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( शान्तिसुधासिन्धु )
विकारोंको और पापोंको छोड देता है, तथा दान पूजन आदि शुभ कार्यों में अपनी प्रवृति करने लगता है । इसप्रकार वह अशुभ भावोंका त्याग कर, शुभ भावोंकी प्रवृत्ति करने लगता है, और धीरे-धीरे शुभ भावोंकी प्रवृत्तिको हटाकर, शुद्ध भावोंको धारण करने लगता है। उन शुद्ध परिणामोंके साथ ध्यान और तपश्चरण धारण करता है, और फिर समस्त कर्मोको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिए समस्त भन्यजीवोंको अशुभ भावोंका त्याग कर, शुभ भाव धारण करना चाहिए । और फिर शुद्ध भावोंको धारण करनेका प्रयत्न करते रहना नाहिए । यही पोकायन है. और पायका कर्तव्य है।
प्रश्न- को ददाति सुखं दुःखं लीलेयं कस्य मे वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें मुख वा दुःख कौन देता है, तथा यह सुख वा दुःख देना किसकी लीला है। उ. मोहोद्भवः कर्मरिपुर्हठात्कौ राजानमेवापि करोति रकम् । रंक तथा राज्यपान्वितं च करोति मूढं चतुरं क्षणादि ३३५ श्रीमंतमेवाप्यपरं दरिद्रं करोत्ययोग्यं सुखिनं सुयोग्यम् । लीलास्त्यहो कर्मरिपोविचित्रा दृष्टान्यजन्तोश्च किलेशी न
अर्थ – मोहसे उत्पन्न हुआ मोहनीय कर्मरूपी शत्रु इस संसारमें र पूर्वक राजाको रंक बना देता है, किसी रंकको राज्य सिंहासनपर विठा देता है, अत्यंत अज्ञानी और मूर्ख मनष्यको क्षणभरमें चतुर बना देता है, अन्य किसी अत्यंत धनी मनुष्यको दरिद्री बना देता है, और किसी अयोग्य मनुष्य को सुखी और सुयोग्य बना देता है । यह विचित्र लीला कर्मरूपी शशुकोही है, अन्य किसी जीवकी ऐसी लीला कभी नहीं देखी जाती।
भावार्थ- यद्यपि सुख-दुःख देना वेदनीयकर्मका कार्य है, तथापि वेदनीयकर्म मोहनीयकर्मके रहते हुए ही सुख दुःख दे सकता है । यदि मोहनीयकर्म न हो, तो बेदनीयकर्म कुछ नहीं कर सकता इसीलिए सुख दुःख देनेवाला मुख्यतया मोहनीयकर्मको ही माना है। इस संसारमें जितने अशुभ कर्म हैं, उन सबसे प्रवल मोहनीयकर्मही है, इसलिए