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( शान्निमुधासिन्धु )
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श्रीजैनधर्मे सुखशान्तिमूले श्रद्धा यतः स्यात्परधार्मिकाणाम् ॥ सत्यार्थधर्मेण विना न सिद्धिस्तत्सिद्धिहेतोः कथितं मयेति ॥ ___ अर्थ- प्रत्येक भव्यजीवको इस पवित्र जनधर्मको स्थिर करनेके लिए समस्त जीवोंके साथ अपने भाईबंधओंके समान प्रवृत्ति रखना चाहिए, सब जीवोंके साथ सुख देनेवाली पवित्र प्रवृत्ति रखना चाहिए, और उनके साथ मधुर भाषा और यथार्थ बोलना चाहिए । ऐसा करनेसेही सुख और शान्तिके मल कारण, ऐसे इस जैन ममं अन्य धर्मियों की श्रद्धा हो सकती है। इस संसारमें यथार्थ धर्मको धारण किए बिना किसीके आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती, अतएव प्रत्येक आत्माकी सिद्धिके लिएही मैंने यह निरूपण किया है ।
___ भावार्थ- प्रत्येक भव्वजीवको हित-मित भाषण करना चाहिए । जिस भाषणको करनेसे किसीभी जीबको बाधा न पहुंचे तथा जिस भाषणसे सब जीवोंकी आत्माओंका यथार्थ कल्याण हो, पूण्यकी प्राप्ती हो, पापोंका नाश हो, ऐसे भाषणको हितरूप भाषण कहते हैं, तथा जहांपर जितने भाषणकी आवश्यकता हो उतनाही भाषण करना, बिना प्रयोजनके अधिक भाषण न करना-मितभापण कहलाता है, । जो मनुष्य हित-मित भाषण करता है, और वहभी मीठे शब्दोम यथार्थ बात कहता है, उसका प्रभाव संसारके समस्त जीवोंपर पड़ता है। जनधर्म वैसे ही पवित्र और यथार्थ धर्म है, उसमेंभी यदि मिष्ट और यथार्थ भाषण करनेवाले मनुष्य हों, तो अन्य र्मियोंपर उस भाषाका गहरा प्रभाव पडता है, तथा उस प्रभावके कारण वे लोग इस पवित्र धर्मपर श्रद्धा करने लगते हैं। चार प्रकारके धर्मध्यान में एक अपाय-विचय नामका धर्मध्यान बतलाया है। उसकाभी अभिप्राय यही है कि, जो जीव यथार्थ धर्मसे विमुख हो रहे हैं, वे कब और किस प्रकार यथार्थ धर्मको धारण कर अपने आत्माका कल्याण करें। यदि यह अपाय-विचय नामके धर्मध्यानका मिष्ट और यथार्थ भाषण करनेसेही हो जाय, तो इससे बढकर और क्या बात हो सकती है, इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मिष्ट और यथार्थ भाषण करना चाहिए, जिससे कि अनेक जीव यथार्थ धर्मको धारण कर अपने आत्माका कल्याण कर सकें । यही आचार्य महाराजका उपदेश है।