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( शान्तिसुधासिन्धु )
करनेसे पापोंका राश होता है, और पापोंके नाश होनेसे तथा कषायादिकोंके नष्ट हो जानेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है । इसीलिए आचार्य महाराजने धर्मको परम शांति स्वरूप बनलाया है। इसीप्रकार सर्वोत्कृष्ट तपश्चरणभी शांतिस्वरूप है, तपश्चरण करने से पापकर्मोकामी नाश हो जाता है, और राग, द्वेष, क्रोध, काम, आदि समस्त विकाराता नाश हो जाता है, तथा इसके साथ-साथ तपश्चरण करनेमे यह आत्मा परम निर्मल और अत्यंत शुद्ध हो जाता है । इसप्रकार आत्माके अत्यंत शुद्ध हो जानेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है। इसीलिए इस तपश्चरणको परम शांतिस्वरूप बतलाया है। इसके सिवाय आत्माका जो सर्वोत्कृष्ट सम्यग्दर्शन गुण है वह भी परम शांतिस्वरूप है, क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेसे यह आत्मा अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको जातने लगता है, सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न होनेवाले स्वपरमंदविज्ञानमे यह आत्मा क्रोधादिक कपायोंको विभाव और परकीय परिणाम समझकर उनका सर्वथा त्याग कर देता है, और अपने निर्मल आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । इस प्रकार आत्मा में लीन होने से इस आत्माको परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए इस सम्यग्दर्शन गुणको परम शांतिस्वरूप बतलाया है । इसी प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानको भी परम शांतिस्वरूप बतलाया है। इसका भी कारण यह है कि, सम्यग्ज्ञानके प्रमट होनेसे यह आत्मा अपने स्वरूाका वा अपने गुणोंका त्रिनयन करता है, तथा समस्त बाह्य पदार्थोको व समस्त विभाव भात्रों को परकीय समझकर सर्वथा छोड देता है, और फिर अत्यंत शांत होकर अपने आत्मामें लीन हो जाता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञानसे परम शांतिकी प्राप्ति होती है । इसीलिए सम्यग्ज्ञानको परम शांतिस्वरूप बतलाया है । सम्यक्चारित्रके धारण करनेसे वा पंचपरमेष्ठीका ध्यान करने से अथवा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करनेसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है, समस्त विकारोंका नाश हो जाता है और कर्मों का नाश होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है । मोक्ष प्राप्त होनेपर अनंतमुख और अनंतशांति मिलती है । इस प्रकार ध्यान और तपश्चरण दोनोंही परम शांतीके कारण है, और इसीलिए परम शांतिस्वरूप कहलाते हैं। अथवा ध्यान में ममम्त संकल्प-विकल्प छुटकर यह आत्मा अपने पवित्र और शुद्ध आत्माम लीन हो जाता है, और उस समय परम शांत हो जात है। इसलिए ध्यानको