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________________ ( शान्तिमृधारािध ) बरसे बिना उन बादलोंका गरजना व्यर्थ है, उसीप्रकार परम शांनि प्राप्त किए बिना मोहादिकका त्याग करना व्यर्थ है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवोंको मोह, परिग्रह. और लालसाओंका त्याग कर परम शांति धारण करनी चाहिए । यही शांति आत्माके परम सुखका कारण है। प्रश्न- निदारतवाटिकान शयः दिपजन्ति गुरो वद ? अर्थ- हे गुगे ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि भव्य जीव निदा वा स्तुति आदिका त्याग क्यों करते हैं ? उत्तर-स्वात्मस्तवादिकं मलात्परनिन्दादिकं तथा। मृत्युकालभवं दुःखं व्याध्यादिभसंवो भयः ॥ ४४९ ।। इहामुत्रधनेच्छादिस्त्यज्यते सत्यशान्तये । न भाति तद्विना कोपि दयाहीनो व्रती यथा ॥४५० ।। अर्थ- इस संसारमें यथार्थ शांति प्राप्त करनेके लिए अपनी प्रशंमा बा स्तुति करनेका सर्वथा त्याग किया जाता है, दूसरोंकी निंदा आदिका त्याग किया जाता है, मरण समयमें होनेवाले दुःखोंका त्याग किया जाता है, रोगादिसे उत्पन्न होनेवाले भयोका त्याग किया जाता है, और इस लोक तथा परलोकके लिए धनादिकी इच्छाका त्याग किया जाता है । जिस प्रकार दयाके बिना कोई व्रती पुरुष शोभायमान नहीं होता, उसी प्रकार यथार्थ शांतिके बिना स्तुति या निदादिकका त्यागभी सुगोभित नहीं होता। भावार्थ-तीन अभिमानके कारण दुसरेकी निंदा की जाती है, और अपनी प्रशंसा की जाती है, मोहके कारण अंतकाल में दुःख होता है, वा रोगादिकका भय होता है, और लोभके कारण धनादिकी इच्छा होती है । अभिमान, लोभ वा मोह ये तीनोंही महादूःख देनेवाले हैं, आत्माम आकुलता उत्पन्न करनेवाले हैं, और आत्माको परमशांतिका घात करनेबाले हैं। इच्छा करनेसे धनकी प्राप्ति नहीं होती ! धनकी प्रापिल तो लाभान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे होती है। अनएव धन की इच्छा करनेसे आत्माकी शांति वा सुखका घात होता है, इसलिए उस आत्मसुख और शांतिको स्थिर रखने के लिए इच्छाओंका त्याग कर देना परमावश्यक है । इसीप्रकार मोह पद-पदपर दुःख पहुंचाता रहता है । यह प्राणी मोहके कारणही चारों गतियोंम परिभ्रमण करता है, और
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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