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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ- खेती व्यापार आदि जीविकाके साधन और पांचों इंद्रियोंके विषयसेवन करना, व्यवहार कार्य बालौकिक कार्य कहलाते हैं । इन जीविकाके साधन करने में बा इंद्रियोंके विषयसेवन करने में सदाकाल अनेक प्रकारको विपत्तियां आती रहती है, कभी इष्ट-त्रियोग होता है, कभी अनिष्टसंयोग होता है. कभी अनेक प्रकारके रोग होते हैं, कभी निर्धनता होती है, कभी राज्यकी ओरसे अनेक प्रकारकी आपत्तियां आ जाती है, कभी चोर सताते हैं, कभी दुष्ट सताते हैं, और कभी आकस्मिक आपत्तियां आ जाती हैं। इसी प्रकार इन कार्यों में रात-दिन महापाप उत्पन्न होते रहते हैं। जिनके कारण यह जीव नरकनिमोद आदिके महादुःख भोगा करता है, और अनंतकालतक इस मंसारमें परिभ्रमण किया करता है । ये व्यवहारकार्य सब राग द्वेषस उत्पन्न होते हैं, राग-द्वेष उत्पन्न करते रहते हैं । और उन राग-द्वेषके कारण महापाप उत्पन्न होता है। इसलिए इन व्यवहारकार्यो में आत्माकं स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी लोगही मग्न रहते हैं । जो लोग आत्माके यर्थाथ स्वरूपको समझते है, वे इन दुःख देनेवाले व्यवहार कार्यो में कभी नहीं फंसते, वे तो फिर इनका सर्वथा त्याग कर, आत्माके अनपम सुख में सदा लीन रहते हैं। जो लोग आत्मज्ञानसे सदा विमुख रहते हैं. वे ही लोग इन व्यवहारकार्योमें सावधान रहते हैं, तथा आत्माको मुख देनेवाले स्वभावमें फिर वे असावधान हो जाते हैं, सो जाते हैं। उस असावधानीमें आत्माके स्वरूपको न देखने के कारण वे नेत्रहीन कहलाते हैं । आत्माका स्वरूप अपना निजका स्वरूप है । जो मनुष्य अपनही पदार्थको नहीं देख सकता, उसे भला कौन पुरुष नेत्रहीन नहीं कह सकता । इस प्रकार वह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंमें लगे रहनेके कारण महापाप उत्पन्न करता रहता है, पापी होने के कारण उसके सदाकाल पापकर्मोकाही उदय बना रहता है, शुभ कमौका उदय नहीं होता, इसलिए वह भाग्यहीन कहलाता है, तथा पापोंकेही कारण वह नरकगामी होता है, यह समझकर भव्य-जीवोंको इन व्यवहार कार्योंका त्याग कर, आत्माका कल्याण करने के लिए आत्माके कार्यमें लगना चाहिए, सम्यग्दर्शन प्रगट कर, चारित्र धारण कर, मोक्ष प्राप्तकर लेना चाहिए । यही इस संसारमें सार हैं।