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(. शान्तिसुधासिन्धु )
इसप्रकार के सुख-दुःख दोनोंको अनुभव न करते हुए परम शांति धारण करते हैं। यही मोक्षका साधन है, और यही आत्माके कल्याणका उपाय है ।
प्रश्न- यदि न मन्यते दुःखं सुखं तहि कथं भुवि ?
अर्थ- इस संसारमें यदि दुःखको न माना जाय तो न सही परंतु सुम्ब क्यों नहीं माना जा सकता ? सुखको तो सुख मानना चाहिए ? उत्तर-इष्टवस्तुभवं कार्य दृष्ट्वेति मन्यते सुखम् ।
तथानिष्टाविजं कार्य दुःखं दृष्ट्वेति मन्यते ॥ ४४५ ॥ वस्तुतों दुःखदं सर्वमिष्टानिष्टादिवस्तुजम् । यथेह बन्धहेतुत्वाद् हेमायःश्रृंखले समे ॥ ४४६ ।।
अर्थ- इस कामें द्वारा पदार्थोंसे बना होनेवाले कार्योको देखकर सुख मान लेते हैं, तथा अनिष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाले कार्योंको देखकर दुःख मान लेते हैं। परंतु वास्तवमें देखा जाय तो चाहे कोई कार्य इष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाला हो, और घाहे अनिष्ट पदार्थोसे उत्पन्न होनेवाला हो, दोनों प्रकारके कार्य दुःख देनेवाले होते है, जैसे बांधने के लिए संकल होती है वह चाहे सोनेकी हो या लोहेकी हो, दोनोंही संकलोंसे मनुष्य बांधा जाता है, बांधने के लिए दोनों समान है।
भावार्थ- जिसप्रकार यह मनुष्य लोहेकी संकलोसे बांधा जाता हैं, उसीप्रकार सोनेकी संकलसेभी बांधा जाता है । मनुष्यको बांधने के लिए जैसी सोनेकी संकल काम देती है, उसीप्रकार लोहेकी संकल काम देती है। इसीप्रकार जिसप्रकार अनिष्ट पदाथोंके संयोगसे उत्पन्न होने. वाले कार्य दुःख देनेवाले होते हैं, उसीप्रकार इष्ट पदार्थोके संयोगस उत्पन्न होनेवाले कार्यभी दुःख देनेवाले होते हैं। इसका कारण यह है कि, जिसप्रकार अनिष्ट पदार्थोके संयोगोसे उत्पन्न होनेवाले दुःखोंसे आकुलता उत्पन्न होती है, और आत्मजन्य सुख शांतिका घात होता है, उसीतकार इष्ट पदार्थोके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सुखोसेभी आकुलता उत्पन्न होती है, और आत्मजन्य सुखशांतिका घात होता है । इसलिए जिस प्रकार दुःख दुःख देनेवाले हैं, उसीतकार सूखभी दुःखही देनेवाले हैं, आकुलता उत्पन्न होनेके, व सुख शांतिका घात करनेके कारण, सुख-दुख