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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न - अशक्तता च लज्जा क्व दर्शनीया न वा बद ?
अर्थ- भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस भव्यजीवको अपनी अशक्तता और अपनी लज्जा कहां दिखलानी चाहिए और कहां नहीं दिखलानी चाहिए ? उ. पापार्जने स्यान्यविघातके च निधे कुकृत्ये जनयंचने च ।
स्वात्मप्रशंसान्यविनिन्दनादौ निजागुणोद्योतन एव लज्जा वाच्छादने श्रेष्ठगु गस्य लोके प्रदर्शनीयाऽमतिता ह्यशक्तिः धर्मार्जने कर्मविनाशनादौ लज्जा न कार्या स्वपरोपकारे ॥
अर्थ- इस संसार में इस जीबको पापोंका संग्रह करने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, अपने आत्माका घात करने और अन्य जीवोंका घात करनेमें अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, निंदा करने योग्य नीच कार्योको करने में और अन्य जीवोंको ठगने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए, अपनी प्रशंसा करने और अन्य जीवों की निंदा करने में अपनी असमर्थता और लज्जा दिखानी चाहिए और अपने अवगण दिखलानेमेंभी लज्जा करनी चाहिए । इसके सिवाय श्रेष्ठ गुणों को आच्छादन करने में भी अपनी बुद्धिहीनता और असमर्थता दिखलानी चाहिए, परंतु धर्मका उपार्जन करने में, कर्माको नाश करने में, अपने आत्माका हित करने में और अन्य जीवोंका हित करने में कभी लज्जा और असमर्थता नहीं दिखलानी चाहिए।
___ भावार्थ- संसारमें जितने पापके काम हैं, उन सबमें अपनी असमर्थता और लज्जा दिखलानी चाहिए । इस मनुष्य में लज्जा एक ऐसा गुण है, कि जिसके होनेसे बहुतसे पाप अपनेआप छूट जाते हैं। लज्जालु मनुष्य अपने गुरुजनोंके सामने वा सर्वसाधरणकी जानकारीमें कोईभी बुरा काम नहीं कर सकता, इसलिए आचार्योने श्रेष्ठ श्रावकके लिए लज्जा एक गुण बतलाया है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पांच पाप तो है ही । इसके सिवाय दूसरोंको ठगना, मायाचारी करना, निदा करना आदि भी पापही कहलाते हैं । इनके करने में भी उत्तम श्रावकोंको लज्जा और असमर्थता दिखलाते रहना चाहिए। परन्तु