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( शान्तिसुधा सिन्धु )
दोनोंही समान माने जाते है । अतएव प्रत्येक भव्यजियको सुख-दुख दोनोंको समान मानकर अपने हृदय में समता तथा सुख और शांति धारण करनी चाहिए। आत्माके कल्याणका सबसे अच्छा उपाय यही है ।
प्रश्न- मोहः संगस्तथा स्वामिन् किमर्थ त्यज्यते स्पृहा ?
अर्थ- हे स्वामिन्! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मोहपरिग्रह या स्पृहाका त्याग किसलिए किया जाता है ?
उत्तर - शान्त्यर्थमेव मोहादिस्त्यज्यते हि परिग्रहः ।
यदि न त्यज्यते सर्वस्तहि त्याज्यः क्रमेण वै ॥ ४४७ ॥ अन्तकाले तु भव्येन त्याज्यैव च हठात्स्पृहा । एवं नो चेद् वृथोद्योगः शरन्मेघध्वनेः समः ॥ ४४८ ॥
अर्थ - इस संसार में आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए मोह वा परिग्रहका त्याग किया जाता है, यदि उस मोह वा परिग्रहका त्याग पूर्ण रीतिसे न हो सके तो फिर उनका त्याग अनुक्रमसे करना चाहिए । तथा अन्तकालमें भव्यजीवों को अपनी समस्त इच्छाओंका वा लालसाओंका त्याग कर देना चाहिए। यदि वह भव्यजीव इन सबका त्याग कर, शांति धारण नहीं करता है, तो फिर शरद ऋतुके मेघोंकी गर्जना के समान उनका सब उद्योग व्यर्थही समझना चाहिए ।
भावार्थ- मोह परिग्रह और लालसाएंही इस संसार में दुःख देनेवाली है। संसार में जितने दुःख हैं, वे सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं । तथा जितनी आकुलताएं हैं, वे सब इन्हींसे उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हीं तीनोंका त्याग करनेसेही परम शांति प्राप्त होती है। उस परमशांतिकी प्राप्ति करनेके लिए प्रत्येक भव्यजीवोंको इन तीनोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। जो भव्यजीव इन तीनोका सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, उनको धीरे-धीरे अनुक्रमसे त्याग करना चाहिए, और इसप्रकार त्याग करते-करते अन्तकाल में समाधिमरणके समय इन तीनोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इन सबका त्याग करते हुएभी यदि आत्मामें परम शांति प्राप्त न हो, तो फिर उनका वह सब त्याग व्यर्थ समझना चाहिए । जिसप्रकार शरद ऋतुके बादल गरजते रहते है, परंतु बरसते नहीं, तथा