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( शान्तिसुधा सिन्धु )
आदि श्रावकोंके व्रतोंका पालन करनेवाले व्रती - श्रावक मध्यमपात्र कहलाते हैं । इन मध्यमपात्रोंमें जो विशेष व्रती होते हैं, जिनको दाल देने योग्य समझकर भरतने ब्राह्मण संज्ञा दी थी, जो यजय - याजन करने काही मुख्य काम करते हैं. धर्मविधि कराना जिनका मुख्य कर्तव्य है, सिवाय इसके जिनकी और कोई जीविका नहीं है, उनको ब्राह्मण कहते हैं, ये ब्राह्मण मध्यमपाय कहलाते है, तथा सम्यदृष्टि श्रीक जघन्यपात्र कहलाते हैं। इसप्रकार ब्राह्मणोंका लक्षण बतलाया है ।
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ब्राह्मण शब्द ब्रह्म शब्द से बना है, ब्रह्म शब्दका अर्थ आत्मा है, जो आत्माके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है. वह अपने आत्माका कल्याण शीघ्रही कर लेता है । जिस प्रकार भगवान अरहंतदेव अपन आत्माका कल्याण कर लेनेके कारण पूज्य कहलाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणभी अपने आत्माके कल्याण में लगे रहते हैं, तथा अन्य धावकोंको आत्मकल्याण में लगाते रहते हैं, इसलिए वे ब्राह्मणभी मान्य और पूज्य कहलाते हैं । इसप्रकार जो प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, प्रजाको सुख पहुंचाते हैं, सब प्रकारके उपद्रवोंसे प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, परराष्ट्र से प्रजाकी रक्षा करते रहते हैं, और अपने प्रजाके व्यापार आदिको बढाते रहते हैं, उनको क्षत्रिय कहते हैं अथवा जो कर्मरूपी शत्रुओंको जीतकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, उनकोभी यथार्थ क्षत्रिय कहते हैं । वास्तव में क्षत्रियका अर्थ शूर-वीर होता है, और शूर-वीर वही कहलाता है, जो सबसे प्रबल कर्म - शत्रुओंको जीत ले, अर्थात् कर्मीको नष्ट कर मोन प्राप्त कर ले | योद्धाओंको जीतनेवाले बहुत थोडे मिलते हैं. इसलिए कर्मों को जीतनेवालेही यथार्थं क्षत्रिय कहलाते हैं। इसप्रकार जो पुण्यपापको सदाकाल तोलता रहे, कभी पापका बोझ अधिक न होने दे, अथवा जो मनके परिणामोंको सदा तोलता रहे, अशुभ परिणाम न होने दे. शुभ परिणाममेंही सदाकाल अपनी प्रवृत्ति रक्स्वे, उसको वैश्य कहते हैं, जिसप्रकार वैश्य अपना हिसाब बराबर रखता है, उसमें घाटा नही होने देता, उसीप्रकार जो अपने मन-वचन-कायसे पाप कार्योंको नहीं होने देता. सदा पुण्य कार्यमेंही लगा रहता है, उसको वैश्य कहते हैं । इस प्रकार जो धर्म के लिए ब्राह्मणादिकों की सेवा करते हैं, तथा जीविकाक्रे लिए भी क्षत्रिय वैश्योंकी सेवा करता रहता है। मेवा करनाही जिसकी मुख्य जीविका है, उसको शूद्र कहते हैं ।