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( शान्तिसुधासिन्धु )
विषयोंका त्याग करना, व्रतोंका पालन करना, और जैन शास्त्रोंका अभ्यास करना, आदि सब तोतेको दढनेके समान व्यर्थही समझना चाहिए।
भावार्थ- आत्मतत्वके यथार्थ स्वरूपको जान करके आत्मा में शांतिका प्राप्त होना अनिवार्य है ! क्योंकि आत्माले यथार्थ स्वरूपकी जानकारीके साथ-साथ स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, तथा स्वपरभेद विज्ञानके प्रगट होतेही यह आत्मा क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद, काम, आदि समस्त विकारोंको तथा समस्त परिग्रहको पर समझकर उनका त्याग करनेका प्रयत्न करता है, और केवल आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । धीरे-धीरे वह संसारसे विरक्त होकर, उन समस्त विकारोंका त्याग कर देता है, और आत्मामें लीन होनेका अभ्यास कर लेता है। ऐसी अवस्थामें उन आत्मामें कमसे कम समाधिमरणके समय तो अवश्य शांति प्राप्त हो जानी चाहिए। यदि ऐसे जीवकोभी समाधिमरणके समय शांति प्राप्त नहीं होती, तो फिर उसके आत्मतत्त्वको जानना, तोतेको पढानेके समान व्यर्थ है । इसी प्रकार विषयोंका त्याग और व्रतोंका पालन भी आत्मामें शांति प्राप्त करनेके लिए किया जाता है। विषयोंका सेवन करना और किसी प्रकारके व्रत नियम पालन न करना, उच्छृखल होकर महापाप किए जाते हैं, वहांपर दुःख और आकुलताही मिलती है, सुख और शांति कभी नहीं मिल सकती। इसलिए सुख और शांतिके लिएही विषयोंका त्याग किया जाता है, और व्रतोंका पालन किया जाता है। यदि इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करकेभी, तथा व्रतोंका पालन करकेभी, समाधिमरणके समय में शांति प्राप्त नहीं हई तो, फिर वह विषयोंका त्याग और व्रतोंका पालन सब व्यर्थ और मिथ्या समझना चाहिए । मरनेके समय समाधिमरण अवश्य हो, और उसमे आत्माको परम शांति प्राप्त हो, इसीलिए विषयोंका-कषायोंका त्याग किया जाता है, और व्रतोंका पालन किया जाता है, समाधिमरणके लिएही यह सब अभ्यास है। इसलिए व्रतोंका पालन करनेसे और विषयोंका त्याग करनेसे समाधिमरणके समय शांति अवश्य प्राप्त होती है। इसमें किमी प्रकारका संदेह नहीं है । इसी प्रकार भगवान जिनेंद्रदेवके कहे हुए शास्त्रोका अभ्यास करना, वा करानाभी, आत्माकी परम शांतिका कारण है । जनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे कषायादिकोंका त्याग हो