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________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) विभूति प्राप्त हो जाती है। अंतमें इस स्वपरभेदविज्ञान के कारण परतन्त्रताको नाश करनेवाली मोक्षरूप स्वराज्य-लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है। इसलिए भव्यजीवोंको जिस प्रकार बने, उस प्रकार स्वपरभेदविज्ञान प्रगट कर लेना चाहिए। मोक्ष प्राप्त करनेका यह सबसे मुख्य कारण है। प्रश्न- म्रियतेत्र बिना पुण्यरमुत्र कि करोति स: ? अर्थ- है स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो मनुष्य इस लोकमें पूण्य उपार्जन नहीं करता, बिना पूण्य केही मर जाता है, वह परलोकमें क्या करता है ? उ, पुण्यं न कृत्वात्र सुखस्य मूलं यः कोपि जीवो म्रियते ह्यमुत्र स एव को कुक्करवत्परस्य मुखं सदा पश्यति दीनबुद्धयाना ज्ञात्वेति भव्याः प्रविहाय पापं कुर्वन्तु पुण्यं खलु यत्र तत्र । यतः सुरक्षा भवतां भवेत्को ह्याचन्द्रसूर्य स्खलु विघ्नहीना ॥ अर्थ- इस संसारमें एक पुण्यही सुखका कारण है । जो पुरुष बिना पुण्य किए मर जाता है, वह परलोकमें कुत्ते के समान अत्यंत दीन होकर सदाकाल दरारोंका मुख देखता रहता है। यह समझकर भव्यजीवोंको पापकार्योंका त्याग कर देना चाहिए, और प्रत्येक स्थानपर पुण्यकार्य करते रहना चाहिए। ऐसा करनेसेही जब तक इस संसारमें सूर्य चंद्रमा विद्यमान हैं, तब तक बिना किमी विघ्नके भव्यजीवोंकी रक्षा हो सकती है। भावार्थ- कर्म आठ हैं, उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म तो सर्वथा पापकर्म हैं, तथा वेदनीय, आयु नाम, गोत्र, इन चार कर्मोके शुभ-अशुभके भेदसे दो दो भेद हैं । वेदनीय कर्ममें सातावेदनीय पुण्य है, असातावेदनीय पाप है। शुभ आयु पुण्य है, अशुभ आयु पाप है । शुभ नामकर्म पुण्य है, अशुभ नामकर्म पाप है, तथा ऊंच गोत्र पूण्य है, और नीच गोत्र पाप है। इनमेंसे पुण्यकर्म सूख देनेवाले हैं और पापकर्म दुःख देनेवाले हैं । इस संसारम जितने कार्य हैं, वे भी सब पुण्य-पाप इन दो भागों मेंही बटे हुए हैं, यह मनुष्य प्रत्येक समयमें कुछ न कुछ करताही रहता है । वह या तो
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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