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( शान्तिसुधासिन्धु)
अर्थ- साध्य-साधकमाया यह ना शुरु मामा चितवन करने योग्य है, व्यवहारनयसे उसका नाम चितवन करने योग्य है, और निश्चयनयसे नामरहित और कर्ममलसे सर्वथा रहित शुद्ध स्वात्मा चितवन करने योग्य है।
भावार्थ-- यह अपना आत्मा साधक है। यह आत्मा अपनेही आत्माके द्वारा, अपनेही आत्माका चितवन करके, अपनेही आत्माको शुद्ध करता है, अपनेही आत्मामें लगे हुए कर्मोको नष्ट कर, अपने आत्माको पवित्र एवं निर्मल वनाता है । अतएव यही आत्मा साध्य वा सिद्ध करने योग्य कहलाता है, और यही आत्मा साधक वा सिद्ध करनेका साधन कहलाता है, इस प्रकार साध्य-साधकरूपसे यह अपनाही आत्मा चितवन करने योग्य कहा जाता है, इसके सिवाय व्यबवहारनयसे व्यवहारमें रक्खे हए इस परमात्माके नामही चितवन करने योग्य माने जाते हैं। जैसे चौबीसों तीर्थंकरोंके नाम चितवन करने योग्य माने जाते हैं, पंच परमेष्ठीके नाम चितवन करने योग्य माने जाते हैं। इस प्रकार व्यबहारनयसे पंचपरमेष्ठीके नाम चितवन करने योग्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार समस्त कषायोंसे, समस्त विकारोंसे और समस्त कर्मोसे रहित अत्यंत शुद्ध जो यह आत्मा है, वही नामसे रहित और कर्ममलकलंकसे रहित निरंजन कहलाता है। ऐसा ग्रह निरंजन आत्मा निश्चय नयसे चितवन करने योग्य काहा जाता है। अभिप्राय यह है कि मब अवस्थामें यही आत्मा चितवन करने योग्य है ।
आगे इन सब भावनावोंका सारांश बतलाते हैंसच्छान्तिरेवोत्तमधर्मसिंधुः सच्छान्तिरेवापि परं तपश्च । सच्छान्तिरेवं परमं सुबक स्यात् सच्छान्तिरेवं परमः प्रबोधः॥५१८ ध्यान यथार्थ परमं हि वृत्तं सच्छान्तिरेवापि परं सुखं च । ज्ञातव्यमेवेति यथार्थदृष्टया स्यात्तद्विना सर्वविधिवृथा कौ ॥५१९ यथैव विश्वो जलवृष्टिहीनः कदापि नो तिष्ठति कुंथुसिंधुः । आचार्यवर्यः सुखशांतिमूतिः पूर्वोक्तशान्तेर्न बहिः प्रयाति ॥५२०
___ अर्थ- इस संसारमें जो सर्वोत्तम धर्मरूपी समुद्र कहलाता है, बझी परम शांति स्वरूपही है, इसकाभी कारण यह है कि, धर्म धारण