SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (शान्तिसुधा सिन्धु ) होती हैं, साधु महात्मा महापवित्र होते हैं, वे अपने पापोंको नष्ट कर देते हैं, अशुभ कर्मोको नष्ट कर देते हैं, और अपने आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रगट कर लेते हैं। जिस प्रकार निर्मल दर्पण में अपना मुंह देखनेसे अपना मुंह स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार निर्मल साधुकोंके दर्शन करने से भी आत्मा अपना पवित्र हो जाता है । साधुओं के समागमसे, उनके उपदेश से यह आत्मा अपने समस्त पापोंका त्याग कर देता है, और चारित्र धारण कर आत्माका कल्याण कर लेता है । इसलिए भव्य जीवोंको सदाकाल साधुओं का समागम करते रहना चाहिए । प्रतिदिन साधुओं का समागम करनेसे किसी न किसी दिन मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है । प्रश्न - केवलं व्यवहारे यो मग्नः स वद कीदृश: ? अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि जो केवल व्यवहारमें ही लीन रहता है, वह कैसा है ? * उ.- विपत्प्रकीर्णे भवदुःखपूर्ण द्वेषादिहेतौ व्यवहारकायें । सेव्ये सदा स्वात्मविमूढजन्तोर्जागर्तियः स्वात्म विचारशून्यः ॥ स एव पापी स च नेत्रहीनः स श्वभ्रगामी स च भाग्यहीनः । सुप्तास्ति शुद्धे सुख दे स्वभावे ज्ञात्येति तत्त्यागविधिविधेयः अर्थ - यहां पर व्यवहार कार्यका अर्थ लौकिक कार्य है । ये लौकिक कार्य अनेक विपत्तियोंसे भरे हुए हैं, जन्म-मरणरूप संसारके दु:खोंसे भरे हुए हैं, राग द्वेषके कारण है, और आत्मा के स्वरूपको न जाननेवाले अज्ञानी जीवही इनकी सेवा करते हैं । जो पुरुष अपने आत्माके स्वरूपका विचारभी नहीं कर सकता, ऐसा अज्ञानी पुरुषही इन व्यवहार कार्यों में सदाकाल जाग्रत रहता है। ऐसा पुरुष महापापी कहलाता है, नेत्रहीन कहलाता है, भाग्यहीन कहलाता है, नरकगामी कहलाता है, और वह सुख देनेवाले स्वभावकी प्रकृतिके लिए सदाकाल सोता साही रहता है । यही समझ कर इन व्यवहारकार्यों का त्याग कर देनाही सबसे अच्छा है ।
SR No.090414
Book TitleShantisudha Sindhu
Original Sutra AuthorKunthusagar Maharaj
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages365
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy