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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न- कि कि विचारणीयं को बद मे सिद्धथे प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस जीवको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिए अपने हृदयमें क्या-क्या विचार करते रहना चाहिए? उ. मृत्युः कदा स्याद् भुवि बुध्यते न धनस्य नाशोपि तथात्मजानाम् भावो यथा स्याद्धि तयापि चायुः प्रबध्यते वै सुखदुःखवं च ३३१ ज्ञात्वेति शुद्धः सुखदः स्वभावः कार्यो यतः स्यात्सुखशान्तिलामः वायुन केषामपि बध्यते न न स्यात्तथा कर्मपराश्रयत्वम् ।३३२। ___ अर्थ- इस संसारमें मृत्यु कब होती है इस बातको हम लोग नहीं जान सकते हा प्रकार का नाम का होता है, वाम पौत्रादिकोंका नाग कब होता है, इस वातकोभी हम लोग नहीं जान सकते। यह जीव अपने शुभ वा अशुभ जसे परिणामोंको धारण करते हैं, वैसे ही सुख दुःख देनेवाले आयु कर्मका बंध करते हैं। इस प्रकार निरंतर विचार करते हए इस जीव को सूख देनेवाले अपने शुद्ध स्वभावका धारण करना चाहिए, जिससे कि सुख और शांतिकी प्राप्ति हो, आयुकर्मका कभी बंध न हो, और वह जीव कर्मोके आधीन न रहे ।
भावार्थ- इस जीवको अपना कल्याण करनेके लिए बारह भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिए। अपनी मृत्यको समीप जानकर संसार और विषय-कषायोंका त्याग कर, वैराग्य धारण करना चाहिए । परलोकके लिए आयुकर्मका बंध कब होता है, यह बात किसीको मालूम नहीं हो सकती । इसलिए परलोकके लिए शुभ आयुकर्मकाही बंध हो, अशुभ आयुकर्मका बंधन हो, इस बातका ध्यान रखते हुए, इस जीवको सदाकाल अपने परिणामोंको शुभ वा शुद्धही रखना चाहिए। यदि सदाकाल शुभ परिणाम रहेंगे तो शुभआयुकाही बंध होगा। यदि शुद्ध परिणाम होंगे तो आयकर्मका बंध होगाही नहीं । आयुकर्मका बंध न होनसे यह जीव अत्यंत शुद्ध और सर्वथा स्वतंत्र हो जाता है, सथा मोक्षमें विराजमान होकर सदाकाल आनंद सुखका अनुभव करता रहता है। इसलिए प्रत्येक भव्यजीयको प्रत्येक क्षण में अपने आत्माके कल्याण करनेका चितवन करते रहना चाहिए। मृत्युसे बचनेके लिए बैराम्य