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( शान्तिसुश्वासिन्धु )
प्रश्न- ब्राह्मणादिचतुर्वर्णचिन्हं मे वद कीदृशम् ?
अर्थ- अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय. वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णोके क्या-क्या चिन्ह है ? उ.- स ब्राह्मणो ब्रह्म च यः सुवेत्ति, ब्रवीति वा धर्मविधि जनाय
क्षात्रः प्रजानां सुखदः स एव, यः कर्मश जयति स्वशक्त्या स एव वैश्योपि मनःकृति यः, पुण्यं सदा तोलयतीति पापम् धर्माय द्रन्याय सदेति निद्या, त्रिवर्गसेवां कुरुते स शूद्रः ॥
अर्थ-- जो पुरुष ब्रह्म वा आत्माके शुद्ध स्वरूपको अच्छी तरह जानता है. उसको ब्राह्मण कहते हैं, अथवा जो भब्य श्रावकोक लिए धर्म विधिका निरूपण करता है, उसको ब्राह्मण कहते हैं। जो प्रजाको सुख दे. उसको क्षत्रिय कहते हैं, अथवा जो अपनी आत्मशक्तिके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंको जीत ले, उसको क्षत्रिय कहते हैं । जो अपने मनके परिणामोंको वा पूण्य-पापको सदाका लता है, उसका वैश्य महती हैं, और जो धमके लिए बा द्रव्य उपार्जनके लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इन तीनों वों की सेवा करता रहे, उसको शूद्र कहते हैं।
भावार्थ - इस संसारमें कर्मभूमिमें अनादिकालसे क्षत्रिय, वैश्य शूद्र ये तीन वर्ण चले आते हैं, विदेह क्षेत्र की कर्मभूमिमें भी सदाकाल तीन ही वर्ण रहते हैं। इस हंडावसपिणी कालमें जब भोगभूमिका समय व्यतीत होकर, कर्मभूमि प्रारंभ हुई थी तब भगवान् ऋषभदेवने विदेह क्षेत्रके समान यहां भी तीन ही वर्ण स्थापन किये थे, परंतु उनकी दीक्षा हो जानेपर उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने जब छहो खंड जीत लिए थे तब अपने अपार धनको दान देनेकी उनकी इच्छा हुई थी। उस समय क्षत्रिय वर्णमेसे जो व्रती श्रावक थे, उनकी परीक्षा करके उनको ब्राह्मणवर्णकी दीक्षा दी थी, अर्थात् यह ब्राह्मण वर्ण महाराज भरतने बनाया था। इस संसारमें दान लेनेयोग्य सुयोग पात्रही होते हैं, उन पात्रोंक तीन भेद होते हैं, समस्त पापोंका त्याग करनेवाले तथा पांच महाव्रत, तीन गप्ति, पांच समिति आदि पूर्ण चारित्रको पालन करनेवाले मुनिराज उत्तम पात्र कहलाते हैं । इन मुनिराजोंमें भी आचार्य, उपाध्याय साधुके भेदसे तीन भेद होते हैं। एस प्रकार अणुन त, गुणवत, शिक्षावत