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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) ३५१ पूर्वोक्तधर्मेण विराजितोस्मि तथा स्वसंवेदनतोहि गम्यः । वाक्कायचित्तश्च निजात्मना वा शान्त्यर्थमेवं भुवि चिन्तनीयः ।। अर्थ- यह मेरा आत्मा क्षमाका स्वामी है, ज्ञानरूपी सूर्यको धारण करनेवाला है, इन्द्रिय दमन करनेवालोंमें सर्व श्रेष्ठ है, कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाला है, अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वरूपका देनेवाला है, अर्थात् इसी शुद्ध आत्माके चितवन करनेसे आत्माके शुद्धताकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिए इसको स्वराज्यका दाता कहते हैं । यह आत्मा अपने आत्मजन्य अनंत आनंदको धारण करता है, और मोक्षरूप साम्राज्यका स्वामी है, इसलिए इसको स्वानंद साम्राज्यविभु कहते हैं । यह आत्मा संसारके समस्त जीवोंको अपने समान समझकर सबपर परम कृपा धारण करता है, इसलिए इसको कृपाका स्वामी कहते हैं । यह आत्मा वस्त्राभषण आदि सबसे रहित है, शरीरसेभी सर्वथा भिन्न है, इसीलिए इसको दिगम्बर कहते हैं । यही मेरा आत्मा अनंतदर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंतवीर्य और अनंत मुणोंको धारण करता है, इसीलिए अनंतमुणात्मक बा अनंतगुणोंको धारण करनेवाला कहलाता है। इस प्रकार इस आत्माके अनेक धर्म वा अनेक गुण बतलाए हैं, उन सबसे यह आत्मा सदाकाल सुशोभित रहता है। ऐसा यह आत्मा किसी इंद्रियसे नहीं जाना जाता, किंतु स्वसंवेदनसे जाना जाता है । अपने आत्माके अनुभवको स्वसंवेदन कहते हैं । उसीसे यह आत्मा जाना जाता है । ऐसा यह आत्मा परम शांति प्राप्त करनेके लिए मन वचन कायसे, वा अपने आत्माकेद्वारा सदाकाल चितवन करने योग्य कहा जाता है। भावार्थ- आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करनेसे आत्माको परम शुद्धता प्राप्त होती है, तथा परम शुद्धता प्राप्त होनेसे,आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है । इसलिए उस परम शांतिको प्राप्त करनेके लिए प्रत्येक भव्य जीवको अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन सदाकाल करते रहना चाहिए । आत्माका कल्याण करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है ! आगे और भी बतलाते हैंसाध्यसाधकभावेन स्वात्मेति व्यवहारतः । चिन्त्यो निश्चयतो नाम नामातीतो निरंजनः ॥ ५१७ ॥
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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