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( शान्तिसुधासिन्धु )
परम शांतिस्वरूप बतलाया है । सामायिक आदि सम्यक्चारित्रको धारण करनेसे भी समस्त पापोंका त्याग होता है, और मा' गरम हो जाता है. इसलिएही सम्यकचारित्र परम शांतिस्वरूप कहलाता है। इसी प्रकार आत्मजन्य परमसुख, परम शांतिस्वरूप है, अथवा मोक्षम प्राप्त होनेवाला अनंतसुख परम शांतिस्वरूप है, क्योंकि इन दोनोंही सूखोंमें किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती। इंद्रियजन्य सुख में सदा आकुलता बनी रहती है, इसलिए इंद्रियजन्य सुख तो अशांत स्वरूपही है, और इसीलिए आत्म-जन्य सुख निराकुल होनेके कारण, सदाकाल परमशांत स्वरूप माना जाता है । इसप्रकार धर्ममी शांति स्वरूप है, तपश्चरणभी शांति-स्वरूप है, सम्यग्दर्शनमी शांति-स्वरूप है, सम्यग्ज्ञानभी शांतिस्वरूप है, सम्यकचारित्रभी शांति-स्वरूप है, ध्यान भी शांति-स्वरूप है, और आत्मजन्य सुखभी शांति-स्वरूप है । यह यथार्थ दृष्टि से प्रत्यके भव्यजीवको समझ लेना चाहिए। यदि इन धर्मादिकके धारण करने से भी आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर उस धर्मको वा तपश्चरणादिको व्यर्थही समझना चाहिए | जिसप्रकार जलकी वर्षाके विना यह संसार कभी नहीं रहता, उसीप्रकार मुख और परम शांतिकी मति ऐसे आचार्यवर्य श्रीकंधुसागरभी ऊपर लिखी हुई परम शांतिसे बाहर कभी नहीं जाते हैं । अर्थात् इस शांतिसिंधु महाग्रंथके रचयिता आचार्य कुंथसागरभी ध्यान तपश्चरण करते हए तथा रत्नत्रयका पालन करते हुए परम शांत होकर अपने आत्मामें लीन रहते हैं । इसीप्रकार समस्त भव्य जीवोंको अपने आत्मामें परम शांतता धारण करनी चाहिए । यही इस ग्रंथकी रचना करनेका तथा पठन-पाठन करनेका यथार्थ फल है।
इति श्री आचार्यबर्य श्रीकुथुसागरविरचिते शांतिसिंधुग्रंथे परमशांतिस्वरूपवर्णनो नाम पंचमोऽध्यायः । इस प्रकार आचार्यवर्य श्रीकुन्युसागर विरचित श्रीशांतिसिन्धु नामके महाग्रन्थ की 'धर्मरत्न' पं. लालाराम शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीकामें परम शांतिके स्वरूपको वर्णन करनेवाला
यह पांचवा अध्याय समाप्त हुआ।