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( शान्तिसुधासिन्धु)
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धारण कर, अपने परिणामोंको शद्ध बनानेका प्रयत्न करते रहना चाहिए, जिससे फिर कभी आयुकर्मका बंध न हो, तथा कभी मृत्यु न हो, और यह जीव मोक्ष प्राप्त कर, सदाके लिए अनंत सुखी हो जाय ।
प्रश्न - सर्वकृत्यकरो जीवः स्याद्धान्यः कोपि मे बद?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कुपा कर यह बतलाइए कि समस्त कार्योको करनेवाला यह जीव ही है अथवा अन्य कोई है ? उ. पापं स्वयं ह्येव करोति जीवो लब्ध्वा कुसंगं च तथा प्रभुंक्ते
तथा स्वयं मुच्यत एवे बंधाद् भक्तया जिनं प्राप्य गुरुं पवित्रम्
यथा मतिः स्याद्वि तथा गतिश्च जिनागमे रोतिरियं प्रसिद्धा ज्ञात्वेति भव्यः स्वमतिश्च शुद्धा कार्या यतः स्यत्स्वसुखस्य लाः
अर्थ – यह जीव अपनी कुसंगतिको पाकर स्वयं पापकर्मोको करता है, और स्वयं उन कर्मोके फलको भोगता है । इस प्रकार अपनी भक्तिके द्वारा भगवान् जिनेंद्र देवको पाकर अथवा पवित्र निग्रंथ गरुको पाकर, उन कर्मबंधनोंसे स्ययं मुक्त हो जाता है । इस जिनागम में यही रीति और यहीं नीति प्रसिद्ध है कि, जिसको जैसी मति होती है उसको वैसीही गति होती है । यही समझकर भव्यजीवोंको अपनी मति वा बुद्धि सदा शुद्ध रखनी चाहिए जिससे कि शीघ्र ही आत्मसुखकी प्राप्ति हो जाय ।
भावार्थ - यह मनुष्य जैसी संगतिमें बैठता है वंसी ही बुद्धि बना लेता है, तथा जैसी बुद्धि बना लेता है वैसे ही कार्य करता है, और जैसे कार्य करता है, वैसा ही उनका फल भोगता है। यदि यह जीव कुसंगतिमें बैठता है तो इसकी बुद्धि कुबुद्धि हो जाती है और उस कुबुद्धिके कारण काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग, द्वेष, मायाचारी आदि अनेक प्रकारके विकार उत्पन्न किया करता है, तथा उन विकारोंके कारण अनेक प्रकारके महापाप उत्पन्न किया करता है। उन पापोंके कारण तीन अशुभ कर्मोंका बंध किया करता है, और उनके उदय होनेपर नरक निगोदके महादुःस्त्र भोगा करता है । इसीप्रकार जब यह जीव मुनि वा ब्रह्मचारी अथवा धर्मात्मा श्रावकोंकी संगतिमें बैठा करता है तब इसकी बुद्धि पापोंसे डरनेवाली हो जाती है। पाप कार्योसे डर कर वह सव