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( शान्तिसुधासिन्धु )
जाता है, और आत्माके यथार्थ स्वरूपी प्राप्ति हो जाती है, तथा इन दोनोंके होनेसे समाधिमरणके समयमें अपने आत्मामें परम शांतिका प्राप्त होना अनिवार्य है। इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है, कि आत्माका स्वरूप जाननेसे विषयकपायोंका त्याग करनेसें, बतोका पालन करनेसे और जनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे अपने आत्मामे परम शांतिकी प्राप्नि अवश्य होती है, और समाधिमरणके समयमें तो होती ही है ।
प्रश्न- किमर्थं क्रियते स्वामिन् सामायिकादिकं भुवि ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें सामायिक, जिनपूजन आदि आषं क्रिया काड किसलिए किया जाता है ? उत्तर - सामायिकादिकं सर्व क्रियाकाण्डस्तमोहरः ।।
शान्त्यर्थ क्रियते प्रीतिः सर्वजीयेषु भक्तितः ॥ ४५३ ॥ सामायिकादिकं कुर्वन् यदि शान्तिन चेतसि । क्रियाकाण्डोऽखिलस्तस्यान्धजीवगतिवद् वृथा ।। ४५४ ।।
अर्थ-- इस संसारमें अज्ञानरूपी अंध:कारको दूर करनेवाला सामायिक आदि समस्त क्रियाकांड किया जाता है, अथवा भक्तिपूर्वक समस्त जीवोंमें प्रेम बा वात्सल्य धारण किया जाता है । जिसप्रकार अंधा पुरुष गमन करता है, और उसका वह गमन करना सब व्यर्थ हो जाता है, उसी प्रकार जो पुरुष सामायिक आदि समस्त क्रियाकांडको करता हुआभी अपने हृदयमें शांति धारण नहीं करता, उसका वह समस्त क्रियाकांड व्यर्थ समझना चाहिए ।
भावार्थ--इस संसारमें समस्त भव्यजीव सामायिक, स्तुति, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, वंदना, स्वाध्याय, जिनपूजन, गासेवा, पात्रदान आदि धावकोंके करनेयोग्य जितने क्रियाकांड करते है, वे सब अपने हृदयमें शांति प्राप्त करनेके लिए करते हैं । सामायिकमें समस्त पापोंका या संकला-विकल्पोंका त्याग हो जाता है, और पंचपरमेष्ठीका, बा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन किया जाता है । ऐसी आवस्थामें उस आत्मामें शांति प्राप्त होना अनिवार्य हो जाता है। जिस पुरुषको सामायिकमेंभी शांति नहीं मिलती, तो समझना चाहिए कि उसको कभी किसी काममें शांति नहीं मिल सकती । अथवा जिस सामायिकमें शांति