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( शान्तिसुधा सिन्धु )
नरकनिगोदादिके दुःख भोगता रहता है । इसलिए सुख और शांति प्राप्त करने के लिए इस मोहका सर्वथा त्याग कर देनाही उचित है । मोहका त्याग हो जानेसे दुःख वा भय अपने आप छूट जाते हैं। दूसरोंकी निंदा, अपनी प्रशंसा करनेसेभी अपना अभिमान सर्वत्र व्याप्त नहीं होता । कभी-कभी तो परनिंदा वा आत्म-प्रशंसा करनेसे बहुत नीचा देखना पडता है, और बहुत दुःख होता है, ऐसी अवस्थामें आत्मसुख वा शांति कभी प्राप्त नहीं होती । इसलिए आत्माको सुख और शांति प्राप्त करनेके लिए परनिंदा वा आत्म-प्रशंसाका त्याग करनाही आवश्यक है। इसप्रकार इन विकारोंका त्याग करनेसे आत्मसुख और शांति प्राप्त होती है । इनका त्याग करकेभी जीनको शांति प्राप्त नहीं होती उनका वास्तविक वह त्याग, त्याग नहीं समझा जाता । व्रत पालन करनेवाला पुरुष यदि निर्दयी हो, तो उसका व्रतपालन करना व्यर्थ है, उसी प्रकार शांतिके बिना इन विकारोंका त्यागभी सर्वथा व्यर्थ है । इसलिए इन विकारोंका त्यागकर परम शांति धारण करना प्रत्येक भव्य जीवका कर्तव्य है
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प्रश्न- पालितस्य व्रतादेः स्यात्कि फलं मे गुरो वद ?
अर्थ -- हे भगवान् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसार में व्रतोंके पालन करने से क्या फल प्राप्त होता हैं ?
उत्तर- ज्ञातस्य स्वात्मतत्त्वस्य त्यक्तस्य विषयस्य वा । पालितस्य व्रतस्थापि पठितस्य श्रुतस्य च ॥। ४५१ ॥ मृत्युकाले फलं तेषां शांतिरेव निजात्मनि । तद्विना केवलं मन्ये शुकपठनवद् वृथा ।। ४५२ ।।
अर्थ- अपने आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूपको जानना, समस्त इंद्रियोंके विकारोंका त्याग करना, व्रतोंका पालन करना, और अरहंतप्रणीत श्रुतज्ञानका अभ्यास करनेका फल समाविमरणके समय अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करना है। यदि आत्मतत्त्वका स्वरूप जानकर भी विषयोंका त्याग करकेभी, व्रतोंका पालन करकेभी, और जिनप्रणीत शास्त्रोंका अभ्यास करकेभी यदि समाधिमरणके समय अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर वह आत्मा के स्वरूपका जानना,