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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्राप्त न हो, उस सामायिकको, सामायिकही नही समझना चाहिए, अथवा उस सामायिकको व्यर्थ समझना चाहिए । इसीप्रकार समस्त जीवोंम प्रेम वा वात्सल्य धारण करनेसे भी अत्यंत शांति प्राप्त होती है। परस्परकी शत्रुतामें अत्यंत वैरभाव उत्पन्न होता है, परंतु समस्त जीवों में प्रेम धारण करनेसे परस्परकी सब शत्रुता नष्ट हो जाती है । परस्परकी शत्रुता मिट जानेसे वैरभाव नष्ट हो जाता है, और वैरभाव नष्ट होनेसे शांति प्राप्त हो जाती है। इस प्रकारके वात्सल्य वा प्रेममें भी वैरभाव नष्ट होकर पति कार - हो, तो फिर उस प्रेम वा वात्सल्यको मिथ्याही समझना चाहिए, अतएव आत्मामें परम शांति प्राप्त करने के लिए सामायिक आदि समस्त क्रियाकांडोंका करना प्रत्येक भव्य श्रावकके लिए आवश्यक है।
प्रश्न- किं कि भो चिन्त्यते स्वामिन् सत्यशान्त्यादिहेतवे ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यथार्थ शांति प्राप्त करने के लिए क्या-क्या चितवन करना चाहिए ? ज. केनापि साद ममता न माया द्वेषो न रागो न च मे कुबुद्धिः
तथापि जीवाश्च मया प्रमादात् विराधितास्ते खलु मे क्षमन्ताम् सर्वान् क्षमेऽपीती विशेषशांत्य मनोविशुद्धिः क्रियते विचारः चेच्छांतिहीनश्च फिलोक्तभावो भातीव नैवं मतिहीनमंत्री
अर्थ-- इस संसारमें परम शांति प्राप्त करनेके लिए भव्यजीवको सदाकाल यह विचार करते रहना चाहिए कि, में किसी जीवके साथ वा किसी पदार्थ के साथ न तो ममता धारण करता है। न किसीके साथ माया वा राग-द्वेष धारण करता हूं, और न मैं किमीके साथ कुबुद्धि धारण करता हूं, ऐसा होते हुएभी यदि मझसे किसी जीवकी विराधना हई हो तो, वे जीव मुझे क्षमा करे । तथा अपने आत्मामें विशेष शांति प्राप्त करनेके लिए मैं भी सब जीवोंको क्षमा करता है । इसके सिवाय में इस शांतिके लिएही अपने मनको शुद्ध करता हूं। इसप्रकारके स्थिर विचार सदा रखना चाहता हूं। जिसप्रकार कोई मंत्री बुद्धिहीन हो, तो वह मंत्री, मंत्री पदको योग्य नहीं होता, उसीप्रकार यदि ऊपर लिखे भावोंसे भी शांति प्राप्त न हो तो, वे भाव कभी आत्मकल्याणकारी नहीं होते।