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( शान्तिसुधासिन्धु)
आत्माका हित करनेमें, पाप्रदान देनेमें, जिनपूजन करनेमें, वन-उपवास करने में, और समाधिमरण धारण करने में कभी असमर्थता नहीं दिखलानी चाहिए, तथा इन कामों को करने कभी लगता नहीं करना चाहिए । इन कामोंको तो बडे उत्साहके साथ करना चाहिए।
प्रश्न - कीयादिप्राप्तिहेतुः कः तद्बोधाय प्रभो बद?
अर्थ- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि कीति ऐश्वय आदि विभति और गुणोंका विशेष हेतु क्या है ? उ. ऐश्वर्यकीर्तेस्तपसः कृपायाः संवेगवैराग्यदयादिकस्य ।
औदार्यसौजन्यगुणादिकादेः ऋद्वेश्च सिद्धविनयाविकानाम् ॥ धैर्यस्य शान्तेः सुगतेः स्थितेश्च स्वराज्यलक्ष्म्याः परतंत्रहंत्र्याः प्राप्तेः सुहेतुः कथितं समर्थ विज्ञानमेकं मुनिनायकेन ।। २८१ ।।
अर्थ – ऐश्वर्य, कीति, तपश्चरण, दया, कृपा, संवेग, वैराग्य, औदार्य, सज्जनता, ऋद्धि, विनय, धैर्य, शान्ति, सुगति. स्थिति और परतंत्रताको हरण करनेवाली स्वराज्यरूपी लक्ष्मीका एक समर्थ हेतु आचार्योने एक विज्ञान अर्थात् स्त्रपरभेदविज्ञानही बतलाया है ।
__भावार्थ- ऊपर लिखी हुई विभूति और सब श्रेष्ठ गुण पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होते हैं, तथा पुण्यकर्मके कारणोंमें सबसे श्रेष्ठ कारण सम्यग्दर्शन है, और सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेपरही स्वपरभेदविजान प्रगट होता है । स्वपरभेद-विज्ञान प्रगट होनेसे यह आत्मा अपने आत्माके स्वरूपको जान लेता है, तथा राग, द्वेष, मोह, कर्म, पुद्गल आदि आत्मामे भिन्न पदार्थोंका स्वरूपभी समझने लगता है, इसलिए वह परपदार्थोंका त्यागकर तथा राग, द्वेष, मोह आदिका सर्वथा त्याग कर, अपने आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता रहता है । इस प्रकार वह दया, कृपा आदि गुणोंको प्रगट कर लेता है, उदारता, सज्जनता आदि गुणोंको प्रगट कर लेता है, और संवेग, वैराग्य गुणोंको धारण कर लेता है । संवेग वैराग्य गुणोंको धारण करनेके कारण तपश्चरण धारण करता है, और तपश्चरण धारण करने के कारण ऋद्धि-सिद्धि आदि गण प्रगट हो जाते हैं, आत्माको निश्चलता प्रगट हो जाती है, परलोकको गति सुधर जाती है, संसार-भर में उसकी कीर्ति फैल जाती है, और आत्माको अलौकिक