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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) तृणके समान जान पड़ती है, चक्रवर्तीका साम्राज्यभी तृण के समान जान पड़ता है, श्रेष्ठ कामधेन भी तणके समान जान पडती है. नितामणिरत्नभी तृणके समान जान पडता है, कल्पवृक्षोंका बनभी तृणक समान जान पडता है, और उत्तम भोगभूमिभी तगक समान जान पड़ती है, और मनके अनकल बना हुआ भोजन-पानभी तणके समान जान पडता है, कहां तक कहा जाय, इस संसारमें मुनियोंकी महिमा अबझ्यह अचिंतनीय है. __भावार्थ- इन्द्रकी विभूति बहत बडी विभूति है, और वह विशाल सुखका कारण है, उस इन्द्रकी अनेक देवियां, अनेक अप्सराएं और अनेक देव सदाकाल सेवामें उपस्थित रहते हैं। उसके यहां मैकडो कल्पवृक्ष होते है, जो इच्छानुसार फल देते हैं। इस प्रकार इन्द्रको सम्पत्तिचक्रवर्तीकी नौनिधि, चौदह रलरूप सम्पत्ति महासुख देनेवाली है, काम, धेनु, चितामणिरत्न और कल्पवृक्षोंका बन इच्छानुसार सुख देनवाला है, उत्तम भोगभूमिके मृखभी बहुत उत्तम है, और इच्छानुसार भोजनभी सबको अच्छा लगता है । यह एक-एक सामग्री महासुख देनेवाली है । यदि ये सब सम्पत्तियां एकसाथ मिल जाय तो फिर उन सुखका क्या पूछना है । वह सुख तो इस संसारमें सर्वोत्कृष्ट मुख होगा, परन्तु केवल अपने शुद्ध आरमासे उत्पन्न हुआ सुख, उस मंमारके सर्वोत्कृष्ट सुखसे भी अनंतगणा सुख होता है । इन्द्र. चक्रवर्ती आदिके जितने सूख हैं वे मन पराधीन हैं, वे सुख पूण्य कर्मके आधीन है, और बाह्य सामुग्रीके आधीन हैं । यदि इन दोनोमेसे किसी एकका अभाव हो जाता है, तो उस सुखका अभाव हो जाता है । इसके सिवाय वह मुख क्षणभंगुर है, अवश्य नष्ट होनेवाला है, परन्तु आत्मजन्य सुख न तो किसीके आधीन है और न कभी नष्ट होता है । वह सूख तो केवल अपनेही शुद्ध आत्मास प्राप्त होता है, और अनंतकालतक बरावर बना रहता है । इसलिए वे मुनिराज अपने आत्मजन्य सुखके सामने इन्द्र, चक्रवर्ती, कामधेनु आदिके सुखोंको तृणक समानही समझते हैं, और वास्तवमें वे सब सुख आत्मसुखके सामने तुणकेही समान हैं । इमीलिए आचार्य कहते हैं कि मुनियोंकी महिमाको इस संसार में कोई भी चितवन तक नहीं कर सकता, उनकी महिमा अचित्य है ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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