ऐसी अवस्थामें उन आत्मामें कमसे कम समाधिमरणके समय तो अवश्य शांति प्राप्त हो जानी चाहिए। यदि ऐसे जीवकोभी समाधिमरणके समय शांति प्राप्त नहीं होती, तो फिर उसके आत्मतत्त्वको जानना, तोतेको पढानेके समान व्यर्थ है । इसी प्रकार विषयोंका त्याग और व्रतोंका पालन भी आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए किया जाता है। विषयोंका सेवन करना और किसी प्रकारके व्रत नियम पालन न करना, उच्छृखल होकर महापाप किए जाते हैं, वहांपर दुःख और आकुलताही मिलती है, सुख और शांति कभी नहीं मिल सकती। इसलिए सुख और शांतिके लिएही विषयोंका त्याग किया जाता है, और व्रतोंका पालन किया जाता है। यदि इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करकेभी, तथा व्रतोंका पालन करकेभी, समाधिमरणके समय में शांति प्राप्त नहीं हई तो, फिर वह विषयोंका त्याग और व्रतोंका पालन सब व्यर्थ और मिथ्या समझना चाहिए । मरनेके समय समाधिमरण अवश्य हो, और उसमे आत्माको परम शांति प्राप्त हो, इसीलिए विषयोंका-कषायोंका त्याग किया जाता है, और व्रतोंका पालन किया जाता है, समाधिमरणके लिएही यह सब अभ्यास है। इसलिए व्रतोंका पालन करनेसे और विषयोंका त्याग करनेसे समाधिमरणके समय शांति अवश्य प्राप्त होती है। इसमें किमी प्रकारका संदेह नहीं है । इसी प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवके कहे हुए शास्त्रोका अभ्यास करना, वा करानाभी, आत्माकी परम शांतिका कारण है । जनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे कषायादिकोंका त्याग हो
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जाता है, और आत्माके यथार्थ स्वरूपी प्राप्ति हो जाती है, तथा इन दोनोंके होनेसे समाधिमरणके समयमें अपने आत्मामें परम शांतिका प्राप्त होना अनिवार्य है। इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है, कि आत्माका स्वरूप जाननेसे विषयकपायोंका त्याग करनेसें, बतोका पालन करनेसे और जनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे अपने आत्मामे परम शांतिकी प्राप्नि अवश्य होती है, और समाधिमरणके समयमें तो होती ही है ।
प्रश्न- किमर्थं क्रियते स्वामिन् सामायिकादिकं भुवि ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें सामायिक, जिनपूजन आदि आषं क्रिया काड किसलिए किया जाता है ? उत्तर - सामायिकादिकं सर्व क्रियाकाण्डस्तमोहरः ।।
शान्त्यर्थ क्रियते प्रीतिः सर्वजीयेषु भक्तितः ॥ ४५३ ॥ सामायिकादिकं कुर्वन् यदि शान्तिन चेतसि । क्रियाकाण्डोऽखिलस्तस्यान्धजीवगतिवद् वृथा ।। ४५४ ।।
अर्थ-- इस संसारमें अज्ञानरूपी अंध:कारको दूर करनेवाला सामायिक आदि समस्त क्रियाकांड किया जाता है, अथवा भक्तिपूर्वक समस्त जीवोंमें प्रेम बा वात्सल्य धारण किया जाता है । जिसप्रकार अंधा पुरुष गमन करता है, और उसका वह गमन करना सब व्यर्थ हो जाता है, उसी प्रकार जो पुरुष सामायिक आदि समस्त क्रियाकांडको करता हुआभी अपने हृदयमें शांति धारण नहीं करता, उसका वह समस्त क्रियाकांड व्यर्थ समझना चाहिए ।
भावार्थ--इस संसारमें समस्त भव्यजीव सामायिक, स्तुति, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, वंदना, स्वाध्याय, जिनपूजन, गासेवा, पात्रदान आदि धावकोंके करनेयोग्य जितने क्रियाकांड करते है, वे सब अपने हृदयमें शांति प्राप्त करनेके लिए करते हैं । सामायिकमें समस्त पापोंका या संकला-विकल्पोंका त्याग हो जाता है, और पंचपरमेष्ठीका, बा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन किया जाता है । ऐसी आवस्थामें उस आत्मामें शांति प्राप्त होना अनिवार्य हो जाता है। जिस पुरुषको सामायिकमेंभी शांति नहीं मिलती, तो समझना चाहिए कि उसको कभी किसी काममें शांति नहीं मिल सकती । अथवा जिस सामायिकमें शांति
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प्राप्त न हो, उस सामायिकको, सामायिकही नही समझना चाहिए, अथवा उस सामायिकको व्यर्थ समझना चाहिए । इसीप्रकार समस्त जीवोंम प्रेम वा वात्सल्य धारण करनेसे भी अत्यंत शांति प्राप्त होती है। परस्परकी शत्रुतामें अत्यंत वैरभाव उत्पन्न होता है, परंतु समस्त जीवों में प्रेम धारण करनेसे परस्परकी सब शत्रुता नष्ट हो जाती है । परस्परकी शत्रुता मिट जानेसे वैरभाव नष्ट हो जाता है, और वैरभाव नष्ट होनेसे शांति प्राप्त हो जाती है। इस प्रकारके वात्सल्य वा प्रेममें भी वैरभाव नष्ट होकर पति कार - हो, तो फिर उस प्रेम वा वात्सल्यको मिथ्याही समझना चाहिए, अतएव आत्मामें परम शांति प्राप्त करने के लिए सामायिक आदि समस्त क्रियाकांडोंका करना प्रत्येक भव्य श्रावकके लिए आवश्यक है।
प्रश्न- किं कि भो चिन्त्यते स्वामिन् सत्यशान्त्यादिहेतवे ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यथार्थ शांति प्राप्त करने के लिए क्या-क्या चितवन करना चाहिए ? ज. केनापि साद ममता न माया द्वेषो न रागो न च मे कुबुद्धिः
तथापि जीवाश्च मया प्रमादात् विराधितास्ते खलु मे क्षमन्ताम् सर्वान् क्षमेऽपीती विशेषशांत्य मनोविशुद्धिः क्रियते विचारः चेच्छांतिहीनश्च फिलोक्तभावो भातीव नैवं मतिहीनमंत्री
अर्थ-- इस संसारमें परम शांति प्राप्त करनेके लिए भव्यजीवको सदाकाल यह विचार करते रहना चाहिए कि, में किसी जीवके साथ वा किसी पदार्थ के साथ न तो ममता धारण करता है। न किसीके साथ माया वा राग-द्वेष धारण करता हूं, और न मैं किमीके साथ कुबुद्धि धारण करता हूं, ऐसा होते हुएभी यदि मझसे किसी जीवकी विराधना हई हो तो, वे जीव मुझे क्षमा करे । तथा अपने आत्मामें विशेष शांति प्राप्त करनेके लिए मैं भी सब जीवोंको क्षमा करता है । इसके सिवाय में इस शांतिके लिएही अपने मनको शुद्ध करता हूं। इसप्रकारके स्थिर विचार सदा रखना चाहता हूं। जिसप्रकार कोई मंत्री बुद्धिहीन हो, तो वह मंत्री, मंत्री पदको योग्य नहीं होता, उसीप्रकार यदि ऊपर लिखे भावोंसे भी शांति प्राप्त न हो तो, वे भाव कभी आत्मकल्याणकारी नहीं होते।
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भावार्थ- इस संसारमें आत्माकी परम शांतिको घात करनेवाला ममत्व है, माया है, राग है, द्वेष है, और कुबुद्धि है । गे ममत्वादि सब विकार आत्मामें आकुलता और दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं । जहा आकुलता और दुःख होता है, वहांपर शांति कभी नहीं हो सकती । इसलिए शांति प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक भन्यजीव को इनका त्याग कर देना चाहिए। इन सवका त्याग करनेसे आत्मामें परम शांति अवश्य प्राप्त होती है । इन सबका त्याग करनेके अनंतर चितवन करना चाहिए की यद्यपि मैने राग-द्वेष, माया, ममत्व आदिका सर्वथा त्याग कर दिया है, तथापि यदि किसी प्रमादके कारण मुझसे किसी जीवकी विराधना हई हो तो मैं उससे क्षमा मांगताहं । वह मुझे क्षमा कर दे, तथा अपने हृदयमें विशेष शांति धारण करने के लिए मैं भी समस्त जीवींको क्षमा कर देता हूं, और इसप्रकार अपने मनको शुद्ध कर लेता हूं। इसप्रकार मनको शुद्ध करनेसे तथा राग द्वेषादिका त्याग कर देनेसे परम शांतिकी प्राप्ति अवश्य होती है। यदि इनका त्याग करनेसेभी परम शांति प्राप्त न हो तो, समझना चाहिए कि वह सब त्याग मिथ्या है । ऐसा त्याग कभी सुशोभित नहीं हो सकता । अतएव इन सब विकारोंका त्याग कर अपने आत्मामें परम शांति धारण कर, अपने आत्माका परम कल्याण कर लेना प्रत्येक भव्य जीयका परम कर्तव्य है ।
प्रश्न- मनोवचःसुकायेषु किमर्थं किमाप्नुयात् ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मन-वचनकायमें जो एकता धारण की जाती है, अर्थात् जो मनमें मोचा जाता है, वही बचनसे कहा जाता है, और वहीं शरीरसे किया जाता है सो क्यों किया जाता है, किसलिए किया जाता है ? उ.-यथैव चित्ते वचसा तथैव निगद्यते केतवहीनकायः। निजान्यशान्त्य क्रियते च कृत्यं गर्हापि निदात्मन एव नित्यम् ॥ परप्रशंसाखिलतोषदात्री मिथोपि चेषादिविनाशको। पूर्वोक्तरोतिर्यदि चेन्न चैव नृत्वं वृथाहश्च विना सुमानुम् ।।'
अर्थ-इस संसारमें अपने आत्मा परम शांति प्राप्त करने के लिए नथा अन्य जीवोंमें शांति प्राप्त करनेके लिा महापुरुष जैसा मनम
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विचार करते हैं वैसा ही वचनसे कहते हैं, तथा विना किसी छल कपटके शरीरसे वैसा ही कार्य करते हैं, इसके सिवाय वे पुरुष अपने आत्माकी गहों और निदा करते रहते है, और समस्त जीवोंको संतुष्ट करनेवाली तथा परस्परकी या वा द्वषको दूर करनेवाली, अन्य जीवोंकी प्रशंसा भी किया करते हैं। यदि इन सब कार्योको करते हुएभी आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर जिसप्रकार सूर्यके विना दिन शोभायमान नहीं होता, उसीप्रकार शांतिके विना मन वचन कायकी वह सरलताभी शोभायमान नहीं होती।
भावार्थ- मन वचन कायकी सरलता शांतिका सर्वोनम कारण हैं । जो पुरुष मन वचन कायकी सरलता नहीं रखता, मनमें कुछ सोचता है, वचनसे कुछ कहता है, और शरीरसे कुछ करता है, तो वह रात-दिन मायाचारी करता रहता है । कहीं वह मायाचारी प्रगट न हो जाय, इसके लिए वह सदा व्याकुल रहता है। उस व्याकुलतामें कभी शांति प्राप्त नहीं हो सकती । अतएव उस व्याकुलताको दूर करने के लिए और आरमामें परम शांति धारण करने के लिए मन, वचन, कायकी कुटिलना दूर कर, मन, वचन, कायमें सरलता धारण करनी चाहिए । जिसका मन, वचन, काय सरल रहता है, उसको कभी किसीका भर नहीं रहता, इसलिए वह निराकुल और शांत रहता है । इसके सिवाय जिसका मन, बचन काय सरल होता है वह सदाकाल अपने आत्माकी गर्दा वा निंदा करता है, तथा दूसरोंकी प्रशंसा करता है । इसप्रकार अपनी गर्दा वा निंदा करनेसे तथा दूसरोंकी प्रशंसा करनेसे सब लोग संतुष्ट हो जाते हैं, तथा सब लोगोंको संतोष होनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है। यदि उत्तम मनुष्यजन्म पा करकेभी मन बचन कायकी सरलता धारण नहीं की, तथा अपनी गर्दी निंदा वा परप्रशंसा नहीं की, और इन कार्योंके द्वारा अपने आत्मामें परमशांति धारण नहीं की तो फिर उसका मनुष्यजन्म व्यर्थही समझना चाहिए । जिसप्रकार सूर्यके विना दिनकी शोभा नहीं होती, यदि सूर्य बादलोंमें छिप जाता है तो वह दिन दुदित कहलाता है, उसीप्रकार विना मन वचन कायकी सरलता और शांतिके, मनुष्यजन्म कुजन्म कहलाता है. अयवा वह
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मनुष्य कुमनुष्य कहलाता है। इसलिए मनुष्यजन्म पा करके मन वचन कायमें सरलता और शांति धारण करना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न – देवादिकृतोपसमें किमर्थं सहते मुनिः
अर्थ- हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइए कि देव वा मनुष्यादिके द्वारा किया हुआ उपसर्ग मुनिराज, किस लिए सहन करते हैं ? उ.-देवर्नरर्थाथ खगैस्तिरचा कुटुंबवगंश्च खलैः कुभूपैः ।
दत्तं क्षणात्प्रागहरं च दुःखं कृतोपसगं सहते ह्यसाह्यम् ॥ मानापमानेन भवां प्रपीडां कार्य कषायं स्वजनं स्वदेशम् । शान्त्यर्थमेव त्यचतीति साधुः मही यथा वा सहते हि सर्वम् ॥
अर्थ- मुनिराज अपने आस्मा में परम शांति धारण करनेके लिएही देबोंके द्वारा, मनुषोंके द्वारा, विद्याधरोंके द्वारा वा तिर्यंचोंके द्वारा अथवा कुटंबी लोगोंके द्वारा, दुष्ट लोगोंके द्वारा, वा नीच राजाओंके द्वारा दिए हुए और प्राणोंका हरण करनेवाले दुःखोंको सहन करते हैं। तथा इन्हींके द्वारा किए हुए असह्य उपसगोंको सहन करते हैं। और मानअपमानसे होनेवाली भारी पीडाकोभी सहन करते हैं। इसके सिवाय बे मुनिराज शांतिके लिएही काय-कषाय, स्वजन और स्वदेशका त्याग करते है। जिस प्रकार पृथ्वी सब कुछ सहन करती है, उसी प्रकार वे मुनिराजभी समस्त उपसर्गोंको सहन करते हैं।
भावार्थ- लोग पृथ्वीको कूटते है, खोदते हैं, इसपर थूकते हैं, मलमूत्र करते है, कडा कचरा फेंकते है और न जाने क्या-क्या करते है, परंतु वह पृथ्वी सब कुछ सहन करती रहती है। इसीप्रकार मनिराजकोभी बहुतसे लोग दुःख दिया करते हैं, बहतसे देव अनेक प्रकारके उपसर्ग करते है. बहुतसे विद्याधर अनेक प्रकारके उपसर्ग करते हैं,, बहुतसे सिंह, व्याघ्र आदि पशुभी दुःख दिया करते हैं, बहुतसे मनुष्य वा दुष्ट राजा वा अनेक कुटुंबी लोग उन मुनियोंको दु:ख दिया करते हैं। उन सब उपसर्गोको बा दुःखोंको बे मुनिराज सहन करते हैं। इसके सिवाय अनेक प्रकारके अपमानजनक वचन वा पीडाएं सहन करते है। उन मुनियोंका यह सब सहन करना केवल शांति के लिए होता है । वे मुनिराज अपने मन में कभी संक्लेशता वा आकूलता उत्पन्न होने देना नहीं चाहते,
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क्योंकि संक्लेश परिणाम होनेसे आत्माकी शांति नष्ट होती है, और इसीलिए उन सक्लेश परिणामोंसे अशुभ कर्मोका बंध होता है। आत्माम शांति धारण करनेसे अशुभ कर्मोंका बंध नहीं होता, और पहलेके संचित कर्मभी नष्ट हो जाते हैं। इसीप्रकार कषायोंका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है, और स्वदेश वा कुटुंबवर्गका त्यागभी शांतिके लिए किया जाता है। अतएव समस्त भव्यजीवोंको शांति धारण करना परमावश्यक है, और यही आत्मकल्याणका कारण है।
प्रश्न- दीनतादिर्बद स्वामिन् किमर्थं त्यज्यते भुवि ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अत्र कृपाकर यह बतलाइए कि दीनना मूर्खता आदिका मा इस संसान किया जा है ? उत्तर - दीनता मूर्खता निद्या नीचता धर्महीनता ।
क्रूरता वैरताऽशान्तिनिन्दकतातिमन्दता ॥ ४६१ ॥ परता भीरुताऽकोतिर्दुर्जनतातिलोभता। शान्त्यर्थ केवलं सर्वास्त्यज्यंते लोकमूढता ।। ४६२॥ वृथा स्यात्तद्विना त्यागस्त्यत्ककंचुकसर्पवत् । ज्ञात्वेति सुखदा शान्तिर्धारणीया निरन्तरम् ॥ ४६३ ।।
अर्थ- इस संसारमें जो दीनता, मूर्खता, निदनीयता, नीचता, धर्महीनता, ऋरता, वैर, विरोध, अशांति, निंदा करना, अत्यंत मंद वा आलसी होना, परपदायोंमें लीन होना, भय, अपकीति, दुर्जनता, अत्यंत लोभ, और लोकमहता आदिका जो त्याग किया जाता है, वह केवल शांति के लिए किया जाता है। जिस प्रकार सर्पके लिए कांचलीका त्याग कुछ कार्यकारी नहीं होता, व्यर्थही होता है, उसी प्रकार इन सबका स्याग करकेभी यदि शांति प्राप्त न हो, तो फिर उस सब त्यागको व्यर्थ समझना चाहिए, यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवोंको सदाकाल अपने हृदयमें मुख देनेवाली शांति धारण करना चाहिए ।
भावार्थ- दीनता, मूर्खता आदि जो ऊपर दिखलाये हैं, वे सत्र मनुष्योंके अवगुण हैं । जहां अवगुण होते हैं, वहांपर अनेक प्रकारकी आकुलताएं उत्पन्न होती है, तथा जहाँ आकुलताएं होती हैं, वहांपर
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कभी शांति नहीं हो सकती। इसलिए इन सबका त्याग शांतिके लिएही किया जाता है । अवगुणोंका त्याग करनेसे आत्माके गुणोंकी वृद्धि होती है, तथा आत्माके गुणोंकी वृद्धि होनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है। यदि इन अवगुणोंका त्याग करके भी आत्मामें शांति प्राप्त न हो तो, समझना चाहिए कि वह अवगुणोंका त्याग मिथ्या और व्यर्थ है। अतएव सभी भव्यजीवोंको अपने समस्त अवगुणोंका त्याग कर, आत्मामें परम शांति धारण करना चाहिए । यह शांतिही आत्माके कल्याणका उत्कृष्ट साधन है।
प्रश्न- लाभालाभं समग्नं हि किमर्थ मन्यते वद ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह वत्तलाइए कि मुनिलोग लाभअलाभ वा सुख-दुःख आदिमें समता धारण क्यों करते हैं ? उ. लाभे ह्यलाभे सुजनेपि दुष्ट हन्येऽप्यदव्यां हि सुखेपि दुःखे । प्रियेऽप्रिये वस्तुनि चात्मवाह्ये मानापनाने रिपुबन्धुव॥ रोगे विरोगेपि जलस्थले खे भोगोपभोगे ध्रियते समत्वम् । शान्त्यर्थमेवं क्रियते प्रयोगः स तद्विना स्याद् बकवत् प्रदुष्टः ।।
अर्थ- इस संसारमें लाभ-अलाभ, सज्जन-दुर्जन, घर, वन, सुखदुःख, प्रिय-अप्रिय आदि पदार्थो में, वा आत्मासे भिन्न अन्य पदार्थोमें, वा, मान-अपमानमें, शत्र वा बंधुओंमें, रोग वा नीरोगतामें, जलमें, स्थलमें, आकाशमें और भोगोपभोगों में जो समता धारण की जाती है, वह केवल शांतिके लिएही की जाती है। यदि इन सबमें समता धारण करकेभी आत्मामें शांति प्राप्त न हो तो, फिर उस समताको बगुलाओंकोसीहो दुष्टता समझना चाहिए।
__ भावार्थ- किसी पदार्थका लाभ होनेपर हर्ष मनाया जाता है, और उसकी प्राप्ति न होनेपर शोक वा दुःख मनाया जाता है। परंतु हर्ष वा शोक दोनोंके होनेमें आकुलता होती है, तथा आकुलताही दुःख है। अतएव उस आकुलताको दूर करनेके लिए, वा आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए लाभ-अलाभ दोनों में समता धारण की जाती है। इस प्रकार सज्जनसे मिलकर सुख होता है, और दुष्टसे मिलकर दुःस्त्र होता है, तथा सुख-दुख दोनोंमें आकुलता होती है । उस आकुलताको दूर
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( शान्तिसुधामि ।
करने के लिए और आत्मशांती रस्त्रनेके लिए, उन दोनोंमें समता धारण की जाती है। इसीप्रकार हर्ष वा विषादसे उत्पन्न होनेवाली आकुलताको दूर करनेके लिए, घर वा बन दोनोंमें समता धारण की जाती है, सुख-सुःस्त्र दोनोंमें समता धारण की जाती है, प्रिय का अप्रिय दोनों पदार्थोमें समता धारण की जाती है, मान-अपमानमें, वा रोग और स्वास्थ्य में, बा जल-स्थलमें, भोगोपभोगोंमें वा अन्य समस्त इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समता धारण की जाती है । इस समताको धारण करनेसे आकुलता नष्ट हो जाती है, और आत्मामें परमशांति प्राप्त हो जाती है । यदि इस समताको धारण करनेसेभी शांति प्राप्त न हो तो, समझना चाहिए कि वह समता मिथ्या है, और बगुलाके ध्यानके समान मायाचारीसे भरी हुई है। अतएव ऐसी मायाचारीका त्याग कर, भव्यपुरुषोंको समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में समता धारण कर, अपने आत्मामें परम गांनि धारण करनी चाहिए, मोक्षसुख प्राप्त करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है ।
प्रश्न- स्वात्मतत्त्वविचारस्य किं प्रयोजनं प्रभो बद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मुनि लोग जो आत्मतत्त्वका विचार करते हैं वह किस लिए करते हैं ? उ.-स्वात्मैव चानन्दमयं सुदृक् स्यात् स्वात्मैव शुद्धः प्रबलः प्रबोधः।
स्वात्मैव सौख्यं परमार्थदृष्टया स्वात्मव वीर्य सुखदं च वृत्तम्।। व्यक्तोपि गुप्तः कथितः प्रमाणात् सुखप्रदो चात्मन एव धर्मः। शान्त्यर्थमेवं क्रियते विचारः स्यात्तद्विना मूर्खनवद् व्यथावः ।।
अर्थ – यदि परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो यह मेरा आत्माही चिदानन्दमय सम्यग्दर्शन है, यही आत्मा अत्यंत शुद्ध अनन्तज्ञान है, यही आत्मा अनन्तसूख है, यही आत्मा अनन्तवीर्य है, यही आत्मा मुख देनेबाला सम्यक्चारित्र है, और यही आत्मा सुख देनेवाला आत्माका शुद्ध स्वरूप है । ऐसा यह आत्मा व्यक्त होता हुआभी गुप्तरूपसे रहता है, और प्रमाणसे उसका स्वरूप कहा जाता है। इसप्रकारके विचार केबल शांति के लिएही किए जाते हैं। यदि ऐसे विचार होते हुएभी शाति प्राप्त न हो, तो फिर उन विचारोंको मूर्ख मनुष्य के समान दुःख देनेवालाही समझना चाहिए ।
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( मान्तिसुवासिन्धु )
भावार्थ
इस संसार में आत्मतत्वका चितवन सर्वोत्कृष्ट माना जाता है । यद्यपि उसका स्वरुप अत्यंत शुद्ध और विविकल्प है, और इसीलिए वह अवक्तव्य है । कहा नहीं जा सकता, तथापि उसका स्वरूप किसी एक एक गुणके द्वारा कहा जाता है, तथा किसी एक गुणके द्वारा ही चितवन किया जाता है। अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चार अनंतचतुष्टय आत्मा के निज स्वरूप हैं। ये आत्माके चारों गुण घातिया कर्मो के सर्वथा नाश होनेसे प्रगट होते हैं । दर्शनावरण कर्मोंका सर्वथा नाश होनेसे अनंतदर्शन गुण प्रगट होता है, ज्ञानावरण कर्मका नाश होनेसे अनंतज्ञान वा केवलज्ञान प्रगट होता है, मोहनीय कर्मका नाश होने से अनंतसुख प्रगट होता है, और अन्तराय कर्मका सर्वथा नाश होने से अनंतवीर्य प्रगट होता है। ये चारों गुण सिद्ध अवस्था में भी आत्मा के साथ रहते हैं, इसलिए चारों गुण आत्माके स्वभावरूप है, अथवा आत्मा निजधर्मरूप है। इनमेंसे किसी एक गुणके द्वारा आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करना आत्मामें परम शान्ति प्राप्त करनेवाला है । यद्यपि इन चारों गुणोंमेंसे ज्ञान गुण साकार है, और सविकल्पक है, तथा शेष सब गुण निराकार और निर्विकरूपक हैं, तथापि ज्ञानके द्वारा उनका निरूपण किया जाता है । यद्यपि अन्य समस्त पदार्थोंके चितवन करनेसेभी शांति प्राप्त होती हैं, तथापि समस्त पदार्थ वा तत्त्वोंकी अपेक्षा आत्मतत्त्व सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है । समस्त तत्त्वोंमें एक आत्मत्वही उपादेय है, शेष तत्त्व हेय है । इसलिए आत्मतत्वका चितवन करना सर्वोत्कृष्ट चितवन वा ध्यान कहलाता है, और इसीलिए आत्मतत्त्वका चितवन करने से परम शांति प्राप्त होती है। इसका कारण यह है कि, अपने आत्मतत्वका चितवन करनेसे यह आत्मा अन्य समस्त संकल्प - विकल्पोंका स्याग कर, केवल आत्मामेंही लोन हो जाता है । इसलिए उस समय उस आत्मामें सब प्रकारकी आकुलतांए नष्ट हो जाती हैं, और केवल आत्मामें लीन होने के कारण परम शांति प्राप्त हो जाती है। वह परम शांति सब प्रकार के आसव वा बंधको रोकनेवाली होती है । और आत्माका परम कल्याण करनेवाली होती है । जो लोग इस प्रकारके आत्माका चितवन करते हुए भी परम शांति प्राप्त नहीं करते, उनका वह आत्मचितवन सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए और इलिसीए वह चितवन मूर्ख मनुष्य के समान महादुःख देनेवाला समझना चाहिए ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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प्रश्न- स्त्रपरवस्तुबोधेन सिद्धिर्भ :
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि स्व और परपदार्थोके ज्ञान होने से किसकी सिद्धि होती है ? उ.-एकः सदा मे विमलोस्ति स्वात्मा ज्ञातापि दृष्टा हि परंरभेद्यः।
स्वानंदपूरोऽखिलदुःखदूरः सदा स्वसंवेदनतश्च गम्यः।।४६८।। पूर्वोक्तधर्मेण विजितो यः स एव हेयश्च निजात्मनोऽन्यः। ज्ञात्वेति सेव्यः सुखदो निजात्मा शान्त्यं यथा भव्यजनैजिनेंद्रः।
अर्थ- यह मेरा आत्मा अत्यंत निर्मल है. एक है, दष्टा है, भरोके द्वारा अभेद्य है, अपने आत्मजन्य आनंदका पूर है, समस्त दुःखोसे दूर है, और सदाकाल अपने आत्माके स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जाना जाता है । जो पदार्थ ऊपर लिखे हुए धर्मसे रहित हैं, और अपने आत्मासे भिन्न है, वह सदाकाल हेय वा त्याग करने योग्य समझा जाता है । यही समझकर जिसप्रकार भव्यजीव अपने आत्मामें शांति प्राप्त करने के लिए भगवान जिनेन्द्र देवकी पूजा सेवा करते हैं, उसीप्रकार अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करने के लिए सुख देनेवाले अपने आत्माकीही सेवा करनी चाहिए, अर्थात अपने आत्माकाही ध्यान वा चितवन करना चाहिए ।
भावार्थ- स्वपरभेदविज्ञान होनेसे आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति वा सिद्धि होती हैं । इसकाभी कारण यह है कि, मोहनीय कर्म अपने आत्माके स्वरूपको भुला देता है। मोहनीय कर्म के उदयसे यह आत्मा अपने स्वरूपको नहीं देख सकता, नहीं जान सकता, जब कभी किसी विशेष पुण्यकर्मके उदयसे अथवा काल लब्धिके निमित्तसे उस मोहनीय कर्मका उपशम, वा क्षयोपशम, वा क्षय हो जाता है, तब उस आत्मामें एक प्रकारका निर्मल प्रकाश प्रगट हो जाता है, उस निर्मल प्रकाशको सम्यग्दर्शन कहते हैं, । उस निर्मल प्रकाशके प्रगट होनेसे यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको देखने और जानने लगता है । जब यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको देख लेता है, या जान लेता है । तब यह आत्मा अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझकर ग्रहण कर लेता है, और उस आत्माके शुद्ध स्वरूपके सिवाय अन्य समस्त आत्माके विकारोंका
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
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त्याग कर देता है । इस प्रकार आत्मा के साथ लगे हुए परपदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देनं से वह शुद्ध स्वरूप ज्ञातादृष्टा चिदानंदमय निमले स्वात्मा अर्कलाही रह जाता है, उस समय परपदार्थोंका कोई संबंध न रहने के कारण, उस आत्मामें कोई किसी प्रकारकी आकुलता प्रगट नहीं होती। इस प्रकार अपने आत्माके स्वरूपको तथा अन्य समस्त पदार्थोंके स्वरूपको जान लेनेसे अपने आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति होती है, यही परम शांति मोक्षकी प्राप्तिका मुख्य साधन है । इसलिए भव्यजीव जिस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवकी सेवा वा भक्ति करके आत्मामें परम शांति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार अपने शुद्ध स्त्ररूप और परम सुख देनेवाले आत्माकी सेवा करके वा उसका चितवन करके समस्त भव्य जीवोंको अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । ऐसी परम शांति प्राप्त कर लेने के अनंतर उस भव्यजीवको मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो जाती है ।
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प्रश्न - मिथः सम्बन्धत्रचना को हेतुविद्यते वद ?
अर्थ-हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइये कि पदार्थों में परस्परक संबंध होनेसे वा परस्पर के संबंधकी चर्चा करनेसे क्या लाभ होता है । उ. - दुःखप्रदानां भवबन्धकानां संयोगतो बाह्यपदार्थ कानाम्
भीमे भवाब्धौ च पतन्ति मूढाः विभावशक्तेः प्रबलोदयाद्वा यथेय मेघाः पवनप्रसंगात् प्रजा यथा दुष्टनृपस्य संगात् । मिथः प्रबोधादिति तेपि शान्ति लब्धा लभन्ते समयं स्वराज्यम्
अर्थ - जिस प्रकार वायुके संयोगसे सब मेघ बिखर जाते हैं, और दुष्ट राजाके संबंध से प्रजाभी बिगड जाती है, उसी प्रकार विभाव-शक्ति के प्रवल उदयसे तथा दुःख देनेवाले और संसारका बंध करनेवाले बाह्य पदार्थोंके संबंध से ये अज्ञानी जीव इस भयंकर संसाररूपी समुद्रमे गिर कर डूब जाते हैं, तथा वे ही अज्ञानी जीव उन दोनोंका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेते हैं, और उस परम शांतिको प्राप्त कर लेने से अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपको तथा मोक्षरूप स्वराज्यको प्राप्त कर लेते हैं ।
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भावार्थ- इस संसार में यह जीव इन कर्मोकेही निमित्तमे अनादोकालसे परिभ्रमण कर है। अपने का यदि के दिन गौद्गलिक कर्मोको ग्रहण करता है, और फिर उन कर्मोंके उदयसे दुःखी होता हुआ, नवीन कर्मों को ग्रहण करता है । इस प्रकार बीज और वक्षके समान, कर्म और कषायोंका संबंध इस आत्माके साथ लगा हआ है । ये कर्म और कषाय दोनोंही पौद्गलिक है, और आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं। इन्हीं कौके उदयसे होनेवाले कषायोंको वा मोहादिके विकारोंको विभाव-भाव कहते हैं। इन्हीं विभाव-भावोंकी तीव्रतासे यह जीव अशुभ कर्मोंका बंध करता है, और उन अशुभ कर्मोके उदयसे इस मंसार-समुद्र में परिभ्रमण करता हुआ महादुःख भोगता है । जिस प्रकार वायके निमित्तसे बादल बिखर जाते हैं, अथवा जिस प्रकार दुष्ट राजाके कारणसे प्रजा डरकर महादुःखी होती है, उसी प्रकार इन कर्म और कषायोंके निमित्तसे यह जीव इस संसारमें पडा पड़ा महादुःख भोग रहा है, जब यह जीव अपने आत्माका, वा कषायका, वा कर्मोका यथार्थ स्वरूप जान लेता है, तब यह जीव उन कषाय और कर्मोको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनका त्याग कर देता है, और अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपकोही अपना स्वरूप समझकर उसमें लीन हो जाता है, जब यह आत्मा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमे लीन हो जाता है, तब परपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली आकुलतामी नष्ट हो जाती है, और फिर उस आत्माको परम शांतिकी प्राप्ति हो जाती है । इसप्रकार वह आत्मा परमशांत होकर अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, और मोक्षरूप स्वराज्यको प्राप्त कर लेता है, आत्मकल्याणका यही उपाय है।
प्रश्न- पंचामृताभिषेकादिः किमर्थं क्रियते प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि भगवान् जिनेंद्रदेवकी मूर्तिका पंचामृताभिषेक फिसलिए किया जाता है ? उ.-शुद्धजल शान्तिकरैः प्रियश्च सुख प्रर्दश्चक्षुरसैः सुमिष्टः ।
श्रेष्ठः घृतः कांचनवर्णतुल्यः शुभ्रमहापौष्टिकरेष्च दुग्धः।४७२ श्रीक्षीरसिधोधिभिः प्रगादः सर्वागदश्च स्वसुखप्रबंश्च । जिनेन्द्रमर्तेश्च क्रियतेभिषेको रसस्तथाम्रादिमहाफलानाम् ॥
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( गान्तिसुधानि
भक्त्या मुनिश्रावकधर्मकर्ड चतुविधं दोयत एव दानम् । शान्त्यर्थमेवापि महादिशुद्धिः सुखप्रदं चाष्टविधार्चनादि।।४७४ पूर्वोक्तकार्य सकलं यथावत् सदैव कुर्वन्नपि चेन्न शान्तिः । अभव्यजन्तोरिव तस्य जन्तोः सर्व वृथा स्याद्धि वि/र्वधानम्
अर्थ- सबसे पहले शांति उत्पन्न करनेवाले और अत्यंत प्रिय ऐसे शुद्ध जलसे भगवान्का अभिषेक करना चाहिए, मुख देनेवाले और अत्यंत मिष्ट ऐसे इक्षरससे अभिषेक करना चाहिए, फिर सुवर्णके समान घी से अभिषेक करना चाहिए, अत्यंत सफेद और महापुष्ट करने वाले दूधसे अथवा क्षीरसागरके जलमे अभिषेक करना चाहिए. तदनंतर गाढे दहीसे अभिषेक करना चाहिए, फिर आत्माको सुख देनेवाले सर्वोपधिसे अभिषेक करना चाहिए । तदनंतर आम आदि महा फलोंके रससे अभिषेक करना चाहिए। इसीप्रकार मनि वा श्रावकके धर्मको धारण करनेवाले, मुनि वा श्रावकोंको भक्तिपूर्वक चारों प्रकारका दान देना चाहिए, पात्रदान देकर वा समदत्ति देकर, गृह-शुद्धि करनी चाहिए, और सुख प्राप्ति के लिए भगवान् जिनेंद्र देवका आठ द्रव्यसे पूजन करना चाहिए । ये सब काम आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए किए जाते हैं । यदि इन समस्त कार्योंको विधि-पूर्वक करते हुएभी आस्मामें परम शांति प्राप्त न हो तो, फिर उस जीवका समस्त विधि-विधान अभव्य जीवके द्वारा किए हुए विधि-विधानके समान व्यर्थ समझना चाहिए,
भावार्थ- पंचामृताभिषेककी संक्षिप्त विधि इसप्रकार है । सबसे पहले दूध, दही, घी, इक्षुरस, सबौंषधिरस, फलरस, गंधोदक आदिके कलश तैयार करना चाहिए। इन पांचो कलशोंमें अक्षत, पुष्प, रत्न आदि डालने चाहिए. ऊपर पान और नारियल रखना चाहिए, चारों ओर सूत्रोष्ठीत करना चाहिए । फिर दस दिशाओंमें दस दिकपालोंको आव्हान करना चाहिए। तदनंतर 'श्रीकार' लिखकर उस पीठपर प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए । अर्घ्य देना चाहिए। तदनंतर कलश पूजन कर, सुंदर श्लोक और मंत्र पढते हुए जलसे, इक्षुरससे, घी, दूध, दही, सवौषधिसे अभिषेक करना चाहिए। यहींपर फलोंके रसोंसे भी अभिषेक
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
करना चाहिए | तदनंतर गंधोदकसे, फिर कोणकलशोंसे, और सबसे अन्तमें पूर्ण कलश से अभिषेक करना चाहिए । यदि एक्सआठ कलशोंसे अभिषेक करना हो तो कोणकलशों के पहले, एकसौंआठ कलशोंमे अभिषेक कर लेना चाहिए। एकसआठ कलशोंका स्थापन ऊपर लिखे यंत्रके समान करना चाहिए।
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इनमें चारों कोणोंके चार कलश, कोणकलश माने जाते हैं, और मध्यका कलश पूर्णकलश माना जाता है ।
पंचामृताभिषेक करते समय अथवा एकसीआठ, वा एकहजार आठ कलशोंका अभिषेक करनेपर उस अभिषेकको देखने के लिए हजारों लोग इकट्ठे होते हैं, तथा अभिषेक होतेही सब लोग जयजयकार करते हुए अत्यंत प्रफुल्लित और आनन्दित होते हैं । इसप्रकार हजारों मनुष्य एक साथ पुण्य सम्पादन करते हुए अपने आत्मामें शांति बना लेते हैं । जो लोग ऐसे अभिषेक महापुण्यका सम्पादन नहीं करते, वा अपने आत्मामें शांति प्राप्त नहीं करते, उन्हें भाग्यहीन, वा अज्ञानी समझना चाहिए | अतएव पंचामृताभिषेक करना, आत्माका परम कल्याण करनेवाला है, और भगवान् जिनेन्द्रदेवकी भक्तिका प्रवाह बढानेवाला है । भगवान् जिनेन्द्रदेव के भक्तिका अपार महिमा है । भगवान् जिनेन्द्रदेवकी भक्ति, आचार्यवर्य श्रीसमन्तभद्रके समान अद्भुत महात्म्यको प्रगट करनेवाली, और तीर्थंकर नामकर्म तकका बंध करनेवाली होती है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको भगवान् जिनेन्द्रदेवकी मूर्तिका पंचामृताभिषेक करना चाहिए, और सैकड़ों-हजारों मनुष्योंको पुण्यका सम्पादन कराना चाहिए । जिनपूजनमें पंचामृताभिषेक करना मुख्य पूजन है । और प्रत्येक भव्यजीव के लिए प्रतिदिनका कर्त्तव्य है। श्री पूज्यपाद आदि अनेक आचार्योंने पंचामृताभिषेक पाठ निरूपण किए हैं, तथा सब मचाने इसकी पुष्टि की है । इसलिए यह शास्त्रोक्त मार्ग है । जो इसका खंडन करता है, वह शास्त्रोंका खंडन करता है, और महापाप उत्पन्न करता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यपुरुषको यह महाभिषेक प्रतिदिन करना चाहिए। संकडों वा हजारों मनुष्योंके लिए शांति प्राप्त करने और आत्म कल्याण करने का यह सर्वोत्कृष्ट और सरल मार्ग है ।
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( शान्तिमुधासिन्धु )
इमीप्रकार मुनि, अजिका, श्रावक, धाविका, आदिके लिए उनकी आवश्यकतानुसार चारों प्रकारका दान देना चाहिए । मुनियोंके लिए पींछी, कमंडल, आहार, औषध, शास्त्र, वसतिका आदिका दान देना चाहिए । अर्जिका वा क्षुल्लिकाओंके लिए बा ऐलक क्षुल्लकके लिए उनकी आवश्यकतानसार ऊपर लिखे पदार्थ भी देने चाहिए । तथा वस्त्रभी देने चाहिए। श्रावक श्राविकाओंके लिए उनकी आवश्यकतानुसार धन, वस्त्र, वर्तन, औषधि आदि जो बन सके वह देना चाहिए। इस प्रकारके दान देनेसेभी आत्माको परम संतोष और शांति प्राप्त होती है । तथा महापुण्यका उपार्जन होता है। इसके सिवाय प्रतिदिन भगवान जिनेंद्रदेवका पूजन करना चाहिए । और बह जल चंदन आदि अष्ट द्रव्योंसेही करना चाहिए । पूजन करनेसेभी आत्मामें परम संतोष और परम शांति प्राप्त होती है । इस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवकी भक्ति करनेसे आत्माको परम शांति प्राप्त होती है, तथा परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति होती है । जो पुरुष इन विधिविधानों को करते हुएभी अपने आत्मामें शांति प्राप्त नहीं करते, उनको या तो अभन्य जीव समझना चाहिए, अथवा अभव्य जीवके समान उसका सब कर्तब्य व्यर्थ समझना चाहिए, वा मिथ्या, वा मायाचारीपूर्ण समझना चाहिए। इसलिए भगवानकी भक्ति विना मायाचारीक, सच्चे हृदयसे होनी चाहिए, तभी आत्मामें शांति प्राप्त हो सकती है।
प्रश्न- सम्मेलं घर्मिणां स्वामिन् किमर्थं चिन्त्यते मिथ: ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अव कृपा कर यह बतलाइए कि धर्मात्मा पुरूषोंका परस्पर सम्मेलन किसलिए किया जाता है, वा किसलिए चितवन किया जाता है। उ.-शान्त्यर्थमेयेह मिथोऽविरुद्धा प्रमाणसिद्धा सकला प्रवृत्तिः सर्वैः समं लोकविधेविधानं सम्मेलनादिः क्रियते यथावत् ।।
अर्थ-- इस संसारम शांतिके लिए परस्पर अविरूद्ध और प्रमाणसिद्ध समस्त प्रवृतियां की जाती है, तथा शालिके लिएही समस्त लौकिकविधियां की जाती है, और शांतिकेही लिए धर्मात्मा पुरूषोंका सम्मेलन आदि किया जाता है ।
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- मेला, प्रतिष्ठाओं में अनेक धर्मात्मा पुरुष बुलाए जाते हैं वा स्वयं आते हैं, वे सब मिलकर आत्मतत्त्वकी चर्चा करते हैं, आत्माके कल्याणका उपाय बतलाते हैं, धर्मकी वृद्धि के उपाय बतलाते हैं, अपनी भावी संतानको धर्मात्मा बनानेका विचार करते है, विद्वान बनानेका विचार करते हैं, प्रभावनाअंगोंकी वृद्धि के लिए विचार करते हैं, और अनेक प्रकारका धर्मपिदेश देते हैं। ऐसा करनेसे स्वयं उनको शांति मिलती है, तथा सुननेवाले अनेक भव्य जीवोंको शांति प्राप्त होती है, तथा अनेक जीवोंका कल्याण होता है । उसी प्रकार यज्ञोपवीत आदि जितने संस्कार हैं, वा दान पूजा, वा परस्परका व्यवहार आदि जितनी प्रवृत्तियां है, वे सब इसप्रकार करनी चाहिए, जिससे परस्पर कभी विरोध न हो, तथा समस्त प्रवत्तियां शास्त्रान कल हो । परस्पर श्रावकोंके साथ वा अन्य लोगोंके साथ जो व्यवहार किया जाता है. वहभी शास्त्रानुकूल और शांतिके लिए होना चाहिए । ऐसा करनेतही धर्म की वृद्धि और आत्मामें शांति प्राप्त होती है ।
प्रश्न- किमर्थं पूज्यते राजा किमर्थं दण्ड्यते बद !
अर्थ- हे भगवान् अब कृपाजार ग्रह बतलाए कि विसीलिए तो राजाकी पूजा की जाती है, और राजाको किस लिए दंड दिया जाता है? उ.-स्वपुत्रवत्पालयति प्रजा यो दधाति शांति भुवि वृष्टिवद् वा।
स एव राजा खलु पूज्यते च शान्त्यर्थमेवं सकलप्रजाभिः ।। इयं प्रजा मे तनयोस्ति चायमिति प्रमोहाद्धि करोति भेदम् । दुःखं प्रजानां तनयस्य सौख्यं ददाति चेद्यःस च दण्डनीयः ॥
अर्थ- जो राजा समस्त प्रजाका अपनी पुत्रके समान पालन करता है, और जो वर्षाके समान समस्त संसारमें शांति स्थापन करता है, वह राजा केवल शांति के लिए सब प्रजाके द्वारा पूजा जाता है, तथा जो राजा यह विचार करता है, कि यह तो प्रजा है, और यह मेरा पुत्र है। इस प्रकार विचार कर जो मोहके कारण अपने पुत्र और प्रजामें भेद स्थापन कर देता है, तथा जो प्रजाको दुःख दिया करता है, और अपने पुत्रको सुख पहुंचाता है, वह राजा शांतिभंगका कारण है, और इसीलिए वह राजा प्रजाकद्वारा दंडनीय होता है।
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योग्य होता हैं।
भावार्थ - जिस प्रकार किसी एक घरमें उस घरका जो स्वामी होता है, वह अपने घर के सब लोगोंका पालन करता है । घरमें जो पठाने योग्य होता है, उसको पढ़ाता है, जो दूध पीने उसको दूध पिलाता है, जो व्यापारमें योग्य होता है, उसको व्यापारमें लगाता है, और जो जिस योग्य होता है, उसको उसी काममें लगा देता है । वह गृहस्थ अपने घरमें किसी प्रकारका कलह नहीं होने देता. सबको सुखी रखता है । उसी प्रकार राजाभी अपने राज्यका स्वामी होता है । उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि, वह अपने राज्य में सब प्रकारकी शांति बनाए रक्खे । प्रजावर्ग में जो व्यापारके योग्य हैं, उनको व्यापार में लगा देवे, जो सेनाके योग्य हैं, उनको सेनामें रक्खे जो खेती के योग्य हैं, उनको खेती में खखे, वा जो सेवा करने योग्य हैं, उनको सेवावृत्ति में लगावे । इसप्रकार वर्णव्यवस्था शास्त्रानुकूल बनाए रखना राजाका धर्म है, उसी प्रकार अपराधीको दंड देना राजाका काम है । यदि राजाका पुत्र स्वयं अपराध करे तो विना कुछ मोह, वा विचारके उसे अपने पुत्रकोभी दंड देना राजाका कर्तव्य है। जब तक राजाका पुत्र राजसिंहासनपर नहीं बैठता तब तक बही प्रजावर्ग में ही गिना जाता है । इसलिए राजाको प्रजा और पुत्रमें कोई भेद नहीं रखना चाहिए। ऐसा न्यायपरायण राजाही प्रजाके द्वारा पूजा जाता है, और वहभी शांति बनाए रखने के कारणही पूजा जाता है । जो राजा इसप्रकार न्यायपरायण नहीं होता, अथवा जो प्रजा पुत्रमें भेद करता है, तथा वर्णव्यवस्थाको तोड कर संसार में अशांति स्थापन करता है, ऐसा राजा प्रजाकेद्वारा दंडनीय होता है ।
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प्रश्न
राजद्रोहिनरत्यागहेतुः को विद्यते वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि राजद्रोही मनुष्यका त्याग किसलिए किया जाता है ।
उत्तर - प्रजापालन रक्तो यो यदि मोहात्वलैर्नृपः ।
हन्यते राज्यहेतोर्थः शान्त्यर्थं सोपि वण्डयते ॥ ४७९ ।। न्यायनीतेर्यदा भ्रष्टः काष्ठांगारो यथा खलः । नीतिज्ञधर्मनिष्ठेन जीवंधरेण ताडितः ॥ ४८० ।।
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अर्थ-जिसप्रकार न्याय और नीतिमे भ्रष्ट होनेवाले दुष्ट काष्ठांगारको, नीतिको जाननेवाले धर्मात्मा राजा जीवधरने ताडन किया था, उसीप्रकार जो राजा प्रजा पालन करने में लीन रहता है, उसकोभी जो दुष्ट, केवल राज्य छीन लेने के लिए मार देते हैं, उनको संसार में शांति प्राप्त करने के लिए दंडित किया जाता है।
भावार्थ- जीवोंकी हिंसा करना पाप है. परंतु उस पाएमभी अपने परिणाम, और जीवोंकी शक्तिकी अपेक्षासे भेद हो जाता है। एक घासका पौधा उखाड़ने में जिनमा पाप लगता है, उससे कहीं अधिक पाप वडे वृक्षके काटने में लगता है, उससे भी अधिक पाप चींटी-चीटा जीनों घात करने में लगता है ! चममे भी अधिक पाप चींटी चींटा आदि तीन इंद्रिय जीवोंका घात करने में लगता है, उससे भी बहत अधिक पाप, मक्खी, भौंरा आदि चार इंद्रिय जीवोंके घात करने में लगता है । उससे भी अधिक पाप पंचेन्द्रिय असेनीका घात करने में लगता है, उससे भी अधिक पाप पंचेन्द्रिय पगका घात करने में लगता है, उससे भी अधिक पाप मनुष्योंको मारने में लगता है, और उससे भी अधिक पाप किसी राजा वा किसी धर्मात्माको मारने में लगता है। इसका कारण यह है कि, धर्मात्मा राजासे, वा अन्य धर्मात्माओंसे सैकड़ों हजारों जीवोंको लाभ पहुंचता है, अथवा सैकडों जीवोंका कल्याण होता है, उसको मार देने में उस लाभ, वा कल्याणका मार्ग बंद हो जाता है । इसीलिए राजद्रोही पुरुष, महादृष्ट और महापापी माना जाता है, तथा संसारमें अशांति उत्पन्न करनेवाला कहा जाता है । दुष्ट काष्ठांगारने अपनी दुष्टताक कारण सत्यंधरको मार कर राज्य छीन लिया था, जिससे उसकी रानीको दुःख हुआ था, जीबंधर कुमारको दुःख हुआ था, और सन्न प्रजा दुःखी होकर अशांत हो गई थी। अन्तमें जीवंधरने उसको ताडित कर, अपने हाथ में राज्य ले लिया था, और सब प्रजाको सुखी कर, शांत किया था। राजद्रोही पुरुष संसारभरमें अशांतिका कारण होता है, इसीलिए वह दंडित किया जाता है । ऐसे राजद्रोही पुरुषको दंडित करनेसेही प्रजा शांत होती है । अतएव प्रजामें शांति बनाए रखना, वा धर्मात्माओंमें शांति बनाए रखना, प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- किमर्थं दृश्यते जैनधर्मस्यैव महत्त्वता ?
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अर्थ- हे स्वामिन् ! अब पाकर यह बतलाइये कि इस संसार में जैनधर्मकी महत्ताही क्यों दिखाई पडती है ?
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उ. निर्दोष योगा निरपेक्षबुध्या लोके पदार्थाश्च यथैव सन्ति । जिनेन भव्याय तथा हि चोक्ताः निश्चीयते ह्येव ततस्त्रिलोके ॥ जिनेन्द्रधर्मोस्ति सदा पवित्रः सर्वैश्च सर्वोपरिमाननीयः । ततः स एवं हृदि धारणीयः सत्यार्थ शान्त्यं सकलैश्च विश्वैः ||
अर्थ - इस संसार में जो पदार्थ जिस स्वरूप में विद्यमान है, भगवान् जिनेंद्रदेवने अपनी निर्दोष, और वीतराग तथा सर्वज्ञ अवस्था होने के कारण अपनी निरपेक्ष वा समता बुद्धिसे भव्यजीवोंके लिए उसीप्रकार निरूपण किए हैं, और इसीलिए तीनों लोकोंमें उसीप्रकार उनका निश्चय किया जाता है । इसके सिवाय यह जंनधर्म अत्यंत पवित्र है, और समस्त जीव इसको सर्वोत्कृष्ट मानते हैं । अतएव समस्त संसारको यथार्थ शांति प्राप्त करने के लिए यह जैन ने हमें धारण करना चाहिए ।
भावार्थ - भगवान् अरहंतदेव राग द्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित, बीतराग होते हैं, तथा सर्वज्ञ होते हैं । सर्वज्ञ और वीतराग होने के कारण वे जो कुछ निरूपण करते हैं, वह सर्वथा यथार्थही होता है । पदार्थोंका अयथार्थ स्वरूप या तो अजानकारीके कारण कहा जाता है, अथवा किसी राग वा द्वेषसे कहा जाता है । भगवान् अरहंत देव सर्वज्ञ होने के कारण न तो किसी पदार्थकी अजानकारी है, और न वीतराम होनेके कारण किसीसे राग वा द्वेष है। इसलिए वे जो कुछ कहते हैं, वह सब यथार्थही होता है, उसमें किसी प्रकारका अन्तर नहीं पड सकता । जिस महापुरुषके हृदय में समस्त जीवोंको कल्याण करनेकी भावना सतत बनी रहती है, ये ही जीव दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चितवन कर, तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं, तथा वे ही तीर्थकर परमदेव वीतराग सर्वज्ञ होनेपर तत्त्वोंका उपदेश देते हैं । इसलिए वह तत्त्वोंका स्वरूप यथार्थ होता है, जीवोंका कल्याण करनेवाला होता है, और तीनों लोकोंमें वही निश्चित तत्त्व माना जाता है । उन भगवान् तीर्थंकर सर्वज्ञ परमदेवने जो अहिंसामय
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धर्मका स्वरूप कहा है, वह धर्म यथार्थ धर्म है, सब जीवोंका कल्याण करनेवाला है, अत्यंत पवित्र है, और इंद्र-नरेद्र धरणोंद्र आदि सव इनको मानते हैं । यह अहिंसामय धर्मही सत्र जीवोंको कल्याण करनेवाला है, सब जीवोंकी शांति प्राप्त करानेवाला है, और मोक्षका साक्षात कारण है । यही समझकर अपने हृदयमें परम शांति प्राप्त करनेके लिए समस्त भव्य जीवोंको यही पवित्र जैनधर्म अपने हृदयमें धारण करना चाहिए | इस जैनधर्मका माहात्म्य सर्वोपरि प्रसिद्ध है, जो महापुरुष इस पवित्र जैनधर्मको धारण करता है, उसकी सेवा इंद्रादिक देवभी किया करते है। मुनि लोग इसी पवित्र जैनधर्मको धारण करनेके कारण महापूज्य माने जाते हैं। इन्हीं सब कारणोंसे जैनधर्मका माहात्म्य तीनों लोकों में प्रसिद्ध है ।
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प्रश्न- वद मे चिन्त्यते जन्तोः कि पंचपरिवर्तनम् ?
अर्थ - हे भगवन् ! अन कृपा कर यह बतलाइए कि संसारीजीव जो संसार में पंचपरिवर्तनरूप परिभ्रमण किया करते हैं, उन पंचपरिवर्तन के स्वरूपका चितवन करने का क्या कारण है ? उ. द्रव्यस्य भावस्य भवस्य जन्तोः क्षेत्रस्य कालस्य यथा स्थितस्य युक्त्या प्रयुक्त्या नयमानयोगात् केनाप्युपायेन सतः स्वरूपम् शान्त्यर्थमेव ह्यवगम्यते च संसारलीलादिविदा नरेण । पूर्वोक्तवस्त्वादि विबोधितेपि वृथा प्रबोधः यदि चेन शांतिः
अर्थ- द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन ये पांच परिवर्तन कहलाते हैं जो पुरुष इस संसारकी लीलाको वा संसारके स्वरूपको जानते हैं, ने पुरुष अपने आत्मामें शांति प्राप्त करने के लिए किसीभी युक्ति प्रयुक्तिसे, वा किसी भी प्रमाणनयसे, वा अन्य किसी उपायसे इन पांचों परिवर्तनोंके यथार्थ स्वरूपको जाननेका प्रयत्न करते हैं। यदि पांचों परिवर्तनांके स्वरूपको जानकरभी उनके आत्मामें शांति प्राप्त न हो तो वह उनका जानना सब व्यर्थ समझना चाहिए ।
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भावार्थ - ऊपर लिख चुके हैं कि, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेद से परिवर्तन वा संसारके पांच भेद हैं। इनमेंसे द्रव्यका अर्थ
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पुद्गल है | इसलिए द्रव्यपरावर्तनका अर्थ पुद्गलपरावर्तन होता है । यों तो पुद्गलोंके अनेक भेद हैं, परंतु जिन पुद्गलोंसे जीवका संबंध है उन्हीं पुद्गलोंको यहांपर ग्रहण करते हैं। ऐसे जीवसे संबंधित होनेवाले पुद्गलकर्म और नोकर्मके भेदसे दो प्रकार हैं। अतएव द्रव्यपरिवर्तने के भी नो कर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मपरिवर्तन ऐसे दो भेद हो जाते हैं । औदारिक, वैऋियिक, और आहारक, इन तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल वर्गणाओंको नोकर्मवगेणा कहते हैं, और आठ कर्मो के योग्य पुद्गल वर्गणाओंको कर्मवगंणा कहते हैं । इन्ही के परिवर्तनको नोकद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं । यह जीव प्रतिसमय कर्म वा नोकर्म वर्गणाओंको ग्रहण करता रहता है । मान लो कि किसी जीवने एक समय में नोकर्म वर्गणा ग्रहण की। वे नोकर्म वर्गणाए अपने समयानुसार निर्जीण हो गई। फिर दूसरे तीसरे आदि समय में अन्य - अन्य नोकवर्गणाएं ग्रहण की, वे इस परिवर्तन में शामिल नहीं होती । जब कभी पहले समय में ग्रहण की हुई वर्गणाएं उतनी ही संख्याको लिए तथा उतनाही स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गंधको लिए तथा उतनाही तीव्र, मध्यम, वा मन्द, परिणामको लिए जब यह जीव दुबारा ग्रहण करता है, और इसप्रकार ग्रहण करते करते समस्त तीन शरीर छह पर्याप्त योग्य समस्त नोकर्मवर्गणाओंको दुबारा ग्रहण कर लेता है, तब तक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है | मध्यके अपरिमित समय में एक जीवने जो अनन्त अग्रहीत वर्गणा ग्रहण की, अनन्त मध्य ग्रहीत वर्गणाएं ग्रहण की, और अनन्त मिश्र वर्गणाएं की, परन्तु वे सब गिनती में नहीं आती । इप्रकार अत्यंत संक्षेपसे नोकर्म द्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप है ।
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कर्म आठ हैं, उनमेंसे मानलो कि किसी जीवने किसी समय में ज्ञानावरण कर्मके योग्य पुद्गल वर्गणा ग्रहण की, और ये द्वितीय, तृतीय आदि किसी भी समय में जाकर निजोर्ण हो गई। फिर दूसरे समय में ज्ञानावरणकर्म केही योग्य अन्य वर्गणाएं ग्रहण की और वे भी समयानुसार निर्जीर्ण हो गई । इसीप्रकार तीसरे, चौथे आदि समयोंमें ज्ञानावरणके योग्य पुद्गल वर्गणाणोंको ग्रहण करता रहा। जब कभी किसी समय में पहले जो ज्ञानावरणके योग्य पुद्गल वर्गेणाएं ग्रहण की थी, वे हीं पुद्गल वर्गणाएं उतनीही संख्याकोलिए उतनेही स्निग्ध, रूक्ष, वर्गकी गंधको
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लिए, तथा उतनेही तीव, मध्यम, मन्द, परिणामको लिए यह जीव दुबारा ग्रहण करता है, इसीप्रकार का दुवा[ उसी से शामालायामो योग समस्त पुद्गल वर्गणाओंको ग्रहण कर लेता है, तथा इसीप्रकार अन्य समस्त कर्मोके योग्य पुद्गल वर्गणाओंको दुबारा ग्रहण कर लेता है, तब उसका वह एक कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है। मध्यमें अग्रहीत मिर्थ वा मध्यग्रहीत वर्गणाओंको अनन्त बार ग्रहण करता है, परन्तु वह ग्रहण इस परिवर्तन में नहीं गिना जाता। इसप्रकार इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए, इस जीवने जो कर्मके योग्य तथा ज्ञानावरण आदि आठौं कर्मोके योग्य सम्पूर्ण पुद्गल वर्गणाएं अनन्तबार ग्रहण की है, और अनन्तही बार छोड दी है। इसप्रकारके विस्तृत परिभ्रमणको द्रव्य-परिवर्तन कहते हैं।
अब क्षेत्र-परिवर्तनको कहते हैं। कोई मूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त जीव जघन्य अवगाहनाके शरीरको धारण कर, मेहके नीचेके लोकके मध्य भागमें जन्म ले, और वह इसप्रकार जन्म ले कि जिसमें उस जीवके मध्यके आठ प्रदेश, लोकके मध्यके आठ प्रदेशों में आ जाय । वह जीव अपनी आयु पूर्ण होनेपर मर जाय, फिर संसारमें परिभ्रमण करता हुआ किसी काल में वहींपर, इसीप्रकार जन्म ले। इसप्रकार भ्रमण करता करता असंस्थतबार वहीं पर, उसीप्रकार जन्म ले । तदनन्तर भ्रमण करता एक प्रदेश अधिक क्षेत्रमें जन्म ले, फिर भ्रमण करता करता किसी कालमें दो प्रदेश अधिक क्षेत्रमें जन्म ले । इसीप्रकार श्रेणीबद्ध क्रमसे एक-एक प्रदेश बढता हुआ लोकाकाशके सम्पुर्ण प्रदेशोंमे जन्म ले। क्रम रहित प्रदेशोंमें जन्म लेना इसमें शामिल नहीं होता। इसप्रकार जितने अपरिमित कालमें यह जीव अपने जन्म द्वारा लोकाकाश में सम्पूर्ण प्रदेश पूरा करे, उतना उसका वह अपरिमित कालका परिभ्रमण, क्षेत्रपरिवर्तन कहलाता है। ५-जो वर्गणाएं पहले ग्रहण नहीं की है उनको अग्रहीत कहते हैं। ५-पहले ग्रहण की हुई जो योडीसी वर्गणाएं, नवीन वर्गणाओं में
मिलकर आती है उनको मिश्रवर्गणा कहते हैं। ३- जो पहले ग्रहण की हई समस्त वर्गणाये अन्य अग्रहीत वर्गणाओंको अपने
इधर उधर चारों ओर लिये हुए आती हैं, वह मध्यग्रहीत वगणाये हैं।
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___ अब कालपरिवर्तनका स्वरूप कहते हैं। कोई जीव उत्सपिणीकालके पहलेसमयमें उत्पन्न हुआ। मर कर संसारमें परिभ्रम करता करता, फिर किसी दूसरी, तीसरी, चौथी, आदि उत्सर्पिणी कालके दूसरे समयमें उत्पन्न हो । फिर परिभ्रमण करता करता किसी भी उत्सपिणी कालके तीसरेसमयमें जन्म ले, फिर किसीभी उत्सर्पिणीके चौसमयमें जन्म ले। इसप्रकार अनुक्रमसे पांचवे, छठे, आदि समयोंमें जन्म लेलेकर उत्सर्पिणी कालके सब समयोंमें अनुक्रम्से जन्म ले. फिर इसीप्रकार अनुक्रमरो अवसर्पिणी कालके सब समयोंम जन्म ले । जिसप्रकार उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें अनक्रमसे जन्म लेकर उस उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालको पूरा किया है, उसी प्रकार इन दोनो कालोंके प्रत्येक समयमें अनुक्रमसे मरण करता हुआ, दोनो कालोको पूर्ण करे । अनुक्रमके विना जो जन्म वा मरण किया जाता है, वह इसमें शामिल नहीं हैं । इस प्रकारके महा परिभ्रमणको कालपरिवर्तन कहते हैं । ___अब भवपरिवर्तनका स्वरूप कहते हैं। कोई जीव प्रथम नरकमें दस हजारकी जघन्य आयु पाकर उत्पन्न हुआ, और आयु समाप्त कर मर गया, तदनंतर फिर संसारमें परिभ्रमण करता हुआ किसी कालम उसी प्रथम नरकमें उतनीही आय पाकर उत्पन्न हआ और मर गया। तदनंतर फिर नमण करता-करता तीसरी बार वहींपर उतनीही आयु पाकर उत्पन्न हया और मर गया। इस प्रकार वह जीव दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं, उतनी ही बार दस-दस हजार वर्षकी आयु पाकर वहीं उत्पन्न हो, और मरण करे। तदनंतर फिर भ्रमण करता हुआ एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु पाकर उसी नरकमें उत्पन्न हो। फिर दो समय अधिक, दस हजार वर्ष की आयु पाकर उत्पन्न हो। इस प्रकार एक-एक समय अधिक पाकर जन्म लेता हुआ सातों नरकोंकी तेहतीस सागरकी आयुको पूर्ण करे । क्रमप्राप्त आयुसे हीनाधिक आयु पाकर नरकमें जन्म लेना, इस परिबर्तनकी गिनती में नहीं है। जब नरककी तेहतीस सागरकी आयुको पूर्ण कर ले, तब तिर्यच योनि में अंतर्महूर्तकी आयु पाकर जन्म ले, फिर परिभ्रमण करता हुआ अंतर्मुहूर्त की आयु पाकर तिर्यंच योनिमें जन्म ले। इस प्रकार अंतर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं, उतनीही बार अंतर्मुहर्तकी आयु पाकर तिर्यंच योनिमें
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जन्म ले । तदनंतर परिभ्रमण करता हुआ एक समय अधिक अंतर्मुहूर्तकी आ पाकर तिच योनिमें जन्म ले, फिर दो समय अधिक अंतर्मुहूर्तकी आयु पाकर जन्म ले । इस प्रकार एक-एक समय अधिक आयु पाकर तिर्यंच योनिको तीन पल्यको आयुको पूर्ण करें। इसी प्रकार मनुष्य योनि में अंतर्मुहूर्त की आयु पाकर जन्म ले, फिर परिभ्रमण कर दुबारा अंतर्मुहूर्तकी आयु पाकर जन्म ले । इसप्रकार अंतर्मुहूर्तके जितने समय होते हैं, उतनी बार अंतर्मुहूर्तकी आयु पाकर मनुष्ययोनिमेंही जन्म ले । फिर एक समय अधिक अंतर्मुहूर्तकी आयु पाकर मनुष्ययोनिमें जन्म ले, फिर दो समय अधिक अंतर्मुहूर्तकी आयु पाकर मनुष्य हो । इस प्रकार अनुक्रमसे एक-एक समय वधिक आयु पाकर सोदिको दीन पत्यकी आयुको पूर्ण करे । मध्यकालमें क्रमप्राप्त आयुसे हीनाधिक आयु पाकर, तिच वा मनुष्य होना इस परिवर्तनमें शामिल नहीं है । इस प्रकार जब तिर्यंच योनि और मनुष्य योनिकी समस्त आयुको अनुक्रमसे एक-एक समय बढाकर पूर्ण कर ले, तब देवगतिमें दस हजार वर्षकी आयु पाकर जन्म ले । फिर परिभ्रमण कर दस हजार वर्षकी आयु पाकर, दुबारा देवयोनि में जन्म ले । फिर परिभ्रमण कर तीसरी बार दस हजार वर्षकी आयु पाकर देव हो । इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय होते हैं, उतनीही बार दस-दस हजार वर्षकी आम् पाकर देव योनिमें उत्पन्न हो । तदनंतर परिभ्रमण करता हुआ एक एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयु पाकर देवयोनि में जन्म ले 1 फिर दो समय अधिक हजार वर्षकी आयु पाकर जन्म ले । इस प्रकार देव योनि के इकतीस सागरकी आयुको पूर्ण करे । मध्यकाल में क्रमप्राप्त आयुसेहीनाधिक आयु प्राप्त कर देव होना इसमें शामिल नहीं है। इस प्रकारके इस महापरिभ्रमणको भवपरिवर्तन कहते हैं । इसमें इतना और समझ लेना चाहिए कि नवग्रैवेयककी उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर है, तथा संसारमें परिभ्रमण करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव नवग्रैवेयक तकही जाते हैं । इसलिए इस परिभ्रमणमें इकतीस सागरही ग्रहण किए हैं। नवग्रैवेयकसे ऊपर नौ अनुदिश तथा सर्वार्थसिद्धि आदि पत्रोत्तर में सम्यग्दृष्टि जीवही उत्पन्न होते हैं, और वे एक या दो भवमेंही मोक्ष चले जाते हैं। इसलिए उनकी बनीस या तेहतीस सागर की आयु इस में नहीं ली गई है ।
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अथ भाव-परिवर्तनका स्वरूप कहते हैं । अनंत परिणामोंके द्वारा संसारमें परिभ्रमण करना, भावसंसार वा भावपरिवर्तन कहलाता है । यह जीव कर्मोकी स्थिति के कारण संसारमें परिभ्रमण करता है, स्थिति के लिए कषायाध्यवसायस्थान कारण होते हैं । कषायाध्यवसायके लिए अनुभागस्थान कारण होते हैं । अनुभागस्थानके लिए योगस्थान कारण होते हैं | स्थितिके उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य, आदि अनेक भेद हैं, इसलिए उसके कारणभूत कषायाध्यवसाय, अनुभागाध्यवसाय, ओर योगाध्यवसाय भी अनेक भेद होते हैं । उत्कृष्ट स्थितिके लिए उत्कृष्ट कायाध्यवसाय आदि कारण हैं, और जघन्य स्थिति के लिए जघन्य कषायाध्यवसाय आदि कारण हैं। मानलो कि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवने भावपरिवर्तन प्रारम्भ किया। उसके ज्ञानावरणकर्मको जघन्य स्थिति अंत: कोडाकोडी सागर पड़ती है, ( एक करोडको एक करोडसे गुणाकर देनेसे कोडा - कोडी होता है, कोडा-कोडी सागर मे कुछ कम स्थितिको अंत: कोडा- कोडी सागर कहते हैं, ) उसकी उस जघन्य स्थिति के लिए असंख्यात लोकपरिमाण कषायाध्यवसायस्थान कारण होते हैं । (स्मरण रहे कि एक-एक कषायाध्यवसायस्थान अनन्तानन्त अविभागी परिच्छेद होते हैं, और वे षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप होते हैं ) एक- एक कषायाध्यवसायस्थानके लिए असंख्यात - लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान कारण होते हैं, एक-एक अनुभागाध्यवसाय स्थानके लिए श्रेणीके असंख्यात भागपरिमाणयोगस्थान कारण होते हैं । अभिप्राय यह है कि, जघन्यस्थितिके लिए जैसा जघन्ययोगस्थान चाहिए उनमें से एक हुआ, फिर चतुःस्थान वृद्धि हानि रूप होता हुआ दूसरा हुआ, फिर तीसरा हुआ । इसप्रकार जब उनकी संख्या श्रेणी असंख्यातवे भागपरिमाण हो जाती है, तत्र तक अनुभागाव्यवसायस्थान होता है । फिर इसीप्रकार श्रेणीके असंख्यात बेभागपरिमाणयोगस्थान हो जाते हैं, तब दूसरा अनुभागाध्यवसायस्थान
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ता हैं । इसप्रकार जब असंख्यातलोकपरिमाण अनुभागाध्यवसायस्थान हो जाते हैं, तब एक कषायाध्यवसायस्थान होता है। फिर इसी क्रमसे श्रेणी असंख्यात भागपरिमाणयोगस्थानोंसे एक अनुभागाध्यवसाय - स्थान होता है, और इसी क्रमसे असंख्यात लोकपरिमाण अनुभाग-
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ध्यवसायस्थानोंसे एक कषायाध्यवसायस्थान होता है । इसप्रकार जब असंख्यातलोकपरिमाण कषायाध्यवसायस्थान हो जाते हैं, तब एक जघन्य स्थितिस्थान होता है । यह जघन्यस्थितिस्थान उस पंचेन्द्रिय जीवका वहीं अंतःकोडा-कोडी समझना चाहिए । इस प्रकार जब अंत:कोडा-कोडीसागरस्थितिकेयोग्य कषायाध्यवसायस्थान पूर्ण हो जाते हैं, तब फिर एक समय अधिक अंतःकोडा-कोडी सागरकी स्थितिक योग्य कषायाध्यबसायस्थान पूर्ण हो जाते हैं, तब फिर एक समय अधिक अंत:कोडा-कोडी सागरकी स्थितिके योग्य कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यबसायस्थान और योगस्थान लेने चाहिए । तदनंतर दो समय अधिक अंत:कोडा-कोडी सागरकी स्थिति के योग्य कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यवसायस्थान और योगाध्यवसायस्थान लेने चाहिए। इसप्रकार मलप्रकृति तथा उत्तरप्रकतियोंकी जघन्यस्थितिमे लेकर उत्कृष्ट स्थितितकके योग्य सम्पूर्ण कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागाध्यवसायस्थान और योगाध्यवसायस्थानरूप आत्माके परिमाणपूर्ण हो जानेपर एक भावपरिवर्तन होता है।
द्रव्य परिवर्तनका काल अनन्तकाल है। उससे अनन्त गना क्षेत्रापरिवर्तनका काल है । उसमे अनन्त गुणा भवपरिवर्तनका काल है, और उससे अनन्त गुणा भाषपरिवर्तनका काल है । इस जीवने अब तक ऐसे अनन्तपरिवर्तन किए है । इनके जानने का मख्य उद्देश, इनको जान कर संसारसे भयभीत होना, और संसार, शरीर भोगोंसे विरक्त होकर अपने आत्मामें परम शांति धारण कर लेना है, तथा आत्माका कल्याण कर लेना है। जो पुरुष इनका स्वरूप जानकरभी संसारसे विरक्त नहीं होते, और आत्मामें परम शांति धारण नहीं करते, उनका वह जान सर्वथा व्यर्थ समझना चाहिए । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको इनका स्वरूप जानकर अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए ।
प्रश्न-- किमर्थं त्यज्यते बुहि कुदेवागमपूजकः ? ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कुदेव, कुशास्त्र कुगुरु, वा इनके पूजकोंका त्याग किस लिए किया जाता है ? उ.-लोके कुदेवः कुगुरुः कुमार्गः तथा कुतीयं भवदं कुशास्त्रम् । तंत्राविमंत्री विषमो विचारः तत्सेवको वाथ विकल्पकेतुः ॥
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यथार्थशान्त्यै परियय॑ते हि निजात्मबाह्यः सकलः पदार्थः । यथा सुरेन्द्रश्च जिनार्चनार्थ प्रमुच्यते स्वर्गसुखं च सर्वम् । __अर्थ- भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके लिए स्वर्गका इन्द्र जिसप्रकार स्वर्गके समस्त सुखोंका त्याग कर देता है। उसीप्रकार अपने आत्मामें परम शांति धारण करनेके लिए इस संसारके कुदेव, कुगुरु, कुमार्ग, कुतीर्थ, संसारको बहानेवाले शास्त्र, तंभ रात्र विषम निमार आदि सबका त्याग कर दिया जाता है, तथा परम शांतिको धारण करने के लिएही अपने आत्मासे भिन्न अन्य समस्त पदार्थों का त्याग किया जाता है ।
भावार्थ- जो देव होकरभी अपने साथ स्त्री रखते हों, अस्त्रशस्त्र रखते हों, खाते हों, पीते हों, युद्ध करते हों, वा समस्त दोषोंसे परिपूर्ण हों, उनको कुदेव कहते हैं । जो परिग्रह रखते हों, जिनके हृदयसे काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मद, आदि विकार दूर न हुए हो, जिनको विषयोंकी लालसा लगी हो, जो रोटी-पानी, खेती, बाडी करते हों, ऐसे मिथ्या साधुओंको गरु कहते हैं। जो मोक्षका मार्ग रत्नत्रयसे भिन्न है, आत्मस्वरूपसे भिन्न है, वह सब कुमार्ग कहलाता है । जहांपर यथार्थ देव वा गरुके चरणकमल विराजमान होते हैं, उसको तीर्थ कहते हैं, ऐसे तीर्थोसे भिन्न जो तीर्थ कहलाते हैं, उन सबको कूतीर्थ कहते हैं। इसीप्रकार जो शास्त्र भगवान् जिनेंद्रदेवके कहे हुए नहीं है, जिनमें हिंसाका निरूपण हो, जिनमें मद्य, मांस, मधुके सेवन करनेका निरूपण हो, वा जिनमें सातों व्यसन सेवन करने का निरूपण हो, ऐसे शास्त्रोंको कूशास्त्र कहते हैं । ये कूदेव, कूगुरु, कुशास्त्र आदि सब संसारमें डुबोनेवाले हैं, और नरक-निगोदादिकके महादुःख देनेवाले है । इसीलिए इनकी सेवा, पूजा करनेवालाभी महादुःखी होता है, और अपने आत्माका अहित करता है। इसीप्रकार धन, वुद्धि आदिके लिए जो मंत्र, तंत्र, किए जाते है, वा दूसरोंका बुरा चितवन किया जाता है। वा अनेक प्रकारके संकल्प-विकल्प किए जाते है, वे भी सब जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाले है। इसलिए अपने आत्माको वह सब दुःख न हो, अपने आत्मामें परमशांति प्राप्त हो, इसके लिए इन सबका त्याग किया जाता है । इनके सिवायभी अपने आत्मासे भिन्न जितने पदार्थ है, वा कषायादिक विकार है, उन सबका अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त
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करनेके लिएही त्याग किया जाता है । स्वर्गका इंद्र जिसप्रकार भगवान् जिनेंद्रदेवकी पूजा कर अपने आत्मामें परम शांती प्राप्त करता है, और उसके लिए स्वर्गादिककं सब सुख छोडनेकी लालसा रखता है, उमी प्रकार भव्यजीवोंकामा जाने आत्मा परमशांति प्राप्त करनेके लिए कूदेवादिकका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न-- बिचार्यब गुरो वृत्तिः किमर्थं क्रियते वद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाए कि अपनो सब प्रवृत्तियां विचारपूर्वकही क्यों करनी चाहिए। उ.-स्थिती गतौ वाचि कृतौ विनोदे ग्रामे वने रायविधौ कलापाम्
भोगे विलासे शयनासनादौ साधौ खले लोकविविधाने ।।
पूर्वोक्तकार्य सुखदा प्रवृत्तिः कार्या विचायव तथान्यकार्ये । .. भवेद् यतः सर्वतनौ स्वशान्तिर्यथैव वृष्टया सकलेपि विश्वे ।।
अर्थ- वृष्टि होनेसे जिसप्रकार समस्त संसारमें शांति हो जाती है, उसी प्रकार चलने में, ठहरनेमें, कहने में, किसीभी कार्यके करने में विनोदमें, गांवमें, वनमें राज्य करनेमें, कला सीखने, भोगोंमें, विलासोमें, सोने में, बैठने में, दुष्टमें, सज्जनमें, किसीभी लौकिक विधिके करनेमें वा अन्य समस्त कार्यो में अपनी सुख देनेवाली प्रवृत्ति विचार पूर्वकही करनी चाहिए । विचारपूर्वक समस्त कार्य करनेसे इस संसारमें समस्त जीवोंको शांतिकी प्राप्ति होती है।
भावार्थ- कहीं भी ठहरना हो तो विचार पूर्वकही ठहरना चाहिए, ठहरते समय यह विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि यहां ठहरने में सम्यग्दर्शन वा सम्यकचारित्रका घात तो नहीं होता है, अथवा किसी धर्मका पात तो नहीं होता है। यहां ठहरने में देवदर्शन वा गुरूदर्शन होते हैं वा नहीं । जहांपर रत्नत्रयका घात होता हो, वा देवदर्शनादिक न हों, वहां कभी नहीं ठहरना चाहिए । गमन करते समय सब प्रकारके भयोंका विचार कर लेना चाहिए । तथा मार्ग-कुमार्गका विचार कर लेना चाहिए । वचनके कहनेमें वा किसी कामके करनेमें यह विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि इस बात के कहने में, वा इस
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काम करने में, किसीको दुःख तो नहीं पहुंचता है। अथवा किसीकी हानि तो नहीं होती है, अथवा किसी धर्मका घात तो नहीं होता है । जिसमें किसीकी हानि हो वा धर्मका घात हो, ऐसे वचन कमी नहीं कहने चाहिए । अथवा ऐसे कार्य कभी नहीं करने चाहिए । इसीप्रकार विनोद वा श्रीडा करने मेंभी किसी जीवकी हानि, वा किसी जीवका घात वा धर्मके धातका विचार अवश्य कर लेना चाहिए । विनोदके लिए शस्त्र चलाकर जीवोंका घात कभी नहीं करना चाहिए, अथवा किसी जीवको दुःख पहुंचानेवाला विनोद कभी नहीं करना चाहिए। किसी गांव वा बनमें जाने के पहले धर्म-अधर्मका विचार अवश्य कर लेना चाहिए । राज्य करनमें बहुत लम्बे विचारको आवश्यकता होती है। इसीप्रकार कलाके सीखनेमेभी धर्म-अधर्मका विचार करना चाहिए । भोग-बिलासोंको भी बहुत सोच समझकर करना चाहिए | और धर्मअधर्म का विचार अवश्य रखना चाहिए । सोने में, बैठने में आपत्तियोंका विचार करना चाहिए, दुर्जन-सज्जनोंमें उनकी संगतिक फलका विचार करना चाहिए, और समस्त लोकिक क्रियाओं में धम-अधर्मका, अपने पदस्थका और शास्त्रोंके आदेशका अवश्य विचार करना चाहिए । इसके सिवाय अन्य जितने कार्य है, उनके करने में धर्म-अधर्मका विचार करना चाहिए। इसप्रकार विचारपूर्वक इन प्रवृत्तियोंके करने संसारके समस्त जीवोंको शांतिकी प्राप्ति होती है।
प्रश्न- स्तुतेस्तुष्यति को जन्तुः कुप्यते निन्दया कथम् ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि कौन मनुष्य स्तुतिसे संतुष्ट होता है, और निंदा करनेसे कौन क्रोध करता है, तथा क्यों करता है ? उ.-स्यातादिपूजाविनयप्रणामान वर्द्धते स्वात्मसुखं स्वशान्तिः ।
हानिर्नलाभः खलु निन्दया मे स्वसौख्यभोक्तास्मि सदा सुखीच स्वसौख्यशून्यो विनयप्रणामः काको यथा तुष्यति मांसपिण्डः । ततो ह्यशान्ति लभते प्रमुढोज्ञानीति शांति ह्यचला स्वभावात्।।
__ अर्थ- जो पुरुष अपने आत्मास्वरूपको जानता है, वह यही विचार करता है कि मेरी प्रसिद्धि होनसे पूजा होनेसे, मेरी विनय करनेसे और
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मुझे प्रणाम करने से मेरे आत्माका सुख नहीं बढता, तथा आत्म शांति भी नहीं बढती । इसीप्रकार मेरी निंदा करनेसे, न तो मेरी हानि होती है, और न कोई लाभ होता है । मेरा आत्मा अपने आत्मजन्य आनंदको भोगने वाला है, और सदा सुखी रहनेवाला है, परंतु जो पुरुष अपने आत्मजन्य सुखका स्वाद नहीं जानता, वह पुरुष जिस प्रकार कौवा मांस पिंडसे प्रसन्न और सन्तुष्ट होता हैं, उसी प्रकार वह भी विनय और प्रणाम करते प्रसौतुक होता है तथा भयें वह अज्ञानी महा अशांतिको प्राप्त होता है, परन्तु जो पुरुष आत्मस्वरूपको जानता है, वह अपने स्वभावसेही अनंत शांतिको प्राप्त होता है ।
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भावार्थ - अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाला ज्ञानीपुरुष सदाकाल अपने आत्मामें लीन रहता है । और आत्मजन्य आनंदका अनुभव करता है । वह मान-अपमानका कोई विचार नहीं करता । न तो अपना आदर-सत्कार होनेपर अपना कोई लाभ समझता हूं, और न अपनी निंदा होनेपर अपनी कोई हानि समझता है। वह निदा स्तृति दोनों में समता धारण कर परमशांतिका अनुभव करता है, परंतु जो पुरुष आत्मज्ञानसे रहित है, वह अपने आदर-सत्कारसे प्रसन्न होता है, और अपनी निदासे दुःखी होता है । इसप्रकार वह पुरुष हर्ष-विषाद करता हुआ महा अशांतिको प्राप्त होता है। इसलिए ज्ञानी भव्यजीवोंको अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप समझकर निंदा वा स्तुति किसी प्रकारका हर्ष - विषाद नहीं करना चाहिए, और समता धारणकर परम शांति प्राप्त कर लेनी चाहिए । यही आत्मकल्याणका मुख्य उपाय है।
प्रश्न- अर्हत्सिद्धादिशास्त्राणां नतिप्रयोजनं वद ।
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, शास्त्र आदिको नमस्कार क्यों किया जाता है ? उत्तर- अर्हत्सिद्धादिशास्त्रेभ्यः सूरिपाठकसाधवे ।
एकादशाविश्राद्धेभ्यो यथायोग्या नतिः स्तुतिः ॥ ४९१ ॥ कार्या भक्त्या सदा शान्त्यं सम्यक्त्वव्रतशालिभिः । यथा श्रेणिकभूपेन संघमिने पुरा कृता ।। ४९२ ॥
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___ अर्थ-भगवान महावीर स्वामीके समयमें जिसप्रकार राजा श्रेणीक भक्तिपूर्वक समस्त संयमियोंकी स्तुति करते थे, सबके लिए नमस्कार करते थे, और इसप्रकार उनकी भक्ति कर अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करते थे, उसीधकार सम्यग्दर्शन और व्रतोंको पालन करनेवाले भव्य श्रावकोंको आत्मामें परमशांति नाप्त करनेके लिए भक्तिपूर्वक यथायोग्य रीतिसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, शास्त्र, क्षुल्लक, ऐलक आदिके लिए नमस्कार करना चाहिए, उनकी स्तुति करनी चाहिए, तथा उनकी सेवा, भक्ति-वैयावृत्य आदि सब कुछ करना चाहिए।
भावार्थ- अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये पंचपरमेष्ठी कहलाते है । इस संसारमें ये पंचपरमेष्ठि सर्वोत्कृष्ठ माने जाते हैं । ये पांचों परमेष्ठीही इस संसारम मंगलस्वरूप हैं. और यही समस्त जीवोंके लिए शरण हैं । इस संसारमें जीवोंका कल्याण करनेवाले और मोक्ष प्रदान करनेवाले ये ही पंचपरमेष्ठी हैं। इन पंचपरमेष्ठियोंके गणोंका स्मरण करना, उनको नमस्कार करना, उनकी स्तुति करना. उनकी पूजा करना, आदि सब कार्य महापुण्य उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा आत्माको पवित्र करनेवाले हैं । जो पुरुष इनके गुणों में प्रेम रखते हैं वे इनके आदेश और उपदेशकोभी अवश्य मानते हैं, और पंचपरमेष्ठिका आदेश वा उपदेश समस्त जीवोंका कल्याण करता हुआ मोक्ष प्रदान करानेवाला होता है । इसीलिए इनकी सेवा पूजा करनेवाले भव्यजीव इनकी पूजा स्तुति करके वा गुणस्मरण करके, उन गुणोंको धारण कर उन्हींके समान हो जाते हैं। इसीप्रकार भगवन् अरहंतदेवके कहे हुए शास्त्रोंकी भक्ति-स्तुति करनेवाला पुरुषभी उनकी आज्ञाको मानता हुआ तथा उनकी आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करता हुआ, अपना आत्मकल्याण कर लेता है। इस प्रकार देव, शास्त्र, गरुकी भक्ति, सेवा, पूजा स्तुति करनेवाले पुरुष अपने आत्माका काल्याण करते हुए अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त कर लेते हैं। राजा श्रेणिकनेभी ऐसाही किया था,
और इन्हीं पंचपरमेष्ठीकी भक्ति वा स्तुतिके कारण राजा श्रणिकको तीर्थंकर नामकर्मका बंध हुआ था। इन पंचपरमेष्ठीयोंकी स्तुति आदिका अपार माहात्म्य है, इन पंच परमेष्ठीयोंकी स्तुति बा नमस्कारकी
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तो बातही अलग है, जो पुरुष इनके नामकाभी स्मरण करते हैं, दा इनके नामका जप करते हैं, वे पुरुषभी इस संसारसे पार हो जाते हैं । राजा श्रेणिककेही समय में एक मेंढक कमलकी एक कली लेकर भगवान महावीर स्वामीकी पूजा करनेके लिए चला था, परंतु मार्गही हाथीके पैर तले दबकर मर गया था, और उसी समय वह मेंढक बड़ी भारी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ था। वह देव उत्पन्न होतही भगवान महावीर स्वामीके समवसरणमें आया था, और उसने अपनी दैदीप्यमान प्रभासे समवसरणमें विराजमान समस्त भव्यजीवोंको आश्चर्यमें डाल दिया था, और सबके लिए उस पूजाका अपार माहात्म्य प्रगट कर दिखाया था। अतएव समस्त भव्यजीवोंको पंचपरमेष्टीकी पूजा, स्तुति, भक्ति आदि प्रतिदिन करना चाहिए, प्रतिदिन उनको नमस्कार करना चाहिए, प्रतिदिन उनका जप करना चाहिए, और प्रतिदिन उनके गुणोंका स्मरण करना चाहिए। आत्मकल्याणका यह सबसे अच्छा उपाय है।
प्रश्न - ज्ञानिभिः कर्मबद्धश्च किमर्थ कर्मचिन्तनम् ।
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कर्मोसे बंधे हुए ज्ञानी पुरुष अपने कर्मोका चितवन किसलिए करते हैं ? उत्तर-जानिभिः कर्मबद्धश्च द्रव्यभावादिकर्मणः ।
स्वरूपं चिन्त्यते शान्त्य साधुनेव निजात्मनः ॥४९३ ॥
अर्थ- परम शांति प्राप्त करने के लिए जिसप्रकार मुनिराज अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं, उसीप्रकार कर्मोंसे बंधे हुए ज्ञानी पुरुषभी अपने आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए द्रव्यकर्म, भावकर्म, वा नोकर्मके स्वरूपका चितवन करते हैं।
भावार्थ-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म, तथा इसके एकसो अडतालीस उत्तरभेद सब द्रव्यकर्म कहलाते हैं, तथा जिनसे ये कर्म वंधते हैं ऐसे राग, द्वेष, कषाय आदिको भावकर्म कहते हैं, और औदारिक, वक्रियक, आहारक इन तीन शरीर और छह पर्याप्तिके योग्य पुद्गलवर्गणाओंको नोकम कहते हैं। इन्ही कर्मो के कारण यह जीव अनादिकालसे बंब रहा है,
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और नरक - निगोद आदिके महादु:ख भोग रहा है । राग-द्वेषादिके कारण नवीन नवीन कर्मीका बंध करता है, उनके उदय होनेपर दुःख भोगता है । राग-द्वेष, वा कषायोंका उत्पन्न करना इस जीवके हाथ में है । यह जीव कषायोंको उत्पन्नभी कर सकता है, और कषायोंको
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कमी सकता है । कषायोंको उत्पन्न करने से यह जीव कर्मोंसे बंधता है, और कषायों के रोकने से कमसे छूटता है। इसलिए प्रत्येक भव्य - जीवको इन कमके स्वरूपका चितवन करके कषायों को रोकने का प्रयत्न करके, अपने आत्माको सुखी बनाना चाहिए, जिसप्रकार मुनिलोग अपने आत्माका चितवन करके समस्त कर्मो को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लेते है, उसीप्रकार भव्य श्रावकों को कर्मो का दुःखदायी स्वरूप चितवन करके उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए। कषायों को रोककर आते हुए नवीन कर्मोका संबर करना चाहिए, और फिर सुख-दुःखमें समता धारण कर संचित कर्मोंको नष्ट कर देना चाहिए। यही कर्मो के स्वरूपके चितवन करनेका फल है ।
प्रश्न- कथं युद्धं भवे- पृथ्व्यां कदा च तत्प्रशाम्यति ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस पृथ्वीपर युद्ध क्यों होता है, और वह कब शांत होता है।
उ.- श्रीराज्यलक्ष्म्याश्चपलप्रकृत्याः समागमार्थं च जना यतन्ते । तावद्धि युद्धं विषमं भवेत्को तद्ोधनार्थं खलु तत्प्रमोहम् ॥ ज्ञात्वेति मुक्त्वा सततं यतन्तां स्वराज्यलक्ष्म्या ह्यचलप्रकृत्या समागमार्थं हि यथा यतीन्द्राः सत्यार्थज्ञान्तेर्मुनिवर्गमातुः ॥
अर्थ - इस संसार में जबतक अत्यन्त चंचल स्वभावको धारण करनेवाली राजलक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिए, ये जीव प्रयत्न करते रहते हैं, तबतक इस संसार में विषय वा भयंकर युद्ध होता रहता है, यह समझकर उस युद्धको रोकनेके लिए उस राज्य के मोहका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, और जिसप्रकार मुनिराज अचल वा निश्चल स्वभाव वारण करनेवाली स्वराज्यलक्ष्मीको वा मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करते रहते हैं, उसीप्रकार समस्त मुनियोंकी माता समान यथार्थ शांतिको प्राप्त करनेके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
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भावार्थ- युद्धका कारण राज्यकी लालसा है। इन संसारी जीवोंकी तीन लालसाएं जब तक शांत नहीं होती, तबतक युद्धभी कभी नहीं रुक सकत: । राज्यका लालसा राजा-राजाओंमें युद्ध कराती है, धनकी लालसा धनिकोंमें युद्ध कराती है, पथ्बीकी लालसा पश्चीके स्वामियोंमें युद्ध कराती है, अपनी ख्याति की लालसा विद्वानोंमें युद्ध कराती है, और परस्परकी मत्सरता परस्पर में युद्ध कराती है, वर्तमान समयमें अनेक प्रकारकी लालसाएं बढ जानेके कारण संसारभरम अनेक प्रकार के युद्ध हो रहे हैं। और जब तक लालसाएं शांत नहीं होती तब तक युद्ध होते रहेंगे । इन समस्त युद्धोंको रोकने वा शांत करनेका एकमात्र उपाय मोहका त्याग कर देना है। लालसाएं मोहमेही उत्पन्न होती है । मोहका त्याग कर देनेसे समस्न लालसाएं छूट जाती हैं, और लासाओंके छूट जानेसे युद्ध करना समाप्त होता है ।।
यहांपर एक बात और समझलेनी चाहिए. इस संसारमं जितने यद्ध होते हैं, वे सब दो व्यक्तियों में वा दो पदार्थों में होने हैं। जीव-कमका संबंध जो अनादिकालसे चला आ रहा है, उन दोनों भी युद्ध होता रहता है। कर्म आत्माको दबाना चाहते हैं, और आत्मा कर्मोको नष्ट करना चाहता है । जब यह आत्मा उन कर्मोका, वा कर्मोंके फलोंका मोह छोड़ देता है, और कर्मोके फलोंसे प्राप्त होनेवाली समस्त विभतिका मोह छोड देता है, तब यह आत्मा अपने आत्माको उन समस्त विभूतियोंसे भिन्न करनेका प्रयत्न करता है, इसके लिए वह कषायोंका त्याग करता है, और आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन कर, उन कर्मोको नष्ट करनेसे चिदानंदस्वरूप अकेला आत्मा रह जाता है, इसीको मोक्षकी प्राप्ती कहते हैं । इस प्रकार जब यह आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है, और सर्वथा शुद्ध एक चैतन्यस्वरूप आत्मा रह जाता है, उस समय अकेला होने के कारण सब प्रकारके युद्धसे अलग हो जाता है। युद्ध करने में सर्वथा संक्लेश परिणाम होते हैं, परंतु युद्धसे अलग हो जानेपर अनंत शांति प्राप्त होती है । अतएव समस्त भव्यजीवोंको अपने मोहका त्याग कर, सब प्रकारके युद्धका त्याग कर देना चाहिए, और मुनिराज जिस प्रकार मोहका त्याग कर, मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार परम शांतिको प्राप्त करनेका प्रयत्ल करना चाहिए । यह
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परम शांति मुनियोंकी माता है । समस्त मोहका त्याग कर, परम शांति प्राप्त हो जानेपरही मुनिदीक्षा धारण की जाती है । जिस प्रकार माता संतानको उत्पन्न करती है । उसी प्रकार मोहके त्यागसे उत्पन्न होनेवाली परम शांति दीक्षा धारण कराकर मुनियोंको उत्पन्न करती है । इसीलिए यह परम शांति मुनियोंकी माता कहलाती है । ऐसी परम शांति प्राप्त कर, तथा दीक्षा धारण कर, मुनि बनना चाहिए, और फिर अपने आत्माके श-द्ध स्वरूपका चितवन कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए। यही भव्यजीवका कर्तव्य है ।
प्रश्न- किमर्थं पाठशालादिः स्थाप्यते वद में प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि पाठशाला, विद्यालय आदिकी स्थापन किस लिये किया जाता है ? उ.-विद्यालयोऽज्ञानविनाशकश्च ह्यनाश्रितानां स्थितिवृद्धिहेतोः
सुखप्रदः स्थाप्यत एव कोशो धैर्य तथा वीयत एव तेभ्यः ।। निरुध्यते दुष्टनृपस्य नीतिः भाषा समंतः क्रियते च मिष्टा । यथार्थशान्त्यै बहुना वटो कि धर्मानुकूला विविधा क्रियापि ॥
अर्थ- हे वत्स ! इस संसारमें परमशांति प्राप्त करनेके लिए अज्ञानका नाश करनेवाले विद्यालयोंको स्थापन किया जाता है. आश्रयरहित लोगोंको सुख देनेवाले कोशका स्थापन किया जाता हैं, उन लोगोंको धैर्य दिया जाता है, राजाकी दुष्ट नीतीमें रुकावट की जाती है, सबके साथ मीठी वाणी बोली जाती है, और यथार्थ शांतिके लिएही अनेक प्रकारकी धर्मानुकूल क्रियाए की जाती है।
भावार्थ- आत्मज्ञान के बिना अन्य जितने ज्ञान हैं वे सब अज्ञान वा मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। ऐसे मिथ्याज्ञान वा अज्ञानको दूर करनेके लिए अर्थात् आत्माके यथार्थ ज्ञान की वृद्धि के लिए, विद्यालय स्थापन किए जाते हैं । उन विद्यालयोंमें आर्ष ग्रंथोंका अध्ययन करके विद्यार्थी लोग अपने आत्माके स्वरूपको पहचान लेते हैं, और फिर उसके शुद्ध स्वरूपको उपादेय समझकर, उसको ग्रहण करने का प्रयत्न करते हैं, और कषायोंका त्याग करके परम शांति प्राप्त कर लेते हैं । यही विद्यालयोंके स्थापन करने का फल है । विद्यालयोंमें आत्मज्ञानकी शिक्षा नहीं
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दी जाती, वा आत्मज्ञानके विरुद्ध शिक्षा दी जाती है, अथवा आप ग्रंथोंके विरुद्ध शिक्षा दी जाती है, ने विद्यालय भलेही यद्वातद्वा जीविका के साधन माने जाते हों, परंतु उन विद्यालयों में पढनेवाले विद्यार्थियोंकी में शांति की प्राप्ति नहीं हो। अतएव ऐसे विद्यालयोंसे धार्मिक लाभ कुछ नहीं होता जिस विद्याका अध्ययन करनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है. वही विद्या श्रेष्ठ विद्या कहलाती है । जिस विद्यासे शांति प्राप्त न हो, वह विद्या संक्लेश उत्पन्न करनेवाली और अशुभ कर्मोंका बंध करनेवाली वा नरकादिके दुःख देनेवाली मानी जाती है । इसलिए ऐसी विद्याका पढना सर्वधा व्यर्थ है । इसीप्रकार शांति प्राप्त करनेके लिएही कोश स्थापन किया जाता है, उस कोशके द्रव्य से अनाश्रित धर्मात्मा पुरुषों का स्थितीकरण किया जाता है, और उनको सुख देने, वा धर्मसाधन करनेके साधनों की वृद्धि की जाती है । बिना द्रव्यके अनाश्रित लोग शांतिपूर्वक धर्मसाधन नहीं कर सकते, इसलिए उनका स्थितिकरण किया जाता है, और इनके लिए कोकी स्थापना की जाती है। इसके सिवाय संसारभरमे शांति स्थापन करने के लिए दुःखी जीवोंको धैर्य धारण कराया जाता है, दुष्ट राजाकी कुटिल नीतिका निरोध किया जाता है, शांतिकेही लिए सबके साथ मिष्ट और हितरुप भाषण किया जाता है, और शांतिकेही लिए पात्रदान जिनपूजन, व्रत, उपवास, यज्ञोपवीतादिके समस्त संस्कारोंकी क्रियाएं की जाती है । हे वत्स ! ये सब कार्य आत्म शांति प्राप्त करनेके लिए किए जाते हैं ।
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प्रश्न- इतच्च क्रियते शान्त्यै भावना सुखदा सदा ?
अर्थ - अब आगे अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए सदासुख देनेवाली अपनी भावनाओंका निरूपण करते हैं ! उ.-निरामयोऽनन्त सुख स्वरूपः सदा चिदानन्दमयो ममात्मा ।
व्याध्यादिमुक्तोऽखिलवुःखदूरः चिन्मात्रमूर्तिर्भुवि निर्विकारी।। शुद्धः प्रबुद्धो विमलो विरागी ब्रह्मस्वरूपी समशान्तिशीलः । समस्तसंकल्पविकल्प भेवी शान्त्यर्थमेवापि च चिन्त्यते हि ।।
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अर्थ - यह मेरा शुद्ध स्वरूप आत्मा समस्त रोगोंसे रहित है, अनंत सुखस्वरूप है, सदाकाल चिदानंदस्वरूप रहता है समस्त अधि
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व्याधियोंसे रहित है, समस्त दुःखोंसे रहित है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, निर्विकार है, शूल है, अज है निर्मच है, बीधराम है, अलस्वरूप है, समता और शांतिसे सुशोभित है, और समस्त - विकल्पों को नष्ट करनेवाला है, ऐसा यह मेरा आत्मा अपनी परम शांति प्राप्त करनेके लिए अपनेही आत्माकेद्वारा चितवन किया जाता है ।
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भावार्थ- यह अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपका चितवन है | आत्माक शुद्ध स्वरूपका चितवन करनेसे सब संकल्प - विकल्प नष्ट हो जाते हैं । सब दुःख दूर हो जाते हैं, और सब विकार नष्ट हो जाते हैं। आत्माका शुद्ध स्वरूप कर्मोंसे रहित है, और इसलिए समस्त रोगादिकोंसे रहित है । ऐसे आत्माका चितवन करनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है, तथा यह अत्यंत निर्मल होकर समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतएव प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए अपने शुद्ध स्वरूप आत्माका चितवन अवश्य करते रहना चाहिए।
आगे और भी कहते हैं
कर्मणा त्रिविधेनात्मा मुक्तो मे ज्ञानभास्करः । निराकारी निराहारो निरंजनो निराकृतिः ॥ ५०० ॥ शुद्धचिद्रूपमूर्तिश्च स्वात्मसाम्राज्यनायकः । भव्यैः शान्त्यर्थमेवापि चिन्त्यः सदेति चेतसि ।। ५०१ ।।
अर्थ - यह मेरा आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म, और नोकर्म इन तीनों कर्मों से रहित है, समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करने के लिए ज्ञानमय सूर्य है, निराहार है, निरंजन है, किसी विशेष आकृतिको धारण नहीं करता, केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप मूर्तिको धारण करता है, और अपने शुद्धस्वरूप साम्राज्यका स्वामी हूं। ऐसा यह आत्मा समस्त भव्यजीवोंको अपने हृदयमें अनन्त शांति प्राप्त करने के लिए सदाकाल चितवन करते रहना चाहिए ।
भावार्थ - यह आत्मा द्रव्यकर्मो से भी रहित है, भावकर्मोंसे भी रहिन है, और नोकम भी रहित है । यद्यपि संसारी आत्मामें तीनों प्रकारक
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कर्म दिखाई देते हैं, क्रोधादिक कषायरूप भावकर्मभी विद्यमान हैं । जानावरणादिक द्रव्यकमंभी विद्यमान हैं, और शरीररूप नोकर्मभी विद्यमान हैं, तथापि वे सब इस आत्मा के शुद्ध स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं, अथवा यों कहना चाहिए कि इस आत्माका शुद्ध स्वरूप इन तीनों प्रकारके कर्मोंसे सर्वथा भिन्न है। इसका भी कारण यह है कि ये तीनों प्रकारके कर्म पौद्गलिक हैं, तथा पुद्गल जड है, मूर्त है, आत्मा अमूर्त हैं, और चैतन्यस्वरूप हूँ | इसलिए आत्मा के शुद्ध स्वरूपको कमसे सर्वथा भिन्न माननाही पडता है । इसके सिवाय आत्मा ज्ञानमय है । जिस प्रकार सूर्य समस्त मूर्त पदार्थों को प्रकाशित करता है उपीप्रका अनन्त ज्ञानमय यह आत्मा मूर्त, अमूर्त, सूक्ष्म, स्थूल आदि समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है । साथमें अपने स्वरूपकोभी प्रकाशित करता है । इसीलिए यह आत्मा सूर्यके समान स्वपरप्रकाशी कहलाता । इसी प्रकार आत्मा का कोई विशेष आकार नहीं है, संसारी आत्मा जैसे शरीरको धारण करता है, उमीआकार स्वरूप हो जाता है और मुक्त आत्मा जैसे जितने छोटे-बड़े शरीरको छोड़ता है, उतनाही छोटा-बडा और वैसेही आकारका हो जाता है । अतएव इसका कोई विशेष आकार न होनेसे निराकार कहलाता है। इसके सिवाय यह आत्मा निराहार हैं। आहार पौदगलिक होता है, इसलिए पौद्गलिक शरीरही आहार ग्रहण करता है, और पौद्गलिक शरीरही उससे पुष्ट होता है। अमूर्त आत्मा न तो पुद्गलको ग्रहण कर सकता है, और न उससे पुष्ट हो सकता है 1 अतएव यह शुद्ध आत्मा सब प्रकारके आहार मे रहित है, तथा यही शुद्धात्मा निरंजन है, अंजन शब्दका अर्थ कर्ममल कलंकसे रहित हो, रागद्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित हो, उसको निर्दोष वा निरंजन कहते हैं । शद्ध आत्माभी इन सबसे रहित है, इसलिए यहभी निरंजन है । ऐसा यह शुद्ध आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, और स्वात्मसाम्राज्यका वा मोक्ष साम्राज्यका अधिपति है ! ऐसा शुद्ध - बुद्धचंतन्य स्वरूप आत्मा सदा चितवन करने योग्य है । ऐसे आत्मा चितवन करनेसे आत्मामें परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए समस्त भव्यजीवों को अपने-अपने शुद्ध आत्माका स्वरूप अवश्य चितवन करते रहना चाहिए ।
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शान्तिसुधा )
आगे और भी कहते हैं । संसारहर्ताऽखिल विश्वनेता स्वभावलीनः परभावभिन्नः आल्हादकारी भवतापहारी पापप्रगाशी वरपुण्यदर्शी ॥। ५०२ ॥ अज्ञानहारी स्वपरप्रकाशो विज्ञानज्योति विकथाविनाशी । लक्ष्मीपतिर्ज्ञाननिधिविरोगी जगज्जयी कल्मषकोशहर्ता ॥५०३॥ स्वात्मास्ति मे धर्मपतिहितैषी निरामयो वा भुवि निष्कलंकः । शान्तो विपाप्मा विमदोषि वय व्यक्तोपि गुप्तो महितो महान् हि। अर्थ - यह मेरा आत्मा जन्म-मरणरूप संसारको हरण करनेवाला है, समस्त संसारका नेता है, अपने स्वभाव में लीन रहता हूँ, परभावोंमे सर्वथा भिन्न है, आल्हादको उत्पन्न करनेवाला है, संसारकं संतापका नाश करनेवाला है ना करनेवाला है, श्रेष्ठ पुण्यको देनेवाला है, अज्ञानको दूर करनेवाला है, स्वपर दोनोंके स्वरूपको प्रकाशित करने वाला है, विज्ञानकी ज्योतिस्वरूप है, विकथाओंको नाश करनेवाला है, लक्ष्मीका स्वामी हैं, ज्ञानका निधि है, रागरहित है, तीनों लोकों को जीतनेवाला है, पापोंके समस्त भंडारको हरण करनेवाला है, धर्मका स्वामी है, समस्त जीवोंका हित करनेवाला है, समस्त रोगोंसे रहित है, कलंकसे रहित है, पापरहित है, मदरहित हैं, सर्वोत्कृष्ट है, व्यक्त होकर भी गुप्त है, पूज्य है, और महान् है ।
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भावार्थ - यह जीव अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण करता चला आ रहा है, तथा यह संसारका परिभ्रमण कर्मो के निमित्तसे हो रहा है । कर्मोंका बधन इस कर्मविशिष्ट अशुद्ध जीवने किया है। यह जीव जबतक कर्मविशिष्ट रहता है, तबतक कर्मोंका बंधन करता है, परंतु जब यह आत्मा अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपको जान लेता है, तब कर्मोको जान लेता है, तब कर्मोंको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करता है । यह आत्मा ज्यों-ज्यों कषाय और कर्मोको नष्ट करता जाता है, त्यों-त्यों शुद्ध होता जाता है, और अन्तमें समस्त कर्मो को नष्ट कर मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर यह आत्मा अपने जन्म-मरणरूप संसारसे सर्वथा दूर हो जाता है, और इसीलिए संसारका हर्ता कहलाता है । जब यह आत्मा कमको नष्ट करते-करते घातिया
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कर्मोको नष्ट कर देता है, तब यह आत्मा वीतराग और, सर्वज्ञ हो जाता है, और समवसरण में विराजमान होकर मोक्षमार्गका उपदेश देता है, घातिया कर्मोके नष्ट हो जानसे इस आत्माका प्रभाव तीनों लोकोंमें फैल जाता है। इन्द्रादिक सब देव नसकी सेवा करने के लिए आते हैं, और समस्त भव्य जीव उनका उपदेश सुननेके लिए आते हैं। उनमें से सैकडोहजारों जीव संसारसे विरक्त होकर अपने आत्माका कल्याण कर लेते हैं । इसप्रकार उस समय यह आत्मा समस्त तीनों लोकोंका नेता माना जाता है। जिस समय यह आत्मा धातिया कोको नष्ट कर देता है , अथवा समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है. उस समय यह आत्मा अपने स्वभाव मेंही लीन रहता है, तथा इसके कषायादिक परभाव सर्वथा नष्ट हो जाते है । कर्मोके नष्ट होनेपर सिवाय आत्मस्वभावके वा ज्ञानस्वरूप आत्माके परभावोंका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिए यह आत्मा स्वभावमें लीन रहनेवाला और परभावासे सर्वथा भिन्न कहलाता है । घातिया कर्मों के नाट होनेसे इस आत्माको अनन्तसुख प्राप्त हो जाता है, और बह अनन्तसुख फिर सदाकालतक वा अनन्तकालतक बना रहता है । अनन्तसूखके प्राप्त होनेसे संसारके समस्त संताप नष्ट हो जाते हैं, जहां अनन्तसुख प्राप्त होनेसे संसारके समस्त संताप नष्ट हो जाते हैं, जहां अनन्तसुख है वहां कोई मंताप हो ही नहीं सकता। इसलिएही यह आत्मा आल्हादकारी और भवतापहारी कहलाता है। जिस समय इस आत्माके घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं, उससमय कोई भी पापकर्म शेष नहीं रहता, सब पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । समस्त पापकोंके नष्ट होनेसे पूण्यकर्मही शष रहते हैं । इसलिए उस समय यह आत्मा पापप्रणाशी और पुण्यप्रदर्शी कहलाता है । अथवा जिस समय इस आत्माके घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं, उससमय इसके दर्शनमात्र करनेसे भव्यजीवोंके पाप नष्ट हो जाते हैं, और पुण्यकर्मों का विशेष संचय होता है । इसलिए यह आत्मा पापप्रणाशी और पुण्यप्रदर्शी कहलाता है । केवलज्ञान होनेपर यह आत्मा सब लोकालोकको प्रकाशित करता है, इसीलिए विज्ञानज्योति कहलाता है । जहाँपर केवलज्ञान विशिष्ट यह आत्मा विराजमान रहता है वहांपर कोई भी विकथा नहीं होती, इसलिए यह आत्मा विकथाबिनाशी
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कहलाता है । समवसरणमें विराजमान यह आत्मा तीनों लोककी लक्ष्मीका स्वामी कहलाता है, तथा लोक-अलोक सबको जाननेके कारण ज्ञाननिधि कहलाता है । राग-द्वेष आदि समस्त दोषोंसे रहित होने के कारण वीतराग बाहलाता है । तीनों लोकोंको जीतनेवाला मोह, और मोहको भी जीतनेवाला यह आत्मा है, इसलिए यही आत्मा जगज्जयी कहलाता है। पापोंके समस्त भंडारको नाश करने के कारण कल्मषकोशहर्ता कहलाता है । समस्त जीवोंका हित करनेबाला और धर्मका स्वामी कहलाता है। परौदारिक शरीर धारण करने के कारण निरामय कहलाता है। कर्मोसे रहित होनेके कारण निष्कलंक कहलाता है, अत्यंत शांत है। पापोंसे रहित है, मद-मतारता आदिसे रहित है, सनिकृष्ट है, व्यक्त होनेपर भी किसीको दिखाई नहीं देता, तथापि पूज्य और महान कहलाता है। ऐसा यह मेरा आत्मा सदाकाल चितवन करने योग्य है ।
आगे और भी कहते हैंमहोदयो धर्मदिवाकरोहं यथार्थदृष्ट्या भवपारकर्ता । क्षान्तो महात्मा परमप्रसन्नः क्षेमीः क्षमः क्षेमपतिवमीशः॥५०५।। स्वामी झलेपो जितकर्मकाण्डो गतस्पहो विश्वविलोचनोस्मि । सदा विविक्तो विरतो विसंगः कृती गुणज्ञो विजरो विशोकः ॥
___ अर्थ- मेरा यह आत्मा महान् उदयको करनेवाला है, धर्मका दिवाकर है, यथार्थ दुष्टिसे संसारसे पार करनेवाला है, क्षमा धारण करनेवाला है, महात्मा है, अत्यंत प्रसन्न है, कल्याण करनेवाला है, समर्थ है, कल्याण करनेवालोंमें शिरोमणि है, इंद्रियदमन करनेवालोंमें शिरोमणि है, स्वामी है, कमलकलंकसे रहित हैं, कर्मोके समूहको जीतनेवाला है, स्पृहा वा इच्छाओंसे सर्वथा रहित है, तीनों लोकोंको देखनेवाला नेत्र है, भकेला है, विरक्त है, परिग्रह रहित है, कृतार्थ है, गुणोंको जाननेवाला है, बुढापा रहित है, और शोक रहित है।
भावार्थ- जिस समय यह आत्मा वातिया कर्मोको नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, उस समय समस्त इन्द्रादिकदेवभी आकर उसकी सेवा करते हैं। इसीलिए यह आत्मा महोदय कहलाता है । उस समय यह सर्वत्र आत्मा धर्मका उपदेश देकर संसारका कल्याण
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करता है, इसलिए धर्मदिवाकर कहलाता है। दिवाकर शब्दका अर्थ सूर्य है, जो धर्मको प्रकाशित करनेके लिए सूर्यके समान हो, उसको धर्मदिवाकर कहते हैं । ऐसे उस आत्माकी सेवा पूजा करनेसे अनेक जीव इस संसारसे पार हो जाते हैं, इसीलिए यह आत्मा भवपारकर्ता कहलाता है। कषायोंका सर्वथा नष्ट होनेसे शान्त वा क्षमा धारण करनेवाला कहलाता है, सर्वोत्कृष्ट होने के कारण महात्मा कहा जाता है, पापकर्मोंसे रहित वा निर्मल होने के कारण परम प्रसन्न माना जाता है, ऐसे आत्मासे सब जीवोंका कल्याण होता है, इसलिए क्षेमी वा क्षेमपति माना जाता है, कोको नष्ट करनमें समर्थ होनेके कारण क्षम दा समर्थ कहलाता है, और इंद्रियोंका दमन करनेके कारण दमोश वा इंद्रियोंका दमन करनेवाला कहलाता है । इंद्रादिकोंका स्वामी होने के कारण स्वामी कहलाता है, दोषोंसे वा कर्मोंसे रहित होनेके कारण अलेप कहलाता है, समस्त कर्माका नाश करने के कारण कर्मों को जीतनेवाला माना जाता है, समस्त इच्छाओंसे रहित होने के कारण गतस्पह बा इच्छारहित कहलाता है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने के कारण विश्व. विलोचन कहलाता है, समस्त कर्ममलकलंकसे रहित होने के कारण तथा मोक्षमें विराजमान होनेके वारण विविक्त कहलाता है, वीतराग और परिग्रहसे सर्वथा रहित होने के कारण विरत और निसंग कहलाता है, अनंतचतुष्टय प्राप्त कर लेने के कारण, कृती और गुणज्ञ कहलाता है, और समस्त दोषोंसे रहित होने कारण, बढापा रहित तथा शोकरहित कहलाता है । इस प्रकार श्रेष्ट गुणोंको धारण करनेवाला यह मेरा आत्मा है । आगे अपने आत्माका स्वरूप और भी बतलाते हैंवाचस्पतिस्तीर्थशिरोमणिश्च प्रमोहहंता करुणापतिर्वा । दयापताकः परमप्रमोदी मनोनिरोधी मदनप्रणाशी ॥ ५०७॥ स्वयंप्रभुविश्वविकाशहेतुः सुधर्मसारोऽखिलदीनबन्धुः । शास्ता प्रणेता सुखशान्तिभर्ता स्वराज्यकर्तास्मि निजे निवासी। ____ अर्थ- यह मेरा आत्मा वाचस्पति वा सर्वोत्कृष्ट वक्ता है, समस्त तीर्थोका शिरोमणि है, मोहको नाश करनेवाला है, करुणाका स्वामी है. दयाकी ध्वजको धारण करनेवाला है, परमानंदस्वरूप है, मनका विरोध
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करनेवाला है, कर्मों का नाश करने वाला है, स्वयंप्रभु है, तीनों लोकोंको विकसित वा प्रसन्न करनेवाला है, श्रेष्ठ धर्मका सार है, समस्त संसारी जीवोंका दीन बंध है, धर्मका उपदेश है, मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाला है, सुख और शांतिका स्वामी है, अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यका फर्ता है, और अपने आत्मामें लीन रहनेवाला है।
भावार्थ-केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर, जब यह आत्मा, अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मोपदेश देता है तब, इसकी बह वाणी पूर्वापर अविरुद्ध, निर्दोष और समस्त तत्वोंका स्वरूप कहनेवाली होती है। इसीलिए यह आत्मा वाचस्पति कहलाता है । ये संसारी जीव जिसके द्वारा इस संसारसे पार हो जाय उसको तीर्थ कहते हैं। इस सर्वज्ञ वीतराग और पवित्र आत्मासे हजारों जीव संसारसे पार हो जाते है । कोई उसकी गति कर पान होता है तो देश पुमका पार होता है, कोई उसकी आज्ञानुसार चल कर पार होता है। इसलिए यह आत्मा तीर्थशिरोमणि कहलाता है । मोहनीय कर्मको सर्वथा नष्ट कर देने के कारण प्रमोह-हता कहलाता है, समस्त जीवोंका कल्याण करने के कारण करुणापति माना जाता है, दया-धर्म की प्रबल ध्वजा फहराने के कारण दयापताका अथवा दयाको ध्वजा फहरानेवाला कहलाता है, चिदानन्द स्वरूप होने के कारण परमप्रमोदी माना जाता है, मन आदि समस्त इंद्रियोंका निरोध करने के कारण मनोनिरोधी कहा जाता है, कामादिक समस्त विकारोंको नाश कर देनेके कारण मदनप्रणाशी या कामको नाश करनेवाला कहलाता है, यह आत्मा कर्मोको नष्ट कर स्वयं सिद्ध होता है, इसलिए स्वयं प्रभु कहा जाता है, लोक-अलोक सबको प्रकाशित करता है इसलिए तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाला कहलाता है,समस्त कर्मोको नष्ट कर यह आत्मा अपने धर्म वा स्वभावमें लीन हो जाता है,इसलिए स्वधर्मसार माना जाता है, समस्त संसारी जीवोंको कल्याणकारी उपदेश देता है, इसलिए अखिल दीनबंधु कहा जाता है, श्रेष्ठ वक्ता होने के कारण शास्ता माना जाता है, मोक्षमार्गका निरूपण करनेके कारण प्रणेता कहा जाता है, अनन्तसुख और अनंतशांतिका भंडार होने के कारण सुख-शांतिभा माना जाता है अपने आत्मामे लीन होनेके कारण आत्मनिवासो कहा जाता है, और मोक्ष का
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स्वामी होनेसे स्वराज्यकर्ता कहलाता है । इसप्रकार यह मेरा आत्मा तीनों लोकोंमें सर्वोत्कृष्ट माना जाता है ।
आगे अपने आत्माका स्वरूप और भी दिलाते हैं। योगी कृतार्थी च जगत्प्रसिद्धः स्वानंदकंदः कृतकृत्य एव । प्रजापतिः सौख्यशिखामणिश्च चारित्रचूडामणिरेव शुद्धः ॥ स्वानन्दसाम्राज्यपदाधिकारी ह्याद्यन्तमध्यादिविवजितश्च । गुणाकरो धर्मशिरोमणिश्च त्रिरत्नधारी त्रिविकारहारी ||
अर्थ - - यह मेरा आत्मा योग वा ध्यान धारण करनेके कारण योगी कहलाता है, चारों पुरुषार्थीको वा सर्वोत्कृष्ट मोक्षपुरुषार्थको सिद्ध कर लेनेके कारण कृतार्थी कहा जाता है, अरहंत वा सिद्ध होनेपर तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो जाता है, इसलिए जगत्प्रसिद्ध कहलाता है, अपने आत्मजन्य आनन्दस्वरूप होनेके कारण स्वानन्दकन्द माना जाता है, आत्माको अत्यंत शुद्धरूप कृत्यको कर लेने के कारण कृतकृत्य कहलाता है, तीनों लोकोंका स्वामी होनेके कारण प्रजापति कहा जाता है, अनंत सुख और अनंतशांतिको धारण करनेके कारण सौख्य शिखामणि कहलाता है, पूर्ण चारित्रको धारण करनेके कारण वा समस्त पापोंका नाश कर देनेके कारण चारित्रचूडामणि कहा जाता है, अत्यंत शुद्ध होनेके कारण शुद्ध है, अपने आत्मजन्य आनंदके साम्राज्यके सिहासनपर बिराजमान होने के कारण अथवा अनंतसुखके सिंहासनपर विराजमान होने के कारण रवानन्द साम्राज्य पदाधिकारी कहलाता है, यह मेरा आत्मा अनादिकालसे विद्यमान है और अनन्तानन्तकालतक रहेगा, अतएव न इसका कही आदि है, न मध्य है, और न आदि मध्य अन्त तीनोंसे रहित है यह आत्मा गुणों का अनंत गुणों का भंडार है, इसीलिए गुणाकर कहलाता है, सर्वोत्कृष्ट आत्मधर्म में लीन रहता है, वा सर्वोत्कृष्ट धर्म स्वरूप है, इस - लिए धर्मशिरोमणि कहलाता है, इसीप्रकार यह आत्मा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्रारित्ररूपी रत्नत्रयधारी कहा जाता है, और समस्त विकारोंसे रहित है, अथवा मानसिक, वाचनिक, और शारीरिक तीनों विकारसे रहित है, अथवा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म इन तीनों
अन्त हैं,
सागर है,
यह आत्मा
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विकारोंसे रहित है, इसलिए त्रिविकारहारी वा तीनों विकारोंसे रहित कहलाता है। कापलार यह सुल स्मिानहरूा मेरा आत्मा सर्वोत्कृष्ट गुणोंको धारण करनेवाला है, आगे अपने आत्माका स्वरूप और भी दिखलाते हैकलानिधिः केवलबोधसिंधुनिःस्वार्थमूतिजितकर्मबन्धः । समाधिमंत्रः समतासमुद्रो वमीश्वरो विस्मयरूपधारी ॥५११॥ धीमान् मनीषी सुजनः सुशीलो ज्ञानी च मौनी धनदो धनेशः । ध्यानी प्रदानो निपुणो नरेशः स्वानन्दभोगी चतुरोत्तमोहम् ॥
__ अर्थ- यह मेरा आत्मा अनेक कलाओंका निधि है, केवलज्ञानरूपी महाज्ञानका सागर है, वह स्वार्थोसे रहित है, उसके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं है, इसलिए वह निस्वार्थकी मूर्ति कहलाता है, समस्त कर्मोको जीतनेवाला, वा नष्ट करनेवाला है, वा कर्मबंधन को रोकनेवाला है, इसलिए कर्मबंधनको जीतनेवाला कहा जाता है, । समाधि वा ध्यान में लीन रहता है, अतएव समाधितंत्र कहलाता है, दुःख-सुख आदि सबसे समता धारण करता है, और परम समताका समुद्र माना जाता है, इंद्रियोंको दमन करनेवालोंमें भी मुख्य वा स्वामी कहलाता है, । इसलिए इसको दमीश्वर कहते हैं यह आत्मा तीनों लोकोंमें आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली अपने आत्माकी अनंन चतुष्टयरूप विभूतिको धारण करता है । अतएव आश्चर्य करनेवाले रूपको धारण करने वाला कहलाता है। यह आत्मा समस्त पापोंका त्याग कर, अपने आत्माका कल्याण कर लेता है इसलिए बुद्धिमान और मनीषी वा विचारवान कहलाता है, जीवोंका कल्याण करता है, किसीका अहित नहीं करता है, अतएव सुजान कहलाता है, आत्माके अनंत गुणोंको धारण करनेवाला है, इसलिए सुशील कहा जाता है. आत्माका यथार्थ स्वरूप जानने के कारण ज्ञानी कहलाता है, किसीसेभी बातचीत नहीं करता, केवल अपने आत्मामें लीन रहता है. इसलिए मौनी बा मौन धारण करनेवाला माना जाता है, यह आत्मा मोक्षमार्गका निरूपण कर, अनेक भव्यजीवोंको अनंतचतुष्टायरूप महालक्ष्मीकी प्राप्ति करा देता है, तथा स्वयं भी अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मीको धारण करता है, इसलिए धन देनेवाला धनद और धनका
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( मान्तिसुधासिन्धु)
स्वामी धनेश कहलाता है, ध्यानमें निमग्न रहने के कारण ध्यानी माना जाता है, अनेक भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देनेके कारण प्रदानी कहा जाता है, अपने आत्माको अनंतसुख पहुंचाने के कारण निपुण माना जाता है, तीनों लोकोंका स्वामी होनेके कारण नरेश कहा जाता है. अपने आत्मजन्य आनंदका उपभोग करने के कारण वा अनंतसुखका अनुभव करने के कारण आनंदभोक्ता कहलाता है, और इन सब उत्तम गुणोंको धारण करने के कारण चतुर पुरुषों में भी सर्वोत्तम कहलाता है। ऐसा यह आत्मा सदाकाल ध्यान करने योग्य माना जाता है।
___ आगे इसी आत्माके स्वरूपको और भी बतलाते हैंजयी जिनेन्द्रो ह्यजितो जितारिः बंद्योऽभिनंधो सुमतिः सुयोग्यः । गणाधिपः पुमानिधिः पुनको गहान् मानगो हतषड्रिपुश्च ॥ श्रीभूतनाथो भुवनेशवंद्यो जगद्गुरु व्यसरोजभानुः । प्रक्षीणदोषः शमदः शमात्मा मुनिमहर्षिः सुविधिः श्रुतात्मा ॥
अर्थ- यह मेरा आत्मा तोनों लोकोंको जीतनेवाला है, अथवा तीनों लोकोंको जीतनेवाला काम और मोहकोभी जीतनेवाला है, घातिया कर्मोको जीतनेवाले जिन कहलाते हैं, उसके इन्द्र का स्वामीको जिनेन्द्र कहते हैं, मेरा यह आत्माभी जिनोंमें श्रेष्ठ है, इसलिए जिनेन्द्र काहलाता है। इस संसारमें मोह वा काम बा अन्य इन्द्रादिकदेव कोईभी इस आत्माको जीत नहीं सकते, इसलिए यह आत्मा अजित कहलाता है । इस संसारमै काम मोह वा ज्ञानावरण आदि कर्मही शत्रु हैं। उनको जीतनेवाला यह मेरा आत्मा है, इसी कारण मेरा यह आत्मा जितारि कहा जाता है। मेरा यह पवित्र आत्मा, निर्मल, शुद्ध तीनों लोकोंकेद्वारा वंदनीय और अभिनन्दनीय है, इसीलिए वंद्य और अभिनंद्य कहलाता है, यह मेरा आत्मा श्रेष्ठ केवलज्ञानको धारण करनेवाला है, वा अपने आत्माका कल्याण करनेवाला है, इसलिए इमीको सुमति बा श्रेष्ठ बुद्धिवाला कहते हैं । मोक्षके सर्वथा योग्य यही पवित्र आत्मा है, इसलिए इसको सुयोग्य कहते है । यह आत्मा समस्त भव्यगुणोंका स्वामी है इसलिए इसको गणाधिप वा गणका नायक कहते हैं। यह आत्मा समस्त पापोंको नाश कर, गुण्य कानिधि बन जाता है इसलिए
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( शान्तिसुधाशिन्ध )
पुण्यनिधि कहलाता है । पापोंका नाश करनेके कारणही पुनीत, वा पवित्र कहलाता है। यह आत्मा समस्त तत्त्वोंमें सर्वोपरि माना जाता है, इसलिए इसको महान् कहते हैं। यह आत्मा उपादेय है, सर्वथा ग्रहण करने योग्य है, इसलिए इसको मनोज्ञ कहते हैं । इस आत्माने काम, क्रोध आदि सब अंतरंगशत्रु नष्ट कर दिये हैं, इसलिए इसको छहों अंतरंग मोजो नाश पारनेवाः। कही। मह जारमा समस्त प्राणियोंका स्वामी है इसलिए भूतनाथ वा प्राणियोंका स्वामी काहलाता है । तीनों लोक इसको नमस्कार करते हैं अथवा तीनों लोकोंके इन्द्र इसको नमस्कार करते हैं, इसलिए इसको भुवनेशवंद्य कहते हैं। यह आत्मा तीनों लोकोंका गुरु वा शासक है, इसलिए जगत्गुरु कहा जाता है । जिसप्रकार सूर्यके उदय होनेसे कमल खिलते हैं, उसी प्रकार इस पवित्र शुद्ध आत्मासे समस्त भव्यजीव प्रफुल्लित होते हैं, इसलिए इसको भन्यसरोजभानु वा भव्यजीवरूपी कमलोंका सूर्य कहते हैं । यह आत्मा राग द्वेषादिक समस्त दोषोंको नाश करनेवाला है इसलिए प्रक्षीणदोष वा दोषोंको नाश करनेवाला कहलाता है । यही आत्मा समस्त जीवोंको शांति उत्पन्न करनेवाला है, इसलिए इसको समद वा परिणामोंको शांत करानेवाला कहते हैं । यह आत्मा स्वयं शांत है इसलिए शमात्मा वा अत्यन्त शांत कहलाता है । यह आत्मा सदाकाल अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करता रहता है. इसलिए मुनि कहलाता है, तपश्चरण और ध्यानके द्वारा अपने आत्माको पवित्र करता हुआ यह आत्मा अणिमा, महिमा आदि अनेक ऋद्धियोंको प्राप्त कर लेता है, इसलिए इसको महषि कहते है। यह आत्मा पापको नाश करने तथा महापुण्य कर्मोको धारण करने के कारण सुविधा वा श्रेष्ठ पुण्यकर्मोको धारण करनेवाला कहलाता है। अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिए ध्यान, तपश्चरण आदि श्रेष्ठ क्रियाओंको करता है, इसलिएभी सुविधि कहलाता है। यह आत्मा श्रुतज्ञान का भंडार है, इसलिए श्रुतात्मा वा श्रुतज्ञानस्वरूप कहलाता है । इसप्रकार अनेक उत्तम गुणोंको धारण करनेवाला यह मेरा आत्मा सर्वथा ध्यान करने योग्य माना जाता है।
आगे अपने आत्माका स्वरूप और भी दिखलाते हैंक्षमापति नरविर्दमेशः कारिजेता निजराज्यदाता । स्थानन्दसाम्राज्यविभुः कृपेशो दिगम्बरोऽनन्तगुणात्मकोहम् ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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पूर्वोक्तधर्मेण विराजितोस्मि तथा स्वसंवेदनतोहि गम्यः । वाक्कायचित्तश्च निजात्मना वा शान्त्यर्थमेवं भुवि चिन्तनीयः ।।
अर्थ- यह मेरा आत्मा क्षमाका स्वामी है, ज्ञानरूपी सूर्यको धारण करनेवाला है, इन्द्रिय दमन करनेवालोंमें सर्व श्रेष्ठ है, कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाला है, अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वरूपका देनेवाला है, अर्थात् इसी शुद्ध आत्माके चितवन करनेसे आत्माके शुद्धताकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिए इसको स्वराज्यका दाता कहते हैं । यह आत्मा अपने आत्मजन्य अनंत आनंदको धारण करता है, और मोक्षरूप साम्राज्यका स्वामी है, इसलिए इसको स्वानंद साम्राज्यविभु कहते हैं । यह आत्मा संसारके समस्त जीवोंको अपने समान समझकर सबपर परम कृपा धारण करता है, इसलिए इसको कृपाका स्वामी कहते हैं । यह आत्मा वस्त्राभषण आदि सबसे रहित है, शरीरसेभी सर्वथा भिन्न है, इसीलिए इसको दिगम्बर कहते हैं । यही मेरा आत्मा अनंतदर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंतवीर्य और अनंत मुणोंको धारण करता है, इसीलिए अनंतमुणात्मक बा अनंतगुणोंको धारण करनेवाला कहलाता है। इस प्रकार इस आत्माके अनेक धर्म वा अनेक गुण बतलाए हैं, उन सबसे यह आत्मा सदाकाल सुशोभित रहता है। ऐसा यह आत्मा किसी इंद्रियसे नहीं जाना जाता, किंतु स्वसंवेदनसे जाना जाता है । अपने आत्माके अनुभवको स्वसंवेदन कहते हैं । उसीसे यह आत्मा जाना जाता है । ऐसा यह आत्मा परम शांति प्राप्त करनेके लिए मन वचन कायसे, वा अपने आत्माकेद्वारा सदाकाल चितवन करने योग्य कहा जाता है।
भावार्थ- आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करनेसे आत्माको परम शुद्धता प्राप्त होती है, तथा परम शुद्धता प्राप्त होनेसे,आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है । इसलिए उस परम शांतिको प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक भव्य जीवको अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन सदाकाल करते रहना चाहिए । आत्माका कल्याण करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है !
आगे और भी बतलाते हैंसाध्यसाधकभावेन स्वात्मेति व्यवहारतः । चिन्त्यो निश्चयतो नाम नामातीतो निरंजनः ॥ ५१७ ॥
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( शान्तिसुधासिन्धु)
अर्थ- साध्य-साधकमाया यह ना शुरु मामा चितवन करने योग्य है, व्यवहारनयसे उसका नाम चितवन करने योग्य है, और निश्चयनयसे नामरहित और कर्ममलसे सर्वथा रहित शुद्ध स्वात्मा चितवन करने योग्य है।
भावार्थ-- यह अपना आत्मा साधक है। यह आत्मा अपनेही आत्माके द्वारा, अपनेही आत्माका चितवन करके, अपनेही आत्माको शुद्ध करता है, अपनेही आत्मामें लगे हुए कर्मोको नष्ट कर, अपने आत्माको पवित्र एवं निर्मल वनाता है । अतएव यही आत्मा साध्य वा सिद्ध करने योग्य कहलाता है, और यही आत्मा साधक वा सिद्ध करनेका साधन कहलाता है, इस प्रकार साध्य-साधकरूपसे यह अपनाही आत्मा चितवन करने योग्य कहा जाता है, इसके सिवाय व्यबवहारनयसे व्यवहारमें रक्खे हए इस परमात्माके नामही चितवन करने योग्य माने जाते हैं। जैसे चौबीसों तीर्थंकरोंके नाम चितवन करने योग्य माने जाते हैं, पंच परमेष्ठीके नाम चितवन करने योग्य माने जाते हैं। इस प्रकार व्यबहारनयसे पंचपरमेष्ठीके नाम चितवन करने योग्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार समस्त कषायोंसे, समस्त विकारोंसे और समस्त कर्मोसे रहित अत्यंत शुद्ध जो यह आत्मा है, वही नामसे रहित और कर्ममलकलंकसे रहित निरंजन कहलाता है। ऐसा ग्रह निरंजन आत्मा निश्चय नयसे चितवन करने योग्य काहा जाता है। अभिप्राय यह है कि मब अवस्थामें यही आत्मा चितवन करने योग्य है ।
आगे इन सब भावनावोंका सारांश बतलाते हैंसच्छान्तिरेवोत्तमधर्मसिंधुः सच्छान्तिरेवापि परं तपश्च । सच्छान्तिरेवं परमं सुबक स्यात् सच्छान्तिरेवं परमः प्रबोधः॥५१८ ध्यान यथार्थ परमं हि वृत्तं सच्छान्तिरेवापि परं सुखं च । ज्ञातव्यमेवेति यथार्थदृष्टया स्यात्तद्विना सर्वविधिवृथा कौ ॥५१९ यथैव विश्वो जलवृष्टिहीनः कदापि नो तिष्ठति कुंथुसिंधुः । आचार्यवर्यः सुखशांतिमूतिः पूर्वोक्तशान्तेर्न बहिः प्रयाति ॥५२०
___ अर्थ- इस संसारमें जो सर्वोत्तम धर्मरूपी समुद्र कहलाता है, बझी परम शांति स्वरूपही है, इसकाभी कारण यह है कि, धर्म धारण
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करनेसे पापोंका राश होता है, और पापोंके नाश होनेसे तथा कषायादिकोंके नष्ट हो जानेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है । इसीलिए आचार्य महाराजने धर्मको परम शांति स्वरूप बनलाया है। इसीप्रकार सर्वोत्कृष्ट तपश्चरणभी शांतिस्वरूप है, तपश्चरण करने से पापकर्मोकामी नाश हो जाता है, और राग, द्वेष, क्रोध, काम, आदि समस्त विकाराता नाश हो जाता है, तथा इसके साथ-साथ तपश्चरण करनेमे यह आत्मा परम निर्मल और अत्यंत शुद्ध हो जाता है । इसप्रकार आत्माके अत्यंत शुद्ध हो जानेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है। इसीलिए इस तपश्चरणको परम शांतिस्वरूप बतलाया है। इसके सिवाय आत्माका जो सर्वोत्कृष्ट सम्यग्दर्शन गुण है वह भी परम शांतिस्वरूप है, क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेसे यह आत्मा अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको जातने लगता है, सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न होनेवाले स्वपरमंदविज्ञानमे यह आत्मा क्रोधादिक कपायोंको विभाव और परकीय परिणाम समझकर उनका सर्वथा त्याग कर देता है, और अपने निर्मल आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । इस प्रकार आत्मा में लीन होने से इस आत्माको परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए इस सम्यग्दर्शन गुणको परम शांतिस्वरूप बतलाया है । इसी प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानको भी परम शांतिस्वरूप बतलाया है। इसका भी कारण यह है कि, सम्यग्ज्ञानके प्रमट होनेसे यह आत्मा अपने स्वरूाका वा अपने गुणोंका त्रिनयन करता है, तथा समस्त बाह्य पदार्थोको व समस्त विभाव भात्रों को परकीय समझकर सर्वथा छोड देता है, और फिर अत्यंत शांत होकर अपने आत्मामें लीन हो जाता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञानसे परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसीलिए सम्यग्ज्ञानको परम शांतिस्वरूप बतलाया है । सम्यक्चारित्रके धारण करनेसे वा पंचपरमेष्ठीका ध्यान करने से अथवा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करनेसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है, समस्त विकारोंका नाश हो जाता है और कर्मों का नाश होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है । मोक्ष प्राप्त होनेपर अनंतमुख और अनंतशांति मिलती है । इस प्रकार ध्यान और तपश्चरण दोनोंही परम शांतीके कारण है, और इसीलिए परम शांतिस्वरूप कहलाते हैं। अथवा ध्यान में ममम्त संकल्प-विकल्प छुटकर यह आत्मा अपने पवित्र और शुद्ध आत्माम लीन हो जाता है, और उस समय परम शांत हो जात है। इसलिए ध्यानको
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परम शांतिस्वरूप बतलाया है । सामायिक आदि सम्यक्चारित्रको धारण करनेसे भी समस्त पापोंका त्याग होता है, और मा' गरम हो जाता है. इसलिएही सम्यकचारित्र परम शांतिस्वरूप कहलाता है। इसी प्रकार आत्मजन्य परमसुख, परम शांतिस्वरूप है, अथवा मोक्षम प्राप्त होनेवाला अनंतसुख परम शांतिस्वरूप है, क्योंकि इन दोनोंही सूखोंमें किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती। इंद्रियजन्य सुख में सदा आकुलता बनी रहती है, इसलिए इंद्रियजन्य सुख तो अशांत स्वरूपही है, और इसीलिए आत्म-जन्य सुख निराकुल होनेके कारण, सदाकाल परमशांत स्वरूप माना जाता है । इसप्रकार धर्ममी शांति स्वरूप है, तपश्चरणभी शांति-स्वरूप है, सम्यग्दर्शनमी शांति-स्वरूप है, सम्यग्ज्ञानभी शांतिस्वरूप है, सम्यकचारित्रभी शांति-स्वरूप है, ध्यान भी शांति-स्वरूप है, और आत्मजन्य सुखभी शांति-स्वरूप है । यह यथार्थ दृष्टि से प्रत्यके भव्यजीवको समझ लेना चाहिए। यदि इन धर्मादिकके धारण करने से भी आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर उस धर्मको वा तपश्चरणादिको व्यर्थही समझना चाहिए | जिसप्रकार जलकी वर्षाके विना यह संसार कभी नहीं रहता, उसीप्रकार मुख और परम शांतिकी मति ऐसे आचार्यवर्य श्रीकंधुसागरभी ऊपर लिखी हुई परम शांतिसे बाहर कभी नहीं जाते हैं । अर्थात् इस शांतिसिंधु महाग्रंथके रचयिता आचार्य कुंथसागरभी ध्यान तपश्चरण करते हए तथा रत्नत्रयका पालन करते हुए परम शांत होकर अपने आत्मामें लीन रहते हैं । इसीप्रकार समस्त भव्य जीवोंको अपने आत्मामें परम शांतता धारण करनी चाहिए । यही इस ग्रंथकी रचना करनेका तथा पठन-पाठन करनेका यथार्थ फल है।
इति श्री आचार्यबर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथे परमशांतिस्वरूपवर्णनो नाम पंचमोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्यवर्य श्रीकुन्युसागर विरचित श्रीशांतिसिन्धु नामके महाग्रन्थ की 'धर्मरत्न' पं. लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें परम शांतिके स्वरूपको वर्णन करनेवाला
यह पांचवा अध्याय समाप्त हुआ।
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अथ प्रशस्ति
आगे आचार्यवर्य श्रीकुंथूसागरजी महाराज अपनी लघुता दिखलाते हुए तथा गुरुजनोंको स्मरण करते हुए अपनी प्रशस्ति लिखते हैंदीक्षागुरोरेव दयानिधमें श्रीशांतिसिंधोश्व कृपाप्रसादात् । अज्ञानहर्तुः सुमतिप्रदातुः विद्यागुरोरेव सुधर्मनाम्नः ।। ५२१ ।। ग्रंथो हि नाम्ना वरशान्तिसिंधुरशान्तिहर्ता सुखशान्तिदाता ॥ स्वजन्ममृत्योश्च तथा परेषां विनाशहेतोविविधव्यथानाम्॥ ५२२ शान्त्या बिना सर्वविधिर्वृथेति प्रबोधनार्थं सकलप्रजानाम् । श्रीकुंथुनाम्ना रचितः प्रशान्तेमंत्रत्मनिष्ठेन च सूरिणा हि ॥५२३
अर्थ-- अपनी आत्मामें लीन रहनेवाले और परम शांति के स्वामी ऐसे आचार्यवर्य श्रीकुंथूसागर स्वामीने अपने दीक्षागुरु, दयाके निधि आचार्यवर्य श्रीशांतिसागरकी कृपासे तथा अज्ञानको हरण करनेवाले और श्रेष्ठ - बुद्धिको देनेवाले विद्यागुरु आचार्यवर्य श्री सुवसागरकी कृपाप्रसादसे, इस सर्वोत्तम शांतिसिंधू ग्रंथ की रचना की है। यह शांतिसिध्रु ग्रंथ अशांतिको दूर करनेवाला है, तथा परम सुख और परम शांतिको देनेवाला है । इस संसार में शांतिके बिना व्रत विधान आदि करना सबव्यर्थ है । यह बात समस्त प्रजाको समझानेके लिए, तथा अनेक प्रकारकी व्यथाओंका नाश करनेके लिएही इस शांतिसिंधु महाग्रंथ की रचना की है । काव्यं ह्यलंकारमपीह छन्दो न्यायं नयं व्याकरणं न वेद्मि । तथापि भक्त्या भवनाशकोहि ग्रंथो मयायं लिखितः पवित्रः ॥
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अर्थ- मैं न तो काव्यग्रंथोंको जानता हूं, न अलंकारशास्त्र जानता हूं, न छन्दशास्त्र जानता हूं, न न्यायशास्त्र जानता हूं, न नयोंका स्वरूप जानता हूँ, और न व्याकरणशास्त्रको जानता हूं । तथापि मेने ( आचार्यवर्य श्री कुंधुसागरने ) भक्तिकेवश होकरही यह जन्म-मरणरूप संसार को नाश करनेवाला अत्यन्त पवित्र ऐसे इस शांतिसिंधुग्रंथ की रचना की है। विरुद्धानुचितं किंचिद् ग्रंथेस्मिन लिखितं यदि । शोधयित्वा मुनीन्द्रास्ते पठन्तु पाठयन्तु वै । ५२५ ।।
अर्थ - यदि मैंने किसी प्रमादके वशसे इस ग्रंथ में कुछ विरुद्ध वा अनुचित लिखा हो तो मुनिराजोंको वह शोधकरही पढना चाहिए । अर्हन् जयतु तद्वाणी जिनधर्मश्च शर्मदः ।
पूर्वाचार्यः सुधर्मो मे शान्तिसिंधुगुरुः सदा ॥ ५२६ ॥
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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) अर्थ- इस संसारमें भगवान् अरहतदेव सदा जयबंत रहे, उनकी वाणी सदा जगशील रहे. सब जीवोंका कल्याण करनेवाला यह जैनधर्म सदा जयशील रहे, श्रीकुंदकूद आदि समस्त पहलेके आचार्य सदा जयशील रहे, मेरे विद्यागुरु आचार्य सुधर्मसागर सदा जयशील रहे और मेरे दीक्षागुरु आचार्य श्रीशांतिसागर महाराज सदा जयशील रहे। ग्रंथं ह्यमुं शांतिकरं सदैव स्मरन्ति वांच्छन्ति पठन्ति यान्ति / त एव योग्यं भुवि सारसौख्यं लब्ध्वा लभन्ते ह्यजरामरत्वम् / अर्थ- जो भव्यजीव परम शांति उत्पन्न करनेवाले इस महाग्रंथको सदाकाल स्मरण करते हैं, सदाकाल इसका पठन-पाठन करते हैं,वा इसको प्राप्त होते हैं, अथवा इसके पठन-पाठनकी इच्छा करते हैं, वे पुरुष इस संसारमें इन्द्र चक्रवर्ती आदिके सारभूत सुखोंको प्राप्त होकर अजरामर पदको अर्थात् मोक्षपदको प्राप्त कर लेते हैं। सुखप्रदं वांछितदं च वस्तु धर्मानुकूलं च कुटुम्बवर्गम् / बोधि समाधि परिणामशुद्धि स्वराज्यलक्ष्मी विदधातु देवः / / अर्थ- ये भगवन् अरहतदेव सुखदेनेवाले इच्छानुसार पदार्थोको प्रदान करें, धर्मके अनुकूल कुटुम्बको प्रदान करे, सम्यग्ज्ञान प्रदान करें ममाधिमरण प्रदान करें, परिणामोंकी शुद्धता प्रदान करें, और मोक्षरूप स्वराज्यलक्ष्मी प्रदान करें। मोक्षं गते महावीरे स्वक्षिसुखदायके / चतुर्विंशतिसंख्याते चतुःषष्टयधिके शते // 1 // फाल्गुने शुक्लपक्षे हि तृतीयायां शुभे दिने / तारंगासिद्धभूमौ हि स्थित्वा स्वराज्यहेतवे // 2 // ग्रन्थच्छान्तिसुधासिन्धुरयं वांछितदः सदा / रचितः स्वात्मतुष्टेन कुन्थुसागरसूरिणा // 3 // अर्थ- श्रीमहावीर निर्वाण संवत 2464 के फास्गुन शुक्ल तीजके दिन श्रीतारंगा सिद्धक्षेत्रपर इस अभिष्ट फल देनेवाले श्रीशांतिसुधासिंधुकी रचना आचार्य श्रीकुंथुसागर महाराजने अपना सच्चा स्वराज्य पाने के लिए की / यह सदा जयवंत रहे / // समाप्तोऽयं ग्रंथः॥