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________________ । शान्ति सुधासिन्धु ) आगे इसी विषयको विशेष रीतिसे दिखलाते हैंइष्टानिष्टाविसंयोगाज्जातं दुःखं सुखं सदा । सत्यशांतिगवेष्येव मन्यते सदृशं द्वयम् ॥ ४४३ ॥ ज्ञानचक्षुर्विनिर्मुक्तो मूढो हि सुखदुःखम् । यथाम्बु लभते वर्ण तत्परिणमते स्वयम् ।। ४४४ ॥ अर्थ-इस संसारमें इष्ट पदार्थोके वियोगसे, तथा अनिष्ट पदार्थों के संयोगसे महादुःख उत्पन्न होता है, तथा इष्ट पदार्थोंसे, और अनिष्ट पदार्थोके वियोगसे सुख माना जाना है, परंतु सत्य और शांतिको ठूतनेवाले महापुरुष, उन सुख वा दुःख दोनोंको समान मानते हैं । जिसप्रकार पानीका सफेद वर्ण होता है, परंतु उसमें लाल, पीला, नीला, आदि जैसा वर्ण डाल दिया जाय बैसाही वर्ण उसका हो जाता है। उसीप्रकार आत्माके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानरूपी नेत्रोंसे रहित है, ऐसे मूढ पुरुष, इष्ट वियोग बा अनिष्ट संयोगसे उत्पन्न होनेवाले दुःखोंको दुःख मान लेते है, और इष्ट संयोग वा अनिष्ट वियोगसे होनेवाले सुखोंको सुख मान लेता है । भावार्थ- यथार्थ शांतिकी प्राप्ति आत्माके शुद्ध स्वरूप में होती है । जिस पुरुषको उस आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती उसको वह यथार्थ शांतिकी प्राप्ति कभी नहीं होती, तथा जिस पुरुषको यथार्थ शांतिकी प्राप्ति नहीं होती, अथवा आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, वह अज्ञानी जीव धनकी प्राप्ति, वा पुत्र-पौत्रादि प्राप्तिको सुख मान लेता है, और रोगादिककी प्राप्तिको दुःख मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो, पुत्र-पौत्रादिककी प्राप्ति वा रोगादिककी प्राप्ति आत्माके स्वरूपसे सर्वथा भित्र है, और इसलिए वह सुख वा दुःख क्षणिक हैं, तथा पराधीन है, कर्मोके उदयसे प्राप्त होते है। इसलिए समता धारण करनेवाले वा आत्माके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले सम्यग्दृष्टी श्रावक वा मुनि दोनोंही उन समस्त इंद्रियजन्य सुखों वा दुखोंको समान समझते है । वे इष्ट बियोगादिकसे उत्पन्न होनेवाले दुःखको दुःख नहीं समझते, और इष्ट संयोगादिकसे उत्पन्न होनेवाले सुखको सुस्त नहीं समझते। वे जिसप्रकार सुखमें अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं। उसीप्रकार दुःख में भी अपने आश्माके शुद्ध स्वरूपका चितवन करते हैं ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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